विवेकानन्द साहित्य >> प्रेमयोग प्रेमयोगस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक प्रेमयोग....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
प्रथम संस्करण से
ईश्वर की कृपा से विश्वविख्यात स्वामी विवेकानन्दकृत ‘रिलीजन ऑफ
लव’ (Religion of love ) का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो गया।
दीर्घकाल से अनुभूति न्यूनता को दूर करने में यह पुस्तक सहायक हुई हैं।
इसमें के कुछ व्याख्यान स्वामीजी ने इंग्लैंड में दिये थे और कुछ अमेरिका
में। भक्त के जीवन के निर्माण के लिये इस पुस्तक के विषय अत्यावश्यक हैं।
वास्तव में भक्ति की सत्य भावना को आत्मसम्मान करने के हेतु तथा भक्त के
जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिये वे महान् उपकारी हैं। पुस्तक के विषय का
प्रतिपादन सूक्ष्म किंतु साथ ही सुगमता से बोधगम्य है। अनुवादक ने अपने
पावन कार्य को श्रद्धा और भक्तिपूर्ण रूख से सच्ची लगन के साथ समाप्त किया
है।
अनुवाद विश्वसनीय है, शब्दशः है और मूल के भावी का अनुगामी है। हम अनुवादक पं. द्वारकानाथ जी तिवारी के हृदय से आभारी हैं। साथ ही हम दुर्ग निवासी सर्वश्री आर.आर डगांवकर तथा श्री निशिकांत गांगुली को भी धन्यवाद देते हैं जिन्होंने अपना सहयोग प्रदान किया है। श्रीयुत डॉ. शिवाजीराव पटवर्धन एवं (श्रीयुत गुलाबचन्द्र जैन हेड-मास्टर,) अमरावती के प्रति कृतज्ञता प्रकाशित किये बिना नहीं रह सकते जिन्होंने प्रूफ संशोधन कर अमूल्य सहायता की है।
हमें आशा है कि पुस्तक अपना उद्देश्य पूरा करेगी और लोकप्रिय होगी वाचक गण यह जानकर प्रशन्न होंगे कि इस पुस्तक की आय संस्था के धार्मिक-उद्देश्य और पारमार्थिक कार्यों में लगायी जावेगी।
अनुवाद विश्वसनीय है, शब्दशः है और मूल के भावी का अनुगामी है। हम अनुवादक पं. द्वारकानाथ जी तिवारी के हृदय से आभारी हैं। साथ ही हम दुर्ग निवासी सर्वश्री आर.आर डगांवकर तथा श्री निशिकांत गांगुली को भी धन्यवाद देते हैं जिन्होंने अपना सहयोग प्रदान किया है। श्रीयुत डॉ. शिवाजीराव पटवर्धन एवं (श्रीयुत गुलाबचन्द्र जैन हेड-मास्टर,) अमरावती के प्रति कृतज्ञता प्रकाशित किये बिना नहीं रह सकते जिन्होंने प्रूफ संशोधन कर अमूल्य सहायता की है।
हमें आशा है कि पुस्तक अपना उद्देश्य पूरा करेगी और लोकप्रिय होगी वाचक गण यह जानकर प्रशन्न होंगे कि इस पुस्तक की आय संस्था के धार्मिक-उद्देश्य और पारमार्थिक कार्यों में लगायी जावेगी।
प्रकाशक
प्रेमयोग
पूर्व साधना
भक्त प्रह्लाद द्वारा दी हुई निम्नलिखित परिभाषा ही सम्भवतः भक्तियोग की
सर्वोत्तम परिभाषा हैः
या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसमर्पतु।।*
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसमर्पतु।।*
‘‘हे ईश्वर ! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति
इन्द्रियों
के भोग के नाशवान् पदार्थों पर इतनी रहती है, उसी प्रकार की प्रीति मेरी
