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विवेकानन्द साहित्य >> वर्तमान भारत

वर्तमान भारत

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :35
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5960
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक वर्तमान भारत......

Vartman Bharat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

स्वामी विवेकानन्दकृत ‘वर्तमान भारत’ का यह चौदहवाँ संस्करण हैं।
प्रस्तुत पुस्तक स्वामीजी के ‘उद्बोधन’ पत्रिका (मार्च 1899) में प्रकाशित एक बँगला लेख का अनुवाद है। इस में स्वामीजी ने भारत के प्राचीन गौरव का सुन्दर चित्र खींचा है तथा उन बातों को भी सम्मुख रखा है जिनके कारण इस राष्ट्र की अवनति हुई इस पुस्तक में स्वामीजी ने बड़े आकर्षण ढंग से भारत के राष्ट्रीय ध्येयों की विवेचना की है तथा इस बात पर जोर दिया है कि यदि भारतवासियों को अपने राष्ट्र का पुनरुत्थान वांछित है तो यह प्रयत्न करना चाहिए कि उनमें नि:स्वार्थ सेवाभाव तथा आदर्श चारित्र्य आ जाएँ।

हमें आशा है कि यह पुस्तक पाठकों के लिए विशेष लाभादायक सिद्ध होगी।

प्रकाशक

वर्तमान भारत

प्राचीन भारत में पुरोहित-शक्ति

वैदिक पुरोहित मन्त्रबल1 से बलवान थे। उनके मन्त्रबल से देवता आहूत होकर भोज्य और पेय ग्रहण करते और यजमानों2 को वांछित फल प्रदान करते थे। इससे राजा और प्रजा दोनों ही अपने सांसारिक सुख के लिए इन पुरोहितों का मुँह जोहा करते थे। राजा सोम3 पुरोहितों का उपास्य था। इसीलिए सोमाहुति चाहनेवाले देवता, जो मन्त्र से ही पुष्ट होते और वर देते थे, पुरोहितों पर प्रसन्न थे। दैव बल के ऊपर मनुष्यबल कर ही क्या सकता है ? मनुष्यबल के केन्द्र राजा लोग भी तो उन्हीं पुरोहितों की कृपा के भिखारी थे। उनकी कृपादृष्टि ही राजाओं के लिए काफी सहायता थी और उनका आशीर्वाद ही सर्वश्रेष्ठ राजकर था।

 पुरोहित लोग राजाओं को कभी डर दिखाकर आज्ञाएँ देते, कभी उनके मित्र बनकर सलाहें देते, और कभी चतुर नीति के जाल बिछाकर उन्हें फँसाते थे। इस प्रकार उन लोगों ने राजकुल को अनेक बार अपने वश में किया है। राजाओं को पुरोहितों से डरने का सब से मुख्य कारण यह था कि उनका यश और अनेक पूर्वजों की कीर्ति पुहोहितों की ही लेखनी के अधीन थी। राजा अपनी जिन्दगी में कितना ही तेजस्वी और कीर्तिमान प्रजा का माँ-बाप ही क्यों न हो, पर उसकी वह अत्युज्ज्वल कीर्ति समुद्र में गिरी हुई ओस की बूँद की तरह कालसमुद्र में सदा के लिए विलीन हो जाती थी। केवल अश्वमेधादि बड़े बड़े याग-यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले तथा बरसात को बादलों की तरह ब्राह्मणों
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1.    यज्ञ करते समय देवताओं के आह्वान के लिए पुरोहित वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता था।
2.    यज्ञ करनेवाला पुरोहित यजमान कहलाता है।
3.    सोमलता का वेदों में आया हुआ नाम। पुरोहित यज्ञ के समय देवताओं को सोम की आहुति देते थे।
के ऊपर धन की झड़ी लगाने वाले राजाओं के ही नाम इतिहास के पृष्ठों में पुरोहितों-प्रसाद से जगमगा रहे हैं। आज देवताओं के प्रिय ‘प्रियदर्शी धर्मशोक’4 का नाम केवल ब्राह्मणजगत् में रह गया है, पर परीक्षित्-पुत्र जनमेजय5 से बालक, युवा वृद्ध-सभी भलीभाँति परिचित हैं।

