विवेकानन्द साहित्य >> शिकागो की विश्व धर्म महासभा शिकागो की विश्व धर्म महासभामेरी लुई बर्क
|
3 पाठकों को प्रिय 144 पाठक हैं |
प्रस्तुत है पुस्तक शिकागो की विश्व धर्म महासभा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
(प्रथम संस्मरण)
1893 में अमेरिका के शिकागो नगर में जो विश्वधर्म महासभा हुई थी उसकी
शताब्दी सारे भारत में उत्साह के साथ मनायी जा रही है। इसी उपलक्ष्य में
यह महत्त्वपूर्ण प्रकाशन पाठकों को प्रस्तुत करने में हमें प्रसन्नता हो
रही है। स्वामी विवेकानन्दजी के जीवन में इस विश्व धर्म महासभा का अति
विशिष्ट स्थान है। इसी के माध्यम से विश्व को स्वामीजी का परिचय मिला।
सुख्यात अमेरिकन विदुषी मेरी लुइ बर्क (भगिनी गार्गी) द्वारा लिखित ‘Swami Vivekananda in the West’ नामक छ: खण्डात्मक बृहत् ग्रन्थ के प्रथम खण्ड के ‘The Parliament of Religions’ नामक अध्याय का यह अनुवाद है। इसमें एक ऐतिहासिक विश्वधर्म महासभा की पृष्ठभूमि, उसका आयोजन एवं गतिविधियाँ इन सबका स्वामीजी के सन्दर्भ में बड़ा ही रोचक एवं उद्धोधक वर्णन आता है। स्वामीजी ने इस महासभा में कैसी अहम् भूमिका निभायी तथा इसके द्वारा अपने गुरुदेव का सर्वधर्म-समन्वय का सन्देश और अपनी मातृभूमि का गौरव संसार के सन्मुख उज्ज्वलता से अंकित किया यह हम इस लघुग्रन्थ के अध्ययन से समझ सकते हैं।
हमें विश्वास है कि विवेकानन्द-प्रेमी पाठक इस पुस्तक का सोत्साह स्वागत करेंगे।
सुख्यात अमेरिकन विदुषी मेरी लुइ बर्क (भगिनी गार्गी) द्वारा लिखित ‘Swami Vivekananda in the West’ नामक छ: खण्डात्मक बृहत् ग्रन्थ के प्रथम खण्ड के ‘The Parliament of Religions’ नामक अध्याय का यह अनुवाद है। इसमें एक ऐतिहासिक विश्वधर्म महासभा की पृष्ठभूमि, उसका आयोजन एवं गतिविधियाँ इन सबका स्वामीजी के सन्दर्भ में बड़ा ही रोचक एवं उद्धोधक वर्णन आता है। स्वामीजी ने इस महासभा में कैसी अहम् भूमिका निभायी तथा इसके द्वारा अपने गुरुदेव का सर्वधर्म-समन्वय का सन्देश और अपनी मातृभूमि का गौरव संसार के सन्मुख उज्ज्वलता से अंकित किया यह हम इस लघुग्रन्थ के अध्ययन से समझ सकते हैं।
हमें विश्वास है कि विवेकानन्द-प्रेमी पाठक इस पुस्तक का सोत्साह स्वागत करेंगे।
8.1.1994
प्रकाशक
शिकागो की विश्व धर्म महासभा
1893 ई. की विश्व अमेरिकन प्रदर्शनी का मुख्य उद्देश्य मानव की भौतिक
प्रगति को एकत्रित करना था। कल्पना करने योग्य प्रत्येक वस्तु वहाँ
प्रदर्शित थी-न केवल पाश्चात्य सभ्यता की उपलब्धियों को, वरन् विश्व की
अधिक पिछड़ी संस्कृतियों को भी आदमकद नमूनों आदि के द्वारा बेहतर ढंग से
प्रस्तुत किया गया था। यह प्रदर्शनी हालाँकि तब तक पूर्णता प्राप्त नहीं
होती जब तक उसे विश्व-चिन्तन का प्रतिनिधत्व प्राप्त नहीं होता। हॉग्टन
