विवेकानन्द साहित्य >> जितने मत उतने पथ जितने मत उतने पथस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक जितने मत उतने पथ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
(प्रथम संस्करण)
‘जितने मत उतने पथ’- श्रीरामकृष्ण-श्रीमाँ एवम्
स्वामी
विवेकानन्द द्वारा प्रचारित सर्वधर्म समन्वय- पाठकों के समक्ष रखते हुए
हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है।
आज विश्व में हम विभिन्न मत-मतान्तरों, धर्मों एवं विचारधाराओं में घोर पारस्परिक संघर्ष पा रहे हैं। फलत: बड़ी अनिश्चितता तथा अशान्ति व्याप्त है। यथार्थत: हर धर्म में सत्य विद्यमान होता है। परन्तु सही पथ निर्देश के अभाव में मनुष्य अज्ञानतावश अपने श्रम का अधिकांश कलह एवं द्वेष में नष्ट कर देता है। वर्तमान युग में सत्यद्रष्टा युगपुरुष भगवान् श्रीरामकृष्णदेव श्री-माँ सारदादेवी एवं स्वामी विवेकानन्द के विचार मानवता को सही दिशा दिखाने में समर्थ है। अत: उससे लोगों में सत्य का प्रचार होगा इसी उद्देश्य से हम उनके विचारों को एक साथ संग्रहित कर प्रकाशित कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण-भक्त परिवार में भगवान् श्रीरामकृष्ण श्री सारदादेवी एवं स्वामी विवेकानन्द क्रमश: ठाकुर, माताजी और श्रीमाँ एवं स्वामीजी के नाम से उल्लेखित होते हैं। इस पुस्तक में इन्हीं प्रचलित नामों का प्रयोग किया गया है।
इस विषय में श्रीरामकृष्णदेव ने अपने उपदेशों में साधकों एवं भक्तों को भरपूर दिशानिर्देश किया है। स्वामीजी के विचार उनके संभाषणों, पत्रों, वार्ताओं, कविताओं एवं संस्मरण से लिए गए है। परन्तु श्रीमाँ ने कभी भाषणादि का कार्य नहीं किया। अत: समय समय पर विभिन्न भक्तों से वार्ता के क्रम में जो सत्य उनके मुख से नि:श्रृत हुई उसे हमने वार्ता के रूप में ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इन उपदेशों के संकलन का कम ब्रह्मचारी गौरीशंकर ने किया है।
जन साधारण में इन विचारों के प्रचार एवं प्रसार से धर्म एवं राष्ट्र के प्रति सच्ची भक्ति एवं मानवता के प्रति यथार्थ प्रेम की ज्योति प्रज्वलित होगी ऐसी हमारी आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है।
आज विश्व में हम विभिन्न मत-मतान्तरों, धर्मों एवं विचारधाराओं में घोर पारस्परिक संघर्ष पा रहे हैं। फलत: बड़ी अनिश्चितता तथा अशान्ति व्याप्त है। यथार्थत: हर धर्म में सत्य विद्यमान होता है। परन्तु सही पथ निर्देश के अभाव में मनुष्य अज्ञानतावश अपने श्रम का अधिकांश कलह एवं द्वेष में नष्ट कर देता है। वर्तमान युग में सत्यद्रष्टा युगपुरुष भगवान् श्रीरामकृष्णदेव श्री-माँ सारदादेवी एवं स्वामी विवेकानन्द के विचार मानवता को सही दिशा दिखाने में समर्थ है। अत: उससे लोगों में सत्य का प्रचार होगा इसी उद्देश्य से हम उनके विचारों को एक साथ संग्रहित कर प्रकाशित कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण-भक्त परिवार में भगवान् श्रीरामकृष्ण श्री सारदादेवी एवं स्वामी विवेकानन्द क्रमश: ठाकुर, माताजी और श्रीमाँ एवं स्वामीजी के नाम से उल्लेखित होते हैं। इस पुस्तक में इन्हीं प्रचलित नामों का प्रयोग किया गया है।
