संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
दो
बहुत वर्ष पूर्व काठगोदाम से लखनऊ की यात्रा में एक सुरुचिपूर्ण सहयात्री
का साहचर्य मुझे थमा गया था दक्ष पाककला की एक अपूर्व कुंजी जिसे अंग्रेज़ी
में कहते हैं 'मास्टर की'। आज वे नहीं रहे, किन्तु जब कभी कोई अतिथि मेरे हाथ
की बनी किसी भोज्य सामग्री की प्रशंसा करता है, तो मैं उस सहयात्री का बड़ी
कृतज्ञता से स्मरण करती हूँ।
सुस्वादु भोजन की सृष्टि एवं सुस्वादु कहानी की सृष्टि में मुझे बहुत साम्य लगता है, सधी आँच, चरमोत्कर्ष के उस केन्द्रबिन्दु तक पूँजना-न कम न ज्यादा-और समय पर आँच से उतार, कुछ देर दम पर पकने छोड़ देना! उतावली में पकाया गया भोजन हो या उतावली में पकी कहानी-भले ही लाख लटकों से सँवारे जाएँ, कभी हृदय से निकली 'वाह!' का सुख स्रष्टा को नहीं दे सकते।
जहाँ तक मुझे स्मरण है, वे नैनीताल से शाहजहाँपुर जा रहे थे और मैं आकाशवाणी के एक प्रोग्राम में भाग लेने लखनऊ आ रही थी। किसी भी यात्री का सामान, उसके रेल के डिब्बे में आने से पूर्व ही, उसका परिचय दे जाता है। ऐसा ही परिचय मुझे उस दिन भी उनके आने से पहले मिल गया था। क्रोम लेदर का सूटकेस, वैसा ही सुघड़ और कायदे से बँधा बिस्तरबन्द, यह नहीं कि जाड़े के अन्य बिस्तरबंदों की भाँति, बकरा खाए अज़दहे-सा, पेट फुलाए बेशरमी से डिब्बे में घुसा चला आ रहा हो! चाँदी की सुराही और पुरानी पीढ़ी का छ:-मीनारी टिफिन कैरियर, जो अब देखने को भी नहीं मिलता। तब उसका भीमकाय कलेवर देखकर ही भूख लगने लगती थी।
स्वामी के आने से पूर्व ही एक नौकर बड़े सलीके से बर्थ पर उनका बिस्तर लगा गया। आयरिश लिनन की चादर, फेदर पिलो, क्विलटेड सकरपारे की रेशमी रजाई और तकिये के नीचे सुदीर्घ शिकार-टार्च। फिर आए स्वयं कुँअर साहब, इकबर्रा पाजामा, मलमल का दुग्ध-धवल कुरता, आँखों पर सुनहली कमानी का चश्मा, हाथ में मोनोग्राम-अंकित चाँदी का सिगरेट केस। व्यक्तित्वसम्पन्न प्रौढ चेहरे पर पीढियों के आभिजात्य की खाँटी शालीनता थी। खट से पाँच का नोट कुली को थमाया। (यह तब की बात है, जब यात्री से कभीकभार एक रुपया पाने पर ही भारतीय रेल का यह तत्कालीन अल्पसन्तोषी कर्मचारी कृतज्ञता से दोहरा हो जाया करता था। अब तो यह व्यवसायपटु भारवाहक पाँच रुपया अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगा है।)
कुली का कृतज्ञ फर्शी सलाम ग्रहण कर कुँअर साहब हाथ का अंग्रेजी उपन्यास खोल लेट गए। न सहयात्री को देखने का कौतूहल, न अनावश्यक जिज्ञासा, न निरर्थक अशिष्ट कनखियों की ताक-झाँक। बैरा आकर बड़े अदब से खाने के लिए पूछ गया था। "खाना हमारे साथ है," संक्षिप्त-सा उत्तर देकर कुँअर साहब ने फिर किताब खोल ली थी।
खाना तो मेरे साथ भी था; किन्तु कुँअर साहब के कुतुबमीनारी नाश्तेदान को देखती, तो मुझे अपने छोटे-से कटोरदान की अल्पज्ञता चुभने लगती। ट्रेन के साथ उनके डोंगेनुमा टिफिन कैरियर के डिब्बे भी हिचकोले लेते, अपनी क्षीण दरारों से मादक खुशबू की पिचकारियाँ छोड़ने लगे थे। निश्चय ही कुँअर साहब अच्छा-खासा राजसी भोज साथ लेकर चले थे। वह तामसी सुगन्ध निश्चय ही मांस की थी। मैं दुविधा में थी कि क्या करूँ। इससे पहले कि वह महिमामय नाश्तादान खुले, क्यों न मैं अपना पूड़ी-आलू का निरीह डिनर निबटा लूँ? पर यदि ऐसा किया भी तो खाने से पूर्व सामान्य शिष्टाचारवश, सहयात्री से भी आतिथ्य ग्रहण करने का आग्रह करना पड़ेगा। यदि कहूँ तो किस मुँह से? कैसे वह जनू फुके घोर अहिंसात्मक आलू-पूड़ी उनकी ओर बढ़ा दूँ!
