अतिरिक्त >> लोक खेल नियमावली एक पुनरीक्षण लोक खेल नियमावली एक पुनरीक्षणचंद्रशेखर चकोर
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प्रस्तुत है पुस्तकलोक खेल नियमावली एक पुनरीक्षण
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
लेखकीय
भारत देश के लिए स्वाधीनता वरदान था। स्वाधीनता के पश्चात विकास के नाम
पर जो औद्योगीकरण एवं शहरीकरण होने लगा वह राष्ट्र की संस्कृति के लिए
अभिशाप सिद्ध हुआ है। देश में आधुनिकीकरण के रूप में मात्र पश्चिमीकरण हो
रहा है जिसका कुप्रभाव ग्रमीण क्षेत्र में तीव्र गति से परिर्वतन ला रहा
है। पश्चिमीकरण के इस कुप्रभाव में इलेक्ट्रानिक क्रांति की भी
महत्वपूर्ण भूमिका रही है। स्वाधीन भारत की पराधीन स्थिति पर लोक संस्कृति
का संरक्षण एवं संवर्धन प्रत्येक भारतीय के लिए चुनौती बन चुकी है।
भारतीय लोक संस्कृति में पारंपरिक लोक खेलों का विशिष्ट स्थान है। पारम्परिक लोक खेलों का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। महाभारत में भी लोक खेलों का उल्लेख मिलता है। भारत गाँवों का देश है और ग्रामीण पष्ठभूमि में लोक खेलों का महत्व सर्वदा रहा है। लोक खेल, ग्रामीण जीवन में, मनोरंजन हेतु सहज में उपलब्ध होने वाला साधन रहा है। स्वाधीनता के पश्चात ऐसे ही साधन उपेक्षित हुए है। इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में जहाँ आधुनिक एवं विदेशी खेल स्थापित हो चुके हैं वहीं भारतीय खेल लुप्त प्रायः होने की स्थिति में है।
पारंपरिक लोक खेलों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु 1989 में मैंने गिल्ली-डंडा पर कार्य किया। प्रतियोगिता के दृष्टिकोण से नियम व शर्ते तैयार कर 1990 में ग्राम-कान्दुल में प्रथम आयोजन किया। आयोजन में आठ दलों ने भाग लिया। स्पर्धा की सफलता ने मुझे लोक खेलो के संग्रह हेतु प्रोत्साहित किया। अब तक सैकड़ों पारंपरिक लोक खेलों का संग्रह किया है और पुस्तक के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूँ।
पारंपरिक लोक खेलों का संकलन अभियान अभी भी जारी है और आगे जारी रहेगा। गिल्ली डंडा प्रतियोगिता की सफलता ने मुझे प्रेरित किया और प्रत्येक वर्ष के आयोजन में नये-नये पारंपरिक लोक खेल जुड़ते गये। ऐसे ही खेल इस पुस्तक में सम्मिलित हैं। पुस्तक का अध्ययन कर उल्लेखनीय खेलों की स्पर्धा किया जाना संभव है। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 2002 में प्रकाशित हुआ था। पारंपरिक लोक खेलों के संस्करण एवं संवर्धन तथा विदेशी खेंलों की लोकप्रियता के बीच भारतीय पहचान के लिए यह पुस्तक उल्लेखनीय सिद्ध हुई है। ‘‘लोक खेल नियमावती एवं पुनरीक्षण’’ नामक इस पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्त्व को ध्यान में रखकर संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण का प्रकाशन कर रहा हूँ।
‘‘टॉस’’ के लिए ‘‘फत्ता’’ शब्द का प्रचलन मिलता है। फत्ता शब्द का उच्चारण इन खेलों के आयोजन में किया जाता है। खेलों के प्रति लोकप्रियता एवं रुचि को बचा रखने के लिए अनिवार्य है कि पुरुष और नारी खेल को नारी वर्ग खेल करें।