इस विषय में श्रीरामकृष्णदेव ने अपने उपदेशों में साधकों एवं भक्तों को भरपूर दिशानिर्देश किया है। स्वामीजी के विचार उनके संभाषणों, पत्रों, वार्ताओं, कविताओं एवं संस्मरण से लिए गए है। परन्तु श्रीमाँ ने कभी भाषणादि का कार्य नहीं किया। अत: समय समय पर विभिन्न भक्तों से वार्ता के क्रम में जो सत्य उनके मुख से नि:श्रृत हुई उसे हमने वार्ता के रूप में ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इन उपदेशों के संकलन का कम ब्रह्मचारी गौरीशंकर ने किया है।
जन साधारण में इन विचारों के प्रचार एवं प्रसार से धर्म एवं राष्ट्र के प्रति सच्ची भक्ति एवं मानवता के प्रति यथार्थ प्रेम की ज्योति प्रज्वलित होगी ऐसी हमारी आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है।
प्रकाशक
भाग-1
श्रीरामकृष्ण देव के विचार
1. यदि आन्तरिकता हो तो सभी धर्मों से
ईश्वर मिल सकते
हैं। वैष्णवों को भी मिलेंगे तथा शाक्तों, वेदान्तियों और ब्राह्मों को
भी, मुसलमानों और इसाइयों को भी। हृदय से चाहने पर सबको मिलेंगे।
2. सब मार्गों से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। सभी धर्म सत्य हैं। छत पर चढ़ने से मतलब है, सो तुम पक्की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो, लकड़ी की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो, बाँस की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो और फिर एक गाँठदार बाँस के जरिए भी चढ़ सकते हो।
3. कोई कोई झगड़ा कर बैठते हैं। वे कहते हैं कि हमारे श्रीकृष्ण को भजे बिना कुछ न होगा; अथवा हमारे ईसाई धर्म को ग्रहण किए बिना कुछ न होगा।
ऐसी बुद्धि का नाम हठ धर्म है, अर्थात् मेरा ही धर्म ठीक है और बाकी सब गलत। यह बुद्धि खराब है। ईश्वर के पास हम बहुत रास्तों से पहुँच सकते हैं।
4. यदि कहो, दूसरों के धर्म में अनेक भूल, कुसंस्कार हैं, तो मैं कहता हूँ हैं तो रहे, भूल सभी धर्मों में है। सभी समझते हैं मेरी घड़ी ठीक चल रही है। व्याकुलता होने से ही हुआ। उनसे प्रेम आकर्षण रहना चाहिए। वे अन्तर्यामी जो हैं। वे अन्तर की व्याकुलता, आकर्षण को देख सकते हैं।
मानो एक मनुष्य के कुछ बच्चे हैं उनमें से जो बड़े हैं वे ‘बाबा’ या ‘पापा’ इन शब्दों को स्पष्ट रूप से कहकर उन्हें पुकारते हैं। और जो बहुत छोटे हैं वे बहुत हुआ तो ‘बा’ या ‘पा’ कहकर पुकारते हैं। जो लोग सिर्फ ‘बा’ या ‘पा’ कह सकते हैं क्या पिता उनसे असंतुष्ट होंगे ? पिता जानते हैं कि वे उन्हें ही बुला रहे हैं, परन्तु वे अच्छी तरह उच्चारण नहीं कर सकते। पिता की दृष्टि में सभी बच्चे बराबर हैं।
5. भक्ति ही सार है। ईश्वर सर्वभूतों में विराजमान हैं। तो फिर भक्त किसे कहूँ- जिसका मन सदा ईश्वर में है। अहंकार अभिमान रहने पर कुछ नहीं होता। ‘‘मैं’’-रूपी टीले पर ईश्वर-कृपा रूपी जल नहीं ठहरता; लुढ़क जाता है।
6. फिर भक्तगण उन्हें भी अनेक नामों से पुकार रहे हैं। एक ही व्यक्ति को बुला रहे हैं। एक तालाब के चार घाट हैं। हिन्दू लोग एक घाट से जल पी रहे हैं और कहते हैं जल। मुसलमान लोग दूसरे घाट में पी रहे हैं- कहते हैं पानी। अंग्रेज लोग तीसरे घाट में पी रहे हैं और कह रहे हैं वाटर (Water) और कुछ लोग चौथे घाट में पी रहे हैं और कहते हैं अकुवा (aqua)। एक ईश्वर उनके अनेक नाम हैं।
