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मरण सागर पारे

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5977
आईएसबीएन :978-81-8361-170

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प्रस्तुत है पुस्तक मरण सागर पारे...

Maran Sagar Pare

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बंकिम तोमार नाम

साहित्य सम्राट बंकिमचन्द्र को उनके जीवन काल ही में जितनी ख्याति मिली थी, वैसी ही उनकी मृत्यु के पश्चात् भी उन्हें मिलती रही, कविताओं के श्रद्धासुमन के रूप में। शायद हिन्दी के अनेक पाठकों ने आज से पचास वर्ष पूर्व, बंकिमचन्द्र की जन्मशती पर लिखी गई विख्यात कविता ‘बंकिमचन्द्र’ न पढ़ी हो, उसे उद्धृत करने का लोभ मैं आज संवरण नहीं कर पा रही हूँ, इसलिए भी कि 1939 में, स्वयं गुरुदेव ने इस कविता की दो पंक्तियाँ मेरे आग्रह पर मेरी नई-नई खरीदी गई ‘दुर्गेशनंदनी’ पर अपने आशीर्वाद सहित लिख दी थीं :

बंकिम तोमार नाम, तव कीर्ति शेई
स्रोते दोले—
बंग भारतीर साथे मिलाए तोमार आयु गनी—
ताई तव करी जयध्वनि


आज, उन पंक्तियों का ध्वंसावशेष ही मेरे पास रह गया है, छात्रावास की ही किसी हस्ताक्षर लोलुप छात्रा, ने उन्हें बड़ी बेरहमी से फाड़कर तिड़ी कर लिया कि केवल ‘आशीर्वाद’ ही मेरे पास रह गया।

बंकिमचन्द्र की लोकप्रियता कैसी रही होगी, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी मृत्यु के पश्चात् अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपनी कविताओं से उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। उनमें श्री अरविन्द भी थे, जिनकी कविता अंग्रेजी में थी; स्वर्ण कुमारी पुत्री सरला सहित उनकी अनन्य प्रशंसिका थीं। यही नहीं, कुछ ने तो उनके जीवनकाल में ही उनके ऐतिहासिक बन गए पात्र-पात्राओं पर कविताएँ लिखीं, जिन्हें पढ़कर प्रसन्न हो स्वयं बंकिंचन्द्र ने उस साहित्य पत्रिका के सम्पादक से कहा, ‘‘कहीं तुमने स्वयं स्त्री का छद्मनाम धारण कर तो ये कविताएँ नहीं लिखीं ?’’ जब संपादक सुरेशचन्द्र समाजपति ने कहा, ‘‘वह वास्तव में एक तरुणी लेखिका सरोज कुमारी की लिखी कविताएँ हैं।’’ तो बंकिमचन्द्र अत्यन्त प्रसन्न हो गए, ‘‘यह सचमुच मेरी प्रशंसिका होगी तब ही तो मेरे उपन्यास इतनी गहराई से पढ़े। मेरे लिए तो यह आनंद का विषय है ही किन्तु लेखिका में भी निश्चित रूप से कविता लिखने की क्षमता है। उससे मेरा आशीर्वाद कहना।’’ उन्हीं सरोज देवी की उन कविताओं में से एक है, ‘मृणालिनी’ :

ऐसा पवित्र प्रेम और कहाँ हैं ?
किन आँखों से तुमने यह सब देखा
तुमने कितने दुःख सहे—
आशा का पथ निहारते-निहारते वासना
मिट गई
शिशिरसिक्त अशोक वृक्ष की भाँति।


आपनार नम्रताय अपनी विलीना—अपनी नम्रता से तुम स्वयं विलीन हो गईं. सुप्त गर्व को हृद में छिपाए—केवल एक विश्वास का आश्रय ले तुम एकटक ध्रुवतारा को ही देखती रहीं—कभी भी अविश्वास की रेखा ने तुम्हारे हृदय को मलिन नहीं किया।