मैं सोचने में ही थी कि लालकुआँ आ गया। साथ ही आया उनका वह सलीकेदार भृत्य। और फिर जिस फुरती से उसने स्वामी का नैशभोज सजाया, प्लेट-काँटे-चम्मच खनखनाए, रूमाल में लिपटी हाथी के कान-सी चपातियाँ निकालीं, उसे देख मैं अपनी भूख भूल-बिसर गई।
कुँअर साहब ने तो मुझे नहीं पहचाना। पहचानते भी कैसे? एक-दो बार मैंने उन्हें अपनी ननिहाल में मामा के साथ ब्रिज खेलते देखा था, और एक-दो बार बड़े भाई की शिकार-पार्टी में, किन्तु मैंने उन्हें देखते ही पहचान लिया। मैं बड़े संकोच से अपना कटोरदान खोलने लगी, तो उन्होंने कहा, "क्षमा कीजिएगा, यदि आपको आपत्ति न हो तो मेरे साथ बहुत खाना रखा है। मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी यदि आप मेरा साथ दें। पर आप कहीं निरामिषभोजी तो नहीं हैं?" मैं एक बार फिर धर्मसंकट में पड़ गई। मायके में सामिषभोजी थी, किन्तु ससुराल थी कट्टर निरामिष पंतों में, जहाँ मांस तो दूर, प्याज का छिलका भी चौके में दिख जाए तो हुक्का-पानी बन्द !
इस बीच उन्होंने स्वयं ही पहचान लिया। “अरे, तुम टी.के. की बहन तो नहीं हो?"
"जी हाँ।" मैंने कहा।
“अरे, तब फिर मांस का कैसा परहेज! आओ-आओ, आज हमने बड़े चाव से मोर का गोश्त बनवाया है।"
और फिर जिस स्नेह से उन्होंने स्वयं एक-एक बोटी का चयन कर मुझे खिलाया, बड़े भाई के मित्र नहीं, स्वयं बड़े भाई ही खिला रहे हैं। न वह मुझे पहचानते, न विशुद्ध घृत में पंचतत्त्व को प्राप्त उस मयूर का मांस खाने का सौभाग्य ही मुझे प्राप्त होता।
"क्यों, कभी पहले मोर का मांस खाया है? इसलिए पूछ रहा हूँ कि इसे खाने का अभ्यास न हो तो यह पहले-पहल कड़वा लगता है-यू हैव टु कल्टिवेट ए टेस्ट फार इट?"
"जी, खाया है।" मैंने कहा।
ओरछा महाराज की दावत में जब पहली बार यह मांस खाया, तो लगा कि टर्की और जलमुर्गी के बहुचर्चित मांस को भी म्लान करने में एक यही मांस समर्थ है-जीभ पर धरते ही गलकर बताशा। उस पर महाराज का गोवानीज खानसामा जॉन उसे बनाता भी था सौ नखरों के साथ। पहले सारी रात उसकी पंखहीन काया सिरका-सिक्त करके रख देता, फिर उसे गहरे घी में मन्दी आँच पर भूनता। भूनने में फिर वही सतर्कता कि कहीं आवश्यकता से अधिक गल न जाए। कुँअर साहब के खानसामे ने भी उस दिन मयूरपाककला में कलछुल तोड़कर रख दी थी।
"पसन्द आया?" कुँअर साहब ने पूछा।
“जी हाँ, बहुत।"
"देखो बिटिया, अच्छा गोश्त पकाने में विशुद्ध घी, मसाले, भारी देगची, अच्छी आँच के अलावा जिस सबसे बड़ी चीज का होना जरूरी है, वह क्या है, जानती हो?"
“जी नहीं।"
"धैर्य," उन्होंने हँसकर कहा, "जिसमें धैर्य नहीं है, जो हबड़-दबड़ में चटपट इन्स्टेंट डिश तैयार करना चाहता है, वह कभी अच्छा खाना नहीं पका सकता..."
