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विवेकानन्द साहित्य >> पवहारी बाबा

पवहारी बाबा

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :19
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5949
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक पवहारी बाबा....

Pavhari Baba

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

प्रस्तुत पुस्तक पाठकों के सम्मुख रखते हुए हमें बड़ा हर्ष होता है। यह पुस्तक मौलिक रूप में स्वामी विवेकानन्दजी द्वारा अँग्रेजी में लिखी गई थी—उसी का हिन्दी अनुवाद आज आपके हाथ में है। पवहारी बाबा के प्रति स्वामी जी की बड़ी श्रद्धा और निष्ठा थी। इन महात्माओं का जीवन कितना उच्च तथा उनकी आध्यात्मकि साधनाएँ कितनी महान् थीं इसका संक्षिप्त विवरण हमें इस पुस्तक से प्राप्त होगा। हम कह सकते हैं कि उनके जीवन-काल की समस्त घटनाएँ हमारे लिए स्फूर्तिदायी एवं पथप्रदर्शक हैं।
हमें विश्वास है कि इस पुस्तक से हिन्दी जनता को धार्मिक क्षेत्र में स्फूर्ति एवं प्रोत्साहन प्राप्त होगा।

प्रकाशक

पवहारी बाबा

(गाजीपुर के विख्यात साधु)

प्रथम अध्याय
अवतरणिका

भगवान् बुद्ध ने धर्म के प्रायः सभी अन्य पक्षों को कुछ समय के लिये दूर रखकर केवल दुःखों से पीड़ित संसार की सहायता करने के महान् कार्य को ही प्रधानता दी थी। परन्तु फिर भी स्वार्थपूर्ण भक्तिभाव या ‘मैं—पन’ से चिपके रहने के खोखलेपन की सत्यता का अनुभव करने के निमित्त आत्मानुसन्धान में उन्हें भी अनेक वर्ष बिताने पड़े थे। भगवान् बुद्ध से अधिक निःस्वार्थ तथा अथक कर्मी हमारी उच्च से उच्च कल्पना के भी परे हैं। परन्तु फिर भी उनकी अपेक्षा और किसे समस्त विषयों का रहस्य जानने के लिए इतने विकट संघर्ष करने पड़े ? यह चिरन्तन तथ्य है कि जो कार्य जितना महान होता है, उसके पीछे सत्य के साक्षात्कार की उतनी ही अधिक शक्ति विद्यमान रहती है। किसी पूर्वनिर्धारित महान् योजना को ब्योरेवार कार्यरूप में परिणत करने को आधार देने के लिए भले ही अधिक एकाग्र चिन्तन की आवश्यकता न पड़े, परन्तु प्रबल अन्तःप्रेरणाएँ केवल प्रबल एकाग्रता का ही परिवर्तित रूप होती है। सामान्य चेष्टाओं के लिए सम्भव है यह सिद्धान्त पर्याप्त हो, परन्तु जिस हिलोर से एक छोटी सी लहर की उत्पत्ति होती है, वह हिलोर उस आवेग से अवश्य ही नितान्त भिन्न है, जो एक प्रचण्ड तरंग को उत्पन्न कर देता है। परन्तु फिर भी यह छोटीसी लहर उस प्रचण्ड तरंग को उत्पन्न करनेवाली शक्ति के एक अल्पांश का मूर्तरूप ही है।

इसके पूर्व कि हमारा मन क्रियाशीलता के निम्न स्तर पर प्रबल कर्मतरंग उत्पन्न कर सके, आवश्यकता इस बात की है कि हम सच्चे तथा ठीक-ठीक तथ्यों के निकट पहुँच जाएँ, फिर वे भले ही विकट तथा भयप्रद क्यों न हो; हम सत्य-शुद्ध सत्य को प्राप्त करें, चाहे उसके आन्दोलन में हमारे हृदय का प्रत्येक तार छिन्न-भिन्न ही क्यों न हो जाए; हम निःस्वार्थ तथा निष्कपट प्रेरणा को प्राप्त करें—चाहे उसकी प्राप्ति में हमारे अंग-प्रत्यंग ही क्यों न कट जाएँ। सूक्ष्म वस्तु कालस्रोत में प्रवाहित होते होते अपने चारों ओर स्थूल वस्तुओं को समेटती रहती है और अव्यक्त व्यक्त हो जाता है; अदृश्य दृश्य का स्वरूप धारण कर लेता है; जो बात सम्भव-सी प्रतीत होती थी, वह वास्तव रूप धारण कर लेती है; कारण कार्य में तथा विचार शारीरिक कार्यों में परिणत हो जाते हैं।

कारण सहस्रों प्रतिकूल परिस्थितियों के हेतु आज भले ही अवरुद्ध रहे, परन्तु कभी न कभी वह कार्यरूप में अवश्य ही परिणत होगा तथा इसी प्रकार एक सक्षम विचार भी, आज चाहे जितना क्षीण क्यों न हो, एक न एक दिन स्थूल क्रिया के रूप में अवश्य ही प्रकट होकर गौरवान्वित होगा। साथ ही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन्द्रियसुख प्रदान करने की क्षमता की दृष्टि से किसी वस्तु का मूल्य आँकना भी उचित नहीं।

