अतिरिक्त >> आनन्दधाम की ओर आनन्दधाम की ओरस्वामी अपूर्वानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक आन्नदधाम की ओर...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
‘आनन्दधाम की ओर’ पाठकों के समक्ष रखते हमें बड़ी
प्रसन्नता
हो रही है। प्रस्तुत पुस्तक ‘धर्मप्रसंग’ में स्वामी
शिवानन्द’ की संशोधित आवृत्ति है।
श्रीरामकृष्ण-भक्तपरिवार में ‘महापुरुष महाराज’ के नाम से परिचित, भगवान श्रीरामकृष्ण के अन्यतम लीलासहचर श्रीमत् स्वामी शिवानन्दजी महाराज के अमृतोपम उपदेशों का यह संकलन वास्तव में साधकों को अपने हृदयनिहित आनन्दधाम का मार्ग बतलाता है—उस ओर चलने के लिए प्रेरित करता है।
जब से स्वामी शिवानन्दजी ने ‘रामकृष्ण मठ एवं रामकृष्ण मिशन’ के अध्यक्षपद पर अधिष्ठित हो उक्त संघ के कार्यभार को सम्हाला, तब से उनके पास सुबह से लेकर रात तक सब समय—विशेषकर छुट्टियों के दिन-जिज्ञासुओं, भक्तों तथा मुमुक्षु साधकों का तांता लगा रहता था।
कोई संसारताप से तप्त हो अपनी ज्वाला को शीतल करने आता, कोई देशप्रेम और जनसेवा की भावना लिये तत्सम्बन्धी समस्याओं का समाधान कराने आता तो कोई आध्यात्मिक पथ की कठिनाईयों में उलझकर साधन-भजन, कर्म एवं उपासना सम्बन्धी रहस्यों के आलोक में उन्हें सुलझाने आता। और वे आत्ममग्न महापुरुष इतनी आत्मीयता के साथ उन सब समस्याओं का समाधान कर देते कि उन लोगों के मन का भार तत्क्षण हलका हो जाता और उन्हें अपने जीवनमार्ग में नया प्रकाश दिखाई देने लगता। इस प्रकार विभिन्न अवसरों पर जनसाधारण के कल्याणार्थ तथा भक्तों के प्रश्नों के उत्तर में महाराज ने जो उपदेश प्रदान किये थे उनमें से अनेक उपदेशों को समीप विद्यमान संन्यासी एवं गृही भक्तों ने अपनी दैनन्दिनी में लिपिबद्ध कर रखा था। इन्ही उपदेशों का संग्रह बंगला में ‘शिवानन्द-वाणी’ के नाम से दो भागों में प्रकाशित हुआ। प्रस्तुत पुस्तक बँगला पुस्तक का अनुवाद है।
स्वामी शिवानन्दजी के अन्यतम गुरभ्राता श्रीमत् स्वामी विज्ञाननन्दजी महाराज ने मूल ग्रन्थ के लिए जो भूमिका लिख दी थी उसका भी अनुवाद प्रस्तुत पुस्तक में समाविष्ट किया गया है।
श्री पृथ्वीनाथ शास्त्री, एम.ए. और पण्डित व्रजनन्दन मित्र इन बन्धुद्वय ने मूल बँगला ग्रन्थ से यह अनुवाद किया है। भाव और भाषा दोनों की दृष्टि से इस अनुवादकार्य में उन्होंने जो सफलता पायी है वह प्रशंसनीय है। हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
इस संस्करण में प्रसंगों को दिनांक के अनुसार क्रमबद्ध किया गया है। यत्र तत्र कुछ पादटिप्णियाँ भी जोड़ी गयी हैं।
श्रीरामकृष्ण-भक्तपरिवार में भगवान् श्रीरामकृष्ण, श्रीसारदादेवी एवं स्वामी विवेकानन्दजी क्रमशः ठाकुर, माताजी या श्रीमाँ एवं स्वामीजी के नाम से उल्लेखित होते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में इन्हीं प्रचलित नामों का प्रयोग किया गया है।