भारतीय लोक संस्कृति में पारंपरिक लोक खेलों का विशिष्ट स्थान है। पारम्परिक लोक खेलों का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। महाभारत में भी लोक खेलों का उल्लेख मिलता है। भारत गाँवों का देश है और ग्रामीण पष्ठभूमि में लोक खेलों का महत्व सर्वदा रहा है। लोक खेल, ग्रामीण जीवन में, मनोरंजन हेतु सहज में उपलब्ध होने वाला साधन रहा है। स्वाधीनता के पश्चात ऐसे ही साधन उपेक्षित हुए है। इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में जहाँ आधुनिक एवं विदेशी खेल स्थापित हो चुके हैं वहीं भारतीय खेल लुप्त प्रायः होने की स्थिति में है।
पारंपरिक लोक खेलों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु 1989 में मैंने गिल्ली-डंडा पर कार्य किया। प्रतियोगिता के दृष्टिकोण से नियम व शर्ते तैयार कर 1990 में ग्राम-कान्दुल में प्रथम आयोजन किया। आयोजन में आठ दलों ने भाग लिया। स्पर्धा की सफलता ने मुझे लोक खेलो के संग्रह हेतु प्रोत्साहित किया। अब तक सैकड़ों पारंपरिक लोक खेलों का संग्रह किया है और पुस्तक के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूँ।
पारंपरिक लोक खेलों का संकलन अभियान अभी भी जारी है और आगे जारी रहेगा। गिल्ली डंडा प्रतियोगिता की सफलता ने मुझे प्रेरित किया और प्रत्येक वर्ष के आयोजन में नये-नये पारंपरिक लोक खेल जुड़ते गये। ऐसे ही खेल इस पुस्तक में सम्मिलित हैं। पुस्तक का अध्ययन कर उल्लेखनीय खेलों की स्पर्धा किया जाना संभव है। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 2002 में प्रकाशित हुआ था। पारंपरिक लोक खेलों के संस्करण एवं संवर्धन तथा विदेशी खेंलों की लोकप्रियता के बीच भारतीय पहचान के लिए यह पुस्तक उल्लेखनीय सिद्ध हुई है। ‘‘लोक खेल नियमावती एवं पुनरीक्षण’’ नामक इस पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्त्व को ध्यान में रखकर संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण का प्रकाशन कर रहा हूँ।
‘‘टॉस’’ के लिए ‘‘फत्ता’’ शब्द का प्रचलन मिलता है। फत्ता शब्द का उच्चारण इन खेलों के आयोजन में किया जाता है। खेलों के प्रति लोकप्रियता एवं रुचि को बचा रखने के लिए अनिवार्य है कि पुरुष और नारी खेल को नारी वर्ग खेल करें।
पुरुष खेल-
गिल्ली
डंडा, बनऊ ला, गे़ड़ी दौड़, गेंगे उलानबांटी भौंरा,
भिर्री, पनघुच्चा दौड़, पतंग, झोरफा पतंग पुधव पूक, पिट्टूल।
नारी खेलः-
लंगरची दौड़, तवे लंगरची बिल्लस.,
सोना-चांदी, संखली, फुगड़ी,
गोटा,।
प्रकाशन में सहयोग के लिए संस्था पुधव मंच के प्रमुख सदस्य घनश्याम वर्मा, शिव चंद्राकर मितलेश निषाद परेमेश्वर कोसे, श्रीमती संगीता बंछोर, राजेश वर्मा, गोविन्द धनगर, सुदामा शर्मा, छबिराम साहू के अलावा वरिष्ठ रंगकर्मी एवं चिंतक चंद्रशेखर व्यास, प्रत्येक आयोजन में किसी न किसी माध्यम से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति का आभारी हूँ। मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक के माध्यम से पारंपरिक लोक खेलों को बचाया जाना संभव होगा।
प्रकाशन में सहयोग के लिए संस्था पुधव मंच के प्रमुख सदस्य घनश्याम वर्मा, शिव चंद्राकर मितलेश निषाद परेमेश्वर कोसे, श्रीमती संगीता बंछोर, राजेश वर्मा, गोविन्द धनगर, सुदामा शर्मा, छबिराम साहू के अलावा वरिष्ठ रंगकर्मी एवं चिंतक चंद्रशेखर व्यास, प्रत्येक आयोजन में किसी न किसी माध्यम से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति का आभारी हूँ। मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक के माध्यम से पारंपरिक लोक खेलों को बचाया जाना संभव होगा।