कैसी ठीक बात कही थी उन्होंने-आज जब तंगम फिलिप, श्रीमती कपूर, दर जैसे पाक-पंडितों-पंडिताइनों की 'इंडियन कुकरी' या 'कश्मीरी डेलिकेसीज़' आदि पुस्तकें पढ़ती हूँ, तो ट्रेन के उस संक्षिप्त सफर में अनायास अर्जित उस लाख टके की सीख का स्मरण हो आता है।
आज हम कहते हैं कि कैसा जमाना आ गया है, न खाने में वह स्वाद रह गया है, न गोश्त में, न सब्जियों में। ऐसा कहना हमारी बहुत बड़ी भूल है। सब्जियाँ भी वही हैं, भारी-भरकम देगचियाँ भी उपलब्ध हैं, पुष्ट बकरे या हिरन या मोर के स्वास्थ्य में भी कोई गिरावट नहीं आई। सधी आँच भी वही है। पर नहीं है धैर्य। यह इन्स्टैंट डिशेज का युग है। इन्स्टैंट चिकन-करी, कैण्ड सूप, कैण्ड कीमा, इन्स्टैंट गुलाबजामुन, जलेबी, दोसा, इडली-सब उपलब्ध हैं। चट खरीदिए और पट बनाइए। पर बिना हींग-फिटकरी के हम चोखा रंग भले ही ले आएँ, वह स्वाद कभी नहीं ला सकते।
आज समय की गति इतनी तीव्र है कि भारी देगची में बोटियाँ या दाल गलाने का प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु कभी-कभी दुःख होता है उस पीढ़ी के लिए, जिसकी जिह्वा उन अपूर्व भोज्य सामग्रियों के स्वाद से अनभिज्ञ ही रह जाएगी, जिनका रसास्वादन कभी हमने किया है। जिसकी अभिज्ञता ने हमारी चिन्तनशक्ति को स्वस्थ और प्रखर बनाया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अच्छा खाया-पिया, अच्छा ओढ़ा-पहना कभी व्यर्थ नहीं जाता; परितृप्त जिह्वा निश्चित रूप से मस्तिष्क को भी परितृप्त कर कुंठा, हीनभावना, संकोच, आत्मग्लानि का समस्त कूड़ा-करकट सदा के लिए बुहार देती है।
वे आठों प्रकार के मांस-मृग, विष्किर, प्रतुद, बिलेशय, प्रसह, महामृग, जलचारी, मत्स्य, जिनके भोज्य प्रकारों की एक विशिष्ट भारतीय परम्परा रही है-अब धीरे-धीरे भारतीय जिह्वा से ही अनजान बनते जा रहे हैं।
सम्राट अशोक को मयूर-मांस अत्यन्त प्रिय था। कलिंग युद्ध के बाद जीवहत्या बन्द हो जाने पर भी सम्राट् इस मांस का मोह नहीं त्याग पाए। उनके लिए नित्य दो मोर और एक हिरन का मांस तैयार किया जाता था।
मोर के मांस को 'नातिपथ्य' कहा गया है। 'नातिपथ्यः शिखी पथ्यः श्रोत्रस्वरवयोदृशाम्'। उसे कान, स्वर, आयु और नेत्र के लिए अत्यन्त गुणकारी माना गया है।
मुझे महाराज ओरछा का वह स्नेहसिक्त आतिथ्य स्मरण हो आता है, जब यही दुर्लभ मांस पकवाकर उन्होंने मुझे विदाभोज पर बुलाया था। उनकी पुत्री सुधाराजा मेरी बालसखी थीं, और उन्हें मेरी मांस-विषयक दुर्बलता ज्ञात थी। इसी से शायद ही कोई ऐसा चर्चित मांस रह गया हो, जिसे उन्होंने न पकवाया हो। चूजों का सूप था, बटेर का शोरबा, तीतर, कश्मीरी चॉप, पसंदा, सीखकबाब, बिरयानी और शाही मुर्ग।
"इतना सब क्यों बनवाया सुधा?" मैंने कहा।
"अरी, अब तो तू पंडितों में जा रही है," महाराज ने हँसकर कहा था, "वहाँ ये सब कहाँ खाएगी? इसी से सुधा ने खुद अटाले में खड़ी होकर सब तेरी मनपसन्द चीजें बनवाई हैं।"
"मुझे तो सब गोश्त पसन्द हैं महाराज, गाय और साँप को छोड़कर मैं सब खा सकती हूँ।"
“और मैं तुझसे दो कदम आगे हूँ," वीरसिंह जू देव ने गम्भीर स्वर में कहा था, "मैं उड़ती चीजों में पतंग और चौपायों में मेज को छोड़ सबकुछ खा सकता हूँ!"
