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विवेकानन्द साहित्य >> परिव्राजक मेरी भ्रमण कहानी

परिव्राजक मेरी भ्रमण कहानी

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5929
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक परिव्राजक ....

Parivrajak

स्वामी विवेकानन्द के भ्रमण के संस्मरण

वक्तव्य

हिन्दी जनता के प्रमुख ‘परिव्राजक’ का दूसरा संस्करण रखते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। आरम्भ में इस पुस्तक का अनुवाद श्री सूर्यकान्त जी त्रिपाठी ‘निराला’ ने किया था।

हमारी ‘स्मृतिग्रन्थमाला’ के इस पुष्प में स्वामी विवेकानन्दजी के पश्चात्य देशों का भ्रमण-वृत्तान्त है जो उन्होंने मामूली बोलचाल की भाषा में एक डायरी के रूप में लिखा था। यत्न इस बात का किया गया है कि मौलिक वर्णन का पुट इस पुस्तक में ज्यों का त्यों बना रहे। स्वामीजी के हृदय में इस बात की उत्कट इच्छा थी कि भारत वर्ष इस अन्धकार की अवस्था से निकल कर एक बार फिर अपने प्राच्य गौरव को धारण करे। भारत तथा पाश्चात्य देशों में भ्रमण के अनुभव के आधार पर उन कारणों को हमारे सामने रखा है जिनसे भारतवर्ष का पतन हुआ था तथा हमें उन साधनों का भी दिग्दर्शन कराया है जिनके आधार पर भारतवर्ष फिर अपने उच्च शिखर पर पहुँच सकता है।

प्रस्तुत पुस्तक में जगह-जगह पर ‘मारजिनल नोट’ के रूप में छोटे शीर्षक दे देने से स्वामीजी का मूल भ्रमण-वत्तान्त अधिक सरल तथा मनोरंजक हो गया है।

साहित्य शास्त्री प्रो. श्री पं. विद्याभास्करजी शुक्ल, एम, एससी. पी, ई, एस. कॉलेज आफ साइन्स, नागपुर के हम परम कृतज्ञ हैं जिन्होंने इस पुस्तक के संशोधन कार्य में हमें बहुमूल्य सहायता दी है।

हमें विश्वास है कि इस प्रकाशन से हिन्दी भाषी जनता का हित होगा।

परिव्राजक

(मेरी भ्रमण कहानी)

स्वामीजी, ॐ नमो नारायणाय 1- ‘ओम’कार को हृषीकेशी ढंग से जरा उदात्त कर लेना, भैया ! आज सात दिन हुए हमारा जहाज चल रहा है, रोज ही क्या हो रहा है क्या नहीं, इसकी खबर तुम्हें लिखने की सोचता हूँ, खाता-पत्र और कागज-कलम भी तुमने काफी दे दिए है। किन्तु यही ‘बंगालियाना’ स्वभाव बड़े चक्कर में डाल देता है।

एक-हाल तो पहले दरजे का-डायरी या उसे तुम लोग क्या कहते हो-रोज लिखने की सोच रहा हूँ लेकिन बहुत से कामों से वह अनन्त ‘‘काल’’ नामक समय में ही रह जाता है; एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता।