भूमिका
लोकखेलों की अपनी एक अलग ही दुनिया है। अलग से इसलिए कि शहरी लोग अनजाने
में इनसे कटते गये है। मीडिया और आयोजकों की दृष्टि से भी यह बचे रहे। इस
तरह लोक खेलों का परंपरा सिर्फ गांव में ही बची रह गयी। इन खेलों में
प्रतिस्पर्धा के आयोजकों परंपरा नहीं रही पुरस्कार कहां से होते ? लिहाजा
मानवीय कौशल का यह रूप नागर जीवन में अलक्षित ही रहा।
लोक खेल बहुत कम सामग्री में खेल लिये जाते हैं। बहुत खिलाड़ियों में भी। मैदान के माप-जोख एवं खेल उपकरणों के मानवीकरण पर भी कार्य नहीं हुआ। कहा जाता है-‘‘कोस-कोस मां पानी बदले, अढाई कोस मा बानी’’। भारत इतनी विविधताओं वाला देश है फिर यह कहावत खेलों पर भी सटीक लागू बैठी। खिलाड़ियों की आपसी सहमति से नियम तय किये जाते रहे। प्रतियोगिताएं न होने से ‘रेफरी’ या ‘अम्पायर’ की जरूरत ही नही पड़ी। अलग-अलग गांवो में लोगों में खेलों में खेलों के नियमों को लेकर कोई अंतर्क्रिया भी नहीं हो पायी अतः खेल के मूल स्वरूप को बचाये रखने के बाद भी स्थानीय नियमों में बहुत भिन्नता मिलती है।
चन्द्रशेखर ‘चकोर’ को मैंने पिछले एक दशक से इस क्षेत्र में मेहनत करते हुए देखा है। वे इन खेलों में नियमों और सामग्री के मानवीकरण में सफल रहे हैं। यह बहुत साफ बात है कि यदि इन खेलों में नियमों और सामग्री के मानवीकरण में सफल रहे हैं। यह बहुत साफ बात है कि यदि इन खेलों में प्रतियोगिताएं और पुरस्कार नहीं होंगे तो इनमें लगने वाला मानवीय कौशल विकास नहीं कर पायेगा। अगर ओलम्पिक खेल न होते हम कैसे जान पाते कि दुनिया में 100 मीटर दौड़ का सबसे तेज धावक कौन है और किसका रिकार्ड क्या है। पिछले रिकार्ड को तोड़ने की कोशिश मनुष्य को हमेशा विकास की ओर ले जाती है।
चन्द्रशेखर ‘चकोर’ ने इस तथ्य को अन्दर तक पहचाना और प्रतियोगिताओं के आयोजन किये। इस पुस्तक में उन नियमों के मानक रूप को प्रस्तुत किया गया है। छत्तीसगढ़ अंचल में या नियम लगभग सभी खिलाड़ियों को मान्य हैं। इनमें अब भी परिवर्धन एवं परिमार्जन की गुंजाइश है लेकिन यह तभी सम्भव होगा जब इन नियमों के अन्तर्गत व्यापक प्रतियोगिताएं हों। आखिर ऐसी ही कोशिशों से कबड्डी लोक खेल में एशियाड खेलों में शामिल हो सका।
कबड्डी, खो, गिल्ली, भिर्री तुवे, लंगरची आदि खेलों में चूक जाने वाला खिलाड़ी ’मर’ जाता है। उसे नागर खेलों की तरह ‘आउट’ नहीं कहा जाता। वह जिन्दा होकर पुनः खेल में शामिल होता है। कबड्डी में तो अपनी सांस टूटने तक खिलाड़ी अपने लक्ष्य को छूने का संघर्ष करता है असफल होने पर वह मर जाता है।
लोक खेल हमें बहुत भोले-भाले तरीकों से बताते हैं कि जो खेल में शामिल नहीं है वह मर गया है। इस मृत्यु के खिलाफ हमारी खिलाड़ी भावना ही जीवन दे सकती है। इस पुस्तक का व्यापक स्वागत हो-मेरी अनंत शुभकामनाएँ।
लोक खेल बहुत कम सामग्री में खेल लिये जाते हैं। बहुत खिलाड़ियों में भी। मैदान के माप-जोख एवं खेल उपकरणों के मानवीकरण पर भी कार्य नहीं हुआ। कहा जाता है-‘‘कोस-कोस मां पानी बदले, अढाई कोस मा बानी’’। भारत इतनी विविधताओं वाला देश है फिर यह कहावत खेलों पर भी सटीक लागू बैठी। खिलाड़ियों की आपसी सहमति से नियम तय किये जाते रहे। प्रतियोगिताएं न होने से ‘रेफरी’ या ‘अम्पायर’ की जरूरत ही नही पड़ी। अलग-अलग गांवो में लोगों में खेलों में खेलों के नियमों को लेकर कोई अंतर्क्रिया भी नहीं हो पायी अतः खेल के मूल स्वरूप को बचाये रखने के बाद भी स्थानीय नियमों में बहुत भिन्नता मिलती है।
