जीवनी/आत्मकथा >> शंकरदेव शंकरदेवहरिकृष्ण देवसरे
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प्रस्तुत है शंकरदेव आत्मकथा।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
असम में भगवत धर्म का प्रचार करने वाले शंकरदेव को
‘महात्मा’
और ‘महापुरुष’ की उपाधियों से अलंकृत कर आज भी स्मरण
किया
जाता है। उन्होने जिस वैष्णव धर्म का प्रवर्तन किया था, वह
‘महापुरुषीय धर्म’ कहलाता है। उनके असाधारण
व्यक्तित्व के
बारे में उनके शिष्य माधवदेव ने लिखा था :
श्रीमत शंकर गौर कलेवर, चन्द्र येन आभास।
बृहस्पति समय पंडित उत्तम, येन सुर प्रकास।।
पद्मपुष्प समवदनप्रकाशे, सुंदर ईषत हाँसि।
गंभीर वचन मधु येन स्रवे, नयन पंकट पासि।।
बृहस्पति समय पंडित उत्तम, येन सुर प्रकास।।
पद्मपुष्प समवदनप्रकाशे, सुंदर ईषत हाँसि।
गंभीर वचन मधु येन स्रवे, नयन पंकट पासि।।
जिस समय शंकर देव का जन्म हुआ, ब्रह्मदेश की आहोम जाति ने कामरूप पर
अधिकार कर लिया था। यह बात तेरहवीं शताब्दी की है। आहोम जाति के नाम पर ही
कामरूप का नाम ‘आहोम’ हो गया जोकि आज ‘असम’ कहलाता है। शंकरदेव का जन्म सन् 1449 ई. में हुआ था। उनके पिता कुसुमवर
कायस्थ थे। वह शिवभक्त थे। उनका विश्वास था कि उनके घर इस पुत्र का जन्म
भगवान् शंकर की कृपा से ही हुआ है, अस्तु उन्होंने उसका नाम ‘शंकरवर’ रखा। शंकरवर के पूर्वज ‘शाक्त’ थे। उनके पितामह का नाम ‘चंडीवर’ था। शंकर के घर में,
उनके पिता चंडी की प्रस्तर-प्रतिमा की पूजा किया करते थे। उस समय असम में शाक्त
मत का बड़ा प्रभाव था। इस कारण शिव तक को मांस और मदिरा चढ़ाकर प्रसन्न
किया जाता था। भैरव की पूजा में भी बलि चढ़ाई जाती थी। इसके अलावा
नातपंथियों का भी उस समय असम में काफी प्रभाव था।
शंकरवर का जन्म नवगाँव जिले के बारदोवा ग्राम में हुआ था। यह स्थान उस समय ‘शिरोमणि-बरा-भुइंया’ का मुख्यालय था। जब शंकरवर सात वर्ष के थे, तभी उनके पिता तथा माता दोनों का स्वर्गवास हो गया। इस कारण बालक शंकर का पालन-पोषण उनकी दादी ने किया।
बालक शंकर बचपन से ही खिलाड़ी और मनमौजी थे। उनका मन दिनभर खेलने में लगा रहता। पढ़ाई की तरफ जरा भी ध्यान न देते। बस, सारे दिन वह बगीचों या सरोवरों के किनारे खेलते-कूदते रहते। इस तरह वह बारह वर्ष के हो गए। एक दिन जब शंकर खेलकर लौटे तो उनकी दादी भोजन के लिए प्रतीक्षा कर रही थीं, किंतु वह उदास थीं। बालक शंकर ने उनकी उदासी का कारण पूछा। दादी ने कहा—‘‘तुम्हारे कुल में बड़े-बड़े विद्वान हुए हैं, जिनके कारण कुल की प्रतिष्ठा और मान बढ़ा है; लेकिन तुम बारह वर्ष के हो गए और अभी तक केवल खेल-कूद में ही समय नष्ट कर रहे हो। यदि तुम्हारा यही हाल रहा तो मुझे संदेह है कि तुम कुल की प्रतिष्ठा और मर्यादा की रक्षा कर सकोगे।’’
यह सुनकर शंकर गंभीर हो गए। दादी की बात से उनके हृदय को गहरी चोट लगी। उन्होंने दादी के चरण पकड़ कर प्रतिज्ञा की—‘‘दादी ! मैं आपको वचन देता हूँ कि अब में अवश्य पढ़ूँगा और लोगों में अपने ज्ञान तथा भागवत धर्म का प्रचार करके जीवन को सफल बनाऊँगा।’’
और अगले दिन से शंकरवर ने खेल-कूद बंद कर दिया।