तुझमें हो और तेरा स्मरण करते हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न
होवे।’’
हम देखते हैं कि वे लोग, जो इन्द्रिय-भोग के पदार्थों से बढ़कर और किसी वस्तु को नहीं जानते, धन-धान्य, कपड़े-लत्ते, पुत्र-कलत्र, बन्धु-बान्धव तथा अन्याय सामग्रियों पर कैसी दृढ़ प्रीति रखते हैं; इन वस्तुओं के प्रति उनकी कैसी घोर आसत्ति रहती है ! इसलिए इस परिभाषा में वे भक्त ऋषिराज कहते हैं, ‘‘वैसी ही प्रबल आसत्ति, वैसी ही दृढ़ संलग्नता मुझमें केवल तेरे प्रति रहे।’’ ऐसी ही प्रीति जब ईश्वर के प्रति की जाती है, तब वह ‘भक्ति’ कहलाती है ! भक्ति किसी वस्तु का संहार नहीं करती, वरन् हमें यह सिखाती है कि हमें जो जो शक्तियाँ दी गयी हैं, उनमें से कोई भी निरर्थक नहीं है, बल्कि उन्हीं में से होकर हमारी मुक्ति का स्वाभाविक मार्ग है। भक्ति न तो किसी वस्तु का निषेध करती है और न वह हमें प्रकृति के विरद्ध ही चलाती है। भक्ति तो केवल हमारी प्रकृति को ऊँचा उठाती है और उसे अधिक शक्तिशाली प्रेरणा देती है। इन्द्रिय-विषयों पर हमारी कैसी स्वाभाविक प्रीति हुआ करती है !
ऐसी प्रीति किये बिना हम रह नहीं सकते, क्योंकि ये विषय, ये पदार्थ हमें बिलकुल सत्य प्रतीत होते हैं। साधारणतः हमें इनसे उच्चतर पदार्थों में कोई यथार्थता नहीं दिखायी देती है; पर जब मनुष्य इन इन्द्रियों के परे-इन्द्रियों के संसार के उस पार-किसी यथार्थ वस्तु को देख पाता है, तब वांछनीय यही है कि उसे सांसारिक विषय के पदार्थों से हटाकर उस इन्द्रियातीत वस्तु परमेश्वर में लगा दे। और जब इन्द्रियों के भोग्य पदार्थों पर का वह उत्कट प्रेम भगवान् में लग जाता है, तब उसका नाम ‘भक्ति’ हो जाता है। सन्त श्रीरामनुजाचार्य के मतानुसार उस उत्कट प्रेम की प्राप्ति के लिए नीचे लिखी साधनाएं हैं।
प्रथम साधना है ‘विवेक’। यह विशेषतः पाश्चात्यों की दृष्टि में विचित्र बात है। श्रीरामानुजाचार्य के मत से इसका अर्थ है ‘आहार-मीमांसा’ या ‘खाद्याखाद्य-विचार’। हमारे शरीर और मन की शक्तियों का निर्माण करनेवाली समग्र संजीवनी शक्तियाँ हमारे भोजन के भीतर ही रहती हैं। अभी जो कुछ मैं हूँ, वह सब इसके पूर्व मैंने जो खाया उस भोजन-सामग्री में ही था। वह सब खाद्य पदार्थों द्वारा ही मेरे शरीर में आया; उसमें संचित रहा और फिर उसने एक नया रूप धारण किया। वस्तुतः मेरे शरीर और मन में मेरे खाये हुए अन्न से भिन्न और कोई वस्तु है ही नहीं। जैसे भौतिक सृष्टि में हम शक्ति और जड़ पदार्थ पाते हैं और यह शक्ति तथा जड़ पदार्थ हममें, मन और शरीर बन जाते हैं, ठीक उसी तरह यथार्थ में देह और मन में और हमारे खाये हुए अन्न में केवल आकार या रूप का अन्तर है। जब ऐसा है कि अपने भोजन के जड़कणों द्वारा अपने विचार-यन्त्र का निर्माण करते हैं और उन जड़कणों में निहित सूक्ष्म शक्तियों द्वारा विचार का सृजन करते हैं, तब तो सहज ही सिद्ध होता है कि इस विचार और विचार यन्त्र दोनों पर हमारे खाये हुए अन्न का प्रभाव पड़ेगा।