चन्द्रशेखर ‘चकोर’ को मैंने पिछले एक दशक से इस क्षेत्र में मेहनत करते हुए देखा है। वे इन खेलों में नियमों और सामग्री के मानवीकरण में सफल रहे हैं। यह बहुत साफ बात है कि यदि इन खेलों में नियमों और सामग्री के मानवीकरण में सफल रहे हैं। यह बहुत साफ बात है कि यदि इन खेलों में प्रतियोगिताएं और पुरस्कार नहीं होंगे तो इनमें लगने वाला मानवीय कौशल विकास नहीं कर पायेगा। अगर ओलम्पिक खेल न होते हम कैसे जान पाते कि दुनिया में 100 मीटर दौड़ का सबसे तेज धावक कौन है और किसका रिकार्ड क्या है। पिछले रिकार्ड को तोड़ने की कोशिश मनुष्य को हमेशा विकास की ओर ले जाती है।
चन्द्रशेखर ‘चकोर’ ने इस तथ्य को अन्दर तक पहचाना और प्रतियोगिताओं के आयोजन किये। इस पुस्तक में उन नियमों के मानक रूप को प्रस्तुत किया गया है। छत्तीसगढ़ अंचल में या नियम लगभग सभी खिलाड़ियों को मान्य हैं। इनमें अब भी परिवर्धन एवं परिमार्जन की गुंजाइश है लेकिन यह तभी सम्भव होगा जब इन नियमों के अन्तर्गत व्यापक प्रतियोगिताएं हों। आखिर ऐसी ही कोशिशों से कबड्डी लोक खेल में एशियाड खेलों में शामिल हो सका।
कबड्डी, खो, गिल्ली, भिर्री तुवे, लंगरची आदि खेलों में चूक जाने वाला खिलाड़ी ’मर’ जाता है। उसे नागर खेलों की तरह ‘आउट’ नहीं कहा जाता। वह जिन्दा होकर पुनः खेल में शामिल होता है। कबड्डी में तो अपनी सांस टूटने तक खिलाड़ी अपने लक्ष्य को छूने का संघर्ष करता है असफल होने पर वह मर जाता है।
लोक खेल हमें बहुत भोले-भाले तरीकों से बताते हैं कि जो खेल में शामिल नहीं है वह मर गया है। इस मृत्यु के खिलाफ हमारी खिलाड़ी भावना ही जीवन दे सकती है। इस पुस्तक का व्यापक स्वागत हो-मेरी अनंत शुभकामनाएँ।
लंगरची दौड़
प्रत्येक खिलाड़ी एक लकीर पर क्रमवार खड़े होते हैं। सुसीरिया का संकेत
मिले इससे पूर्व ही वह लंगरची के लिए तैयार होते हैं। प्रत्येक खिलाड़ी एक
पैर पर खड़े हो जाते हैं। दूसरा पैर घुटने पर से पीछे की ओर मोड़ लिया
जाता है। इस अवस्था में शरीर का सम्पूर्ण भार एक ही पैर पर हो जाता है।
सुसीरिया संकेत देता है। प्रत्येक खिलाड़ी एवं पैर से उछल-उछल कर आगे की
ओर बढने लगता है। जिस लकीर से उछलकर आगे बढ़ना (लंगरची दौड़ का प्रारंभिक
स्थान) प्रारंभ किया था उससे 50 मीटर की दूरी पर उनका लक्ष्य होता है।
इसमें चेहरा सामने की ओर होता है। और नजर भी। जो पहले 50 मीटर की दूरी तय
करता है वह विजेता और उसके बाद वाला उपलविजेता बनता है लंगरची दौड़ के समय
जिस पैर को प्रारंभ में घुटने से मोड़ लिया जाता है। उसे परिवर्तित करने
की अनुमति नहीं होती। जो उसे परिवर्तन करता है या जमीन पर रख देता है तो
उस खिलाड़ी को असफल मान कर स्पर्धा से बाहर कर दिया जाता है।
तुवे लंगरची
‘‘तुवे लंगरची’’ का खेल दो दलों
के बीच सम्पन्न
होती है। में कुल नौ (9) खिलाड़ी होते है। इस स्पर्धा में सुसीरिया मैदान
से बाहर खुरदान’ की ओर खड़ा रहता है आवश्यकतानुसार वह खेल के
मैदान
के बाहर सभी तरफ जा सकता है स्पर्धा प्रारम्भ करने से पूर्व अंक लिखने
वाला एक व्यक्ति भी तय कर लिया, जाता है।
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लोगों की राय
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