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विवेकानन्द साहित्य >> वेदान्त

वेदान्त

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5920
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक वेदान्त....

vedanta-

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

स्वामी विवेकानन्दकृत ‘वेदान्त’ का यह दशम संस्करण है। इसमें स्वामीजी के तत्संबंधी विभिन्न महत्वपूर्ण भाषणों एवं प्रवचनों का संकलन है जो उन्होंने भारतवर्ष, अमरीका तथा इंग्लैण्ड में दिये थे।
लोगों की प्राय: धारणा यह होती है कि वेदान्त कोई ऐसा जटिल अथवा रहस्यपूर्ण विषय है जो साधारण मानवी बुद्धि से अगम्य है और जिसका हमारे प्रत्यक्ष जीवन से कोई संबंध नहीं, परन्तु स्वामीजी ने अपने इन अधिकारपूर्ण भाषणों द्वारा दर्शा दिया है कि यह धारणा नितान्त भ्रमपूर्ण है। वेदान्त के स्वरूप को स्पष्ट करने वाले गूढ़ सिद्धान्तों को सरल एवं सुग्राह्य रूप में हमारे सम्मुख प्रस्तुत कर स्वामीजी ने यह दिखा दिया है कि इनके द्वारा हमें किसी प्रकार ऊपर उठने की प्रेरणा मिल सकती है तथा इन्हीं के सहारे हम अपने जीवन को किस प्रकार उच्चतम आदर्श के साँचे में ढाल सकते हैं।

मानवी संस्कृति एवं सभ्यता पर वेदान्त का कितना गहरा और दूरगामी प्रभाव पड़ता रहा है, इसके विवेचन के द्वारा इन भाषणों में स्वामीजी ने यह भी भलीभाँति दर्शाया है कि व्यक्तिगतहित तथा समष्टिगत हित दोनों के लिए वेदान्त कितना उपयोगी है। इन भाषणों से हमें यह भी ज्ञात होता है कि वेदान्त द्वारा प्रतिपादित सत्य-सिद्धान्त एकांगी नहीं वरन् सार्वजनीन हैं और साथ ही वे शाश्वत स्वरूप के हैं। फलत: वे सभी व्यक्तियों को, वे किसी भी जाति, सम्प्रदाय अथवा राष्ट्र के और किसी भी युग में रहने वाले क्यों न हों, आदर्श जीवन-निर्माण में अपूर्व सहायता प्रदान करते हैं।

अद्वैत आश्रम, मायावती द्वारा प्रकाशित ‘विवेकानन्द साहित्य’ से इन व्याख्यानों तथा प्रवचनों को संकलित किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक पाठकों के सम्मुख रखते हमें प्रसन्नता हो रही है और हमारा विश्वास है कि इसके पठन-पाठन से उनका विशेष हित होगा।

प्रकाशक

वेदान्त दर्शन


(25 मार्च, 1896 ई. को हार्वर्ड विश्वविद्यालय की स्नातक दर्शन परिषद में दिया गया भाषण)

भारत में सम्प्रति जितने दार्शनिक सम्प्रदाय हैं, वे सभी वेदान्त दर्शन के अन्तर्गत आते हैं। वेदान्त की कई प्रकार की व्याख्याएँ हुई हैं और मेरे विचार से वे सभी प्रगतिशील रही हैं। प्रारम्भ में व्याख्याएँ द्वैतवादी हुईं, अन्त में अद्वैतवादी। वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है ‘वेद का अन्त’। वेद हिन्दुओं के आदि धर्मग्रन्थ है।* कभी-कभी पाश्चात्य देशों में ‘वेद’ को केवल ऋचाएँ और कर्मकांड ही समझा जाता है। किन्तु अब इनको अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता, और भारत में साधारणत: वेद शब्द से वेदान्त ही समझा जाता है। यहाँ के टीकाकार जब धर्मग्रंथों से
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*वेद दो अंशों में विभक्त है-कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत ब्राह्मणों के प्रख्यात मन्त्र तथा अनुष्ठान आते है। जिन ग्रंथों में अनुष्ठानादि से भिन्न आध्यात्मिक विषयों का विवरण है, उन्हें उपनिषद् कहते हैं। उपनिषद् ज्ञानकाण्ड के अन्तर्गत हैं। सभी उपनिषदों की रचना वेदों से पृथक हुई हो ऐसा नहीं है। कुछ उपनिषद् तो ब्राह्मणों के अन्तर्गत हैं। कम से कम एक उपनिषद् तो संहिता भाग या ऋचाओं के ही अन्तर्गत है। कभी-कभी उपनिषद् शब्द उन ग्रंथों के भी लिए प्रयुक्त होता है, जो वेदों के अन्तर्गत नहीं हैं, जैसे गीता । किन्तु साधारणत: उपनिषद् शब्द का प्रयोग वेदों के मध्य विकीर्ण दार्शनिक प्रकरणों के लिए ही होता है। इन दार्शनिक प्रकरणों का संकलन हुआ है और उसे वेदान्त कहते हैं।

