विवेकानन्द साहित्य >> आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग आत्मानुभूति तथा उसके मार्गस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
प्रस्तुत पुस्तक पाठकों के समक्ष रखते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है।
यह पुस्तक स्वामी विवेकानन्दजी के, आत्मानुभूति के सम्बन्ध में दिये गये,
सात भाषणों का संग्रह है। स्वामामीजी ने इन भाषणों में अपने मौलिक ढंग
द्वारा आत्मदर्शन के मार्ग की कठिनाइयों का विशद वर्णन करते हुए उनको दूर
करने का उपाय बतलाया है तथा आत्म-साक्षात्कार की महिमा एवं मानव-जीवन में
उसकी उपादेयता मर्मस्पर्शी भाषा में दिग्दर्शित की है।
समस्त संसार सुख की खोज में लगा हुआ है। सुखप्राप्ति की आशा ही जीवन के प्रत्येक कार्य को परिचालित करती है। पर वह सुख यथार्थतः किसमें है और हम उसे कैसे पायें—इसका रहस्योद्घाटन स्वामीजी के इन भाषणों में मिलता है अतएव, हमारा यह पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक कंटकाकीर्ण, तमसाच्छादित जीवन-पथ पर उलझे और भटके हुए लोगों के लिए प्रकाशस्वरूप सिद्ध होगी।
हम श्री. मधुसूदन. एम्.ए., एलएल.बी, के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकाशित करते हैं जिन्होंने सफलतापूर्वक मूल अँगरेजी ग्रन्थ से इसका अनुवाद किया है।
समस्त संसार सुख की खोज में लगा हुआ है। सुखप्राप्ति की आशा ही जीवन के प्रत्येक कार्य को परिचालित करती है। पर वह सुख यथार्थतः किसमें है और हम उसे कैसे पायें—इसका रहस्योद्घाटन स्वामीजी के इन भाषणों में मिलता है अतएव, हमारा यह पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक कंटकाकीर्ण, तमसाच्छादित जीवन-पथ पर उलझे और भटके हुए लोगों के लिए प्रकाशस्वरूप सिद्ध होगी।
हम श्री. मधुसूदन. एम्.ए., एलएल.बी, के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकाशित करते हैं जिन्होंने सफलतापूर्वक मूल अँगरेजी ग्रन्थ से इसका अनुवाद किया है।
प्रकाशक
आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग
आत्मानुभूति की सीढ़ियाँ
(अमेरिका में दिया हुआ भाषण)
ज्ञानयोग का अधिकारी बनने के लिए मनुष्य को पहले ‘शम’
और
‘दम’ में अपनी गति कर लेनी चाहिए। दोनों में गति एक
साथ ही की
जा सकती है। इन्द्रियों को उनके केन्द्र में स्थिर करना और उन्हें
बहिर्मुख न होने देने का नाम है ‘शम’ तथा
‘दम’।
अब मैं तुम्हें ‘इन्द्रिय’ शब्द का अर्थ समझाता हूँ।
देखो, ये
तुम्हारी आंखें हैं, लेकिन ये दर्शनेन्द्रिय नहीं हैं। ये तो केवल देखने
का साधन मात्र हैं। जिसे दर्शनेन्द्रिय कहते हैं, वह यदि मुझमें न हो तो
बाहरी आँखें होने पर भी मुझे कुछ दिखायी न देगा। अब मान लो कि देखने का
साधन ये बाहरी आँखें मुझमें हैं और दर्शनेन्द्रिय भी मौजूद है, लेकिन मेरा
मन उनमें नहीं लगा है, ऐसी दशा में मुझे कुछ नहीं दिख सकेगा। इसलिए यह
स्पष्ट है कि किसी भी वस्तु के ज्ञान के लिए तीन बातें आवश्यक हैं। वे हैं
(1) साधनभूत बहिरिन्द्रिय-जैसे आँख, कान, नाक इत्यादि, (2) दर्शनक्षम
अन्तरिन्द्रिय और (3) अन्त में मन। इन तीनों में से अगर एक भी विद्यमान न
हुई तो वस्तु का ज्ञान न होगा। इस प्रकार मन की क्रिया बाह्य तथा आन्तर इन
दो साधनों द्वारा हुआ करती है।