7. अनेक भावों से ईश्वर की पूजा होती है। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर। शहनाई बजाते समय एक आदमी केवल पोंऽऽ बजाता है उसके बाजे में भी सात छेद रहते हैं। और दूसरा व्यक्ति, उसी बाजे से जिसमें सात छेद हैं, अनेक राग-रागिनियाँ बजाता है।
8. अनेक पन्थों से तथा अनेक धर्मों द्वारा ईश्वर-प्राप्ति हो सकती है। बीच-बीच में निर्जन में साधन भजन करके भक्तिलाभ करते हुए संसार में रहा जा सकता हैं।
9. ज्ञान किसे कहते हैं, और मैं कौन हूँ ? ‘ईश्वर ही कर्ता और सब अकर्ता’ इसी का नाम ज्ञान है। मैं अकर्ता, उनके हाथ का यन्त्र हूँ।
10. जिन्हें ज्ञानी ब्रह्मा कहते हैं, योगी उन्हीं को आत्मा कहते हैं और भक्त उन्हें भगवान् कहते हैं।
एक ही ब्राह्मण है। जब पूजा करता है, तब उसका नाम पुजारी है, जब भोजन पकाता है तब उसे रसोइया कहते हैं।
11. जो ज्ञानी है, ज्ञानयोग जिसका अवलम्बन है, वह ‘नेति नेति’ विचार करता है;- ब्रह्म न यह है, न वह; न जीव है, न जगत्।
परन्तु भक्तगण सभी अवस्थाओं को लेते हैं। वे जाग्रत अवस्था को भी सत्य कहते हैं; जगत् को स्वप्नवत् नहीं कहते। भक्त कहते हैं यह संसार भगवान् का ऐश्वर्य है; आकाश, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, पर्वत, समुद्र, जीव-जन्तु आदि सभी भगवान् की सृष्टि है, उन्हीं का ऐश्वर्य है। वे हृदय के भीतर हैं और बाहर भी।
12. परन्तु वस्तु एक ही है। केवल नाम का भेद है। जो ब्रह्म है वही आत्मा, वही भगवान्। ब्रह्मज्ञानियों के लिए ब्रह्म, योगियों के लिए परमात्मा और भक्तों के लिए भगवान्।
13. जिस प्रकार ‘जल’ ‘वाटर’ और ‘पानी’। तीनों एक हैं, भेद केवल नामों में है। उन्हें कोई ‘अल्लाह’ कहता है, कोई ‘गॉड’; कोई ‘ब्रह्म’ कहता है, कोई ‘काली’; कोई राम, हरि, ईसा, दुर्गा आदि।
काली का रंग काला थोड़े ही है। दूर है, इसी से काला जान पड़ता है; समझ लेने पर काला नहीं रहता। समुद्र का पानी दूर से नीला जान पड़ता है, पास जाकर चुल्लू में लेकर देखो, कोई रंग नहीं।
14. रामानुज विशिष्टद्वैतवादी थे। उनके गुरु थे अद्वैतवादी। आखिर दोनों में अनबन होने लगी। गुरु शिष्य आपस में एक दूसरे के मत का खण्डन करने लगे। ऐसा हुआ करता है। चाहे जो कुछ हो, फिर भी मैं तो अपने ही।
15. ईश्वर-लाभ होने पर अर्न्तदृष्टि प्राप्त होती है, उसी समय किसे कौन सा रोग है यह समझ में आता है योग्य उपदेश दिया जा सकता है।
आदेश न मिलने पर ‘मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ’ इस प्रकार का अहंकार होता है अज्ञान के कारण। अज्ञान से ऐसा लगता है कि मैं कर्ता हूँ। ईश्वर ही कर्ता हैं, ईश्वर सब कुछ कर रहे हैं, मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ- यह बोध हो जाने पर तो मनुष्य जीवनमुक्त हो गया। ‘‘मैं कर्ता हूँ’’ इस बोध के कारण ही इतना दु:ख, इतनी अशान्ति पैदा होती है।
16. जो मनुष्य सर्वदा ईश्वर-चिन्तन करता है, वही जान सकता है कि उनका स्वरूप क्या है। वही मनुष्य जानता है कि वे अनेकानेक रूपों में दर्शन देते हैं, अनेक भावों में दीख पड़ते हैं- वे सगुण हैं और निर्गुण भी। दूसरे लोग केवल वादविवाद करके कष्ट उठाते हैं। कबीर कहते थे;- ‘निराकार मेरा पिता है और साकार मेरी माँ।’