सुस्वादु भोजन की सृष्टि एवं सुस्वादु कहानी की सृष्टि में मुझे बहुत साम्य लगता है, सधी आँच, चरमोत्कर्ष के उस केन्द्रबिन्दु तक पूँजना-न कम न ज्यादा-और समय पर आँच से उतार, कुछ देर दम पर पकने छोड़ देना! उतावली में पकाया गया भोजन हो या उतावली में पकी कहानी-भले ही लाख लटकों से सँवारे जाएँ, कभी हृदय से निकली 'वाह!' का सुख स्रष्टा को नहीं दे सकते।
जहाँ तक मुझे स्मरण है, वे नैनीताल से शाहजहाँपुर जा रहे थे और मैं आकाशवाणी के एक प्रोग्राम में भाग लेने लखनऊ आ रही थी। किसी भी यात्री का सामान, उसके रेल के डिब्बे में आने से पूर्व ही, उसका परिचय दे जाता है। ऐसा ही परिचय मुझे उस दिन भी उनके आने से पहले मिल गया था। क्रोम लेदर का सूटकेस, वैसा ही सुघड़ और कायदे से बँधा बिस्तरबन्द, यह नहीं कि जाड़े के अन्य बिस्तरबंदों की भाँति, बकरा खाए अज़दहे-सा, पेट फुलाए बेशरमी से डिब्बे में घुसा चला आ रहा हो! चाँदी की सुराही और पुरानी पीढ़ी का छ:-मीनारी टिफिन कैरियर, जो अब देखने को भी नहीं मिलता। तब उसका भीमकाय कलेवर देखकर ही भूख लगने लगती थी।
स्वामी के आने से पूर्व ही एक नौकर बड़े सलीके से बर्थ पर उनका बिस्तर लगा गया। आयरिश लिनन की चादर, फेदर पिलो, क्विलटेड सकरपारे की रेशमी रजाई और तकिये के नीचे सुदीर्घ शिकार-टार्च। फिर आए स्वयं कुँअर साहब, इकबर्रा पाजामा, मलमल का दुग्ध-धवल कुरता, आँखों पर सुनहली कमानी का चश्मा, हाथ में मोनोग्राम-अंकित चाँदी का सिगरेट केस। व्यक्तित्वसम्पन्न प्रौढ चेहरे पर पीढियों के आभिजात्य की खाँटी शालीनता थी। खट से पाँच का नोट कुली को थमाया। (यह तब की बात है, जब यात्री से कभीकभार एक रुपया पाने पर ही भारतीय रेल का यह तत्कालीन अल्पसन्तोषी कर्मचारी कृतज्ञता से दोहरा हो जाया करता था। अब तो यह व्यवसायपटु भारवाहक पाँच रुपया अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगा है।)
कुली का कृतज्ञ फर्शी सलाम ग्रहण कर कुँअर साहब हाथ का अंग्रेजी उपन्यास खोल लेट गए। न सहयात्री को देखने का कौतूहल, न अनावश्यक जिज्ञासा, न निरर्थक अशिष्ट कनखियों की ताक-झाँक। बैरा आकर बड़े अदब से खाने के लिए पूछ गया था। "खाना हमारे साथ है," संक्षिप्त-सा उत्तर देकर कुँअर साहब ने फिर किताब खोल ली थी।
खाना तो मेरे साथ भी था; किन्तु कुँअर साहब के कुतुबमीनारी नाश्तेदान को देखती, तो मुझे अपने छोटे-से कटोरदान की अल्पज्ञता चुभने लगती। ट्रेन के साथ उनके डोंगेनुमा टिफिन कैरियर के डिब्बे भी हिचकोले लेते, अपनी क्षीण दरारों से मादक खुशबू की पिचकारियाँ छोड़ने लगे थे। निश्चय ही कुँअर साहब अच्छा-खासा राजसी भोज साथ लेकर चले थे। वह तामसी सुगन्ध निश्चय ही मांस की थी। मैं दुविधा में थी कि क्या करूँ। इससे पहले कि वह महिमामय नाश्तादान खुले, क्यों न मैं अपना पूड़ी-आलू का निरीह डिनर निबटा लूँ? पर यदि ऐसा किया भी तो खाने से पूर्व सामान्य शिष्टाचारवश, सहयात्री से भी आतिथ्य ग्रहण करने का आग्रह करना पड़ेगा। यदि कहूँ तो किस मुँह से? कैसे वह जनू फुके घोर अहिंसात्मक आलू-पूड़ी उनकी ओर बढ़ा दूँ!
