गीता प्रेस, गोरखपुर >> कल्याण कैसे हो कल्याण कैसे होजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है पुस्तक कल्याण कैसे हो ......
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
मनुष्य इस संसार में जन्म लेता है, बड़ा होता है, सन्तान पैदा करता है, धन
कमाता है, बच्चों को शिक्षा दिलाकर उनकी जीविका की व्यवस्था करता है। ये
सब बातें होने पर समझता है कि मैंने अपना कर्त्तव्य पूरा कर
लिया।
वह बहुत बड़े अंधेरे में है। मनुष्य का वास्तविक कर्त्तव्य है जन्म-मरण से
पिण्ड छुड़ाकर भगवत्प्राप्ति कर लेना। इस बात की जानकारी उन महा पुरुषों
से मिलती है जिन्होंने भगवत्प्राप्ति कर ली है और लोगों को इस ओर लगाने
में ही अपना जीवन लगा रखा है। ऐसे महापुरुष हमें भगवत्कृपा से ही मिलते
हैं। श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका ने गीता प्रेस की स्थापना की थी,
जहाँ से ऐसे साहित्य निकलता है, जिसका उद्देश्य लोगों का कल्याण है।
संस्था की मासिक पत्रिका जिसका नाम भी कल्याण है इसी उद्देश्य से प्रकाशित
होती है।
इन महापुरुष के एक ही भाव काम कर रहा था कि मनुष्य जन्म पाकर भी लोग भगवत्प्राप्ति से वंचित रहें, यह कितनी बड़ी भूल है। वे जीवन भर मनुष्यों का ध्यान इसकी ओर दिलाने का भरसक प्रयास करते रहे। इस लक्ष्य को लेकर गीता भवन ऋषि केश में गंगा किनारे सत्संग होता था। विशेषकर ग्रीष्म-ऋतु में 3-4 मास यह साधना सत्संग प्रात: से रात्रि तक चलता रहे, यहाँ से अभ्यास करके अपने स्थानों में जाकर लोग इस साधना में ही लगे रहें, इस हेतु हजारों आदमियों के वहाँ ठहरने की व्यवस्था की जाती थी। वहाँ ग्रीष्म-ऋतु में 3-4 महीने श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका सत्संग कराते थे। वहाँ वटवृक्ष, गंगा का किनारा, वन, पहाड़ों के मध्य ऐसी पवित्र रमणीक वैराग्यमय भूमि में प्रवचनों का बहुत भाई लाभ उठाते थे। उनमें से कुछ भाइयों ने उन मार्मिक प्रवचनों को लिख लिया था। उन प्रवचनों का इस पुस्तक में संकलन किया गया है।
इन प्रवचनों में गृहस्थ भाइयों को ऐसी युक्तियाँ, बातें बतायी गयी हैं जिससे जीवन में तत्काल परिवर्तन हो जाय। पापी से पापी का भी कल्याण कैसे हो ? श्रद्धा-विश्वास, प्रेम पर जोर दिया गया है। विद्वत्ता की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। अनपढ़ आदमी भी अपना भाव, स्वभाव सुधारकर बहुत शीघ्र भगवत्प्राप्ति कर सकता है। भगवन्नाम-जप किस प्रकार करने से विशेष लाभ हो सकता है। ध्यान साकार-निराकार का कैसे हो सकता है ? गीतों में गुह्य, गुह्यतर और गुह्यतम बातें क्या हैं ? श्लोकों का उदाहरण देकर इस विषय को समझाया है। पापा होने में क्या हेतु है। आय होने में प्रारब्ध की ही प्रधानता है। पाप से आय नहीं हो सकती। और भी बहुत-सी बातों के द्वारा मनुष्य का कैसे शीघ्र कल्याण हो, इस विषय को बड़ी सरल भाषा में समझाया गया है।