कुछ विशेष प्रकार के आहार हमारे मन में विशेष प्रकार के विकार उत्पन्न करते हैं। यह हम प्रतिदिन स्पष्ट रूप से देखते हैं। कुछ दूसरे प्रकार के आहारों का शरीर पर अन्य प्रकार का परिणाम होता है और अन्त में वह मन पर भी बहुत असर पहुँचता है। इससे हम बड़ा पाठ यह सीखते हैं कि हम दुःखों को भोग रहे हैं, उनका बहुतेरा अंश हमें अपने खाये भोजन द्वारा ही प्राप्त होता है। अधिक मात्रा में तथा दुष्पाच्य पदार्थ खा लेने के उपरान्त हम देखते हैं कि मन को काबू में रखना कितना कठिन हो जाता है; तब तो मन निरंतर इधर-उधर दौड़ ही लगाया करता है। फिर ऐसे भी खाद्य पदार्थ हैं जो उत्तेजक हैं; ऐसे पदार्थों को खाने से हम देखते हैं कि अपने मन को हम किसी प्रकार भी रोक नहीं सकते। यह मानी हुई बात है कि बहुत सी मात्रा में शराब पी लेने या किसी अन्य नशीले पेय का व्यवहार करने से मनुष्य अपने मन को नियन्त्रित करने में असमर्थ हो जाता है; ऐसी अवस्था में मन उसके काबू के बाहर होकर इतस्ततः भागने लगता है।
श्रीरामानुजाचार्य हमें ‘आहार’ के तीन दोषो से बचने के लिए कहते हैं। प्रथम तो जाति-दोष अर्थात् आहार के स्वाभाविक गुण या किस्म की ओर ध्यान देना चाहिए। सभी उत्तेजक वस्तुओं का, उदाहरणार्थ मांस आदि का परित्याग करना चाहिए, क्योंकि यह स्वभावतः ही अपवित्र वस्तु है। दूसरे का प्राण लेकर ही हमें मांस की प्राप्ति होती है। हम तो क्षणमात्र के लिए स्वाद-सुख पाते है, पर उधर दूसरे जीवधारी को हमें यह क्षणिक स्वाद-सुख देने के लिए सदा के लिए अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता हैं। इतना ही नहीं, वरन् हम दूसरे मनुष्यों का भी नैतिक अधःपतन करते हैं। अच्छा तो यह होता कि प्रत्येक मांसाहारी मनुष्य स्वयं ही प्राणि-वध करता। पर इसके बदले होता क्या हैं ? समाज अपने लिए यह प्राणि-वध का कार्य मनुष्यों के एक बदले होता क्या है ?
समाज अपने लिए यह प्राणि-वध का कार्य मनुष्यों के एक विशेष वर्ग द्वारा करता है और तुर्रा यह कि उस कृत्य के कारण ही उस वर्ग के मनुष्य को वह घृणा की दृष्टि से देखता है। यहाँ का कानून तो मुझे नहीं मालूम, पर इंग्लैंण्ड में कोई भी कसाई ज्यूरी (jury) में सदस्य बनकर न्यायप्रदान का कार्य नहीं कर सकता। इसके पीछे भाव यह है कि कसाई स्वभाव से ही निर्दयी होता है। पर भला उसको निर्दयी बनाया किसने ? उसी समाज ने। यदि हम गोमांस और बकरी का मांस न खायें, तो ये कसाई हों क्योंकर ? मांस-भक्षण का अधिकार उन्हीं मनुष्यों को है, जो बहुत कठिन परिश्रम करते हैं और भक्त होना नहीं चाहते। पर यदि आप भक्त होना चाहते हैं, तो आपको मांस का त्याग करना चाहिए; वैसे ही, सभी उत्तेजक भोजन जैसे प्याज, लहसून तथा अन्य सभी दुर्गन्धयुक्त पदार्थ- जैसे ‘सावर क्रौच’ इत्यादि का त्याग करना चाहिए। कई दिनों का बना हुआ भोजन जो लगभग सड़सा गया हो, अथवा जिसके स्वाभाविक रस सूख गये हों या जिसमें दुर्गन्ध आ गयी हो, ऐसे सभी खाद्य वस्तुओं का परित्याग करना आवश्यक है।