(Walter B. Houghton) द्वारा संपादित ‘नीली का
विश्व-धर्म-महासभा का
इतिहास’ नामक पुस्तक हमें दर्शाती है कि
‘‘जिनकी धरती
के कोने-कोने से आए प्रतिनिधियों का समावेश होगा ऐसी अनेक व्यापक सभाओं के
आयोजन द्वारा मानवता के कल्याणार्थ महानतम तथ्य उजागर करने की वह कल्पना
सर्वप्रथम श्री चार्ल्स करल बॉनी ने 1889 के ग्रीष्मकाल में की
थी।’’
श्री बॉनी उस समय सुविख्यात वकील थे। 1890 ई. से वे ‘इंटरनेशनल लॉ एण्ड ऑर्डर लीग’ के अध्यक्ष पद पर सुशोभित थे एवं कई महत्त्वपूर्ण संवैधानिक एवं आर्थिक सुधार के सृजक थे। उनकी बात आदर से मानी जाती थी और उन्हें जन साधारण सदैव अनुमोदित करता था। एक समिति का निर्माण किया गया, 30 अक्टूबर 1990 को अमेरिकन प्रदर्शनी की एक विश्व सहायक सभा का संगठन हुआ जिसके अध्यक्ष श्री बॉनी थे। विस्तृत एवं जटिल योजनाएँ बनाई गईं, जिसके अन्तर्गत अकथनीय संख्या में पत्रों का आदान-प्रदान पृथ्वी के सभी कोनों से होता रहा। अन्तत: 15 मई एवं 28 अक्टूबर 1893 के मध्य जो सभाएँ हुई। उनकी संख्या बीस थी। इनमें विस्तारपूर्वक विभिन्न मुद्दों पर विचार-विनिमय हुआ जैसे-नारी-जाति की प्रगति, सार्वजनिक प्रेस, औषधी एवं शल्य विज्ञान, संयम, सुधार, अर्थ-विज्ञान, संगीत, रविवासरीय अवकाश-तथा-‘चूँकि अलौकिक शक्ति में विश्वास.....सूर्य के सदृश ज्वलन्त हुआ करता है, मनुष्य की बौद्धिक एवं नैतिक उन्नति के पार्श्व में ज्ञान प्रदायिनी शक्ति एवं फलोत्पादन में समर्थ तत्त्व हुआ करता है’’-धर्म। हॉग्टन कहते हैं ‘‘इतनी बहुसंख्याक हुआ करती थीं इनकी सभाएँ एवं इतने विस्तृत होते थे उनके क्रिया-कलाप कि इनके कार्यक्रमों की 160 पृष्ठों वाली मनोरंजक पुस्तक छपी थी।’’
इन सभाओं में से धर्म-सभा ने ही सबसे अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की एवं वही सबसे विस्तृत मात्रा में उद्घोषित हुई। श्री बैरोज ‘‘विश्व
धर्म-महासभा’’ में लिखते हैं ‘इसके पूर्व ऐसी जनसभा कभी एकत्रित नहीं हुई थी....जिसकी प्रतीक्षा इतनी उत्सुकता से विश्व-व्यापी स्तर पर की गई।’ धर्म-जगत् के इतिहास में निश्चय ही यह एक अनुपम एवं अद्भुत घटना थी। यह सत्य है कि भारतीय इतिहास में सर्वत्र विभिन्न धर्मों की सभाएँ हुई हैं, तथा यह भी सत्य है कि 1893 ई. के पूर्व भी समय-समय पर किस्तानी एवं मुसलमानों की धार्मिक सभाएँ दी हुई थीं। परन्तु यथार्थत: यह कहा जा सकता है कि पूर्वकाल में कभी भी दुनिया के महानतम धर्मों के प्रतिनिधियों को ऐसे किसी एक स्थान पर एकत्रित नहीं किया जा सका था, जहाँ वे अपने-अपने धार्मिक विश्वासों पर निर्भय होकर हजारों मनुष्यों के समझ कह सकें। वह एक अतुलनीय सभा थी, तथा उन असहिष्णुता एवं भौतिकवाद के दिनों में जब सर्वप्रथम इसका