विवेकानन्द साहित्य >> धर्मविज्ञान धर्मविज्ञानस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक धर्मविज्ञान....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वक्तव्य
प्रस्तुत पुस्तक का यह संस्करण पाठकों के सम्मुख रखते हमें बड़ी प्रसन्नता
होती है। सन् 1896 ई. के आरम्भ में स्वामी विवेकानन्दजी ने न्यूयार्क में
अपनी एक धर्मकक्षा में धर्म के ‘शास्त्रीय एवं
तात्विक’ अंगों
पर जो विवेचनापूर्ण भाषण दिये थे, उन्हीं का यह हिन्दी अनुवाद
है।
इस ग्रन्थ में सांख्य तथा वेदान्त मत विशेष रूप से आलो-चित किये गये हैं; साथ ही बड़े सुन्दर एवं सुचारु रूप से यह दर्शाते हुए कि इन दोनों में किन किन स्थानों पर ऐक्य हैं तथा कहाँ-कहाँ विभिन्नता, यह भी दिखाया गया है कि वेदान्त सांख्य मत की ही चरम परिणति है।
प्रस्तुत पुस्तक में धर्म के मूल तत्त्वों का—जिन्हें ठीक ठीक समझे बिना धर्म नामक वस्तु पूर्ण रूप से हृदयंगम नहीं की जा सकती—आधुनिक विज्ञान के साथ मेल करते हुए आलोचना की गयी है। इसीलिए इसका नाम ‘धर्मविज्ञान’ रखा गया है।
इस पुस्तक द्वारा मुमुक्षु एवं धर्मपिपासु व्यक्तियों को धर्म-पथ पर अग्रसर होने में सहायता मिले, यही हमारी हार्दिक प्रार्थना है।
इस ग्रन्थ में सांख्य तथा वेदान्त मत विशेष रूप से आलो-चित किये गये हैं; साथ ही बड़े सुन्दर एवं सुचारु रूप से यह दर्शाते हुए कि इन दोनों में किन किन स्थानों पर ऐक्य हैं तथा कहाँ-कहाँ विभिन्नता, यह भी दिखाया गया है कि वेदान्त सांख्य मत की ही चरम परिणति है।
प्रस्तुत पुस्तक में धर्म के मूल तत्त्वों का—जिन्हें ठीक ठीक समझे बिना धर्म नामक वस्तु पूर्ण रूप से हृदयंगम नहीं की जा सकती—आधुनिक विज्ञान के साथ मेल करते हुए आलोचना की गयी है। इसीलिए इसका नाम ‘धर्मविज्ञान’ रखा गया है।
इस पुस्तक द्वारा मुमुक्षु एवं धर्मपिपासु व्यक्तियों को धर्म-पथ पर अग्रसर होने में सहायता मिले, यही हमारी हार्दिक प्रार्थना है।
धर्मविज्ञान
(सांख्य और वेदान्त तत्त्व की समालोचना
सूचना
हम सब का यह जगत्—यह पंचेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य जगत-यह जगत्
जिसका
तत्व हम युक्ति और बुद्धि के बल से समझ पाते हैं—इसके दोनों ओर
अनन्त, दोनों ओर अज्ञेय, चिर अज्ञात विद्यमान है। जो ज्ञानालोक जगत् में
धर्म के नाम से परिचित है, उसका तत्त्व इस जगत में ही ढूँढ़ना होता है;
जिन सब विषयों की आलोचना से धर्मलाभ होता है, वे सब इस जगत की ही घटनाएँ
हैं, किन्तु धर्म स्वरूपतः अतीन्द्रिय आँख, कान आदि से अगोचर भूमि की
वस्तु है, इन्द्रिय से अतीत भूमि के अधिकार की वस्तु है, इन्द्रिय-राज्य
की नहीं। वह सब प्रकार की युक्ति से भी अतीत है, इसलिए वह बुद्धि के राज्य
की भी अधिकारभुक्त नहीं है।
वह दिव्य-दर्शन-स्वरूप है, वह मनुष्य के मन में ईश्वरीय अलौकिक प्रभावस्वरूप है, अज्ञात और अज्ञेय के समुद्र में झम्पस्वरूपहै; यह अज्ञेय को ज्ञात की अपेक्षा हमें अधिक परिचित करा देता है क्योंकि वह कभी ‘ज्ञात’ हो नहीं सकता। हमारा विश्वास है, मनुष्य-समाज के प्रारम्भ से ही मनुष्य के मन में इस धर्मत्त्व की खोज चल रही है। जगत् के इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं आया, जब मनुष्य की युक्ति और मनुष्य की बुद्धि ने इस जगत् के पार की वस्तु के लिए अनुसन्धान न किया हो, उसके लिए प्राणपण यत्न न किया हो।