कुछ उद्धृत करना चाहते हैं, तो साधारणत: वे वेदान्त से ही उद्धृत करते हैं। ये लोग वेदान्त को श्रुति कहते हैं। ऐसी बात नहीं है कि जो ग्रन्थ वेदान्त के नाम से विख्यात हैं, उनकी रचना वैदिक कर्मकाण्ड के बाद हुई। ईशोपनिषद्, जो यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है, वेदों के प्राचीनतम् अंशों में एक है। ऐसे भी उपनिषद् हैं, जो ब्राह्मणों के अंश हैं। अन्य उपनिषद् * न तो ब्राह्मणों के, न वेद के अन्य भागों के ही अन्तर्गत हैं। किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वे वेद के अन्य भागों के ही अन्तर्गत हैं। किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वे वेद के अन्य भागों से पूर्णत: स्वतन्त्र हैं। यह तो हम जानते हैं कि वेद के अनेक भाग सर्वथा अप्राप्य हैं तथा अनेक ब्राह्मण भी नष्ट हो चुके हैं। अत: यह सम्भव है कि जो उपनिषद् अब स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसे प्रतीत होते हैं, वे ब्राह्मणों के अन्तर्गत रहे हों। ऐसे ब्राह्म-ग्रन्थ लुप्त हो गये हैं, मात्र उपनिषद् अवशिष्ट हैं। इन उपनिषदों को आरण्यक भी कहते हैं।
व्यावहारिक रूप में वेदान्त ही हिन्दुओं का धर्मग्रन्थ है। जितने भी आस्तिक दर्शन हैं, सभी इसी को अपना आधार मानते
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** ‘श्रुति’ का अर्थ है ‘जो सुना हुआ है।’ यद्यपि श्रुति के अन्तर्गत समस्त वैदिक साहित्य आ जाता है, फिर भी टीकाकार श्रुति शब्द का मुख्यतः उपनिषदों के लिए ही प्रयोग करते हैं।
*उपनिषदों की संख्या 108 मानी जाती है। निश्चित रूप से इनका समय निर्धारण नहीं किया जा सकता। किन्तु यह तो निश्चित है कि वे बौद्धमत से प्राचीन हैं। यह ठीक है कि कुछ गौण उपनिषदों में ऐसे निर्देश हैं, जिनसे उनके अर्वाचीन होने का संकेत मिलता है। किन्तु इससे यह नहीं सिद्ध होता कि वे उपनिषद् अर्वाचीन हैं। संस्कृत साहित्य के प्राचीन मूल ग्रन्थों को सम्प्रदायवादी अपने अपने मतों की उत्कृष्टता स्थापित करने के लिए परिवर्तित करते रहे हैं।