पाठक भाई-बहिनों से विनम्र निवेदन है कि इस पुस्तक के लेखों को मनपूर्वक जीवन में उतारने के भाव से पढ़ने की कृपा करें। हमें आशा है कि इससे हमारे जीवन में विशेष आध्यात्मिक लाभ होगा। पुस्तक का विषय तो कल्याण करने वाला है ही, महापुरुष का यह संकल्प हमारे लिये बहुत लाभ प्रदायक है। इसलिये इस पुस्तक को आप स्वयं पढ़े और अपने मित्र-बन्धुओं को पढ़ने की प्रेरणा दें, हम आपके बड़े आभारी होंगे।
इन महापुरुष के एक ही भाव काम कर रहा था कि मनुष्य जन्म पाकर भी लोग भगवत्प्राप्ति से वंचित रहें, यह कितनी बड़ी भूल है। वे जीवन भर मनुष्यों का ध्यान इसकी ओर दिलाने का भरसक प्रयास करते रहे। इस लक्ष्य को लेकर गीता भवन ऋषि केश में गंगा किनारे सत्संग होता था। विशेषकर ग्रीष्म-ऋतु में 3-4 मास यह साधना सत्संग प्रात: से रात्रि तक चलता रहे, यहाँ से अभ्यास करके अपने स्थानों में जाकर लोग इस साधना में ही लगे रहें, इस हेतु हजारों आदमियों के वहाँ ठहरने की व्यवस्था की जाती थी। वहाँ ग्रीष्म-ऋतु में 3-4 महीने श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका सत्संग कराते थे। वहाँ वटवृक्ष, गंगा का किनारा, वन, पहाड़ों के मध्य ऐसी पवित्र रमणीक वैराग्यमय भूमि में प्रवचनों का बहुत भाई लाभ उठाते थे। उनमें से कुछ भाइयों ने उन मार्मिक प्रवचनों को लिख लिया था। उन प्रवचनों का इस पुस्तक में संकलन किया गया है।
इन प्रवचनों में गृहस्थ भाइयों को ऐसी युक्तियाँ, बातें बतायी गयी हैं जिससे जीवन में तत्काल परिवर्तन हो जाय। पापी से पापी का भी कल्याण कैसे हो ? श्रद्धा-विश्वास, प्रेम पर जोर दिया गया है। विद्वत्ता की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। अनपढ़ आदमी भी अपना भाव, स्वभाव सुधारकर बहुत शीघ्र भगवत्प्राप्ति कर सकता है। भगवन्नाम-जप किस प्रकार करने से विशेष लाभ हो सकता है। ध्यान साकार-निराकार का कैसे हो सकता है ? गीतों में गुह्य, गुह्यतर और गुह्यतम बातें क्या हैं ? श्लोकों का उदाहरण देकर इस विषय को समझाया है। पापा होने में क्या हेतु है। आय होने में प्रारब्ध की ही प्रधानता है। पाप से आय नहीं हो सकती। और भी बहुत-सी बातों के द्वारा मनुष्य का कैसे शीघ्र कल्याण हो, इस विषय को बड़ी सरल भाषा में समझाया गया है।
पाठक भाई-बहिनों से विनम्र निवेदन है कि इस पुस्तक के लेखों को मनपूर्वक जीवन में उतारने के भाव से पढ़ने की कृपा करें। हमें आशा है कि इससे हमारे जीवन में विशेष आध्यात्मिक लाभ होगा। पुस्तक का विषय तो कल्याण करने वाला है ही, महापुरुष का यह संकल्प हमारे लिये बहुत लाभ प्रदायक है। इसलिये इस पुस्तक को आप स्वयं पढ़े और अपने मित्र-बन्धुओं को पढ़ने की प्रेरणा दें, हम आपके बड़े आभारी होंगे।
।। श्रीहरि: ।।
भगवन्नाम-जप में प्रेम की महिमा
एक भाई ने प्रश्न किया है कि हर समय ॐ जपा जा सकता है या नहीं ?