हमारे छोटेसे ब्रह्माण्ड में—मनुष्य के इस मन में—हम देख पाते हैं कि एक चिन्ता का उदय हुआ। कहाँ से वह चिन्ता उदय हुई, यह हम नहीं जानते। और जब वह लुप्त हुई, तब कहाँ गयी, यह भी हम नहीं जानते। बहिर्जगत् और अन्तर्जगत् मानो एक ही मार्ग से चल रहे हैं, एक प्रकार की अवस्था के भीतर से दोनों को ही मानो चलना पड़ रहा है, दोनों ही मानो एक सुर में बज रहे हैं।
इस वक्तृतासमूह के द्वारा हम आपके निकट हिन्दुओं के इस मत की व्याखा करने का यत्न करेंगे कि धर्म मनुष्य के भीतर से उत्पन्न है, वह बाहर की किसी वस्तु से नहीं है। हमारा विश्वास है, धर्मचिन्तन मनुष्य के पक्ष में प्रकृतिगत है; वह मनुष्य के स्वभाव के सहित ऐसे अविच्छिन्न भाव से जड़ित है कि जब तक मनुष्य अपनी देह तथा मन का त्याग नहीं कर पाता, जब तक वह चिन्ता और जीवन त्याग नहीं कर पाता, तब तक उसके लिए धर्मत्याग असम्भव है। जितने दिन मनुष्य में चिन्ताशक्ति रहेगी, उतने दिन यह यत्न भी चलेगा और उतने दिन किसी न किसी आकार में उसका धर्म प्रत्येक स्थिति में जीवित रहेगा। इसीलिए हमें जगत् में नाना प्रकार के धर्म दिखायी पड़ते हैं। अवश्य इसकी चर्चा और आलोचना से मस्तिष्क परभ्रमित हो सकता है, किन्तु हम लोगों में से अनेक व्यक्ति जिस प्रकार इसे वृथा कल्पनामात्र समझते हैं, उस प्रकार का इसे कहा नहीं जा सकता। अनेक आपातविरोधी विभिन्न धर्मरूप विश्रृंखलता के भीतर सामंजस्य है, इन सब अ-सुरों और अ-तालों में भी ऐक्यतान है ! जो वह सुनने को प्रस्तुत हैं, वे ऐक्यतान का यह सुर सुन पाएंगे।
वर्तमान काल में सब प्रश्नों में से प्रधान यह है—माना—ज्ञात और ज्ञेय के दोनों ओर अज्ञेय और अनन्त अज्ञात विद्यमान है—किन्तु इस अनन्त अज्ञान को जानने का यत्न क्यों है ? क्यों हम ज्ञात को लेकर ही सन्तुष्ट नहीं होते ? क्यों हम भोजन-पान और समाज का कुछ कल्याण करके ही सन्तुष्ट नहीं रहते ? यही भाव आजकल चारों ओर सुनने को मिलता है। बहुत बड़े-बड़े विद्वान अध्यापक से लेकर एक शिशु के मुँह से भी हम आजकल सुनते रहते हैं—जगत् का उपकार करो—यही एकमात्र धर्म है, जगत् से अतीत सत्ता की समस्या लेकर अस्थिर होने का कोई फल नहीं है।
यह भाव आजकल इतना अधिक प्रबल हो गया है कि यह एक स्वतः सिद्ध सत्य के रूप में उपस्थित है। किन्तु सौभाग्य से इस जगदातीत सत्ता के तत्व का अनुसन्धान किये बिना रहने का अवलम्ब हमारे निकट नहीं है। यह वर्तमान व्यक्ति जगत् उसी अव्यक्त का एक अंश मात्र है। यह पंचेन्द्रिय के द्वारा अनुभूत जगत् मानों उसी अनन्त आध्यात्मिक जगत् का एक क्षुद्र अंशस्वरूप है, हमारी इन्द्रिय-अनुभूति की भूमि में पड़ा है। इसलिए उस अतीत जगत् को बिना जाने किस प्रकार से उसके इस क्षुद्र प्रकाश की व्याख्या हो सकती है, उसे समझा जा सकता है ?