हमें विश्वास है, इस पुस्तक के पठन से पाठकों को अपने जीवन को सुचारु रूप से गढ़ने में बड़ी सहायता मिलेगी।
श्रीरामकृष्ण-भक्तपरिवार में ‘महापुरुष महाराज’ के नाम से परिचित, भगवान श्रीरामकृष्ण के अन्यतम लीलासहचर श्रीमत् स्वामी शिवानन्दजी महाराज के अमृतोपम उपदेशों का यह संकलन वास्तव में साधकों को अपने हृदयनिहित आनन्दधाम का मार्ग बतलाता है—उस ओर चलने के लिए प्रेरित करता है।
जब से स्वामी शिवानन्दजी ने ‘रामकृष्ण मठ एवं रामकृष्ण मिशन’ के अध्यक्षपद पर अधिष्ठित हो उक्त संघ के कार्यभार को सम्हाला, तब से उनके पास सुबह से लेकर रात तक सब समय—विशेषकर छुट्टियों के दिन-जिज्ञासुओं, भक्तों तथा मुमुक्षु साधकों का तांता लगा रहता था।
कोई संसारताप से तप्त हो अपनी ज्वाला को शीतल करने आता, कोई देशप्रेम और जनसेवा की भावना लिये तत्सम्बन्धी समस्याओं का समाधान कराने आता तो कोई आध्यात्मिक पथ की कठिनाईयों में उलझकर साधन-भजन, कर्म एवं उपासना सम्बन्धी रहस्यों के आलोक में उन्हें सुलझाने आता। और वे आत्ममग्न महापुरुष इतनी आत्मीयता के साथ उन सब समस्याओं का समाधान कर देते कि उन लोगों के मन का भार तत्क्षण हलका हो जाता और उन्हें अपने जीवनमार्ग में नया प्रकाश दिखाई देने लगता। इस प्रकार विभिन्न अवसरों पर जनसाधारण के कल्याणार्थ तथा भक्तों के प्रश्नों के उत्तर में महाराज ने जो उपदेश प्रदान किये थे उनमें से अनेक उपदेशों को समीप विद्यमान संन्यासी एवं गृही भक्तों ने अपनी दैनन्दिनी में लिपिबद्ध कर रखा था। इन्ही उपदेशों का संग्रह बंगला में ‘शिवानन्द-वाणी’ के नाम से दो भागों में प्रकाशित हुआ। प्रस्तुत पुस्तक बँगला पुस्तक का अनुवाद है।
स्वामी शिवानन्दजी के अन्यतम गुरभ्राता श्रीमत् स्वामी विज्ञाननन्दजी महाराज ने मूल ग्रन्थ के लिए जो भूमिका लिख दी थी उसका भी अनुवाद प्रस्तुत पुस्तक में समाविष्ट किया गया है।
श्री पृथ्वीनाथ शास्त्री, एम.ए. और पण्डित व्रजनन्दन मित्र इन बन्धुद्वय ने मूल बँगला ग्रन्थ से यह अनुवाद किया है। भाव और भाषा दोनों की दृष्टि से इस अनुवादकार्य में उन्होंने जो सफलता पायी है वह प्रशंसनीय है। हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
इस संस्करण में प्रसंगों को दिनांक के अनुसार क्रमबद्ध किया गया है। यत्र तत्र कुछ पादटिप्णियाँ भी जोड़ी गयी हैं।
श्रीरामकृष्ण-भक्तपरिवार में भगवान् श्रीरामकृष्ण, श्रीसारदादेवी एवं स्वामी विवेकानन्दजी क्रमशः ठाकुर, माताजी या श्रीमाँ एवं स्वामीजी के नाम से उल्लेखित होते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में इन्हीं प्रचलित नामों का प्रयोग किया गया है।
हमें विश्वास है, इस पुस्तक के पठन से पाठकों को अपने जीवन को सुचारु रूप से गढ़ने में बड़ी सहायता मिलेगी।