सुकठिन शिलातले उज्ज्वले नयने—
तखनो विश्वास बाधा मधु आलिंगने

जीवनकाल में, बंकिम को केवल प्रशस्ति या वन्दनाबद्ध कविता ही पाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ—वे व्यंग्य-व>िद्रूप, मात्सर्यजनित कटाक्ष का भी केन्द्रबिन्दु बने। कभी-कभी तो उनके क्षुद्र संकीर्णमना शत्रुओं ने उन पर ऐसे व्यंग्यव्यवहार किए का साधारण लेखक होता तो शायद कलम ही पटक देता, किन्तु उन्हें विधाता ने अद्भुत प्रतिभा से मंजित कर ही पृथ्वी पर भेजा था। वे जानते थे कि ऐसी लोकप्रियता, पाठकों का सहज स्नेह उनकी शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करेंगे ही। जहाँ एक ओर अपने अकपट स्नेह से उन्हें रससिक्त करते उनके गुणी पाठक, वहीं कालीप्रसन्न काव्यविशारद जैसे संकीर्णमना लेखक भी थे, जिन्होंने उनकी निन्दा में एक व्यंग्यपुस्तिका ही लिख डाली। पुस्तिका का दाम था एक आना। व्यंग्यपुस्तिका में पहले ही चित्र में साहित्यिक सम्राट को बन्दर रूप में चित्रित किया गया था। कटहलों से लदे वृक्ष के नीचे लम्बी पूछधारी वह बन्दर, ‘बंगदर्शन’ की प्रति एक हाथ में तथा दूसरे हाथ में लेखनी लिए था। (कटहल का पेड़ इसलिए बनाया गया था कि बंकिमचन्द्र ‘कटहल पाड़ा’ में रहते थे और ‘बंगदर्शन’ के सम्पादक थे)। कविता का आरम्भ किया गया था:

काठाल गाछेर काछे
बानर बसिया आछे-
कि बाहार मरे जाई, चरणे पादुका नाँई
चापकने अंग ढाका देखे दुःख हाय-
मरि, की रुपेर छटा हाय-
कमर बंधक आँटा
विलोलित लाँगूवेर की सुषमा हाय !
(कटहल के पेड़ के पास बन्दर बैठा है)
हाय रे, कैसी छटा है-
पैरों में पादुका नहीं है
पूरा शरीर अचकन से ढका है
क्या रूप है, बलिहारी !
कमर में बंधक कसा है
विलोलित पूँछ की क्या छटा है !)

कविता की अन्तिम पंक्तियाँ इतनी कड़वी हैं कि उन्हें किसी रुग्ण मानसिकता के व्यक्ति ने ही लिपिबद्ध किया है, यह स्पष्ट हो जाता है।
वहीं वह रवीन्द्रनाथ की कविता ‘बंकिमचन्द्र’ का पदविन्यास मुग्ध कर देता है।

यात्रीर मशाल चाई, रात्रिर तिमिर
हानिवारे
सुप्ति शैया पार्श्वे दीप वातासे निमिछे
बारे-बारे
कालेर निर्मम वेग स्थविर
कीर्तिरिचलेनाशी
निश्चलेर आवर्जना निश्चिह्न कोथाय
जय भासी
जाहार शक्तिते आछे, अनागत युगरे
पाथेय
सृष्टि यात्राय सेई दिते पारे अपनारदेय
ताई स्वदेशेर तरे तारी लागी, उठिछे
प्रार्थना
भाग्येर जा मुष्टि भिक्षा नईं जीर्ण
शस्याकना
अंकुर उठेना जार, दिनान्तरे
अवज्ञारदान
आरम्भेई जार अवसान
शे प्रार्थना परायेछे हे बंकिम
कालेर जे रव
एनेछो आपन हाते न हे ताड़ निर्जीव
स्थावर
नवयुग साहित्येर उत्स डाठे मन्त्रस्पर्शे
तवॉ
चिरचलमान स्रोते जागाइछ प्रान
अभिनव
ए बंगेर चित्र चलेछे समुद्रेर टाने
नित्य नव प्रम्याशाय फलवान भविष्यत्
पाने
ताई नितेछे आजी से वानीर तरंग
कल्लोले
बंकिम तोमार नाम, तव कीर्ति शेई
स्रोते दोले—
बंग भारतीय साथे मिलाए तोमार आयु
गनी—ताई तव करी जय ध्वनि—