एक वृक्ष पर एक गिरगिट था। एक व्यक्ति ने देखा हरा, दूसरे ने देखा काला, और तीसरे ने पीला, इस प्रकार अलग-अलग व्यक्ति अलग अलग रंग देख गए। बाद में वे आपस में विवाद कर रहे हैं। एक कहता है, वह जन्तु हरे रंग का है। दूसरा कहता है, नहीं लाल रंग का, कोई कहता है पीला, और इस प्रकार आपस में सब झगड़ रहे हैं। उस समय वृक्ष के नीचे एक व्यक्ति बैठा था, सब मिलकर उसके पास गए। उसने कहा, ‘‘मैं इस वृक्ष के नीचे रात दिन रहता हूँ, मैं जानता हूँ, यह बहुरुपिया है। क्षण क्षण में रंग बदलता है, और फिर कभी इसके कोई रंग नहीं रहता।
2. सब मार्गों से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। सभी धर्म सत्य हैं। छत पर चढ़ने से मतलब है, सो तुम पक्की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो, लकड़ी की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो, बाँस की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो और फिर एक गाँठदार बाँस के जरिए भी चढ़ सकते हो।
3. कोई कोई झगड़ा कर बैठते हैं। वे कहते हैं कि हमारे श्रीकृष्ण को भजे बिना कुछ न होगा; अथवा हमारे ईसाई धर्म को ग्रहण किए बिना कुछ न होगा।
ऐसी बुद्धि का नाम हठ धर्म है, अर्थात् मेरा ही धर्म ठीक है और बाकी सब गलत। यह बुद्धि खराब है। ईश्वर के पास हम बहुत रास्तों से पहुँच सकते हैं।
4. यदि कहो, दूसरों के धर्म में अनेक भूल, कुसंस्कार हैं, तो मैं कहता हूँ हैं तो रहे, भूल सभी धर्मों में है। सभी समझते हैं मेरी घड़ी ठीक चल रही है। व्याकुलता होने से ही हुआ। उनसे प्रेम आकर्षण रहना चाहिए। वे अन्तर्यामी जो हैं। वे अन्तर की व्याकुलता, आकर्षण को देख सकते हैं।
मानो एक मनुष्य के कुछ बच्चे हैं उनमें से जो बड़े हैं वे ‘बाबा’ या ‘पापा’ इन शब्दों को स्पष्ट रूप से कहकर उन्हें पुकारते हैं। और जो बहुत छोटे हैं वे बहुत हुआ तो ‘बा’ या ‘पा’ कहकर पुकारते हैं। जो लोग सिर्फ ‘बा’ या ‘पा’ कह सकते हैं क्या पिता उनसे असंतुष्ट होंगे ? पिता जानते हैं कि वे उन्हें ही बुला रहे हैं, परन्तु वे अच्छी तरह उच्चारण नहीं कर सकते। पिता की दृष्टि में सभी बच्चे बराबर हैं।
5. भक्ति ही सार है। ईश्वर सर्वभूतों में विराजमान हैं। तो फिर भक्त किसे कहूँ- जिसका मन सदा ईश्वर में है। अहंकार अभिमान रहने पर कुछ नहीं होता। ‘‘मैं’’-रूपी टीले पर ईश्वर-कृपा रूपी जल नहीं ठहरता; लुढ़क जाता है।
6. फिर भक्तगण उन्हें भी अनेक नामों से पुकार रहे हैं। एक ही व्यक्ति को बुला रहे हैं। एक तालाब के चार घाट हैं। हिन्दू लोग एक घाट से जल पी रहे हैं और कहते हैं जल। मुसलमान लोग दूसरे घाट में पी रहे हैं- कहते हैं पानी। अंग्रेज लोग तीसरे घाट में पी रहे हैं और कह रहे हैं वाटर (Water) और कुछ लोग चौथे घाट में पी रहे हैं और कहते हैं अकुवा (aqua)। एक ईश्वर उनके अनेक नाम हैं।
7. अनेक भावों से ईश्वर की पूजा होती है। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर। शहनाई बजाते समय एक आदमी केवल पोंऽऽ बजाता है उसके बाजे में भी सात छेद रहते हैं। और दूसरा व्यक्ति, उसी बाजे से जिसमें सात छेद हैं, अनेक राग-रागिनियाँ बजाता है।
8. अनेक पन्थों से तथा अनेक धर्मों द्वारा ईश्वर-प्राप्ति हो सकती है। बीच-बीच में निर्जन में साधन भजन करके भक्तिलाभ करते हुए संसार में रहा जा सकता हैं।
9. ज्ञान किसे कहते हैं, और मैं कौन हूँ ? ‘ईश्वर ही कर्ता और सब अकर्ता’ इसी का नाम ज्ञान है। मैं अकर्ता, उनके हाथ का यन्त्र हूँ।