उन दिनों महेन्द्र कन्दलि नामक एक महान शास्त्री और संस्कृत के विद्वान अपनी पाठशाला में छात्रों को शिक्षा दिया करते थे। संकरवर ने भी उनकी पाठशाला में प्रवेश ले लिया और नियमित अध्ययन करने लगे। उन्होंने जिस तेजी से विषयों को ग्रहण करना आरंभ किया, उसे देखकर उनकी प्रतिभा पर स्वयं गुरु महेन्द्र कन्दलि को आश्चर्य हुआ।
एक दिन की बात है, महेन्द्र कन्दलि को कहीं जाना था, इसलिए उन्होंने पाठशाला की छुट्टी कर दी। सभी छात्र चले गए, किंतु शंकरवर वहीं आश्रम में एक वृक्ष के नीचे बैठकर अध्ययन करते रहे। पढ़ते-पढ़ते उन्हें नींद आ गई और वह वहीं भूमि पर लेट गए। तभी महेन्द्र कन्दलि उधर से गुजरे उन्होंने देखा कि शंकर सो रहा है और उसके सिर पर एक सर्प फन फैलाए बैठा है। यह दृश्य देखकर उन्होंने समझ लिया कि यह बालक अवश्य ही कोई दिव्य पुरुष है। उस दिन से वह ‘शंकरवर’ के स्थान पर उसे ‘शंकरदेव’ करने लगे और आगे यही नाम चल पड़ा।
शंकरवर का जन्म नवगाँव जिले के बारदोवा ग्राम में हुआ था। यह स्थान उस समय ‘शिरोमणि-बरा-भुइंया’ का मुख्यालय था। जब शंकरवर सात वर्ष के थे, तभी उनके पिता तथा माता दोनों का स्वर्गवास हो गया। इस कारण बालक शंकर का पालन-पोषण उनकी दादी ने किया।
बालक शंकर बचपन से ही खिलाड़ी और मनमौजी थे। उनका मन दिनभर खेलने में लगा रहता। पढ़ाई की तरफ जरा भी ध्यान न देते। बस, सारे दिन वह बगीचों या सरोवरों के किनारे खेलते-कूदते रहते। इस तरह वह बारह वर्ष के हो गए। एक दिन जब शंकर खेलकर लौटे तो उनकी दादी भोजन के लिए प्रतीक्षा कर रही थीं, किंतु वह उदास थीं। बालक शंकर ने उनकी उदासी का कारण पूछा। दादी ने कहा—‘‘तुम्हारे कुल में बड़े-बड़े विद्वान हुए हैं, जिनके कारण कुल की प्रतिष्ठा और मान बढ़ा है; लेकिन तुम बारह वर्ष के हो गए और अभी तक केवल खेल-कूद में ही समय नष्ट कर रहे हो। यदि तुम्हारा यही हाल रहा तो मुझे संदेह है कि तुम कुल की प्रतिष्ठा और मर्यादा की रक्षा कर सकोगे।’’
यह सुनकर शंकर गंभीर हो गए। दादी की बात से उनके हृदय को गहरी चोट लगी। उन्होंने दादी के चरण पकड़ कर प्रतिज्ञा की—‘‘दादी ! मैं आपको वचन देता हूँ कि अब में अवश्य पढ़ूँगा और लोगों में अपने ज्ञान तथा भागवत धर्म का प्रचार करके जीवन को सफल बनाऊँगा।’’
और अगले दिन से शंकरवर ने खेल-कूद बंद कर दिया।
उन दिनों महेन्द्र कन्दलि नामक एक महान शास्त्री और संस्कृत के विद्वान अपनी पाठशाला में छात्रों को शिक्षा दिया करते थे। संकरवर ने भी उनकी पाठशाला में प्रवेश ले लिया और नियमित अध्ययन करने लगे। उन्होंने जिस तेजी से विषयों को ग्रहण करना आरंभ किया, उसे देखकर उनकी प्रतिभा पर स्वयं गुरु महेन्द्र कन्दलि को आश्चर्य हुआ।
एक दिन की बात है, महेन्द्र कन्दलि को कहीं जाना था, इसलिए उन्होंने पाठशाला की छुट्टी कर दी। सभी छात्र चले गए, किंतु शंकरवर वहीं आश्रम में एक वृक्ष के नीचे बैठकर अध्ययन करते रहे। पढ़ते-पढ़ते उन्हें नींद आ गई और वह वहीं भूमि पर लेट गए। तभी महेन्द्र कन्दलि उधर से गुजरे उन्होंने देखा कि शंकर सो रहा है और उसके सिर पर एक सर्प फन फैलाए बैठा है। यह दृश्य देखकर उन्होंने समझ लिया कि यह बालक अवश्य ही कोई दिव्य पुरुष है। उस दिन से वह ‘शंकरवर’ के स्थान पर उसे ‘शंकरदेव’ करने लगे और आगे यही नाम चल पड़ा।
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