प्रकाशक
भूमिका
भगवान् श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग शिष्य और लीलासहायक रूप में जो लोग उनके
श्रीपद्मों में अपना जीवन-उत्सर्ग कर धन्य हुए थे, महापुरुष स्वामी
शिवानन्दजी महाराज उनमें अन्यतम थे। श्रीगुरुदेव के चरण-प्रान्त में और
बाद में भी उनके घनिष्ठ रूप से जानने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ था।
दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में श्रीठाकुर के कमरे में उनके समीप मैंने
महापुरुष महाराज को पहले-पहल देखा था। यह घटना सम्भवतः सन् 1884 ई. की
अर्थात् बावन-त्रेपन वर्ष पहले की होगी। वे उस समय कुछ लम्बे कद के थे, और
बड़े तेजस्वी मालूम पड़ते थे। ठाकुर ने उनसे कह, ‘देख, यहाँ तो
कितने लोग आते हैं, कितने लड़के भी आते है, पर मैं किसी से तेरा मकान कहाँ
है अथवा तेरे पिता का क्या नाम है’, यह सब कभी कुछ नहीं पूछता।
किन्तु मुझसे ये सब बातें पूछने की इच्छा हो रही है। अच्छा, बता तो भला,
तेरा मकान कहाँ है और तेरे पिता का नाम क्या है ?’’
इसके
उत्तर में महापुरुष महाराज ने अपने पिता का नाम और मकान का पता बताया। यह
सुनकर ठाकुर ने कहा, ‘‘अच्छा तू उनका लड़का है ? उनको
तो मैं
जानता हूँ। वे तो सिद्ध पुरुष हैं। तब तो तेरा होगा, तेरा जरूर
होगा।’’ उस दिन और भी अन्यान्य बाते हुई थीं।
इसके बाद परिस्थितियों के उलट-फेर के कारण मैं महापुरुष महाराज को कुछ वर्षों तक नहीं देख पाया। बाद में जब मैं इंजीनिअर था—यह आज से कोई इकतालीस वर्ष पहले (सन् 1897 ई.) की बात होगी, मैं छुट्टी बिताकर बाँकीपुर से अपनी नौकरी की जगह पर वापस जा रहा था। रास्ते में बक्सर रेलवे स्टेशन पर उतरकर प्लेटफॉर्म पर टहल रहे हैं—देखने में वे विशेष फुर्तीले और बुद्धिमान मालूम होते थे। दूर से उन्हें देखने पर ही मेरे मन में यह उठा कि ये अवश्य ही रामकृष्ण मठ के साधु हैं। यह सोचकर मैं ज्यों ही उनके पास पहुँचाँ, तो देखता हूँ कि ये तो महापुरुष महाराज हैं ! मैंने उन्हें प्रणाम किया; उन्होंने भी मुझे पहचान लिया, और बताया कि वे वाराणसी जा रहे हैं तथा वंशी दत्त के मकान पर ठहरेंगे। मुझसे भी वहाँ आने के लिए कहा। उनके आदेशानुसार मैं वाराणसी जाकर उनसे मिला। वे मुझे देखकर बड़े प्रसन्न हुए और मेरी खूब देखभाल की। उनसे मुझे मठ के सब समाचार ज्ञात हुए।
इसके कुछ समय बाद जब मैंने आलमबाजार मठ में जीवन अर्पित किया, उस समय महापुरुष महाराज दक्षिणात्य अंचल में थे। उस समय वे कठोर तपस्वी का जीवन व्यतीत करते थे। बहुत कम बातचीत करते और बड़े गम्भीर रहते थे कुछ दिनों बाद वे मठ लौट आये।