10. जिन्हें ज्ञानी ब्रह्मा कहते हैं, योगी उन्हीं को आत्मा कहते हैं और भक्त उन्हें भगवान् कहते हैं।
एक ही ब्राह्मण है। जब पूजा करता है, तब उसका नाम पुजारी है, जब भोजन पकाता है तब उसे रसोइया कहते हैं।
11. जो ज्ञानी है, ज्ञानयोग जिसका अवलम्बन है, वह ‘नेति नेति’ विचार करता है;- ब्रह्म न यह है, न वह; न जीव है, न जगत्।
परन्तु भक्तगण सभी अवस्थाओं को लेते हैं। वे जाग्रत अवस्था को भी सत्य कहते हैं; जगत् को स्वप्नवत् नहीं कहते। भक्त कहते हैं यह संसार भगवान् का ऐश्वर्य है; आकाश, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, पर्वत, समुद्र, जीव-जन्तु आदि सभी भगवान् की सृष्टि है, उन्हीं का ऐश्वर्य है। वे हृदय के भीतर हैं और बाहर भी।
12. परन्तु वस्तु एक ही है। केवल नाम का भेद है। जो ब्रह्म है वही आत्मा, वही भगवान्। ब्रह्मज्ञानियों के लिए ब्रह्म, योगियों के लिए परमात्मा और भक्तों के लिए भगवान्।
13. जिस प्रकार ‘जल’ ‘वाटर’ और ‘पानी’। तीनों एक हैं, भेद केवल नामों में है। उन्हें कोई ‘अल्लाह’ कहता है, कोई ‘गॉड’; कोई ‘ब्रह्म’ कहता है, कोई ‘काली’; कोई राम, हरि, ईसा, दुर्गा आदि।
काली का रंग काला थोड़े ही है। दूर है, इसी से काला जान पड़ता है; समझ लेने पर काला नहीं रहता। समुद्र का पानी दूर से नीला जान पड़ता है, पास जाकर चुल्लू में लेकर देखो, कोई रंग नहीं।
14. रामानुज विशिष्टद्वैतवादी थे। उनके गुरु थे अद्वैतवादी। आखिर दोनों में अनबन होने लगी। गुरु शिष्य आपस में एक दूसरे के मत का खण्डन करने लगे। ऐसा हुआ करता है। चाहे जो कुछ हो, फिर भी मैं तो अपने ही।
15. ईश्वर-लाभ होने पर अर्न्तदृष्टि प्राप्त होती है, उसी समय किसे कौन सा रोग है यह समझ में आता है योग्य उपदेश दिया जा सकता है।
आदेश न मिलने पर ‘मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ’ इस प्रकार का अहंकार होता है अज्ञान के कारण। अज्ञान से ऐसा लगता है कि मैं कर्ता हूँ। ईश्वर ही कर्ता हैं, ईश्वर सब कुछ कर रहे हैं, मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ- यह बोध हो जाने पर तो मनुष्य जीवनमुक्त हो गया। ‘‘मैं कर्ता हूँ’’ इस बोध के कारण ही इतना दु:ख, इतनी अशान्ति पैदा होती है।
16. जो मनुष्य सर्वदा ईश्वर-चिन्तन करता है, वही जान सकता है कि उनका स्वरूप क्या है। वही मनुष्य जानता है कि वे अनेकानेक रूपों में दर्शन देते हैं, अनेक भावों में दीख पड़ते हैं- वे सगुण हैं और निर्गुण भी। दूसरे लोग केवल वादविवाद करके कष्ट उठाते हैं। कबीर कहते थे;- ‘निराकार मेरा पिता है और साकार मेरी माँ।’
एक वृक्ष पर एक गिरगिट था। एक व्यक्ति ने देखा हरा, दूसरे ने देखा काला, और तीसरे ने पीला, इस प्रकार अलग-अलग व्यक्ति अलग अलग रंग देख गए। बाद में वे आपस में विवाद कर रहे हैं। एक कहता है, वह जन्तु हरे रंग का है। दूसरा कहता है, नहीं लाल रंग का, कोई कहता है पीला, और इस प्रकार आपस में सब झगड़ रहे हैं। उस समय वृक्ष के नीचे एक व्यक्ति बैठा था, सब मिलकर उसके पास गए। उसने कहा, ‘‘मैं इस वृक्ष के नीचे रात दिन रहता हूँ, मैं जानता हूँ, यह बहुरुपिया है। क्षण क्षण में रंग बदलता है, और फिर कभी इसके कोई रंग नहीं रहता।
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