राजा और प्रजा


राज्यरक्षा, अपने भोगविलास, अपने परिवार की पुष्टि और सब से बढ़कर पुरोहितों की तुष्टि के लिए राजा लोग सूर्य की भाँति अपनी प्रजा का धन सोख लिया करते थे। बेचारे वैश्य लोग ही उनकी रसद और दुधार गाय थे।

भारत में संगठित प्रजाशक्ति का अभाव

प्रजा को उगाहने या राज्यकार्य में मतामत प्रकट करने का अधिकार न हिन्दू राजाओं के समय में। यद्यपि महाराज युधिष्ठिर वारणावत में वैश्यों और शूद्रों के घर गये थे, अयोध्या की प्रजा ने श्रीरामचन्द्र को युवराज बनाने के लिए प्रार्थना की थी तथा सीता के वनवास तक के लिए छिप-छिपकर सलाहें भी की थीं, फिर भी प्रत्यक्ष रूप से किसी स्वीकृत राज्यनियम के अनुसार प्रजा किसी विषय में मुँह नहीं खोल सकती थी। वह अपने सामर्थ्य तो अप्रत्यक्ष और अव्यवस्थित रूप से प्रकट किया करती थी। उस शक्ति के अस्तित्व का ज्ञान उस समय भी उसे नहीं था। इसी से उस शक्ति को संगठित करने का उसमें न उद्योग था और इच्छा ही। जिस कौशल से छोटी शक्तियाँ आपस में मिलकर प्रचण्ड बल संग्रह करती है, उसका भी पूरा अभाव था।

क्या यह नियमों के अभाव के कारण था ? नहीं। नियम और विधियाँ सभी थीं। करसंग्रह, सैन्यप्रबन्ध, न्यायदान, दण्ड-पुरस्कार आदि सब विषयों के लिए सैकड़ों नियम थे, पर सब की जड़ में वही ऋषिवाक्य,
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4.    बौद्ध धर्म ग्रहण करने पर अशोक का दूसरा नाम।
5.    महाभारत में उल्लिखित सर्पयज्ञ जनमेजय ने ही सम्पादित किया था।
दैवशक्ति अथवा ईश्वर की प्रेरणा थी। न उन नियमों में जरा भी हेरफेर हो सकता था, और न प्रजा के लिए यही सम्भव था कि वह ऐसी शिक्षा प्राप्त करती जिससे आपस में मिलकर लोकहित के काम कर सकती, अथवा राजकर के रूप में लिये हुए अपने धन पर अपना स्वत्व रखने की बुद्धि उसमें उत्पन्न होती, या यही कि उसके आय-व्यय के नियमन करने के अधिकार प्राप्त करने की इच्छा उसमें होती।

फिर ये सब नियम पुस्तकों में थे। और कोरी पुस्तकों के नियमों में तथा उनके कार्यरूप में परिणत होने से आकाश-पाताल का अन्तर होता है। सैकड़ों अग्निवर्णों6 के पश्चात् एक रामचन्द्र का जन्म होता है। जन्म से चण्डाशोकत्व दिखाने वाले राजा अनेक होते हैं, पर धर्माशोकत्व7 दिखानेवाले कम होते हैं। औरंगजेब जैसे प्रजाभक्षकों की अपेक्षा अकबर जैसे प्रजारक्षकों की संख्या बहुत कम होती है।

