अतिरिक्त >> राधिका सुंदरी राधिका सुंदरीशिवानी
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प्रस्तुत है कहानी संग्रह।
Radhika Sundari
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
राधिका सुंदरी
बहुत दिनों की बात है। कुमायूं की पूरी पर्वत-श्रेणियाँ वर्फ और कुहरे से जमकर रह गईं। हिमवृष्टि और सांय-सायं चलती वर्फीली हवा ने पेड़ों पर चिड़ियाँ जमा दीं; डाल के लंगूर माल के भालू और ताल की मछलियाँ अकड़-अकड़कर ऐंठ गए। लम्बें-लम्बे चीड़ के पेड़ टड़ाक-टड़ाक कर बर्फ के भार से ऐसे टूट-टूटकर गिरने लगे जैसे गोली खाकर सिपाही गिरे हों। कुमायूं के पशु-पक्षियों ने मिलकर एक सभा की, बुद्धिमान गीदड़ ही बना सभापति।
‘‘भाइयों ! जैसे भी हो इस पहाड़ी हवा से छु्ट्टी पानी ही होगी। जब मनुष्यों की बस्ती भामर (तराई) जाकर इस ठंड से छुट्टी पाती है, तो हम भी भला क्यों न चलें भामर ?’’
एक मत से, एक कंठ से सबने कहा, ‘‘वाह-वाह, क्या सूझ की बात कही है; अवश्य-अवश्य।’’ बस फिर क्या था-भालू, चीता, खरगोश, पहाड़ी घुरड, कांकड़, तीतर, चूहा—कोई भी ऐसा पहाड़ी वन्य-पशु नहीं था जो परिवार सहित भामर की ओर नहीं चल दिया। नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत, ताड़ीखेत-एक-एक कर सब पशुहीन हो गए। घसियारिनें निडर होकर पहाड़ों पर लकड़ी बीनने लगीं, ग्वाले निर्भय होकर अमन-चैन से वंशी बजाते गाय-बकरियाँ चराने लगे। न शेर का डर था, न भालू का। उधर उनकी भी मौज थी, कहीं गन्ने के खेत में पिले हैं, कहीं कालाटुंगी की धूप से काली पहाड़ियों पर किलक रहे हैं। एक दिन ऐसी ही धूप में पहाड़ से आए गीदड़ों का दल भामर की गरमी का आनन्द ले रहा था कि शेर की दहाड़ से वन गूँज उठा, दिशाएँ काँप उठीं। फिर दहाड़ का स्वर आया। भूखे शेर का स्वर, जंगल के क्रोधी बादशाह की गरजन। गीदड़ों का दल सिमटकर रह गया, पर दूसरे ही क्षण उनके दल का सरदार चौकन्ना हो गया। सामने झुरमुट में एक मरे हाथी की लाश क्या मिली कि डूबते को तिनके का सहारा मिल गया। गीड़द सरदार बिजैसिंह ने आंखें लाल बना लीं, मूछों को सतर बनाया, दुम तुरै की, वह भी गरजा—
‘‘भाइयों ! जैसे भी हो इस पहाड़ी हवा से छु्ट्टी पानी ही होगी। जब मनुष्यों की बस्ती भामर (तराई) जाकर इस ठंड से छुट्टी पाती है, तो हम भी भला क्यों न चलें भामर ?’’