कहा जाता है, साक्रेटिस एक दिन एथे्न्स में वक्तृता दे रहे थे, उसी समय उनसे एक ब्रह्मण की भेंट हुई—ये भारत से ग्रीस देश में गये थे। साक्रेटिस उस ब्राह्मण से बोले, मनुष्य को जानना ही मनुष्यजाति का सर्वोच्च कर्तव्य है—मनुष्य ही मनुष्य की सर्वोच्च आलोचना की वस्तु है।’’ ब्राह्मण ने उसी क्षण उत्तर दिया, ‘‘ईश्वर को जब तक आप नहीं जान लेते, तब तक मनुष्य को किस प्रकार जानियेगा ?’’ ये ईश्वर, यही अनन्त अज्ञात या निरपेक्ष सत्ता या अनन्त या नामातीत वस्तु—उन्हें जिस नाम से इच्छा हो, उसी नाम से पुकारा जाता है—ये ही वर्तमान जीवन के, जो कुछ ज्ञात है और जो कुछ ज्ञेय है, सब के ही एकमात्र युक्तियुक्त व्याख्यास्वरूप हैं।
चाहे जिस वस्तु की बात—सम्पूर्ण जड़ वस्तु की कोई बात—लीजिये। केवल जड़तत्वसम्बन्धी विज्ञान में से कोई भी एक, जैसे—रसायन, पदार्थविद्या, गणित, ज्योतिष या प्राणितत्त्वविद्या की बात लीजिये—उसकी विशेष रूप से आलोचना कीजिये, क्रमशः यह तत्त्वानुसन्धान अग्रसर हो, देखियेगा—स्थूल क्रमशः सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म पदार्थ में लय हो रहा है—अन्त में आपको ऐसे स्थान में आना होगा, जहाँ इन सब जड़ वस्तुओं को छोड़कर इन्हें अतिक्रमण करके अर्थात् फाँदकर अजड़ में जाना ही होगा। सब विद्याओं में ही स्थूल कमशःसूक्ष्म में मिल जाता है, पदार्थविद्या दर्शन में पर्यवसित हो जाती है।
इसी प्रकार मनुष्य को बाध्य होकर जगदातीत सत्ता की आलोचना में उतरना होता है। यदि हम उसे जान न पायें, तो जीवन मरुभूमि बन जायेगा, मानवजीवन वृथा होगा। यह बात कहने में अच्छी है कि वर्तमान में जो देख रहे हो वह सब लेकर ही तृप्त रहो; गाय, कुत्ते और अन्यान्य पशुगण इसी प्रकार वर्तमान के द्वारा ही सन्तुष्ट हैं, और इसी कारण वे पशु बने हैं। अतएव यदि मनुष्य वर्तमान लेकर सन्तुष्ट रहे और जगतातीत सत्ता के समस्त अनुसन्धान का एकदम परित्याग कर दे, तो मानवजाति को पशु की भूमि में फिर से आना होगा। धर्म-जगतातीत सत्ता का अनुसन्धान ही—मनुष्य और पशु में प्रभेद बनाये रखता है।
वह दिव्य-दर्शन-स्वरूप है, वह मनुष्य के मन में ईश्वरीय अलौकिक प्रभावस्वरूप है, अज्ञात और अज्ञेय के समुद्र में झम्पस्वरूपहै; यह अज्ञेय को ज्ञात की अपेक्षा हमें अधिक परिचित करा देता है क्योंकि वह कभी ‘ज्ञात’ हो नहीं सकता। हमारा विश्वास है, मनुष्य-समाज के प्रारम्भ से ही मनुष्य के मन में इस धर्मत्त्व की खोज चल रही है। जगत् के इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं आया, जब मनुष्य की युक्ति और मनुष्य की बुद्धि ने इस जगत् के पार की वस्तु के लिए अनुसन्धान न किया हो, उसके लिए प्राणपण यत्न न किया हो।
