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महापुरुषों की जीवनगाथाएँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :106
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5922
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक महापुरुषों की जीवनगाथाएँ...

Mahapurushon Ki Jeevangathayein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

(अष्टम संस्करण)

‘महापुरुषों की जीवनगाथाएँ’ पुस्तक का यह नवीन अष्टम संस्करण है। प्रस्तुत पुस्तक में स्वामी विवेकानन्द के कुछ उन व्याख्यानों का संग्रह है, जो उन्होंने अमेरिका में संसार के कुछ अवतारों एवं महान आत्माओं की जीवनी तथा उनके उपदेशों पर दिये गये थे। ये व्याख्यान प्राच्य संस्कृति और विशेषकर भारतीय शिक्षा-दीक्षा एवं सभ्यता के विशेष द्योतक हैं। महान अवतारों की जीवनी की विवेचना एवं मीमांसा जिस प्रकार स्वामीजी ने की है, वह बड़ी अमूल्य तथा अपने ही ढंग की है। इसमें पाठकों के वैयक्तिक चरित्र-गठन के संजीवनी प्राप्त होती है और जनसमुदाय तथा समाज के लिए भी यह लाभदायक है। विद्यार्थियों तथा किशोर छात्रों का इन उदार एवं महान जीवन-चरित्रों से बड़ा ही हित होगा।
हम श्री हरिवल्लभ जोशी, एम.ए., के बड़े आभारी हैं, जिन्होंने यह अनुवाद बड़ी सफलतापूर्वक किया है।

प्रकाशक

महापुरुषों की जीवनगाथाएँ

रामायण

(31 जनवरी, 1900 ई. को कैलिफोर्निया के अन्तर्गत पैसाडेना नामक स्थान में ‘शेक्सपियर-सभा’ में दिया गया भाषण)

गीर्वाण भारती का भण्डार शत-शत काव्य-रत्नों से परिपूर्ण है, किन्तु उनमें दो महाकाव्य अत्यन्त प्राचीन है ! यद्यपि आज सहस्र वर्षों से संस्कृत बोल-चाल की भाषा नहीं रही है, तथापि उनकी साहित्य-सरिता आज तक अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित हो रही है। मैं आज उन्हीं दो प्राचीन महाकाव्यों-रामायण और महाभारत- के संबंध में अपने विचार प्रकट करूँगा। इन दोनों महाकाव्यों में प्राचीन आर्यावर्त की सभ्यता और संस्कृति, तत्कालीन आचार-विचार एवं सामाजिक अवस्था लिपिबद्ध है। इन महाकाव्यों में प्राचीनतर ‘रामायण’ है, जिसमें राम के जीवन की कथा कही गयी है। रामायण के पूर्व भी संस्कृत में काव्य का अभाव न था। भारतीयों के पवित्र धर्मग्रन्थ वेदों का अधिकांश पद्यमय ही है, किन्तु सर्वसम्मति से भारतवर्ष में रामायण ही आदिकाव्य माना जाता है।

इस आदिकाव्य के प्रणेता हैं-आदिकवि महर्षि वाल्मीकि। कालान्तर में अनेक काव्यमय आख्यायिकाओं का कर्तृव्य भी उन्हीं आदिकवि पर आरोपित किया गया और बाद में तो इस महाकवि के नाम से अपनी रचनाएँ प्रचलित करने की एक प्रथा-सी चल पड़ी। किन्तु इन सब क्षेपकों और प्रक्षिप्तांशों के होते हुए भी, रामायण हमें अत्यन्त सुग्रथित रूप में प्राप्त हुई है और वह विश्व साहित्य में अप्रतिम हैं।