प्रस्ताव रखा गया तो बहुतेरों को यह मानवों के लिए असाध्य-सा प्रतीत हुआ। किसी आकस्मिक निरीक्षक को भी वस्तुत: यह भान होता कि अतिमानवी शक्ति से गतिमान कर रही है, एवम् यह जानकर किसी को भी आश्चर्य न होगा कि स्वामीजी ने अमेरिका-प्रस्थान के पूर्व ही स्वामी तुरीयानन्द से कहा था, ‘‘धर्म-महासभा का संगठन इसके लिए (अपनी ओर इंगित कर) हो रहा है। मेरा मन मुझसे ऐसा कहता है। सत्य सिद्ध होने में अधिक समय नहीं लगेगा।’’
हाँलाकि धर्म-सभा को संगठित करने वाले जो लोग विश्व के धर्मों को एकत्रित करने में मात्र यन्त्र-स्वरूप थे, उनके मस्तिष्क में कभी भी यह बात नहीं उभरी। चाहे ईश्वरीय विधान कुछ भी क्यों न हो, परन्तु इस संगठन के पीछे जो मानवीय उद्देश्य थे वे मिश्रित थे। स्वामीजी के बाद के अपने पत्र में लिखा है: ‘‘ईसाई धर्म का अन्य सभी धार्मिक विश्वासों के ऊपर वर्चस्व साबित करने हेतु ही विश्व धर्म-महासभा का संगठन किया गया था......’’ तथा पुन:, एक साक्षात्कार के दौरान वे बोले थे, ‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह विश्व-धर्म-महासभा का संगठन जगत के समक्ष अक्रिस्तियों का मजाक उड़ाने हेतु हुआ है।’’
जिस सर्वधर्म-सभा ने स्वामीजी का पश्चिमी जगत से परिचय कराया उसके बारे में उनकी यह धारणा किसी के विचार में न्यायोचित नहीं है। परन्तु सभा की तैयारियों एवं क्रियाकलापों का यदि अध्ययन किया जाए तो किसी को इसमें लेशमात्र भी शंका नहीं रह जाएगी कि यह आयोजन सर्वत्र ईसाई अभिमान से ही व्याप्त था। ईसाई धर्म गौरवपूर्वक एवं निरपवाद रूप से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करेगा यह निश्चित पूर्व धारणा इसके संस्थापकों में से अनेकों की बन गई थी।
दूसरी ओर, सभा से संबंधित कुछ ऐसे भी लोग थे जो कोई धार्मिक मत से बद्ध नहीं थे, जिन्हें किसी भी तरह कोई मतलब नहीं साधना था, जिन्हें धर्मसभा का व्यापक एवं यथार्थ रूप ही गोचर हो रहा था। ऐसे लोगों के लिए तो यह सत्यान्वेषी लोगों से आपसी समझ एवं सद्भाव को बढ़ावा देने का एक अभूतपूर्व अवसर था। इनमें से एक थे अध्यक्ष बॉनी जिन्होंने कार्य की योजना बनाई एवम् उसे अत्यन्त सरलतापूर्वक सम्पन्न किया, और वे कोई पादरी नहीं थे, एक अधिवक्ता जिन्होंने गिरजाघरों के सभी प्रतिष्ठान व्यक्तियों का सभापतित्व किया।
मधुर विद्वान सहिष्णु श्री बॉनी जिनकी आत्मा उनकी उज्ज्वल आँखों के माध्यम से बोलती थी..। बॉनी ने स्वयं धर्म-सभा द्वारा क्या उपलब्धि होगी इस विषय में अपने स्वप्न का वर्णन किया है:.....