दूसरे-तारीख आदि की याद ही नहीं रहती। यह तुम खुद ठीक कर लेना। और अगर विशेष कृपा हो तो समझ लेना, वार-तिथि-मास महावीर की तरह याद ही नहीं रहते-राम हृदय में हैं इसलिए। लेकिन दरअसल बात तो यह है कि यह कसूर है सारा अक्ल का और वही अहदीपन। कैसा उत्पात ! ‘‘क्व सूर्यप्रभवो वंशः’’2 -नहीं हुआ, ‘‘क्व सूर्यप्रभववंशचूड़ामणि रामैकशरणो वानरेन्द्रः’’-और कहाँ मैं ‘दीनहुँ ते अतिदीन’; लेकिन हाँ, उन्होंने सौ योजन समुद्र एक ही छलाँग में पार किया था और कहाँ हम! उन्होंने लंका पहुँचकर राक्षस-राक्षसियों के चन्द्रानन देखे थे और हम लोग राक्षस-राक्षसियों के दल के साथ जा रहे हैं। भोजन के वक्त वह सौ सौ छुरों की चमचमाहट और सौ सौ काँटों की ठनाठन देख सुन कर तो तु-भाई साहब को तो काठ ही मार गया। भाई मेरे रह-रहककर सिकुड़ उठते, पासवाले रंगीन बाल, बिड़ालाक्ष क्या जाने भूल से कोई छुरा खप से उन्हीं की गर्दन में न खोंस दे-भाई साहब जरा मुलायमसिंह है न ? भला क्यों जा समुद्र पार करते वक्त महावीर को समुद्रपीड़ा (Sea sickness) हुई थी या नहीं ? इसके सम्बन्ध में किताबों में कहीं कुछ आया भी है ? तुम लोग तो पढ़कर पंडित हो गये हो, वाल्मीकि, आल्मीकि बहुत कुछ जानते हो; हमारे ‘गुसाईं जी’ तो कुछ भी नहीं कहते। शायद नहीं हुआ था। लेकिन वही किसी के मुख में पैठने की बात जो आयी है, उसी जगह जरा सन्देह होता है। तु-भाई साहब करते हैं, जहाज का तला जब सड़क से स्वर्ग की ओर इन्द्रदेव से मशविरा करने जाता है और फिर वक्त सीधा पाताल की ओर चलकर बलिराज को बाँधने की कोशिश करता है, उस वक्त उन्हें भी ऐसा जान पड़ता है, मानों किसी के महा विकट विस्तृत मुख के अन्दर जा रहें हो, आप ! माफ फरमाना भाई अच्छे आदमी को काम का भार सौंपा है। राम कहो ! कहां तुम्हें सात दिन की समुद्र-यात्रा का वर्णन लिखूँगा, उसमें कितना रंगढंग कितना बार्निस-मसाला रहेगा, कितना काव्य, कितना रस आदि आदि और कहाँ इतना फिजूल बल रहा हूँ। असल बात यह है कि माया का छिलका छुड़ाकर ब्रह्मफल खाने की बराबर कोशिश की गयी है, अब एकाएक प्रकृति के सौन्दर्य का ज्ञान कहाँ से लाऊँ कहो। ‘कहँ काशी कहँ काश्मीर कहँ खुरासान गुजरात।’3 तमाम उम्र घूम रहा हूँ। कितने पहाड़, नद-नदी, गिरि, निर्झर, उपत्यका अधित्यका चिर-निहारमण्डित मेघ-मेखलित पर्वतशिखर, उत्तुंग-तरंग-भंगकल्लोलशाली कितने वारिनिधि देखे, सुने लाँघे और पार किये; लेकिन किराँचियों और ट्रामों से घर्रायित धूलि-धूसरित कलकत्ते के बड़े रास्ते के किनारे, कैसे पानों की पीक-विचित्रित दीवारों के छिपकली-मूषिक-छछून्दर-मुखरित इठलाते घर के भीतर दिन के वक्त दिया जलाकर आम्र-काष्ठ के तख्ते पर बैठे हुए, भद्दे भचभचे (हुक्का) का शौक करते हुए कवि श्यामाचरण ने हिमालय, समुद्र, प्रान्तर, मरुभूमि आदि की हूबहू तस्वीरें खींचकर जो बंगालियों का मुख उज्जवल किया है, उस ओर ख्याल दौड़ाना ही हमारी दुराशा है। श्यामाचरण बचपन में पश्चिम की सैर करने गये थे, जहाँ आकण्ठ भोजन के पश्चात एक लोटा जल पीने से ही बस सब हजम फिर भूख-वहीं श्यामचरण की प्रतिभा शालिनी दृष्टि ने इन प्राकृतिक विराट और सुन्दर भावों की उपलब्धि कर ली है। पर जरा मुश्किल की बात यही है, सुनता हूँ कि उनका वह पश्चिम बर्तमान नगर तक ही है।
लेकिन चूँकी तुम्हारा हार्दिक अनुरोध है और मैं भी बिल्कुल तिहि रस वंचित गोविंददास नहीं हूँ यह साबित करने के लिए श्री गणेशजी का स्मरण कर कथा प्रारम्भ करता हूँ, यह साबित करने के लिए श्री गणेशजी का स्मरण कर कहा प्रारम्भ करता हूँ। तुम लोग भी सब छोड़-छाड़ कर सुनों-