हमारे छोटेसे ब्रह्माण्ड में—मनुष्य के इस मन में—हम देख पाते हैं कि एक चिन्ता का उदय हुआ। कहाँ से वह चिन्ता उदय हुई, यह हम नहीं जानते। और जब वह लुप्त हुई, तब कहाँ गयी, यह भी हम नहीं जानते। बहिर्जगत् और अन्तर्जगत् मानो एक ही मार्ग से चल रहे हैं, एक प्रकार की अवस्था के भीतर से दोनों को ही मानो चलना पड़ रहा है, दोनों ही मानो एक सुर में बज रहे हैं।
इस वक्तृतासमूह के द्वारा हम आपके निकट हिन्दुओं के इस मत की व्याखा करने का यत्न करेंगे कि धर्म मनुष्य के भीतर से उत्पन्न है, वह बाहर की किसी वस्तु से नहीं है। हमारा विश्वास है, धर्मचिन्तन मनुष्य के पक्ष में प्रकृतिगत है; वह मनुष्य के स्वभाव के सहित ऐसे अविच्छिन्न भाव से जड़ित है कि जब तक मनुष्य अपनी देह तथा मन का त्याग नहीं कर पाता, जब तक वह चिन्ता और जीवन त्याग नहीं कर पाता, तब तक उसके लिए धर्मत्याग असम्भव है। जितने दिन मनुष्य में चिन्ताशक्ति रहेगी, उतने दिन यह यत्न भी चलेगा और उतने दिन किसी न किसी आकार में उसका धर्म प्रत्येक स्थिति में जीवित रहेगा। इसीलिए हमें जगत् में नाना प्रकार के धर्म दिखायी पड़ते हैं। अवश्य इसकी चर्चा और आलोचना से मस्तिष्क परभ्रमित हो सकता है, किन्तु हम लोगों में से अनेक व्यक्ति जिस प्रकार इसे वृथा कल्पनामात्र समझते हैं, उस प्रकार का इसे कहा नहीं जा सकता। अनेक आपातविरोधी विभिन्न धर्मरूप विश्रृंखलता के भीतर सामंजस्य है, इन सब अ-सुरों और अ-तालों में भी ऐक्यतान है ! जो वह सुनने को प्रस्तुत हैं, वे ऐक्यतान का यह सुर सुन पाएंगे।
वर्तमान काल में सब प्रश्नों में से प्रधान यह है—माना—ज्ञात और ज्ञेय के दोनों ओर अज्ञेय और अनन्त अज्ञात विद्यमान है—किन्तु इस अनन्त अज्ञान को जानने का यत्न क्यों है ? क्यों हम ज्ञात को लेकर ही सन्तुष्ट नहीं होते ? क्यों हम भोजन-पान और समाज का कुछ कल्याण करके ही सन्तुष्ट नहीं रहते ? यही भाव आजकल चारों ओर सुनने को मिलता है। बहुत बड़े-बड़े विद्वान अध्यापक से लेकर एक शिशु के मुँह से भी हम आजकल सुनते रहते हैं—जगत् का उपकार करो—यही एकमात्र धर्म है, जगत् से अतीत सत्ता की समस्या लेकर अस्थिर होने का कोई फल नहीं है।
यह भाव आजकल इतना अधिक प्रबल हो गया है कि यह एक स्वतः सिद्ध सत्य के रूप में उपस्थित है। किन्तु सौभाग्य से इस जगदातीत सत्ता के तत्व का अनुसन्धान किये बिना रहने का अवलम्ब हमारे निकट नहीं है। यह वर्तमान व्यक्ति जगत् उसी अव्यक्त का एक अंश मात्र है। यह पंचेन्द्रिय के द्वारा अनुभूत जगत् मानों उसी अनन्त आध्यात्मिक जगत् का एक क्षुद्र अंशस्वरूप है, हमारी इन्द्रिय-अनुभूति की भूमि में पड़ा है। इसलिए उस अतीत जगत् को बिना जाने किस प्रकार से उसके इस क्षुद्र प्रकाश की व्याख्या हो सकती है, उसे समझा जा सकता है ?