मैं अपनी युवावस्था में ही विश्व की महानतम धार्मिक व्यवस्थाओं से परिचित हुआ था, एवं परिपक्वावस्था में ही अनेक गिरिजाघरों के वरिष्ठतम लोगों का आनन्ददायक सान्निध्य-लाभ किया था। इस तरह मैं विश्वास करने पर बाध्य हुआ कि यदि सभी महान् धार्मिक विश्वासों को समीप लाकर उनमें सामंजस्य स्थापित किया जाए तो अनेक स्थलों पर उनमें सद्भाव एवं सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है, जिसके फलस्वरूप आनेवाली मानवीय एकता प्रभु के प्रेम में मानव की सेवा में तत्पर एवं अधिक उन्नत होगी।’’ यद्यपि धर्मसभा के पीछे श्री बॉनी की ही प्रेरणा थी, तथापि यथार्थत: वे नहीं अपितु शिकागो के प्रथम गिरिजाघर के वरिष्ठ पादरी माननीय जॉन हेनरी बैरोज, जो साधारण समिति के सभापति भी थे-वे ही विस्तृत पूर्वयोजना कार्यरूप में परिणत करते हेतु उत्तरदायी थे।
समिती का क्रम-क्षेत्र बड़ा विशाल था। करीब दस हजार पत्र एवं चालीस हजार से भी अधिक प्रलेख बाहर प्रेषित किए गए एवं पृथ्वी के हर भागों से बृहत् पैमाने पर उत्तर प्राप्त किए गए। बैरोज अभिमानपूर्वक लिखते हैं ‘‘करीब तीस महीनों तक संसार की सभी रेल पटरियाँ एवं जहाज मार्ग अनजाने में ही इस धर्म-सभा के लिए कार्य करते रहे हैं। शिकागो डाक-घर के क्लर्क उन चिट्ठियों के बड़े गट्ठरों से जूझते रहे जो पहले ही मद्रास, बम्बई एवं टोकियो के डाक-कर्मियों की नीली अँगुलियों के बीच से निकल आई थीं।’’ सलाहाकार परिषद के सदस्य सारी दुनिया से चुने गए जिनकी संख्या तीन हजार तक पहुँच गई। भारत के चुने गए परिषद के सदस्यों में थे जी एस. अय्यर-हिन्दू पत्र के सम्पादक, बम्बई के बी.बी. नगरकर, तथा कलकत्ता के पी. सी. मजुमदार, अन्त के दोनों व्यक्तियों ने धर्म-महासभा में ब्राह्म-समाज का प्रतिनिधित्व किया था।
श्री बॉनी उस समय सुविख्यात वकील थे। 1890 ई. से वे ‘इंटरनेशनल लॉ एण्ड ऑर्डर लीग’ के अध्यक्ष पद पर सुशोभित थे एवं कई महत्त्वपूर्ण संवैधानिक एवं आर्थिक सुधार के सृजक थे। उनकी बात आदर से मानी जाती थी और उन्हें जन साधारण सदैव अनुमोदित करता था। एक समिति का निर्माण किया गया, 30 अक्टूबर 1990 को अमेरिकन प्रदर्शनी की एक विश्व सहायक सभा का संगठन हुआ जिसके अध्यक्ष श्री बॉनी थे। विस्तृत एवं जटिल योजनाएँ बनाई गईं, जिसके अन्तर्गत अकथनीय संख्या में पत्रों का आदान-प्रदान पृथ्वी के सभी कोनों से होता रहा। अन्तत: 15 मई एवं 28 अक्टूबर 1893 के मध्य जो सभाएँ हुई। उनकी संख्या बीस थी। इनमें विस्तारपूर्वक विभिन्न मुद्दों पर विचार-विनिमय हुआ जैसे-नारी-जाति की प्रगति, सार्वजनिक प्रेस, औषधी एवं शल्य विज्ञान, संयम, सुधार, अर्थ-विज्ञान, संगीत, रविवासरीय अवकाश-तथा-‘चूँकि अलौकिक शक्ति में विश्वास.....सूर्य के सदृश ज्वलन्त हुआ करता है, मनुष्य की बौद्धिक एवं नैतिक उन्नति के पार्श्व में ज्ञान प्रदायिनी शक्ति एवं फलोत्पादन में समर्थ तत्त्व हुआ करता है’’-धर्म। हॉग्टन कहते हैं ‘‘इतनी बहुसंख्याक हुआ करती थीं इनकी सभाएँ एवं इतने विस्तृत होते थे उनके क्रिया-कलाप कि इनके कार्यक्रमों की 160 पृष्ठों वाली मनोरंजक पुस्तक छपी थी।’’