एक मत से, एक कंठ से सबने कहा, ‘‘वाह-वाह, क्या सूझ की बात कही है; अवश्य-अवश्य।’’ बस फिर क्या था-भालू, चीता, खरगोश, पहाड़ी घुरड, कांकड़, तीतर, चूहा—कोई भी ऐसा पहाड़ी वन्य-पशु नहीं था जो परिवार सहित भामर की ओर नहीं चल दिया। नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत, ताड़ीखेत-एक-एक कर सब पशुहीन हो गए। घसियारिनें निडर होकर पहाड़ों पर लकड़ी बीनने लगीं, ग्वाले निर्भय होकर अमन-चैन से वंशी बजाते गाय-बकरियाँ चराने लगे। न शेर का डर था, न भालू का। उधर उनकी भी मौज थी, कहीं गन्ने के खेत में पिले हैं, कहीं कालाटुंगी की धूप से काली पहाड़ियों पर किलक रहे हैं। एक दिन ऐसी ही धूप में पहाड़ से आए गीदड़ों का दल भामर की गरमी का आनन्द ले रहा था कि शेर की दहाड़ से वन गूँज उठा, दिशाएँ काँप उठीं। फिर दहाड़ का स्वर आया। भूखे शेर का स्वर, जंगल के क्रोधी बादशाह की गरजन। गीदड़ों का दल सिमटकर रह गया, पर दूसरे ही क्षण उनके दल का सरदार चौकन्ना हो गया। सामने झुरमुट में एक मरे हाथी की लाश क्या मिली कि डूबते को तिनके का सहारा मिल गया। गीड़द सरदार बिजैसिंह ने आंखें लाल बना लीं, मूछों को सतर बनाया, दुम तुरै की, वह भी गरजा—
‘‘अन्यारि कुठैणी तौ को बांसो
बुढ़ बिजैसिंह जुग मलासौं।’’
बुढ़ बिजैसिंह जुग मलासौं।’’
अर्थात्-कौन है रे ! ये अंधेरी कोठरी में गरजने वाला कायर ! आज अखाड़े में, बुड्ढे बिजैसिह ने मूंछें ऐंठ लीं हैं।
भामर शेर का कलेजा कांपा, यह कौन अजनबी है। उससे मोर्चा लेने वाला ! आज तक कोई भी ऐसा माई का लाल नहीं जनमा था यहाँ तक कि अंग्रेज शिकारी हबर्ट साहब तक को उनकी दुनाली सहित निगल गया था वह भामरी शेर हिम्मत कर शेर आगे बढ़ा, उसके पीछे वनराज महिषी शेरनी, उसके पीछे लचकती लता-सी पतली कमर को बल देती परम सुन्दरी वनराज बब्बर शेर बहादुर की लाजवन्ती कन्या।
‘‘अरे आप हैं, भामर, वनाधीश ! आइए-आइए पधारिए। कितनी प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर।’’ बिजैसिंह ने आगे बढ़कर हाथ मिलाया। शेर ने देखा, सामने हाथी की विशाल देह पड़ी है और बीन-बीनकर गीदड़ों का दल परम प्रतापी हाथी के देह की हड्डियाँ ऐसे चबा रहा है जैसे बताशे। वह मन-ही-मन घबड़ाया, ऐसे वीर गजराज की जब यह गति हुई तो मेरी क्या बिसात ? बेचारा चुप सांस खींचे बैठ गया।
बिजैसिंह फिर गरजा—‘‘भाइयों ! हाथी का नाश्ता कर अब दिन के भोजन में क्या खाओगे ?’’
‘‘शेर !’’ गीदड़ों का स्वर गूंजा। भामरी शेर का भय से बुरा हाल था।
शेरनी कांपने लगी, ‘‘ठक-ठक !’’
शेर कन्या का कलेजा कांप उठा, ‘‘धक-धक।’’
बिजैसिंह भी एक ही था मन की बात जानने वाला, तिरछी आँख से देखकर जान गया, निशाना ठीक बैठा है। बड़ी अदा से मूंछों में बल देकर बोला—‘‘मुझे दुःख है मेरे मित्रों ! मैं जीवन में पहली बार आपकी इच्छा पूरी न कर सकूँगा। आपका इच्छित भोजन इस समय हमारे माननीय अतिथिगण हैं और अतिथि को खा लेना कुमायुं की परम्परा के विरुद्ध है। मेरा एक और प्रस्ताव है।’’
‘‘क्या ?’’ सब गीदड़ फिर बोल उठे।
शेर फिर कांप उठा—न जाने क्या प्रस्ताव है इस भायनक जीवन का।
‘‘वह यह,’’ बिजैसिंह ने कमर और सीधी की, आंखों में तड़क और आवाज़ में कड़क लाकर वह बोला, ‘‘आप देख रहे हैं कि हमारे माननीय अतिथि के साथ उनकी एक परम सुन्दरी विवाह योग्य कन्या है। मेरा प्रस्ताव है कि मेरे पुत्र खड़कसिंह से आज ही उसकी सगाई कर हम पहाड़ और भामर के पशुगण सदा के लिए मैत्री के अटूट-बंधन में बंध जाएं।’’
‘‘वाह-वाह !’’