ॐ वैदिक मन्त्र है; इसलिये इसके जपकी स्त्रियों और शूद्रों के लिये वेद और स्मृतियों में मनाही है। बाकी सबका अधिकार है ही।
कोई-कोई ऐसा भी कहते हैं कि गृहस्थों को ॐ का जप नहीं करना चाहिये। इसका उच्चारण एकान्त, पवित्र देश में करना उत्तम है ही। मन से चाहे जब कर सकते हैं। अपवित्र अवस्था में वाणी के द्वारा उच्च स्वर से ॐ का जप नहीं करना चाहिये। मानसिक जप तो सूतक आदि अशौच में भी किया जा सकता है। उसके लिये तो कोई आपत्ति है ही नहीं।
जिनके लिए इसका निषेध है वे यदि यह समझें कि हमारा कल्याण कैसे होगा ॐ, राम, हरि, गोविन्द-ये सब परमात्मा थे ही शास्त्रीय नाम। किसी का भी उच्चारण करने से एक ही फल मिलता है। यदि ‘ॐ’ का फल अधिक होता है और ‘राम’ का कम होता, तब तो आपत्ति होती। तुलसीदासजी तो सब नामों से ‘राम’ नामको ही श्रेष्ठ समझते हैं, किन्तु वास्तव में कोई भी कम-अधिक नहीं है। जिसको जिस नाम से लाभ मिला, उसने उसी की सर्वोपरी प्रशंसा कर दी।
मेरे विचार से तो राम, ॐ, कृष्ण, हरि, नारायण-सबके
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प्रवचन-तिथि ज्येष्ठ शुक्ल 8, संवत् 2001, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम।
जप का एक ही फल है। इसलिये आपकी जिस नामों में रुचि हो, वही जप सकते हैं। आपको ॐ नाम से जो लाभ होगा, वही स्त्रियों को राम, गोविन्द, कृष्ण नाम के जप से हो सकता है।
ॐ वैदिक मन्त्र है; इसलिये इसके जपकी स्त्रियों और शूद्रों के लिये वेद और स्मृतियों में मनाही है। बाकी सबका अधिकार है ही।
कोई-कोई ऐसा भी कहते हैं कि गृहस्थों को ॐ का जप नहीं करना चाहिये। इसका उच्चारण एकान्त, पवित्र देश में करना उत्तम है ही। मन से चाहे जब कर सकते हैं। अपवित्र अवस्था में वाणी के द्वारा उच्च स्वर से ॐ का जप नहीं करना चाहिये। मानसिक जप तो सूतक आदि अशौच में भी किया जा सकता है। उसके लिये तो कोई आपत्ति है ही नहीं।
जिनके लिए इसका निषेध है वे यदि यह समझें कि हमारा कल्याण कैसे होगा ॐ, राम, हरि, गोविन्द-ये सब परमात्मा थे ही शास्त्रीय नाम। किसी का भी उच्चारण करने से एक ही फल मिलता है। यदि ‘ॐ’ का फल अधिक होता है और ‘राम’ का कम होता, तब तो आपत्ति होती। तुलसीदासजी तो सब नामों से ‘राम’ नामको ही श्रेष्ठ समझते हैं, किन्तु वास्तव में कोई भी कम-अधिक नहीं है। जिसको जिस नाम से लाभ मिला, उसने उसी की सर्वोपरी प्रशंसा कर दी।
मेरे विचार से तो राम, ॐ, कृष्ण, हरि, नारायण-सबके
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प्रवचन-तिथि ज्येष्ठ शुक्ल 8, संवत् 2001, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम।
जप का एक ही फल है। इसलिये आपकी जिस नामों में रुचि हो, वही जप सकते हैं। आपको ॐ नाम से जो लाभ होगा, वही स्त्रियों को राम, गोविन्द, कृष्ण नाम के जप से हो सकता है।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
इस मंत्र के बारे में कलिसंतरणोपनिषद् यह बताया गया है कि साढ़े तीन करोड़
मन्त्र का जप करने से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। वहाँ यह भी स्पष्ट
किया है कि इस नाम को सभी अवस्था में जप सकते हैं। वैदिक मंत्र तो पवित्र