प्राचीन काल में किसी निबिड़ वन-प्रदेश में एक युवक निवास करता था। वह अत्यन्त बलवान और दृढ़ था। जब वह किसी भी प्रकार अपने आत्मीयों का भरण-पोषण करने में सफल न हुआ, तो अन्त में दस्युवृत्ति स्वीकार कर ली ! अब वह पथिकों पर आक्रमण करता और उनकी सम्पत्ति लूटकर अपने माता-पिता और स्त्री-पुत्रादि का उदर-पोषण करता। इस प्रकार कई वर्ष बीत गये। एक समय की बात है कि संयोगवश महर्षि नारद मर्त्यलोक का भ्रमण करते हुए उसी वन में से निकले और उस दस्यु युवक ने उस पर आक्रमण किया। महर्षि ने उससे पूछा, ‘‘तुम मुझे क्यों लूट रहे हो ? मनुष्यों का धन अपहरण करना और उनका वध करना तो एक बड़ा जघन्य दुष्कृत्य है। तुम क्यों यह पाप संचय कर रहे हो ?’’ दस्यु ने उत्तर दिया, ‘‘मैं इस धन द्वारा अपने कुटुम्बियों का पालन करता हूँ।’’

देवर्षि नारद यह सुनकर बोले, ‘‘दस्युयुवक ! क्या तुमने कभी इस बात का भी विचार किया है कि तुम्हारे आत्मीय जन तुम्हारे पाप में भी सहभागी होंगे ?’’ दस्यु बोला, ‘‘निश्चय ही वे सब मेरे पाप का भाग भी ग्रहण करेंगे।’’ इस पर देवर्षि बोले, ‘‘अच्छा, तुम एक काम करो। मुझे इस वृक्ष से बाँध दो और जाकर अपने स्वजनों से जरा पूछों तो कि जिस प्रकार वे तुम्हारे पापाचरण द्वारा प्राप्त वित्त का उपभोग करते हैं, उसी प्रकार क्या तुम्हारे संचित पापों का अंश भी ग्रहण करेंगे ?’’ दस्यु दौड़ता हुआ अपने पिता के पहुँचा और उसने पूछा, ‘‘पिताजी क्या आप जानते हैं, मैं किस प्रकार आपका पालन-पोषण करता हूँ ?’’ पिता बोले, ‘‘नहीं तो।’’ तब वह बोला, ‘‘मैं दस्यु हूँ- पथिकों को काल के पास पहुँचाकर मैं उनका धन अपहृत कर लिया करता हूँ।’’ पिता ने यह सुना, तो क्रोध से आरक्तनयन हो बोले, ‘‘नीच ! पापी !! कुलांगार !!! तू मेरा पुत्र होकर यह पापकृत्य करता है ! दूर हट मेरे सामने से, और अब मुझे अपना काला मुँह न दिखाना।’’

दस्यु यह सुन उलटे पैरों वहाँ से लौटकर अपनी माँ के पास पहुँचा। उसने माँ से भी दस्युवृत्ति द्वारा अहपृत कुटुम्बपालन करने की कथा कह सुनायी। माँ यह सुनते ही चीत्कार कर बोल उठी, ‘‘उफ ! कितना घोर दुष्कर्म !’’ पर दस्यु के पास ये सब सुनने का धैर्य कहा था ! उसने अधीर होकर पूछा, ‘‘पर माँ ! क्या तुम मेरे पाप का भी ग्रहण करोगी ?’’ माँ ने अम्लमान मुख से कहा, ‘‘कौन मैं ? मैं क्या तुम्हारे पाप का भाग ग्रहण करूँ ? मैंने थोड़े ही किसी को लूटा है !’’ माँ का उत्तर सुन दस्यु चुपचाप अपनी पत्नी के पास पहुँचा। उसने पुन: वही प्रश्न दुहराया, ‘‘क्या तुम जानती हो, मैं किस भाँति तुम्हारी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता हूँ ?’’ जब पत्नी ने भी ‘नहीं’ कहा, तो दस्यु बोला, ‘‘तो सुन लो । मैं एक दस्यु हूँ- एक डाकू और लुटेरा हूँ। वर्षों से मैं पथिकों को लूट-लूटकर तुम सबका उदर-पोषण कर रहा हूँ। और आज मैं तुमसे यह पूछने आया हूँ कि क्या मेरे पाप में मेरी सहभागी बनोगी ?’’ पत्नी ने तत्क्षण उत्तर दिया, ‘‘नहीं- कदापि नहीं ! तुम मेरे पति हो और मेरा पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है। तुम किसी भी भाँति अपनी कर्तव्यपूर्ति क्यों न करो, मैं तुम्हारे कार्यों का अशुभ फल ग्रहण नहीं करूँगी।’’