नदी के मुहाने से या बन्दर से अक्सर रात को जहाज नहीं छूटते-खास तौर से कलकत्ता जैसे वाणिज्यबहुल बन्दर और गंगा जैसी नदी से जब तक जहाज समुद्र में नहीं पहुँचता, तभी पाइलट (बन्दर से समुद्र) तक पानी की गहराई जानने वाले) का अधिकार है; वहीं कप्तान है, उसी की हुकूमत रहती है। समुद्र में जाने या आने के समय नदी के मुहाने में दो बड़े खतरे है; एक बजबज के पास ‘जेम्स और मेरी’ नाम की चोर-बालू और दूसरा
डायमण्ड हारबर के सामने रेती। पूरे ज्वार में तथा दिन के वक्त पाइलट बड़ी सावधानी से जहाज चला सकते है, नहीं- तो नहीं इसलिए गंगा से निकलने में हमें दो दिन लग गये।
हृषीकेश की गंगा याद है ? वह निर्मल नीलाभ जल-जिसके भीतर दस हाथ की गहराई में रहनेवाली मछलियों के पंख गिने जा सकते है। वह अपूर्व सुस्वाद हिमशीतल ‘गांग वारि मनोहरी’ और वह अद्धुत ‘हर हर हर’ तरंगोत्थ ध्वनि, सामने गिरि-निर्झरो की ‘हर हर’ प्रतिध्वनि, वह जंगलों में रहना, मधुकरी भिक्षा, गंगा-गर्भ में क्षुद्र द्वीपाकार शिलाखण्ड पर भोजन, कर-पुटों की बँधी अंजलि द्वारा जलपान, चारों ओर कणप्रत्याशी मत्स्यकुल का निर्भर विवरण, वह गंगा-जलपान, चारों ओर रणप्रत्याशी मत्स्यकुल का निर्भय विचरण, वह गंगा-जलप्रीति, गंगा की महिमा, वह गंगावारि का वैराग्यप्रद स्पर्श, वह हिमालय-वाहिनी गंगा, श्रीनगर, टिनरी उत्तर-काशी, गंगोत्री; तुममें से कोई तो गोमोखी तक देख चुके हो।


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1. स्वामी तुरीयानन्द-स्वामी जी के गुरू भाई।
जहाज के हिलने डुलने से अधिकतर लोंगों का सिर घूमने लगता है तथा उन्हें वमन आदि भी होता है। इसी को सी-सिकनेस कहते हैं। यह अवस्था 2-4 दिन रहती है।
2. स्वामी जी ने यहाँ कालिदास के रघुवंश की प्रसिद्ध पंक्ति का सन्दर्भ दिया है- ‘‘कहाँ महान सूर्यवंश और कहाँ मेरी क्षुद्र बुद्धि। लोग काठ के कोठों में बंद उथल-पुथल करते हुए, थुन्नियाँ पकड़कर, स्थिरता कामय रखते हुए समुद्र पार कर रहे हैं। लेकिन एक मर्दानगी जरूर है
3. यह संन्यासी को सम्बोधित करने की साधारण पद्धति है।
ये संस्करण स्वामीजी की 1900 ई. में की गयी पाश्चात्य देशों की दूसरी यात्रा के है, जो ‘उद्धोधन’ के सम्पादक स्वामी त्रिगुणातीतानन्द को सम्बोधित करके लिखे गये हैं। इन संस्करणों को स्वामीजी ने बंगला में हल्के ढंग से हास्य शैली में लिखा है, इनको पढ़ते समय यह तथ्य ध्यान में रखना आवश्यक है।
4. श्री गोस्वामी तुलसीदासजी के एक दोहे का अंश।

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