‘‘साधु साधु !’’
‘‘क्या सूझ है !’’
‘‘आख़िर है तो कुमय्या !’’
वन गीदड़राज की प्रशंसा से गूंजने लगा। शेर के भी जान में जान आई, शेरनी ने पसीना पोंछा। अकेली शेर की लाडिली शेरनी दुलारी राधिका रानी नीचा सिर किए आंसू बहाने लगी। छोटा दुबला-सा खड़कसिंह उसकी आंखें बचा-बचाकर उसे घूर रहा था। दुबला-सा मुंह, भूरी पतली पूंछ, घिनौने पीले दांत, बेहया कैसी खीसें निपोड़ रहा था। राधिका के जी में आ रहा था आगे बढ़कर मुंह नोच ले मुहझौंसे का। खैर, भाग्य का लिखा भला कहाँ मिटा ? बेचारी सात फेरे फिर चुपचाप उसके पीछे-पीछे फिरने लगी। गीदड़ों का दल अँधेरा होते ही बेसुरा, बेलय, बेताल का संगीत छेड़ देता—‘’हुआ-हुआ-हुआ।’
बेचारी राधिका रानी के कलेजे में बरछी-सी लगती। कहां बाप-दादों की दहाड़ें और कहां यह खिलवाड़। पर बेचारी चुप रहती।
खड़कसिंह भी था एक ही ओछा। कभी कहता, ‘‘ऐ रधुली ! मेरे पैर दाब। ऐ राधिका ! मेरी पूंछ को संवार।’’
बिजैसिंह कहता, ‘‘ऐ बहू ! जा झाड़ू लगा।’’
सास कहती, ‘‘हाय राम, बहू है या ठीकरी ! कैसे सीना तानकर चलती है। तनिक झुकना सीख, आंखें नीची कर और धीरे-धीरे बोल।’’
बेचारी राधिका, सबकी सहती, सबकी सुनती। कमर झुक गई। गला बैठ गया, पूँछ नीची होकर पैरों में लिपट-सिमटकर रह गई, कौन कहेगा कि वह शेर की बच्ची थी। पर थी आखिर शेरनी। शेरनी का दूध पिया था उसने। एक दिन पति के साथ-साथ वह भी चुपचाप हो ली। खड़कसिंह रोज़ सुबह निकल जाता और कहता—‘‘उफ़, आज तो वह शिकार किया कि तबियत भर गई।’’
भामर शेर का कलेजा कांपा, यह कौन अजनबी है। उससे मोर्चा लेने वाला ! आज तक कोई भी ऐसा माई का लाल नहीं जनमा था यहाँ तक कि अंग्रेज शिकारी हबर्ट साहब तक को उनकी दुनाली सहित निगल गया था वह भामरी शेर हिम्मत कर शेर आगे बढ़ा, उसके पीछे वनराज महिषी शेरनी, उसके पीछे लचकती लता-सी पतली कमर को बल देती परम सुन्दरी वनराज बब्बर शेर बहादुर की लाजवन्ती कन्या।
‘‘अरे आप हैं, भामर, वनाधीश ! आइए-आइए पधारिए। कितनी प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर।’’ बिजैसिंह ने आगे बढ़कर हाथ मिलाया। शेर ने देखा, सामने हाथी की विशाल देह पड़ी है और बीन-बीनकर गीदड़ों का दल परम प्रतापी हाथी के देह की हड्डियाँ ऐसे चबा रहा है जैसे बताशे। वह मन-ही-मन घबड़ाया, ऐसे वीर गजराज की जब यह गति हुई तो मेरी क्या बिसात ? बेचारा चुप सांस खींचे बैठ गया।
बिजैसिंह फिर गरजा—‘‘भाइयों ! हाथी का नाश्ता कर अब दिन के भोजन में क्या खाओगे ?’’