महापुरुष ने दीर्घ काल अल्मोड़ा, कनखल आदि स्थानों में तपस्या करते हुए बिताया था। बीच-बीच में वे मठ आते और कुछ दिन वहाँ रहकर पुनः तपस्या के लिए चले जाते थे। वे बड़े कठोर तपस्वी थे। उनके अलौकिक त्याग एवं संयम आदि को देखकर श्रीमत् स्वामी विवेकानन्दजी उन्हें ‘महापुरुष’ कहकर पुकारा करते थे। वे जब स्वामीजी के साथ बुद्धगया गये हुए थे, उस समय एक दिन वे समाधि में इतने मग्न हो गये कि स्वामीजी ने उनसे कहा, ‘‘आप मानो बुद्धदेव हैं।’’ और यह भी एक कारण था कि स्वामीजी ने उन्हें ‘महापुरुष’ की संज्ञा दी थी।
श्रद्धेय स्वामी प्रेमानन्दजी महाराज ने सन 1918 में शरीर त्याग किया। इसके लगभग दो वर्ष पूर्व से ही महापुरुष ने बेलुड़ मठ के संचालन का भार अपने ऊपर ले लिया था। तभी से उन्होंने लोगों के साथ मिलना-जुलना प्रारम्भ किया। सन् 1922 में, श्रीमत् स्वामी ब्रह्मानन्दजीमहाराज के देह-त्याग के बाद महापुरुषजी रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष हुए। वे इस संघ के द्वितीय अध्यक्ष थे। उसी समय से उनकी जीवन-धारा में मानों आमूल परिवर्तन हो गया। वे सैकड़ों लोगों के साथ अथक रूप से मिलने-जुलने एवं उन सब को धर्मोपदेश आदि देने लगे। सब के साथ मधुर और स्नेहपूर्ण व्यवहार करना, सब की देखभाल करना, सब की खोज-खबर लेना तथा सब काम-काज की देख-रेख करना—यह मानों उनका नित्य कार्ये ही हो गया। उनके पास से कोई भी खाली हाथ या शून्य-चित्त लेकर वापस नहीं लौटता था। वे सब के मन-प्राण परिपूर्ण कर देते थे। सहस्रों स्त्री-पुरुष उनके पास से दीक्षा आदि कृपा पाकर धन्य हुए हैं। कितने ही लोग उन पर अगाध श्रद्धा-भक्ति रखते थे, किन्तु उनमें जरा सा भी अहंभाव नहीं था। वे कहते थे कि श्री ठाकुर ही मेरे हृदय में बैठकर सब पर कृपा कर रहे हैं, मैं तो ठाकुर और माताजी को छोड़ और कुछ नहीं जानता। बालक के समान उनके मुख से सर्वदा ‘माँ, माँ’ की वाणी सुनाई देती थी।
अन्तिम कुछ वर्ष नाना प्रकार की शारीरिक अस्वस्थता के कारण उनको हम लोगों ने अत्यन्त कष्ट पाते देखा है। किन्तु वे जिस प्रकार अविचलित रूप से वह सब सहन करते, उससे मालूम होता था कि उन्हें देह-बोध बिलकुल नहीं था उनकी ऐसी अवस्था में भी—बहुत दूर-दूर के स्थानों से अनेक लोग उनकी कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आया करते थे। वे किसी को भी निराश नहीं करते थे, सब पर हृदय खोलकर कृपा करते थे। दूसरों का दुःख–कष्ट देखकर वे फिर और अधिक स्थिर नहीं रह सकते थे, और अपना अनन्त कृपा-भण्डार खोल देते थे। साधारण-मनुष्य के लिए यह सब सम्भव नहीं। श्रीठाकुर, श्रीमाताजी और स्वामीजी आदि सभी ने मानो उनके भीतर बैठकर अनेक लोगों का उद्धार किया है। महापुरुष महाराज ने वास्तविक ही अपने को ठाकुर के साथ इतना मिला दिया था कि उनकी कोई पृथक् सत्ता ही नहीं रह गयी थी। उन्होंने जिन पर कृपा की है, वे लोग ठाकुर की ही कृपा के भागी हुए हैं। उनके उपदेश भी ठाकुर के उपदेश ही हैं।