मैं सोचने में ही थी कि लालकुआँ आ गया। साथ ही आया उनका वह सलीकेदार भृत्य। और फिर जिस फुरती से उसने स्वामी का नैशभोज सजाया, प्लेट-काँटे-चम्मच खनखनाए, रूमाल में लिपटी हाथी के कान-सी चपातियाँ निकालीं, उसे देख मैं अपनी भूख भूल-बिसर गई।
कुँअर साहब ने तो मुझे नहीं पहचाना। पहचानते भी कैसे? एक-दो बार मैंने उन्हें अपनी ननिहाल में मामा के साथ ब्रिज खेलते देखा था, और एक-दो बार बड़े भाई की शिकार-पार्टी में, किन्तु मैंने उन्हें देखते ही पहचान लिया। मैं बड़े संकोच से अपना कटोरदान खोलने लगी, तो उन्होंने कहा, "क्षमा कीजिएगा, यदि आपको आपत्ति न हो तो मेरे साथ बहुत खाना रखा है। मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी यदि आप मेरा साथ दें। पर आप कहीं निरामिषभोजी तो नहीं हैं?" मैं एक बार फिर धर्मसंकट में पड़ गई। मायके में सामिषभोजी थी, किन्तु ससुराल थी कट्टर निरामिष पंतों में, जहाँ मांस तो दूर, प्याज का छिलका भी चौके में दिख जाए तो हुक्का-पानी बन्द !
इस बीच उन्होंने स्वयं ही पहचान लिया। “अरे, तुम टी.के. की बहन तो नहीं हो?"
"जी हाँ।" मैंने कहा।
“अरे, तब फिर मांस का कैसा परहेज! आओ-आओ, आज हमने बड़े चाव से मोर का गोश्त बनवाया है।"
और फिर जिस स्नेह से उन्होंने स्वयं एक-एक बोटी का चयन कर मुझे खिलाया, बड़े भाई के मित्र नहीं, स्वयं बड़े भाई ही खिला रहे हैं। न वह मुझे पहचानते, न विशुद्ध घृत में पंचतत्त्व को प्राप्त उस मयूर का मांस खाने का सौभाग्य ही मुझे प्राप्त होता।
"क्यों, कभी पहले मोर का मांस खाया है? इसलिए पूछ रहा हूँ कि इसे खाने का अभ्यास न हो तो यह पहले-पहल कड़वा लगता है-यू हैव टु कल्टिवेट ए टेस्ट फार इट?"
"जी, खाया है।" मैंने कहा।
ओरछा महाराज की दावत में जब पहली बार यह मांस खाया, तो लगा कि टर्की और जलमुर्गी के बहुचर्चित मांस को भी म्लान करने में एक यही मांस समर्थ है-जीभ पर धरते ही गलकर बताशा। उस पर महाराज का गोवानीज खानसामा जॉन उसे बनाता भी था सौ नखरों के साथ। पहले सारी रात उसकी पंखहीन काया सिरका-सिक्त करके रख देता, फिर उसे गहरे घी में मन्दी आँच पर भूनता। भूनने में फिर वही सतर्कता कि कहीं आवश्यकता से अधिक गल न जाए। कुँअर साहब के खानसामे ने भी उस दिन मयूरपाककला में कलछुल तोड़कर रख दी थी।
"पसन्द आया?" कुँअर साहब ने पूछा।
“जी हाँ, बहुत।"
"देखो बिटिया, अच्छा गोश्त पकाने में विशुद्ध घी, मसाले, भारी देगची, अच्छी आँच के अलावा जिस सबसे बड़ी चीज का होना जरूरी है, वह क्या है, जानती हो?"
“जी नहीं।"
"धैर्य," उन्होंने हँसकर कहा, "जिसमें धैर्य नहीं है, जो हबड़-दबड़ में चटपट इन्स्टेंट डिश तैयार करना चाहता है, वह कभी अच्छा खाना नहीं पका सकता..."