इन सभाओं में से धर्म-सभा ने ही सबसे अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की एवं वही सबसे विस्तृत मात्रा में उद्घोषित हुई। श्री बैरोज ‘‘विश्व
धर्म-महासभा’’ में लिखते हैं ‘इसके पूर्व ऐसी जनसभा कभी एकत्रित नहीं हुई थी....जिसकी प्रतीक्षा इतनी उत्सुकता से विश्व-व्यापी स्तर पर की गई।’ धर्म-जगत् के इतिहास में निश्चय ही यह एक अनुपम एवं अद्भुत घटना थी। यह सत्य है कि भारतीय इतिहास में सर्वत्र विभिन्न धर्मों की सभाएँ हुई हैं, तथा यह भी सत्य है कि 1893 ई. के पूर्व भी समय-समय पर किस्तानी एवं मुसलमानों की धार्मिक सभाएँ दी हुई थीं। परन्तु यथार्थत: यह कहा जा सकता है कि पूर्वकाल में कभी भी दुनिया के महानतम धर्मों के प्रतिनिधियों को ऐसे किसी एक स्थान पर एकत्रित नहीं किया जा सका था, जहाँ वे अपने-अपने धार्मिक विश्वासों पर निर्भय होकर हजारों मनुष्यों के समझ कह सकें। वह एक अतुलनीय सभा थी, तथा उन असहिष्णुता एवं भौतिकवाद के दिनों में जब सर्वप्रथम इसका प्रस्ताव रखा गया तो बहुतेरों को यह मानवों के लिए असाध्य-सा प्रतीत हुआ। किसी आकस्मिक निरीक्षक को भी वस्तुत: यह भान होता कि अतिमानवी शक्ति से गतिमान कर रही है, एवम् यह जानकर किसी को भी आश्चर्य न होगा कि स्वामीजी ने अमेरिका-प्रस्थान के पूर्व ही स्वामी तुरीयानन्द से कहा था, ‘‘धर्म-महासभा का संगठन इसके लिए (अपनी ओर इंगित कर) हो रहा है। मेरा मन मुझसे ऐसा कहता है। सत्य सिद्ध होने में अधिक समय नहीं लगेगा।’’
हाँलाकि धर्म-सभा को संगठित करने वाले जो लोग विश्व के धर्मों को एकत्रित करने में मात्र यन्त्र-स्वरूप थे, उनके मस्तिष्क में कभी भी यह बात नहीं उभरी। चाहे ईश्वरीय विधान कुछ भी क्यों न हो, परन्तु इस संगठन के पीछे जो मानवीय उद्देश्य थे वे मिश्रित थे। स्वामीजी के बाद के अपने पत्र में लिखा है: ‘‘ईसाई धर्म का अन्य सभी धार्मिक विश्वासों के ऊपर वर्चस्व साबित करने हेतु ही विश्व धर्म-महासभा का संगठन किया गया था......’’ तथा पुन:, एक साक्षात्कार के दौरान वे बोले थे, ‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह विश्व-धर्म-महासभा का संगठन जगत के समक्ष अक्रिस्तियों का मजाक उड़ाने हेतु हुआ है।’’
जिस सर्वधर्म-सभा ने स्वामीजी का पश्चिमी जगत से परिचय कराया उसके बारे में उनकी यह धारणा किसी के विचार में न्यायोचित नहीं है। परन्तु सभा की तैयारियों एवं क्रियाकलापों का यदि अध्ययन किया जाए तो किसी को इसमें लेशमात्र भी शंका नहीं रह जाएगी कि यह आयोजन सर्वत्र ईसाई अभिमान से ही व्याप्त था। ईसाई धर्म गौरवपूर्वक एवं निरपवाद रूप से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करेगा यह निश्चित पूर्व धारणा इसके संस्थापकों में से अनेकों की बन गई थी।