कहा जाता है, साक्रेटिस एक दिन एथे्न्स में वक्तृता दे रहे थे, उसी समय उनसे एक ब्रह्मण की भेंट हुई—ये भारत से ग्रीस देश में गये थे। साक्रेटिस उस ब्राह्मण से बोले, मनुष्य को जानना ही मनुष्यजाति का सर्वोच्च कर्तव्य है—मनुष्य ही मनुष्य की सर्वोच्च आलोचना की वस्तु है।’’ ब्राह्मण ने उसी क्षण उत्तर दिया, ‘‘ईश्वर को जब तक आप नहीं जान लेते, तब तक मनुष्य को किस प्रकार जानियेगा ?’’ ये ईश्वर, यही अनन्त अज्ञात या निरपेक्ष सत्ता या अनन्त या नामातीत वस्तु—उन्हें जिस नाम से इच्छा हो, उसी नाम से पुकारा जाता है—ये ही वर्तमान जीवन के, जो कुछ ज्ञात है और जो कुछ ज्ञेय है, सब के ही एकमात्र युक्तियुक्त व्याख्यास्वरूप हैं।
चाहे जिस वस्तु की बात—सम्पूर्ण जड़ वस्तु की कोई बात—लीजिये। केवल जड़तत्वसम्बन्धी विज्ञान में से कोई भी एक, जैसे—रसायन, पदार्थविद्या, गणित, ज्योतिष या प्राणितत्त्वविद्या की बात लीजिये—उसकी विशेष रूप से आलोचना कीजिये, क्रमशः यह तत्त्वानुसन्धान अग्रसर हो, देखियेगा—स्थूल क्रमशः सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म पदार्थ में लय हो रहा है—अन्त में आपको ऐसे स्थान में आना होगा, जहाँ इन सब जड़ वस्तुओं को छोड़कर इन्हें अतिक्रमण करके अर्थात् फाँदकर अजड़ में जाना ही होगा। सब विद्याओं में ही स्थूल कमशःसूक्ष्म में मिल जाता है, पदार्थविद्या दर्शन में पर्यवसित हो जाती है।
इसी प्रकार मनुष्य को बाध्य होकर जगदातीत सत्ता की आलोचना में उतरना होता है। यदि हम उसे जान न पायें, तो जीवन मरुभूमि बन जायेगा, मानवजीवन वृथा होगा। यह बात कहने में अच्छी है कि वर्तमान में जो देख रहे हो वह सब लेकर ही तृप्त रहो; गाय, कुत्ते और अन्यान्य पशुगण इसी प्रकार वर्तमान के द्वारा ही सन्तुष्ट हैं, और इसी कारण वे पशु बने हैं। अतएव यदि मनुष्य वर्तमान लेकर सन्तुष्ट रहे और जगतातीत सत्ता के समस्त अनुसन्धान का एकदम परित्याग कर दे, तो मानवजाति को पशु की भूमि में फिर से आना होगा। धर्म-जगतातीत सत्ता का अनुसन्धान ही—मनुष्य और पशु में प्रभेद बनाये रखता है।
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