यदि उनसे कोई पूछता कि शरीर-त्याग के बाद वे कहाँ जायेंगे, तो तुरन्त उत्तर देते कि मैं श्रीरामकृष्ण-लोक में जाऊँगा, ठाकुर के पास रहूँगा और युग युग में ठाकुर का लीला-सहचर होकर उनके साथ आऊँगा। अब वे स्थूल देह का त्याग कर ठाकुर के पास सूक्ष्म शरीर में हैं और सब का कल्याण कर रहे हैं—यही मेरा विश्वास है। प्रस्तुत ग्रन्थ में महापुरुष महाराज के दो उपदेश संकलित किये गये हैं, वे अमूल्य उपदेश श्रीभगवान् के पवित्र आशीर्वाद के समान भगवद्भक्तों और साधकों के लिए असीम कल्याण का निदान होंगे। इस ग्रन्थ के पाठ से भक्तों के हृदय में धर्मभाव उद्दीप्त हो, यही मेरी आन्तरिक प्रार्थना है।
इसके बाद परिस्थितियों के उलट-फेर के कारण मैं महापुरुष महाराज को कुछ वर्षों तक नहीं देख पाया। बाद में जब मैं इंजीनिअर था—यह आज से कोई इकतालीस वर्ष पहले (सन् 1897 ई.) की बात होगी, मैं छुट्टी बिताकर बाँकीपुर से अपनी नौकरी की जगह पर वापस जा रहा था। रास्ते में बक्सर रेलवे स्टेशन पर उतरकर प्लेटफॉर्म पर टहल रहे हैं—देखने में वे विशेष फुर्तीले और बुद्धिमान मालूम होते थे। दूर से उन्हें देखने पर ही मेरे मन में यह उठा कि ये अवश्य ही रामकृष्ण मठ के साधु हैं। यह सोचकर मैं ज्यों ही उनके पास पहुँचाँ, तो देखता हूँ कि ये तो महापुरुष महाराज हैं ! मैंने उन्हें प्रणाम किया; उन्होंने भी मुझे पहचान लिया, और बताया कि वे वाराणसी जा रहे हैं तथा वंशी दत्त के मकान पर ठहरेंगे। मुझसे भी वहाँ आने के लिए कहा। उनके आदेशानुसार मैं वाराणसी जाकर उनसे मिला। वे मुझे देखकर बड़े प्रसन्न हुए और मेरी खूब देखभाल की। उनसे मुझे मठ के सब समाचार ज्ञात हुए।
इसके कुछ समय बाद जब मैंने आलमबाजार मठ में जीवन अर्पित किया, उस समय महापुरुष महाराज दक्षिणात्य अंचल में थे। उस समय वे कठोर तपस्वी का जीवन व्यतीत करते थे। बहुत कम बातचीत करते और बड़े गम्भीर रहते थे कुछ दिनों बाद वे मठ लौट आये।
महापुरुष ने दीर्घ काल अल्मोड़ा, कनखल आदि स्थानों में तपस्या करते हुए बिताया था। बीच-बीच में वे मठ आते और कुछ दिन वहाँ रहकर पुनः तपस्या के लिए चले जाते थे। वे बड़े कठोर तपस्वी थे। उनके अलौकिक त्याग एवं संयम आदि को देखकर श्रीमत् स्वामी विवेकानन्दजी उन्हें ‘महापुरुष’ कहकर पुकारा करते थे। वे जब स्वामीजी के साथ बुद्धगया गये हुए थे, उस समय एक दिन वे समाधि में इतने मग्न हो गये कि स्वामीजी ने उनसे कहा, ‘‘आप मानो बुद्धदेव हैं।’’ और यह भी एक कारण था कि स्वामीजी ने उन्हें ‘महापुरुष’ की संज्ञा दी थी।