हम देखते हैं कि वे लोग, जो इन्द्रिय-भोग के पदार्थों से बढ़कर और किसी वस्तु को नहीं जानते, धन-धान्य, कपड़े-लत्ते, पुत्र-कलत्र, बन्धु-बान्धव तथा अन्याय सामग्रियों पर कैसी दृढ़ प्रीति रखते हैं; इन वस्तुओं के प्रति उनकी कैसी घोर आसत्ति रहती है ! इसलिए इस परिभाषा में वे भक्त ऋषिराज कहते हैं, ‘‘वैसी ही प्रबल आसत्ति, वैसी ही दृढ़ संलग्नता मुझमें केवल तेरे प्रति रहे।’’ ऐसी ही प्रीति जब ईश्वर के प्रति की जाती है, तब वह ‘भक्ति’ कहलाती है ! भक्ति किसी वस्तु का संहार नहीं करती, वरन् हमें यह सिखाती है कि हमें जो जो शक्तियाँ दी गयी हैं, उनमें से कोई भी निरर्थक नहीं है, बल्कि उन्हीं में से होकर हमारी मुक्ति का स्वाभाविक मार्ग है। भक्ति न तो किसी वस्तु का निषेध करती है और न वह हमें प्रकृति के विरद्ध ही चलाती है। भक्ति तो केवल हमारी प्रकृति को ऊँचा उठाती है और उसे अधिक शक्तिशाली प्रेरणा देती है। इन्द्रिय-विषयों पर हमारी कैसी स्वाभाविक प्रीति हुआ करती है !
ऐसी प्रीति किये बिना हम रह नहीं सकते, क्योंकि ये विषय, ये पदार्थ हमें बिलकुल सत्य प्रतीत होते हैं। साधारणतः हमें इनसे उच्चतर पदार्थों में कोई यथार्थता नहीं दिखायी देती है; पर जब मनुष्य इन इन्द्रियों के परे-इन्द्रियों के संसार के उस पार-किसी यथार्थ वस्तु को देख पाता है, तब वांछनीय यही है कि उसे सांसारिक विषय के पदार्थों से हटाकर उस इन्द्रियातीत वस्तु परमेश्वर में लगा दे। और जब इन्द्रियों के भोग्य पदार्थों पर का वह उत्कट प्रेम भगवान् में लग जाता है, तब उसका नाम ‘भक्ति’ हो जाता है। सन्त श्रीरामनुजाचार्य के मतानुसार उस उत्कट प्रेम की प्राप्ति के लिए नीचे लिखी साधनाएं हैं।
प्रथम साधना है ‘विवेक’। यह विशेषतः पाश्चात्यों की दृष्टि में विचित्र बात है। श्रीरामानुजाचार्य के मत से इसका अर्थ है ‘आहार-मीमांसा’ या ‘खाद्याखाद्य-विचार’। हमारे शरीर और मन की शक्तियों का निर्माण करनेवाली समग्र संजीवनी शक्तियाँ हमारे भोजन के भीतर ही रहती हैं। अभी जो कुछ मैं हूँ, वह सब इसके पूर्व मैंने जो खाया उस भोजन-सामग्री में ही था। वह सब खाद्य पदार्थों द्वारा ही मेरे शरीर में आया; उसमें संचित रहा और फिर उसने एक नया रूप धारण किया। वस्तुतः मेरे शरीर और मन में मेरे खाये हुए अन्न से भिन्न और कोई वस्तु है ही नहीं। जैसे भौतिक सृष्टि में हम शक्ति और जड़ पदार्थ पाते हैं और यह शक्ति तथा जड़ पदार्थ हममें, मन और शरीर बन जाते हैं, ठीक उसी तरह यथार्थ में देह और मन में और हमारे खाये हुए अन्न में केवल आकार या रूप का अन्तर है। जब ऐसा है कि अपने भोजन के जड़कणों द्वारा अपने विचार-यन्त्र का निर्माण करते हैं और उन जड़कणों में निहित सूक्ष्म शक्तियों द्वारा विचार का सृजन करते हैं, तब तो सहज ही सिद्ध होता है कि इस विचार और विचार यन्त्र दोनों पर हमारे खाये हुए अन्न का प्रभाव पड़ेगा।