हैं। यदि उनके उद्देश्य के अनुकूल होता है, तो बौद्ध तथा जैन भी वेदान्त को प्रमाण मानकर उससे एक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं। यद्यपि भारत के सभी आस्तिक दर्शन वेदों पर आधारित हैं, फिर भी उनके नाम से भिन्न-भिन्न हैं। अन्तिम दर्शन, जो व्यास का है, पूर्वप्रतिपादित दर्शनों की अपेक्षा वैदिक विचारों पर अधिक आधारित है। इससे सांख्य और न्य़ाय जैसे प्राचीन दर्शनों का वेदान्त के साथ यथासम्भव सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। इसलिए इसे विशेष रूप से वेदान्त कहा जाता है। आधुनिक भारतीयों के अनुसार व्यास-सूत्र ही वेदान्त दर्शन का आधार माना जाता है। विभिन्न भाष्यकारों ने व्यास के सूत्रों की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की है। सामान्यत: अभी भारत में तीन प्रकार के व्याख्याकार हैं।** उनकी व्याख्याओं से तीन दार्शनिक पद्धतियों एवं सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई है-द्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा अद्वैत। अधिकांश भारतीय द्वैत एवं विशिष्टाद्वैत के अनुयायी हैं। अद्वैतवादियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। मैं इन तीन सम्प्रदायों की विचार-पद्धतियों की चर्चा तुम्हारे सम्मुख करना चाहता हूँ। इसके पहले कि मैं ऐसा करूँ, मैं तुमको बतला देना चाहता हूँ कि इन तीनों वेदान्त दर्शनों की मनोवैज्ञानिक पद्धति सांख्य की मनोवैज्ञानिक
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**व्याख्याएँ कई प्रकार की होती हैं-भाष्य, टीका, टिप्पणी, चूर्णिका आदि। भाष्य को छोड़ अन्य सब में मूल ग्रन्थ या उसके कठिन शब्दों की व्याख्या की जाती है। भाष्य सही अर्थ में व्याख्या नहीं है। इसमें मूल ग्रन्थ के आधार पर एक विचार-पद्धति का स्पष्टीकरण किया जाता है। भाष्य का उद्देश्य शब्दों की व्याख्या नहीं, वरन् किसी विचार-पद्धति का प्रतिपादन करना होता है। भाष्यकार मूल ग्रंथों को प्रमाण मानकर अपनी विचारपद्धति को स्पष्ट करता है।


पद्धति के समान ही है। सांख्य दर्शन का मनोविज्ञान न्याय एवं वैशेषिक दर्शनों के मनोविज्ञानों के सदृश ही है। इनके मनोविज्ञानों में केवल गौण विषयों में भेद पाया जाता है।
सभी वेदान्ती तीन बातों में एकमत हैं। ये सभी ईश्वर को, वेदों के श्रुत रूप को तथा सृष्टि-चक्र को मानते हैं। वेदों की चर्चा तो हम कर चुके हैं। सृष्टिसंबंधी मत इस प्रकार है। समस्त विश्व का जड़ पदार्थ आकाश नामक मूल जड़-सत्ता से उद्भूत हुआ है। गुरुत्वाकर्षण, आकर्षण, या विकर्षण, जीवन आदि जितनी शक्तियाँ हैं, वे सभी आदि-शक्ति प्राण से उद्भूत हुई हैं। आकाश पर प्राण का प्रभाव पड़ने से विश्व का सर्जन या प्रेक्षपण * होता है। सृष्टि के प्रारम्भ में आकाश स्थिर तथा अव्यक्त रहता है।

वेदान्त की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं। इसके विचारों की अन्तिम अभिव्यक्ति व्यास के दार्शनिक सूत्रों में हुई है। वेदान्त मत का प्रामाणिक ग्रन्थ उत्तर मीमांसा है। उत्तरमीमांस हिन्दू धर्मशास्त्र का सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रन्थ है। कट्टर विरोधी धर्म-सम्प्रदायों ने भी विवश होकर व्यास की उक्तियों को अपनी विचार पद्धति के साथ मिलाने का प्रयत्न किया है।

अति प्राचीन काल में ही वेदान्त के व्याख्याकार तीन प्रसिद्ध हिन्दू सम्प्रदायों में विभक्त हो गये। इन सम्प्रदायों के नाम द्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा अद्वैत हैं। अति प्राचीन व्याख्याएँ तो शायद लुप्त हो गयी हैं, किन्तु अर्वाचीन काल में बौद्ध धर्म के उत्थान के बाद शंकर, रामानुज तथा मध्य ने उनका पुनरुद्धार किया है। शंकर ने अद्वैत को, रामानुज ने विशिष्टाद्वैत को तथा मध्व ने द्वैत को पुन: संस्थापित किया है। भारतीय सम्प्रदायों के पारस्परिक भेद का कारण उनकी विचार-पद्धति है। कर्मानिष्ठ के बारे में उनमें कम भेद है, क्योंकि उनके धर्मशास्त्र का आधार एक ही है।

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* अंग्रेजी भाषा में जिसे ‘क्रियेशन’ (Creation) कहते हैं, उसे संस्कृत में प्रक्षेपण (Projection) कहते हैं।

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