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विवेकानन्द साहित्य >> हे भारत उठो जागो

हे भारत उठो जागो

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5912
आईएसबीएन :ooooo

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प्रस्तुत है हे भारत उठो जागो।

He Bharat Utho Jago

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘यह देखो, भारतमाता धीरे-धीरे आँखें खोल रही है।
वह कुछ देर सोयी थी।
उठो, उसे जगाओ और पहले की अपेक्षा और भी गौरवमण्डित करके भक्तिभाव से उसे उसके चिरन्तन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दो !’’

स्वामी विवेकानन्द

वक्तव्य


प्रथम संस्करण

प्रस्तुत पुस्तक स्वाधीन भारत ! जय हो !’ इस पुस्तक का नवीन संस्करण है। इसमें स्वामी विवेकानन्दजी के भारत-सम्बन्धी कुछ विख्यात भाषण एवं लेख संकलित है। स्वामीजी केवल एक आत्मज्ञानी महापुरुष ही नहीं वरन् एक श्रेष्ठ और सच्चे देशभक्त भी थे। उन्होंने भारतवासियों के सम्बन्ध में एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण किया था और भारतवासियों के सम्बन्ध में वास्तविक जानकारी प्राप्त की थी। इसीलिए भारत की प्रमुख समस्याओं पर अधिकारपूर्वक विवेचना करने के वे विशेष अधिकारी थे। इस पुस्तक में उन्होंने उन उपायों तथा साधनों का दिग्दर्शन कराया है, जिनके द्वारा आज हमारी वे समस्याएँ हल हो सकती हैं और फिर से हमारा भारत गतवैभव प्राप्त कर सकता है। स्वामीजी भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ थे। स्वतन्त्र भारत में स्वामीजी के ये उद्बोधक विचार उन सभी व्यक्तियों के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध होंगे, जो जीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। साथ ही इस पुस्तक में स्वामीजी की एक संक्षिप्त जीवनी का समावेश किया गया है, जिसके कारण इस पुस्तक की उपादेयता आधिक बढ़ गयी है।
हमें आशा है, इस प्रकाशन से पाठकों का नई दृष्टिकोण से लाभ होगा।

-प्रकाशक

स्वदेश-मंत्र


हे भारत ! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयन्ती है; मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं; मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, धन, और जीवन, इन्द्रिय-सुख के लिए—अपने व्यक्तिगत सुख के लिए—नहीं है, मत भूलना कि तुम जन्म से ही ‘माता’ के लिये बलिस्वरूप रखे गए हो; तुम मत भूलना कि तुम्हारा समा उस विराट महामाया की छाया मात्र है; मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, चमार और मेहतर तुम्हारे रक्त हैं, तुम्हारे भाई हैं। वे वीर ! साहस का आश्रय लो। गर्व से कहो कि मैं भारतवासी दरिदज्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी—सब मेरे भाई हैं, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत की देव-देवियाँ मेरे ईश्वर हैं, भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, जवानी की फुलवारी और मेरे बुढ़ापे की काशी है। भाई, बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण से मेरा कल्याण है; और रात-दिन कहते रहो—‘‘हे गौरीनाथ ! हे जगदम्बे; मुझे मनुष्यत्व दो, माँ ! मेरी दुर्बलता और कामरूपता दूर कर दो। माँ मुझे मनुष्य बना दो।’’

-स्वामी विवेकानन्द

अमृत मंत्र


हे अमृत के अधिकारीगण !
तुम तो ईश्वर की सन्तान हो,
अमर आनन्द के भागीदार हो,
पवित्र और पूर्ण आत्मा हो !
तुम इस मर्त्यभूमि पर देवता हो !...
उठो ! आओ ! ऐ सिंहो !
इस मिथ्या भ्रम को झटककर
दूर फेंक दो कि तुम भेड़ हो।
तुम जरा-मरण-रहित नित्यानन्दमय आत्मा हो !