जब मैं कोई वस्तु देखता हूं तो मेरा मन बहिर्मुख हो उस वस्तु की ओर झुक जाता है, किन्तु जब मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ और सोचने लगता हूँ, तो मन फिर बाहर नहीं जाता। वह भीतर-ही-भीतर काम करता रहता है। दोनों ही समय इन्द्रियों की क्रिया जारी रहती है। जब मैं तुम्हें देखता हूँ और तुमसे बात करता हूँ तो मेरी इन्द्रियाँ और उनके बाहरी साधन दोनो ही काम करते रहते हैं, पर जब मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ और सोचने लगता हूँ, तो केवल मेरी इन्द्रियाँ ही काम करती हैं, उनके बाहरी साधन नहीं। इन्द्रियों की क्रिया के बिना मनुष्य विचार ही न कर सकेगा। तुम अनुभव करोगे कि बिना किसी अवलम्ब के सहारे तुम विचार नहीं कर सकते। अन्धा मनुष्य भी जब विचार करेगा तो किसी प्रकार की आकृति की सहायता से ही विचार करेगा। बहुधा आँख और कान ये दो इन्द्रियाँ बहुत ही कार्यशील होती हैं। यह बात कभी न भूलनी चाहिए कि ‘इन्द्रिय’ शब्द से मतलब है हमारे मस्तिष्क में रहनेवाला ज्ञानकेन्द्र। आँख और कान तो देखने और सुनने के ‘साधन’ मात्र हैं। उनकी इन्द्रिया तो भीतर ही रहती हैं। यदि किसी कारण से ये इन्द्रियाँ नष्ट हो जाँए, तो आँख और कान रहने पर भी न तो हमें कुछ दिखेगा और न कुछ सुनायी ही देगा।
इसलिए मन को काबू में करने के पहले इन इन्द्रियों को काबू में लाना चाहिए। मन को भीतर-बाहर भटकने से रोकना और इन्द्रियों को अपने केन्द्रों में लगाये रखने का नाम ‘शम’ और ‘दम’ है। मन को बहिर्मुख होने से रोकना ‘शम’ कहलाता है और इन्द्रियों के बाहरी साधनों के निग्रह का नाम है ‘दम’ इसके बाद आती है ‘उपरति’। भोग्य विषयों का चिन्तन न करना—इसी का नाम ‘उपरति’ है। हमने क्या देखा या क्या सुना; हम क्या देखने वाले हैं या सुनने वाले; कौन सी वस्तु हमने खायी, खा रहे हैं अथवा खायेंगे; हम कहाँ रहें इत्यादि-इत्यादि विषयों के चिन्तन में ही हमारा बहुत सा समय व्यय हो जाता है। जो कुछ हम देखते-सुनते हैं, उसी के सोचने में तथा तद्वविषयक बातें करने में ही हमारे समय का अधिकांश भाग व्यतीत हो जाता है। यदि तुम ‘वेदान्ती’ बनना चाहते हो तो तुम्हें यह आदत छोड़ देनी चाहिए।
इसके बाद है ‘तितिक्षा’। तत्वज्ञान बनना जरा टेढ़ी ही खीर है ! ‘तितिक्षा’ सब से कठिन है। कहा जा सकता है कि आदर्श सहनशीलता और तितिक्षा एक ही हैं। आदर्श सहनशीलता का अर्थ है—‘अशुभ का प्रतिकार न करो’ इसका अर्थ जरा स्पष्ट करने की आवश्यकता है। आये हुए दुःख का शायद हम प्रतिकार न करें, किन्तु हो सकता है कि साथ ही साथ हम दुःखी भी हो जायँ। यदि कोई मनुष्य मुझे कड़ी बात सुना दे, तो सम्भव है, ऊपर से मैं उसका तिरस्कार न करूँ; शायद उसे प्रत्युत्तर भी न दूँ और बाहर क्रोध न प्रकट होने दूँ, लेकिन मेरे मन में उसके प्रति तिरस्कार या गुस्सा मौजूद रह सकता है। हो सकता है कि उस मनुष्य के बारे में मैं मन-ही-मन अत्यन्त बुरा सोचता रहूँ।
इसे ‘तितिक्षा’ नहीं कह सकते। मेरे मन में न गुस्सा आना चाहिए और न तिरस्कार ही, और न मुझमें प्रतिकार की भावना ही होनी चाहिए। मैं इस प्रकार शान्त रहूँ, मानो कोई बात हुई ही न हो। जब मैं ऐसी स्थिति को पहुँच जाऊँगा, तभी समझो कि मैंने तितिक्षा सीखी;—इसके पहले नहीं। आये हुए दुःखों को सहन करना, उन्हें रोकने या दूर करने का विचार भी न करना, तज्जन्य शोक या अनुताम मन में उत्पन्न भी न होने देना, बस इसी का नाम है ‘तितिक्षा’। मान लो, मैंने दुःख का प्रतिकार नहीं किया और फलतः मुझ पर कोई जबरदस्त आपत्ति आ पड़ी, तो यदि मुझमें ‘तितिक्षा’ है तो मुझे इस बात का शोक नहीं करना चाहिए कि उस आते हुए दुःख को रोकने की मैंने चेष्टा क्यों नहीं की। जब मनुष्य का मन ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है तो समझ लो कि उसे ‘तितिक्षा’ सिद्ध हो गयी।