कैसी ठीक बात कही थी उन्होंने-आज जब तंगम फिलिप, श्रीमती कपूर, दर जैसे पाक-पंडितों-पंडिताइनों की 'इंडियन कुकरी' या 'कश्मीरी डेलिकेसीज़' आदि पुस्तकें पढ़ती हूँ, तो ट्रेन के उस संक्षिप्त सफर में अनायास अर्जित उस लाख टके की सीख का स्मरण हो आता है।
आज हम कहते हैं कि कैसा जमाना आ गया है, न खाने में वह स्वाद रह गया है, न गोश्त में, न सब्जियों में। ऐसा कहना हमारी बहुत बड़ी भूल है। सब्जियाँ भी वही हैं, भारी-भरकम देगचियाँ भी उपलब्ध हैं, पुष्ट बकरे या हिरन या मोर के स्वास्थ्य में भी कोई गिरावट नहीं आई। सधी आँच भी वही है। पर नहीं है धैर्य। यह इन्स्टैंट डिशेज का युग है। इन्स्टैंट चिकन-करी, कैण्ड सूप, कैण्ड कीमा, इन्स्टैंट गुलाबजामुन, जलेबी, दोसा, इडली-सब उपलब्ध हैं। चट खरीदिए और पट बनाइए। पर बिना हींग-फिटकरी के हम चोखा रंग भले ही ले आएँ, वह स्वाद कभी नहीं ला सकते।
आज समय की गति इतनी तीव्र है कि भारी देगची में बोटियाँ या दाल गलाने का प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु कभी-कभी दुःख होता है उस पीढ़ी के लिए, जिसकी जिह्वा उन अपूर्व भोज्य सामग्रियों के स्वाद से अनभिज्ञ ही रह जाएगी, जिनका रसास्वादन कभी हमने किया है। जिसकी अभिज्ञता ने हमारी चिन्तनशक्ति को स्वस्थ और प्रखर बनाया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अच्छा खाया-पिया, अच्छा ओढ़ा-पहना कभी व्यर्थ नहीं जाता; परितृप्त जिह्वा निश्चित रूप से मस्तिष्क को भी परितृप्त कर कुंठा, हीनभावना, संकोच, आत्मग्लानि का समस्त कूड़ा-करकट सदा के लिए बुहार देती है।
वे आठों प्रकार के मांस-मृग, विष्किर, प्रतुद, बिलेशय, प्रसह, महामृग, जलचारी, मत्स्य, जिनके भोज्य प्रकारों की एक विशिष्ट भारतीय परम्परा रही है-अब धीरे-धीरे भारतीय जिह्वा से ही अनजान बनते जा रहे हैं।
सम्राट अशोक को मयूर-मांस अत्यन्त प्रिय था। कलिंग युद्ध के बाद जीवहत्या बन्द हो जाने पर भी सम्राट् इस मांस का मोह नहीं त्याग पाए। उनके लिए नित्य दो मोर और एक हिरन का मांस तैयार किया जाता था।
मोर के मांस को 'नातिपथ्य' कहा गया है। 'नातिपथ्यः शिखी पथ्यः श्रोत्रस्वरवयोदृशाम्'। उसे कान, स्वर, आयु और नेत्र के लिए अत्यन्त गुणकारी माना गया है।
मुझे महाराज ओरछा का वह स्नेहसिक्त आतिथ्य स्मरण हो आता है, जब यही दुर्लभ मांस पकवाकर उन्होंने मुझे विदाभोज पर बुलाया था। उनकी पुत्री सुधाराजा मेरी बालसखी थीं, और उन्हें मेरी मांस-विषयक दुर्बलता ज्ञात थी। इसी से शायद ही कोई ऐसा चर्चित मांस रह गया हो, जिसे उन्होंने न पकवाया हो। चूजों का सूप था, बटेर का शोरबा, तीतर, कश्मीरी चॉप, पसंदा, सीखकबाब, बिरयानी और शाही मुर्ग।
"इतना सब क्यों बनवाया सुधा?" मैंने कहा।
"अरी, अब तो तू पंडितों में जा रही है," महाराज ने हँसकर कहा था, "वहाँ ये सब कहाँ खाएगी? इसी से सुधा ने खुद अटाले में खड़ी होकर सब तेरी मनपसन्द चीजें बनवाई हैं।"
"मुझे तो सब गोश्त पसन्द हैं महाराज, गाय और साँप को छोड़कर मैं सब खा सकती हूँ।"
“और मैं तुझसे दो कदम आगे हूँ," वीरसिंह जू देव ने गम्भीर स्वर में कहा था, "मैं उड़ती चीजों में पतंग और चौपायों में मेज को छोड़ सबकुछ खा सकता हूँ!"
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