दूसरी ओर, सभा से संबंधित कुछ ऐसे भी लोग थे जो कोई धार्मिक मत से बद्ध नहीं थे, जिन्हें किसी भी तरह कोई मतलब नहीं साधना था, जिन्हें धर्मसभा का व्यापक एवं यथार्थ रूप ही गोचर हो रहा था। ऐसे लोगों के लिए तो यह सत्यान्वेषी लोगों से आपसी समझ एवं सद्भाव को बढ़ावा देने का एक अभूतपूर्व अवसर था। इनमें से एक थे अध्यक्ष बॉनी जिन्होंने कार्य की योजना बनाई एवम् उसे अत्यन्त सरलतापूर्वक सम्पन्न किया, और वे कोई पादरी नहीं थे, एक अधिवक्ता जिन्होंने गिरजाघरों के सभी प्रतिष्ठान व्यक्तियों का सभापतित्व किया।
मधुर विद्वान सहिष्णु श्री बॉनी जिनकी आत्मा उनकी उज्ज्वल आँखों के माध्यम से बोलती थी..। बॉनी ने स्वयं धर्म-सभा द्वारा क्या उपलब्धि होगी इस विषय में अपने स्वप्न का वर्णन किया है:.....मैं अपनी युवावस्था में ही विश्व की महानतम धार्मिक व्यवस्थाओं से परिचित हुआ था, एवं परिपक्वावस्था में ही अनेक गिरिजाघरों के वरिष्ठतम लोगों का आनन्ददायक सान्निध्य-लाभ किया था। इस तरह मैं विश्वास करने पर बाध्य हुआ कि यदि सभी महान् धार्मिक विश्वासों को समीप लाकर उनमें सामंजस्य स्थापित किया जाए तो अनेक स्थलों पर उनमें सद्भाव एवं सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है, जिसके फलस्वरूप आनेवाली मानवीय एकता प्रभु के प्रेम में मानव की सेवा में तत्पर एवं अधिक उन्नत होगी।’’ यद्यपि धर्मसभा के पीछे श्री बॉनी की ही प्रेरणा थी, तथापि यथार्थत: वे नहीं अपितु शिकागो के प्रथम गिरिजाघर के वरिष्ठ पादरी माननीय जॉन हेनरी बैरोज, जो साधारण समिति के सभापति भी थे-वे ही विस्तृत पूर्वयोजना कार्यरूप में परिणत करते हेतु उत्तरदायी थे।
समिती का क्रम-क्षेत्र बड़ा विशाल था। करीब दस हजार पत्र एवं चालीस हजार से भी अधिक प्रलेख बाहर प्रेषित किए गए एवं पृथ्वी के हर भागों से बृहत् पैमाने पर उत्तर प्राप्त किए गए। बैरोज अभिमानपूर्वक लिखते हैं ‘‘करीब तीस महीनों तक संसार की सभी रेल पटरियाँ एवं जहाज मार्ग अनजाने में ही इस धर्म-सभा के लिए कार्य करते रहे हैं। शिकागो डाक-घर के क्लर्क उन चिट्ठियों के बड़े गट्ठरों से जूझते रहे जो पहले ही मद्रास, बम्बई एवं टोकियो के डाक-कर्मियों की नीली अँगुलियों के बीच से निकल आई थीं।’’ सलाहाकार परिषद के सदस्य सारी दुनिया से चुने गए जिनकी संख्या तीन हजार तक पहुँच गई। भारत के चुने गए परिषद के सदस्यों में थे जी एस. अय्यर-हिन्दू पत्र के सम्पादक, बम्बई के बी.बी. नगरकर, तथा कलकत्ता के पी. सी. मजुमदार, अन्त के दोनों व्यक्तियों ने धर्म-महासभा में ब्राह्म-समाज का प्रतिनिधित्व किया था।
|
लोगों की राय
No reviews for this book