रामचन्द्र, युधिष्ठिर, धर्मशोक अथवा अकबर जैसे राजा हों भी तो क्या ? किसी मनुष्य के मुँह में यदि सदा कोई दूसरा ही अन्न डाला करता हो, तो उस मनुष्य की स्वयं हाथ उठाकर खाने की शक्ति क्रमश: लुप्त हो जाती है। सभी विषयों में जिसकी रक्षा दूसरों द्वारा होती है, उसकी आत्मरक्षा की शक्ति कभी स्फुरित नहीं होती। सदा बच्चों की

6.    अग्निवर्ण एक सूर्यवंशी राजा था। यह अपनी प्रजा से मिलता नहीं था। रातदिन अन्त:पुर में ही रहा करता था। अत्यधिक इन्द्रियपरायणता के कारण उसे यक्ष्मारोग हो गया और उसी से उसकी मृत्यु हुई।

7.    भारत का एकच्छत्र सम्राट अशोक। इसने ईशा से करीब तीन सौ वर्ष पहले राज्य किया था। भ्रातृहत्या इत्यादि नृशंस कार्यों के द्वारा राजसिंहासन प्राप्त करने के कारण यह पहले चण्डाशोक के नाम से प्रसिद्ध था। कहा जाता है कि सिंहासनप्राप्ति के करीब नौ वर्ष बाद बौद्ध धर्म ग्रहण करने पर इसके स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ। भारत तथा अन्यान्य देशों में बौद्ध धर्म का बहुल प्रचार इसी के द्वारा सम्पन्न हुआ। भारत, काबुल, ईरान तथा पैलेस्टाइन आदि देशों में अब तक जो स्तूप, स्तम्भ एवं पर्वतों पर अंकित आदेश आदि आविष्कृत हुए हैं, उनसे इस बात का प्रचुर प्रमाण मिलता है। इस धर्मानुराग और प्रजावात्सल्य के कारण ही यह बाद में ‘देवानां पियो पियदशी’ (देवताओं का प्रियदर्शन) धर्मशोक के नाम से विख्यात हुआ।

भाँति पलने से बड़े बलवान युवक भी लम्बे कदवाले बच्चे ही बने रहते हैं। देवतुल्य राजा की बड़े यत्न से पाली हुई प्रजा की भी स्वायत्त-शासन (Self Government)  नहीं सीखती। सदा राजा का मुँह ताकने के कारण वह धीरे धीरे कमजोर और निकम्मी हो जाती है। यह पालन और रक्षण भी बहुत दिनों तक रहने से सत्यानाश का कारण होता है।

जो समाज महापुरुषों के अलौकिक, अतीन्द्रिय ज्ञान से उत्पन्न शास्त्रों के अनुसार चलता है, उसका शासन राजा-प्रजा, धनी-निर्धन, पण्डित-मूर्ख, सब पर कायम रहना विचार से तो सिद्ध होता है, पर यह कार्यरूप में कहाँ तक परिणत हो सका है, या होता है, यह ऊपर बताया जा चुका है। राजकार्य में प्रजा की अनुमति लेने की पद्धति-जो आजकल के पाश्चात्य जगत् का मूलमंत्र है और जिसकी अन्तिम वाणी अमेरिका के घोषणापत्र में डंके की चोट पर इन शब्दों में सुनायी गयी थी कि ‘‘इस देश में प्रजा का शासन प्रजा द्वारा और प्रजा के हित के लिए होगा’’- भारत में नहीं थी, यह बात भी नहीं है। यवन परिव्राजकों ने बहुत छोटे छोटे गणतन्त्र राज्य इस देश में देखे थे। बौद्ध ग्रन्थों में भी इस बात का उल्लेख कहीं पाया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ग्रामपंचायत में गणतान्त्रिक शासनपद्धति का बीज अवश्य था और अब भी अनेक स्थानों में है। पर वह बीज जहाँ बोया गया वहाँ अंकुरित नहीं हुआ। यह भाव गाँव की पंचायत को छोड़कर समाज तक बढ़ ही नहीं सका।

    

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