होकर ही जपना चाहिये, उपरोक्त षोडश नाम का जप भी सभी अवस्था में कर सकते
हैं। आजकल इसीलिये षोडश नाम जप के लिये कहा जाता है। दूसरी बात यह भी है
कि ब्रह्माजी ने नारदजी को यह उपदेश करके कल्याण करो। इस समय कलिकाल है
ही। इसलिये नाम की इस समय अधिक महिमा है।
साढ़े तीन करोड़ मन्त्र जप से भगवान् की प्राप्ति हो जाती है; किन्तु लोग उस नाम जप को दूसरे काम में लेते हैं। जप करके उसमें स्त्री, पुरुष, धन चाहे तो वह उसमें से घट जाता है। आपत्ति पड़ने पर भी हमें भगवान् से कोई चीज नहीं माँगनी चाहिये। प्रार्थना करे तो केवल भगवान् के दर्शन के लिये ही करे।
कितने ही भाई यह भी मानते हैं कि यदि हम जोर-जोर से उच्चारण नहीं करके उपांशु जप करें या मानसिक जप करें तो साढ़े तीन करोड़ की जगह साढ़े तीन लाख मन्त्र से ही काम चल सकता है। यह बात मनुस्मृति में बतायी गयी है।
साढ़े तीन करोड़ के लिये जो वचन मिलते हैं, वह तो कलिसंतरणोपनिषद् में मिलते हैं। मानसिक जपका जो महत्त्व बताया गया है, वह मनु स्मृति में है। दोनों को इकट्ठा करके यह कहा जा सकता है कि साढ़े तीन लाख से भगवान् की प्राप्ति हो सकती है। मानसिक जपका फल अधिक है। यह बात युक्तिसंगत है। वाणी के द्वारा जप किया जाता है, उसकी अपेक्षा हजार गुना अधिक लाभ मानसिक जप से होता है, यह बात युक्तिसंगत दीखती है।
साढ़े तीन करोड़ जप से भगवान् की प्राप्ति होती है या नहीं ? मुझे यह बात मालूम नहीं है; किन्तु यह समझ में आता है कि यह संख्या अधिक है। इससे कम में ही भगवान् की प्राप्ति हो सकती है। दस माला कोई बड़ी बात नहीं है, अपितु मानसिक जप बड़ी बात है।
साढ़े तीन करोड़ मन्त्र जप से भगवान् की प्राप्ति हो जाती है; किन्तु लोग उस नाम जप को दूसरे काम में लेते हैं। जप करके उसमें स्त्री, पुरुष, धन चाहे तो वह उसमें से घट जाता है। आपत्ति पड़ने पर भी हमें भगवान् से कोई चीज नहीं माँगनी चाहिये। प्रार्थना करे तो केवल भगवान् के दर्शन के लिये ही करे।
कितने ही भाई यह भी मानते हैं कि यदि हम जोर-जोर से उच्चारण नहीं करके उपांशु जप करें या मानसिक जप करें तो साढ़े तीन करोड़ की जगह साढ़े तीन लाख मन्त्र से ही काम चल सकता है। यह बात मनुस्मृति में बतायी गयी है।
साढ़े तीन करोड़ के लिये जो वचन मिलते हैं, वह तो कलिसंतरणोपनिषद् में मिलते हैं। मानसिक जपका जो महत्त्व बताया गया है, वह मनु स्मृति में है। दोनों को इकट्ठा करके यह कहा जा सकता है कि साढ़े तीन लाख से भगवान् की प्राप्ति हो सकती है। मानसिक जपका फल अधिक है। यह बात युक्तिसंगत है। वाणी के द्वारा जप किया जाता है, उसकी अपेक्षा हजार गुना अधिक लाभ मानसिक जप से होता है, यह बात युक्तिसंगत दीखती है।
साढ़े तीन करोड़ जप से भगवान् की प्राप्ति होती है या नहीं ? मुझे यह बात मालूम नहीं है; किन्तु यह समझ में आता है कि यह संख्या अधिक है। इससे कम में ही भगवान् की प्राप्ति हो सकती है। दस माला कोई बड़ी बात नहीं है, अपितु मानसिक जप बड़ी बात है।
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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