कुछ विशेष प्रकार के आहार हमारे मन में विशेष प्रकार के विकार उत्पन्न करते हैं। यह हम प्रतिदिन स्पष्ट रूप से देखते हैं। कुछ दूसरे प्रकार के आहारों का शरीर पर अन्य प्रकार का परिणाम होता है और अन्त में वह मन पर भी बहुत असर पहुँचता है। इससे हम बड़ा पाठ यह सीखते हैं कि हम दुःखों को भोग रहे हैं, उनका बहुतेरा अंश हमें अपने खाये भोजन द्वारा ही प्राप्त होता है। अधिक मात्रा में तथा दुष्पाच्य पदार्थ खा लेने के उपरान्त हम देखते हैं कि मन को काबू में रखना कितना कठिन हो जाता है; तब तो मन निरंतर इधर-उधर दौड़ ही लगाया करता है। फिर ऐसे भी खाद्य पदार्थ हैं जो उत्तेजक हैं; ऐसे पदार्थों को खाने से हम देखते हैं कि अपने मन को हम किसी प्रकार भी रोक नहीं सकते। यह मानी हुई बात है कि बहुत सी मात्रा में शराब पी लेने या किसी अन्य नशीले पेय का व्यवहार करने से मनुष्य अपने मन को नियन्त्रित करने में असमर्थ हो जाता है; ऐसी अवस्था में मन उसके काबू के बाहर होकर इतस्ततः भागने लगता है।
श्रीरामानुजाचार्य हमें ‘आहार’ के तीन दोषो से बचने के लिए कहते हैं। प्रथम तो जाति-दोष अर्थात् आहार के स्वाभाविक गुण या किस्म की ओर ध्यान देना चाहिए। सभी उत्तेजक वस्तुओं का, उदाहरणार्थ मांस आदि का परित्याग करना चाहिए, क्योंकि यह स्वभावतः ही अपवित्र वस्तु है। दूसरे का प्राण लेकर ही हमें मांस की प्राप्ति होती है। हम तो क्षणमात्र के लिए स्वाद-सुख पाते है, पर उधर दूसरे जीवधारी को हमें यह क्षणिक स्वाद-सुख देने के लिए सदा के लिए अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता हैं। इतना ही नहीं, वरन् हम दूसरे मनुष्यों का भी नैतिक अधःपतन करते हैं। अच्छा तो यह होता कि प्रत्येक मांसाहारी मनुष्य स्वयं ही प्राणि-वध करता। पर इसके बदले होता क्या हैं ? समाज अपने लिए यह प्राणि-वध का कार्य मनुष्यों के एक बदले होता क्या है ?
समाज अपने लिए यह प्राणि-वध का कार्य मनुष्यों के एक विशेष वर्ग द्वारा करता है और तुर्रा यह कि उस कृत्य के कारण ही उस वर्ग के मनुष्य को वह घृणा की दृष्टि से देखता है। यहाँ का कानून तो मुझे नहीं मालूम, पर इंग्लैंण्ड में कोई भी कसाई ज्यूरी (jury) में सदस्य बनकर न्यायप्रदान का कार्य नहीं कर सकता। इसके पीछे भाव यह है कि कसाई स्वभाव से ही निर्दयी होता है। पर भला उसको निर्दयी बनाया किसने ? उसी समाज ने। यदि हम गोमांस और बकरी का मांस न खायें, तो ये कसाई हों क्योंकर ? मांस-भक्षण का अधिकार उन्हीं मनुष्यों को है, जो बहुत कठिन परिश्रम करते हैं और भक्त होना नहीं चाहते। पर यदि आप भक्त होना चाहते हैं, तो आपको मांस का त्याग करना चाहिए; वैसे ही, सभी उत्तेजक भोजन जैसे प्याज, लहसून तथा अन्य सभी दुर्गन्धयुक्त पदार्थ- जैसे ‘सावर क्रौच’ इत्यादि का त्याग करना चाहिए। कई दिनों का बना हुआ भोजन जो लगभग सड़सा गया हो, अथवा जिसके स्वाभाविक रस सूख गये हों या जिसमें दुर्गन्ध आ गयी हो, ऐसे सभी खाद्य वस्तुओं का परित्याग करना आवश्यक है।
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