विवेकानन्द साहित्य >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित सूक्तियाँ एवं सुभाषितस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक सूक्तियाँ एवं सुभाषित .....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
(प्रथम संस्करण)
स्वामी विवेकानन्दकृत ‘सूक्तियाँ एवं सुभाषित’ पुस्तक
पाठकों
के सम्मुख रखते हमें प्रसन्नता हो रही हैं। स्वामी विवेकानन्द ने भारत के
पुनरुत्थान तथा विश्व के उद्धार के लिए जो महान् कार्य किया, वह सभी को
विदित है। वे चैतन्य एवं ओजशक्ति की सजीव मूर्ति थे। उनका दिव्य
व्यक्तित्व उनकी वाणी में प्रकट होता है। उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। अत:
उनके श्रीमुख से समय-समय पर जो सूक्तियाँ और सुभाषित् प्रकट हुए हैं, वे
सब अत्यन्त स्फूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक
विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये ‘सूक्तियाँ एवं
सुभाषित्’ विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते
हैं। धर्म, संस्कृति, समाज शिक्षा प्रभृति सभी महत्त्वपूर्ण विषयों से
संबंधित ये मौलिक विचार जीवन को एक नया दृष्टिकोण प्रदान करते हैं। उच्चतम
आध्यात्मिक अनुभूति पर आधारित ये विचार व्यक्तिगत जीवन और सामूहिक कार्यों
में उचित परिवर्तन के निमित्त तथा जीवन के सर्वांगीण विकास के हेतु
निश्चित ही विशेष हितकारी सिद्ध होंगे।
प्रकाशक
सूक्तियाँ एवं सुभाषित
1. मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के
लिए उत्पन्न हुआ है, उसका अनुसरण करने के लिए नहीं।
2. जब तुम अपने आपको शरीर समझते हो, तुम विश्व से अलग हो; जब तुम अपने आपको जीव समझते हो, तब तुम अनन्त अग्नि के एक स्फुलिंग हो; जब तुम अपने आपको आत्मस्वरूप मानते हो, तभी तुम विश्व हो।
3. संकल्प स्वतंत्र नहीं होता-वह भी कार्य-कारण से बँधा एक तत्त्व है-लेकिन संकल्प के पीछे कुछ है, दो स्व-तन्त्र है।
4. शक्ति ‘शिव’ता में है, पवित्रता में है।
5. विश्व है परमात्मा का व्यक्त रूप।
6. जब तक तुम स्वयं अपने में विश्वास नहीं करते, परमात्मा में तुम विश्वास नहीं कर सकते।
7. अशुभ की जड़ इस भ्रम में है कि हम शरीर मात्र हैं। यदि कोई मौलिक या आदि पाप है, तो वह यही है।
8. एक पक्ष कहता है, विचार जड़वस्तु से उत्पन्न होता है; दूसरा पक्ष कहता है, जड़ वस्तु विचार से। दोनों कथन गलत हैं : जड़वस्तु और विचार, दोनों का सह अस्तित्व है। वह कोई तीसरी ही वस्तु है, जिससे विचार और जड़वस्तु दोनों उत्पन्न हुए हैं।
9. जैसे देश में जड़वस्तु के कण संयुक्त होते हैं, वैसे काल में मन की तरंगे संयुक्त होती हैं।
10. ईश्वर की परिभाषा करना चर्वितचर्वण हैं, क्योंकि एकमात्र परम अस्तित्व, जिसे हम जानते हैं, वही है।
11. धर्म वह वस्तु है, जिसे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है।
12. बाह्य प्रकृति अन्त:प्रकृति का ही विशाल आलेख है।
13. तुम्हारी प्रवृत्ति तुम्हारे काम का मापदण्ड है। तुम ईश्वर हो और निम्नतम मनुष्य भी ईश्वर है, इससे बढ़कर और कौन सी प्रवृत्ति हो सकती है ?