जो प्राणी जितना अधिक निम्न स्तर में रहता है, उतना ही अधिक वह इन्द्रियों में सुख का अनुभव करता है तथा उतने ही अधिक परिमाण में वह इन्द्रियों के राज्य में निवास करता है। सभ्यता—यथार्थ सभ्यता—का अर्थ वह शक्ति होना चाहिए, जो पशुभावापन्न मानव को इन्द्रियभोगों के जीवन के परे ले जा सके, उसे ब्रह्म सुख देकर नहीं, वरन् उच्चतर जीवन के दृश्य दिखलाकर, उसका अनुभव करा कर।

मनुष्य को इस बात का ज्ञान जन्मजाति-प्रवृत्ति द्वारा रहता है, चाहे सभी अवस्थाओं में उसे इस बात का बोध स्पष्ट रूप से भले ही न रहता हो। विचारशील जीवन के सम्बन्ध में उसकी बहुत ही भिन्न धारणाएँ हो सकती हैं, पर फिर भी यह भाव उसके हृदय में स्थित रहता है; वह तो हर हालत में प्रकट होने की ही चेष्टा करता रहता है—इसीलिए तो मनुष्य किसी बाजीगर, ओझा, वैद्य, पुरोहित अथवा वैज्ञानिक के प्रति सम्मान दर्शाए बिना नहीं रह सकता। जिस परिणाम में मनुष्य इन्द्रियपरायणता को छोड़कर उच्च भावजगत् में अवस्थान करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, जिस परिणाम में वह विशुद्ध चिन्तन-रूपी प्राणवायु फेफड़ों के भीतर खींचने में समर्थ हो जाता है तथा जितने अधिक समय तक वह उस उच्च अवस्था में रह सकता है, केवल उसी परिणाम में उसका विकास आँका जा सकता है।

जैसी स्थिति है, उसमें यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि सुसंस्कृत व्यक्ति अपने जीवननिर्वाह के लिए नितान्त आवश्यक चीजों के अतिरिक्त, तथा कथित ऐश-आराम में अपना समय गँवाना बिल्कुल पसन्द नहीं करता जैसे जैसे वह उन्नत होता जाता है, वैसे वैसे आवश्यक कर्म करने में भी उसका उत्साह कम होता दिखाई देता है।

इतना ही नहीं, मनुष्य की विलासविषयक धारणाएँ भी विचारों तथा आदर्शों के अनुसार परिवर्तित होती जाती हैं। और उसका प्रयत्न यही रहता है कि उसके विलास के साधनों में उसका विचारजगत् यथाशक्ति प्रतिबिम्बित हो—और यही है कला।
जिस प्रकार एक ही अग्नि विश्व में प्रवेश करके विभिन्न रूपों में अपने को प्रकट करती है, और फिर भी जितनी वह व्यक्त हुई है, उससे वह कहीं अधिक होती है’ हाँ, वह अनन्त गुनी अधिक है ! अनन्त चैतन्य का केवल एक कण हमें सुख देने के लिए इस जड़ जगत् अवतीर्ण हो सकता है। पर उसके शेष भाग को यहाँ लाकर उसके साथ स्थूल के समान हम मनमाना व्यवहार नहीं कर सकते। वह परम सूक्ष्म वस्तु हमारे दृष्टिक्षेत्र से सर्वदा ही बाहर निकल जाती है तथा उसे हमारे स्तर पर खींच लाने की हमारी जो चेष्टा होती है, उसे देखकर वह हँसती है। इस विषय में हम यही कहेंगे कि ‘मुहम्मद को ही पर्वत के निकट जाना होगा’—उसमें ‘नहीं’ कहने की गुंजाइश नहीं। यदि मनुष्य चाहता है कि वह उस अतीन्द्रिय प्रदेश के सौन्दर्य का पान करे, उसके आलोक में अवगाहन करे तथा उसका जीवन विश्वजीवन का मूल कारण के साथ एकात्म होकर स्पन्दित हो, तो इसके लिए उसे अपने को उसी उच्च स्तर तक उठाना पड़ेगा।

ज्ञान ही विस्मय-राज्य का द्वार खोल देता है, ज्ञान ही पशु को देवता बनाता है और जो ज्ञान हमें उसे ईश्वर के निकट पहुँचा देता है, ‘जिसे जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है’—जो समस्त अन्यान्य ज्ञान (अपरा विद्या) का हृदयस्वरूप है, जिसके स्पन्दन जड़ भौतिक विज्ञानों में प्राणों का सञ्चार हो जाता है, वह धर्मविज्ञान ही निःसन्देह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि केवल वही मनुष्य को सम्पूर्ण तथा श्रेष्ठ विचारमय जीवन व्यतीत करने में समर्थ बना सकता है। धन्य है वह देश जिसने उसे ‘परा विद्या’ नाम से सम्बोधिक किया है।

यद्यपि व्यवहार में शायद ही तात्त्विक सिद्धान्त की पूर्ण अभिव्यक्ति दिखाई देती हो, परन्तु फिर भी आदर्श कभी लुप्त नहीं होता। एक ओर हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने आदर्श को कभी लुप्त न होने दें चाहे हम उसकी ओर निश्चित गति से अग्रसर हो अथवा अस्पष्ट धीमी गति से रेंगते हुए जाएँ; दूसरी ओर वस्तुस्थिति यह है कि हम अपने हाथों को अपनी आँखों के सामने करके उसका प्रकाश ढँकने का चाहे जितना प्रयास करें, सत्य सर्वदा हमारे सम्मुख अस्पष्ट रूप से विद्यमान रहता ही है।


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