‘‘शेर !’’ गीदड़ों का स्वर गूंजा। भामरी शेर का भय से बुरा हाल था।
शेरनी कांपने लगी, ‘‘ठक-ठक !’’
शेर कन्या का कलेजा कांप उठा, ‘‘धक-धक।’’
बिजैसिंह भी एक ही था मन की बात जानने वाला, तिरछी आँख से देखकर जान गया, निशाना ठीक बैठा है। बड़ी अदा से मूंछों में बल देकर बोला—‘‘मुझे दुःख है मेरे मित्रों ! मैं जीवन में पहली बार आपकी इच्छा पूरी न कर सकूँगा। आपका इच्छित भोजन इस समय हमारे माननीय अतिथिगण हैं और अतिथि को खा लेना कुमायुं की परम्परा के विरुद्ध है। मेरा एक और प्रस्ताव है।’’
‘‘क्या ?’’ सब गीदड़ फिर बोल उठे।
शेर फिर कांप उठा—न जाने क्या प्रस्ताव है इस भायनक जीवन का।
‘‘वह यह,’’ बिजैसिंह ने कमर और सीधी की, आंखों में तड़क और आवाज़ में कड़क लाकर वह बोला, ‘‘आप देख रहे हैं कि हमारे माननीय अतिथि के साथ उनकी एक परम सुन्दरी विवाह योग्य कन्या है। मेरा प्रस्ताव है कि मेरे पुत्र खड़कसिंह से आज ही उसकी सगाई कर हम पहाड़ और भामर के पशुगण सदा के लिए मैत्री के अटूट-बंधन में बंध जाएं।’’
‘‘वाह-वाह !’’
‘‘साधु साधु !’’
‘‘क्या सूझ है !’’
‘‘आख़िर है तो कुमय्या !’’
वन गीदड़राज की प्रशंसा से गूंजने लगा। शेर के भी जान में जान आई, शेरनी ने पसीना पोंछा। अकेली शेर की लाडिली शेरनी दुलारी राधिका रानी नीचा सिर किए आंसू बहाने लगी। छोटा दुबला-सा खड़कसिंह उसकी आंखें बचा-बचाकर उसे घूर रहा था। दुबला-सा मुंह, भूरी पतली पूंछ, घिनौने पीले दांत, बेहया कैसी खीसें निपोड़ रहा था। राधिका के जी में आ रहा था आगे बढ़कर मुंह नोच ले मुहझौंसे का। खैर, भाग्य का लिखा भला कहाँ मिटा ? बेचारी सात फेरे फिर चुपचाप उसके पीछे-पीछे फिरने लगी। गीदड़ों का दल अँधेरा होते ही बेसुरा, बेलय, बेताल का संगीत छेड़ देता—‘’हुआ-हुआ-हुआ।’
बेचारी राधिका रानी के कलेजे में बरछी-सी लगती। कहां बाप-दादों की दहाड़ें और कहां यह खिलवाड़। पर बेचारी चुप रहती।
खड़कसिंह भी था एक ही ओछा। कभी कहता, ‘‘ऐ रधुली ! मेरे पैर दाब। ऐ राधिका ! मेरी पूंछ को संवार।’’
बिजैसिंह कहता, ‘‘ऐ बहू ! जा झाड़ू लगा।’’
सास कहती, ‘‘हाय राम, बहू है या ठीकरी ! कैसे सीना तानकर चलती है। तनिक झुकना सीख, आंखें नीची कर और धीरे-धीरे बोल।’’
बेचारी राधिका, सबकी सहती, सबकी सुनती। कमर झुक गई। गला बैठ गया, पूँछ नीची होकर पैरों में लिपट-सिमटकर रह गई, कौन कहेगा कि वह शेर की बच्ची थी। पर थी आखिर शेरनी। शेरनी का दूध पिया था उसने। एक दिन पति के साथ-साथ वह भी चुपचाप हो ली। खड़कसिंह रोज़ सुबह निकल जाता और कहता—‘‘उफ़, आज तो वह शिकार किया कि तबियत भर गई।’’
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