श्रद्धेय स्वामी प्रेमानन्दजी महाराज ने सन 1918 में शरीर त्याग किया। इसके लगभग दो वर्ष पूर्व से ही महापुरुष ने बेलुड़ मठ के संचालन का भार अपने ऊपर ले लिया था। तभी से उन्होंने लोगों के साथ मिलना-जुलना प्रारम्भ किया। सन् 1922 में, श्रीमत् स्वामी ब्रह्मानन्दजीमहाराज के देह-त्याग के बाद महापुरुषजी रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष हुए। वे इस संघ के द्वितीय अध्यक्ष थे। उसी समय से उनकी जीवन-धारा में मानों आमूल परिवर्तन हो गया। वे सैकड़ों लोगों के साथ अथक रूप से मिलने-जुलने एवं उन सब को धर्मोपदेश आदि देने लगे। सब के साथ मधुर और स्नेहपूर्ण व्यवहार करना, सब की देखभाल करना, सब की खोज-खबर लेना तथा सब काम-काज की देख-रेख करना—यह मानों उनका नित्य कार्ये ही हो गया। उनके पास से कोई भी खाली हाथ या शून्य-चित्त लेकर वापस नहीं लौटता था। वे सब के मन-प्राण परिपूर्ण कर देते थे। सहस्रों स्त्री-पुरुष उनके पास से दीक्षा आदि कृपा पाकर धन्य हुए हैं। कितने ही लोग उन पर अगाध श्रद्धा-भक्ति रखते थे, किन्तु उनमें जरा सा भी अहंभाव नहीं था। वे कहते थे कि श्री ठाकुर ही मेरे हृदय में बैठकर सब पर कृपा कर रहे हैं, मैं तो ठाकुर और माताजी को छोड़ और कुछ नहीं जानता। बालक के समान उनके मुख से सर्वदा ‘माँ, माँ’ की वाणी सुनाई देती थी।
अन्तिम कुछ वर्ष नाना प्रकार की शारीरिक अस्वस्थता के कारण उनको हम लोगों ने अत्यन्त कष्ट पाते देखा है। किन्तु वे जिस प्रकार अविचलित रूप से वह सब सहन करते, उससे मालूम होता था कि उन्हें देह-बोध बिलकुल नहीं था उनकी ऐसी अवस्था में भी—बहुत दूर-दूर के स्थानों से अनेक लोग उनकी कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आया करते थे। वे किसी को भी निराश नहीं करते थे, सब पर हृदय खोलकर कृपा करते थे। दूसरों का दुःख–कष्ट देखकर वे फिर और अधिक स्थिर नहीं रह सकते थे, और अपना अनन्त कृपा-भण्डार खोल देते थे। साधारण-मनुष्य के लिए यह सब सम्भव नहीं। श्रीठाकुर, श्रीमाताजी और स्वामीजी आदि सभी ने मानो उनके भीतर बैठकर अनेक लोगों का उद्धार किया है। महापुरुष महाराज ने वास्तविक ही अपने को ठाकुर के साथ इतना मिला दिया था कि उनकी कोई पृथक् सत्ता ही नहीं रह गयी थी। उन्होंने जिन पर कृपा की है, वे लोग ठाकुर की ही कृपा के भागी हुए हैं। उनके उपदेश भी ठाकुर के उपदेश ही हैं।
यदि उनसे कोई पूछता कि शरीर-त्याग के बाद वे कहाँ जायेंगे, तो तुरन्त उत्तर देते कि मैं श्रीरामकृष्ण-लोक में जाऊँगा, ठाकुर के पास रहूँगा और युग युग में ठाकुर का लीला-सहचर होकर उनके साथ आऊँगा। अब वे स्थूल देह का त्याग कर ठाकुर के पास सूक्ष्म शरीर में हैं और सब का कल्याण कर रहे हैं—यही मेरा विश्वास है। प्रस्तुत ग्रन्थ में महापुरुष महाराज के दो उपदेश संकलित किये गये हैं, वे अमूल्य उपदेश श्रीभगवान् के पवित्र आशीर्वाद के समान भगवद्भक्तों और साधकों के लिए असीम कल्याण का निदान होंगे। इस ग्रन्थ के पाठ से भक्तों के हृदय में धर्मभाव उद्दीप्त हो, यही मेरी आन्तरिक प्रार्थना है।
स्वामी विज्ञानानन्द
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लोगों की राय
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