दस्यु ने जब यह सुना, तो उसके पैरोंतंले की जमीन खिसक गयी। पर अब उसकी आँखें खुल गयी थीं। उसने कहा, ‘‘यह मैं इस स्वार्थपूर्ण संसार की रीति ! जिनके लिए मैं पापकृत्य करता रहा हूँ, वे मेरे आत्मीय भी मेरे प्रारब्ध के भागी नहीं होंगे।’’ यही सोचते सोचते वह उस स्थान पर आया, जहाँ उसने देवर्षि को बाँध रखा था, और उन्हें बन्धनमुक्त कर वह उनके पदाम्बुजों में पतित हो, आद्योपान्त सारी घटना सुनाकर बोला, ‘‘प्रभो ! मेरी रक्षा करो-मुझे सन्मार्ग दिखाओ !’’ तब महर्षि नारद ने उसे स्नेहपूर्ण वाणी में उपदेश दिया, ‘‘वत्स ! इस पापपूर्ण दस्युवृत्ति का परित्याग कर दो। तुमने देख लिया कि तुम्हारे स्वजनों का तुमसे यथार्थ में स्नेह नहीं है, इसलिए इन सब मोहपूर्ण भ्रान्तियों का त्याग कर दो।

तुम्हारे परिवारजन तुम्हारे ऐश्वर्य में तुम्हारा साथ देंगे पर जिस क्षण उन्हें ज्ञात हो जायगा कि तुम दरिद्र हो गये हो, उसी क्षण वे तुम्हें तुम्हारे दु:ख से अकेला छोड़कर चले जायँगे। संसार में सुख और पुण्य के भागी तो अनेकों हो जाते हैं, किन्तु दु:ख और पाप का साथी कोई नहीं होना चाहता। इसलिए उस दयानिधि परमेश्वर की उपासना करो, जो सुख-दु:ख, पाप-पुण्य सभी अवस्थाओं में तुम्हारा साथ देता है और रक्षा करता है। वह कदापि हमारा परित्याग नहीं करता; क्योंकि उसका प्रेम यथार्थ है, और यथार्थ प्रेम में कभी विनिमय नहीं होता-वह स्वार्थपरता से कोसों दूर रहता है और आत्मा को उन्नत बनाता है।’’

तदुपरान्त देवर्षि नारद ने उस दस्यु युवक को ईश्वरोपासना की विधी सिखलायी। उनके उपदेशों से प्रभावित हो दस्यु का हृदय मोह शून्य हो गया और वह सर्वस्व परित्याग कर सघन अरण्यप्रदेश में साधना करने चला गया। वहाँ ईश्वराराधना और ध्यान में वह धीरे धीरे इतना तल्लीन हो गया कि उसे देहज्ञान भी न रहा, यहाँ तक की चीटियों ने उसकी देह पर अपने वल्मीक बना लिये और उसे इसका भान तक न हुआ। अनेक वर्ष व्यतीत हो जाने पर एक दिन दस्यु को यह गंभीर ध्वनि सुनायी पड़ी, ‘‘उठिए, महर्षि, उठिए।’’ वह चकित होकर बोल उठा, ‘‘महर्षि ?

नहीं-मैं तो एक अधम दस्यु हूँ।’’ फिर गंभीर वाणी उसे सुनायी दी, ‘‘अब तुम दस्यु नहीं रहे-अब तुम्हारा हृदय पवित्र हो गया है, तुम अब तपोभूत महर्षि हो और आज से तुम्हारे पापों के नाश के साथ तुम्हारा वह पुराना नाम भी लुप्त हो जायगा। तुम्हारी समाधि इतनी गहरी थी तुम ईश्वर-ध्यान में इतने तल्लीन हो गये थे कि तुम्हारी देह के चतुर्दिक जो वल्मीक बन गये, उनका तुम्हें ज्ञान तक न हुआ ! इसलिए आज से तुम वाल्मीकि नाम से प्रसिद्ध हुए।’’ इस प्रकार वह दस्यु ध्यान और तपस्या के बल से एक दिन महर्षि वाल्मीकि के नाम से विख्यात हो गया।



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