14. मानसिक जगत् का पर्यवेक्षक बहुत बलवान और वैज्ञानिक प्रशिक्षणयुक्त होना चाहिए।
15. यह मानना कि मन ही सब कुछ है, विचार ही सब कुछ है-केवल एक प्रकार का उच्चतर भौतिकवाद है।
16. यह दुनिया एक व्यायामशाला है; जहाँ हम अपने आपको बलवान बनाने के लिए आते हैं।
17. जैसे तुम पौधे को उगा नहीं सकते, वैसे ही तुम बच्चे को सिखा नहीं सकते। जो कुछ तुम कर सकते हो वह केवल नकारात्मक पक्ष में है- तुम केवल सहायता दे सकते हो। वह तो एक आन्तरिक अभिव्यंजना हैं; वह अपना स्वभाव स्वयं विकसित करता है-तुम केवल बाधाओं को दूर कर सकते हो।
2. जब तुम अपने आपको शरीर समझते हो, तुम विश्व से अलग हो; जब तुम अपने आपको जीव समझते हो, तब तुम अनन्त अग्नि के एक स्फुलिंग हो; जब तुम अपने आपको आत्मस्वरूप मानते हो, तभी तुम विश्व हो।
3. संकल्प स्वतंत्र नहीं होता-वह भी कार्य-कारण से बँधा एक तत्त्व है-लेकिन संकल्प के पीछे कुछ है, दो स्व-तन्त्र है।
4. शक्ति ‘शिव’ता में है, पवित्रता में है।
5. विश्व है परमात्मा का व्यक्त रूप।
6. जब तक तुम स्वयं अपने में विश्वास नहीं करते, परमात्मा में तुम विश्वास नहीं कर सकते।
7. अशुभ की जड़ इस भ्रम में है कि हम शरीर मात्र हैं। यदि कोई मौलिक या आदि पाप है, तो वह यही है।
8. एक पक्ष कहता है, विचार जड़वस्तु से उत्पन्न होता है; दूसरा पक्ष कहता है, जड़ वस्तु विचार से। दोनों कथन गलत हैं : जड़वस्तु और विचार, दोनों का सह अस्तित्व है। वह कोई तीसरी ही वस्तु है, जिससे विचार और जड़वस्तु दोनों उत्पन्न हुए हैं।
9. जैसे देश में जड़वस्तु के कण संयुक्त होते हैं, वैसे काल में मन की तरंगे संयुक्त होती हैं।
10. ईश्वर की परिभाषा करना चर्वितचर्वण हैं, क्योंकि एकमात्र परम अस्तित्व, जिसे हम जानते हैं, वही है।
11. धर्म वह वस्तु है, जिसे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है।
12. बाह्य प्रकृति अन्त:प्रकृति का ही विशाल आलेख है।
13. तुम्हारी प्रवृत्ति तुम्हारे काम का मापदण्ड है। तुम ईश्वर हो और निम्नतम मनुष्य भी ईश्वर है, इससे बढ़कर और कौन सी प्रवृत्ति हो सकती है ?
14. मानसिक जगत् का पर्यवेक्षक बहुत बलवान और वैज्ञानिक प्रशिक्षणयुक्त होना चाहिए।
15. यह मानना कि मन ही सब कुछ है, विचार ही सब कुछ है-केवल एक प्रकार का उच्चतर भौतिकवाद है।
16. यह दुनिया एक व्यायामशाला है; जहाँ हम अपने आपको बलवान बनाने के लिए आते हैं।
17. जैसे तुम पौधे को उगा नहीं सकते, वैसे ही तुम बच्चे को सिखा नहीं सकते। जो कुछ तुम कर सकते हो वह केवल नकारात्मक पक्ष में है- तुम केवल सहायता दे सकते हो। वह तो एक आन्तरिक अभिव्यंजना हैं; वह अपना स्वभाव स्वयं विकसित करता है-तुम केवल बाधाओं को दूर कर सकते हो।
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