(रात्रि के तिमिर निवारण के लिए, यात्री को मशाल चाहिए। सुप्ति शय्या के पार्श्व में जल रहा दीपक, बार-बार वातास के वेग से बुझ रहा है, काल का निर्मम  वेग स्थविर कीर्ति का नाश कर चला गया-निश्चल की आवर्जना निश्चिह्न हो कहाँ बह गई। सृष्टि की यात्रा में वही अपना देना चुका सकता है जिसकी शक्ति में अनागत युग का पाथेय हो। इसलिए आज स्वदेश की वाणी स्वयं मेरी वाणी बनकर प्रार्थना बन गई है—यह भाग्य की मुष्टि भिक्षा नहीं है, न यह जीर्ण शस्यकण है, इसका अंकुर नहीं फूटता, दिनांत की अवज्ञा का दान है यह, आरम्भ में ही जिसका अवसान हो गया। मेरी प्रार्थना शेष हुई, हे बंकिम, तुम तो काल के जिस रव को स्वयं अपने ही हाथों में लिए चले गए वह निर्जीव-स्थावर नहीं है—नवयुग के साहित्य उत्स को तुमने अपने मन्त्रस्पर्श से अभिनव प्राण दिए। इसी चित्रक्षेत्र में सम्मुख का चुम्बक, नित्य नवीन प्रत्याशा से फलवान भविष्य की ओर हमें खींच रहा है—उसी वाणी की तरंग कल्लोल, हे बंकिम, तुम्हारा नाम बार-बार ले रही है—उसी स्रोत में तुम्हारी कीर्ति सदा रिसी-बसी रहेगी। तुम्हारी आयु की गणना इसी से—बंगभारती की आयु से मिला मैं तुम्हारी जयध्वनि करता हूँ।)

साहित्य सम्राट् की आयु वास्तव में बंगभारती से जुड़ी थी। वे सदा जीवित रहेंगे। बन्देमातरम’ के स्रष्टा की जन्मसार्धशत वार्षिक हम इसी वर्ष मनाएँगे, किन्तु इस सृष्टिशील अद्भुत व्यक्तित्व के विषय में क्या आज भी पाठक समाज के हृदय में वैसा ही जिज्ञासा या वैसा ही कौतूहल रह गया है ? हममें से कितनों ने सम्पूर्ण बंकिम ग्रंथावली पढ़ी है ? हमारे लिए तो बंकिम का रचना संसार वृद्ध प्रपितामह का ही संसार है। जिसे हमने कभी देखा नहीं, उसी प्रपितामही ने किस दक्षता से बांग्लाभाषा की श्रीवृद्धि की एवं अपनी संस्कारशीलता से भावी साहित्यिक पीढ़ी के अंगप्रत्यंग पुष्ट किए, यह हम भूल गए हैं। देखा जाए तो यह गुण प्रपितामही का नहीं, धात्री का ही गुण है, जो अपनी सन्तान को भी अपने दुग्ध से वंचित कर पराई सन्तान को छाती से लगा दुग्धपान कराती है। बंकिम की लेखनी से बँगला तो समृद्ध हुई ही, पराई सन्तान हिन्दी भी उनकी कृतियों से उपकृत हुई और होती रहेगी। जब 1894 में बंकिम की मृत्यु हुई तो रवीन्द्रनाथ की वयस थी तैंतीस वर्ष। उनकी सतेज भाषा शैली पाठकों को मुग्ध कर गई। बंकिम की भाषा में संस्कृत की क्लिष्ठता थी, जटिल समास जो भाषा को महीयसी बनाते थे वहीं कभी-कभी दुरूह भी।

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