भारतवर्ष के लोग इस ‘तितिक्षा’ को प्राप्त करने के लिए बड़े असाधारण कार्य करते हैं। वे भयानक धूप और ठण्ड बिना किसी क्लेश के सह जाते हैं, वे बर्फ गिरने की भी परवाह नहीं करते, क्योंकि उन्हें तो यह विचार तक नहीं आता कि उनका शरीर है भी; शरीर, शरीर के ही भरोसे छोड़ दिया जाता है, मानों वह इनकी कोई वस्तु ही न हो।
चौथा आवश्यक गुण हैं ‘श्रद्धा’। मनुष्य में धर्म और परमेश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। जब तक उसमें ऐसी श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती, तब तक वह ‘ज्ञानी’ होने की ठीक-ठीक आकांक्षा नहीं कर सकता। वह महापुरुष ने एक समय मुझसे कहा कि दो करोड़ मनुष्यों में भी एक ऐसा मनुष्य इस दुनिया में नहीं है, जो परमेश्वर में ठीक-ठीक विश्वास करता हो। मैंने पूछा, ‘‘यह कैसे ?’’ तो वे बोले, ‘मान लो, इस कमरे में चोर घुस आया और उसे पता लग गया कि दूसरे कमरे में सोने की ईंट रखी है, और दोनों कमरों को अलग करने वाली दीवाल भी बहुत पतली है, तो उस चोर की हालत क्या होगी ?’’ मैंने उत्तर दिया, ‘‘उसे नींद नहीं आयेगी। उसका मन सोना पाने की तरकीब में ही लगा रहेगा, उसे और भी कुछ न सूझेगा।’’ यह सुनकर वे बोले, ‘‘तो फिर तुम्हीं बताओ कि क्या यह सम्भव है कि मनुष्य परमेश्वर में विश्वास करे और उसे पाने के लिए पागल न हो ?
जब मैं कोई वस्तु देखता हूं तो मेरा मन बहिर्मुख हो उस वस्तु की ओर झुक जाता है, किन्तु जब मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ और सोचने लगता हूँ, तो मन फिर बाहर नहीं जाता। वह भीतर-ही-भीतर काम करता रहता है। दोनों ही समय इन्द्रियों की क्रिया जारी रहती है। जब मैं तुम्हें देखता हूँ और तुमसे बात करता हूँ तो मेरी इन्द्रियाँ और उनके बाहरी साधन दोनो ही काम करते रहते हैं, पर जब मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ और सोचने लगता हूँ, तो केवल मेरी इन्द्रियाँ ही काम करती हैं, उनके बाहरी साधन नहीं। इन्द्रियों की क्रिया के बिना मनुष्य विचार ही न कर सकेगा। तुम अनुभव करोगे कि बिना किसी अवलम्ब के सहारे तुम विचार नहीं कर सकते। अन्धा मनुष्य भी जब विचार करेगा तो किसी प्रकार की आकृति की सहायता से ही विचार करेगा। बहुधा आँख और कान ये दो इन्द्रियाँ बहुत ही कार्यशील होती हैं। यह बात कभी न भूलनी चाहिए कि ‘इन्द्रिय’ शब्द से मतलब है हमारे मस्तिष्क में रहनेवाला ज्ञानकेन्द्र। आँख और कान तो देखने और सुनने के ‘साधन’ मात्र हैं। उनकी इन्द्रिया तो भीतर ही रहती हैं। यदि किसी कारण से ये इन्द्रियाँ नष्ट हो जाँए, तो आँख और कान रहने पर भी न तो हमें कुछ दिखेगा और न कुछ सुनायी ही देगा।
इसलिए मन को काबू में करने के पहले इन इन्द्रियों को काबू में लाना चाहिए। मन को भीतर-बाहर भटकने से रोकना और इन्द्रियों को अपने केन्द्रों में लगाये रखने का नाम ‘शम’ और ‘दम’ है। मन को बहिर्मुख होने से रोकना ‘शम’ कहलाता है और इन्द्रियों के बाहरी साधनों के निग्रह का नाम है ‘दम’ इसके बाद आती है ‘उपरति’। भोग्य विषयों का चिन्तन न करना—इसी का नाम ‘उपरति’ है। हमने क्या देखा या क्या सुना; हम क्या देखने वाले हैं या सुनने वाले; कौन सी वस्तु हमने खायी, खा रहे हैं अथवा खायेंगे; हम कहाँ रहें इत्यादि-इत्यादि विषयों के चिन्तन में ही हमारा बहुत सा समय व्यय हो जाता है। जो कुछ हम देखते-सुनते हैं, उसी के सोचने में तथा तद्वविषयक बातें करने में ही हमारे समय का अधिकांश भाग व्यतीत हो जाता है। यदि तुम ‘वेदान्ती’ बनना चाहते हो तो तुम्हें यह आदत छोड़ देनी चाहिए।
इसके बाद है ‘तितिक्षा’। तत्वज्ञान बनना जरा टेढ़ी ही खीर है ! ‘तितिक्षा’ सब से कठिन है। कहा जा सकता है कि आदर्श सहनशीलता और तितिक्षा एक ही हैं। आदर्श सहनशीलता का अर्थ है—‘अशुभ का प्रतिकार न करो’ इसका अर्थ जरा स्पष्ट करने की आवश्यकता है। आये हुए दुःख का शायद हम प्रतिकार न करें, किन्तु हो सकता है कि साथ ही साथ हम दुःखी भी हो जायँ। यदि कोई मनुष्य मुझे कड़ी बात सुना दे, तो सम्भव है, ऊपर से मैं उसका तिरस्कार न करूँ; शायद उसे प्रत्युत्तर भी न दूँ और बाहर क्रोध न प्रकट होने दूँ, लेकिन मेरे मन में उसके प्रति तिरस्कार या गुस्सा मौजूद रह सकता है। हो सकता है कि उस मनुष्य के बारे में मैं मन-ही-मन अत्यन्त बुरा सोचता रहूँ।
इसे ‘तितिक्षा’ नहीं कह सकते। मेरे मन में न गुस्सा आना चाहिए और न तिरस्कार ही, और न मुझमें प्रतिकार की भावना ही होनी चाहिए। मैं इस प्रकार शान्त रहूँ, मानो कोई बात हुई ही न हो। जब मैं ऐसी स्थिति को पहुँच जाऊँगा, तभी समझो कि मैंने तितिक्षा सीखी;—इसके पहले नहीं। आये हुए दुःखों को सहन करना, उन्हें रोकने या दूर करने का विचार भी न करना, तज्जन्य शोक या अनुताम मन में उत्पन्न भी न होने देना, बस इसी का नाम है ‘तितिक्षा’। मान लो, मैंने दुःख का प्रतिकार नहीं किया और फलतः मुझ पर कोई जबरदस्त आपत्ति आ पड़ी, तो यदि मुझमें ‘तितिक्षा’ है तो मुझे इस बात का शोक नहीं करना चाहिए कि उस आते हुए दुःख को रोकने की मैंने चेष्टा क्यों नहीं की। जब मनुष्य का मन ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है तो समझ लो कि उसे ‘तितिक्षा’ सिद्ध हो गयी।
भारतवर्ष के लोग इस ‘तितिक्षा’ को प्राप्त करने के लिए बड़े असाधारण कार्य करते हैं। वे भयानक धूप और ठण्ड बिना किसी क्लेश के सह जाते हैं, वे बर्फ गिरने की भी परवाह नहीं करते, क्योंकि उन्हें तो यह विचार तक नहीं आता कि उनका शरीर है भी; शरीर, शरीर के ही भरोसे छोड़ दिया जाता है, मानों वह इनकी कोई वस्तु ही न हो।
चौथा आवश्यक गुण हैं ‘श्रद्धा’। मनुष्य में धर्म और परमेश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। जब तक उसमें ऐसी श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती, तब तक वह ‘ज्ञानी’ होने की ठीक-ठीक आकांक्षा नहीं कर सकता। वह महापुरुष ने एक समय मुझसे कहा कि दो करोड़ मनुष्यों में भी एक ऐसा मनुष्य इस दुनिया में नहीं है, जो परमेश्वर में ठीक-ठीक विश्वास करता हो। मैंने पूछा, ‘‘यह कैसे ?’’ तो वे बोले, ‘मान लो, इस कमरे में चोर घुस आया और उसे पता लग गया कि दूसरे कमरे में सोने की ईंट रखी है, और दोनों कमरों को अलग करने वाली दीवाल भी बहुत पतली है, तो उस चोर की हालत क्या होगी ?’’ मैंने उत्तर दिया, ‘‘उसे नींद नहीं आयेगी। उसका मन सोना पाने की तरकीब में ही लगा रहेगा, उसे और भी कुछ न सूझेगा।’’ यह सुनकर वे बोले, ‘‘तो फिर तुम्हीं बताओ कि क्या यह सम्भव है कि मनुष्य परमेश्वर में विश्वास करे और उसे पाने के लिए पागल न हो ?
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