-स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द की संक्षिप्त जीवनी


प्रारम्भिक काल

स्वामी विवेकानन्द का जन्म कलकत्ते में सोमवार 12 जनवरी 1863 को हुआ था। इनके पूर्व आश्रम का नाम नरेन्द्रनाथ दक्त अथवा ‘नरेन्द्र’ था। पिता थे श्रीमान विश्वनाथ दत्त तथा माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी। दत्त घराना सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित था; दान-पुण्य विद्वता और साथ ही स्वतन्त्रता की तीव्र भावना के लिए प्रख्यात था। नरेन्द्र नाथ के पितामह दुर्गाचरण दत्त फारसी तथा संस्कृति के विद्वान थे। उनकी दक्षता कानून में भी थी। किन्तु योग ऐसा कि पुत्र विश्वनाथ के जन्म के बाद उन्होंने संसार से विरक्ति ले ली और साधु हो गये। उस समय उनकी अवस्था केवल पच्चीस वर्ष की थी।
श्रीमान विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत करते थे। अँग्रेजी और फारसी भाषा में उनका अधिकार था—इतना कि अपने परिवार को फारसी कवि हाफिज की कविताएँ सुनाने में उन्हें बड़ा आनन्द आता था। बाइबिल के अध्ययन में भी वे रस लेते थे और इसी प्रकार संस्कृति शास्त्रों में। यद्यपि दान-पुण्य तथा निर्धनों की सहायता के निमित्त वे विशेष खर्चीले थे फिर भी धार्मिक तथा सामाजिक बातों में उनका दृष्टिकोण तर्कवादी तथा प्रगतिशील था—यह शायद पाश्चात्य संस्कृति के कारण। भुवनेश्वरीदेवी राजसी तेजस्वितायुक्त प्रगाढ़ धार्मिकतापरायण एक संभ्रांत महिला थी। नरेन्द्रनाथ के जन्म के पूर्व यद्यपि उन्हें कन्याएँ थीं, पुत्र-रत्न् के लिए उनकी विशेष लालसा थी।

इस निमित्त वाराणसी निवासी अपने एक सम्बन्धी से उन्होंने वीरेश्वशिव-चरणों में मनौती अर्पित करने की प्रार्थना की और कहा जाता है कि फलस्वरूप भगवान शंकर ने उन्हें यह वचन दिया कि वे स्वयं पुत्ररूप में उनके यहाँ जन्म लेंगे। कहना न होगा, उसके कुछ समय बाद नरेन्द्रनाथ ने जन्म लिया। बचपन की प्रारम्भिक अवस्था में नरेन्द्रनाथ बड़े चुलबुले और कुछ उत्पाती थे। किन्तु साथ ही आध्यात्मिक बातों के प्रति उनका विशेष आकर्षण था। फलतः राम-सीता, शिव प्रभृति देवताओं की मूर्तियों के सम्मुख ध्यानोपासना का खेल खेलना उन्हें बड़ा रुचिकर था। रामायण और महाभारत की कहानियाँ समय समय पर वे अपनी माँ से सुनते रहते थे। इन कथाओं से इनके मस्तिष्क पर एक अमिट छाप आयी। साहस, निर्धन के प्रति हृदय-वत्सलता तथा रमते हुए साधु-सन्तों के प्रति आकर्षण के लक्षण उनमें स्वतःसिद्ध दृष्टिगोचर होते थे। तर्कबुद्धि कुछ ऐसी पैनी थी कि बचपन में ही लगभग प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए वे अकाट्य दलीलों की अपेक्षा किया करते थे। इन सब गुणों के प्रादुर्भाव के फलस्वरूप नरेन्द्रनाथ का निर्माण हुआ—एक परम ओजस्वी नवयुवक के रूप में।

श्रीरामकृष्णदेव के चरणकमलों में

युवक नरेन्द्रनाथ के सिंह-सौन्दर्य और साहस में पूर्ण सामंजस्य था। उनके शरीर की बनावट कसरती युवक की थी। वाणी अनुवाद एवं स्पन्दनपूर्ण तथा बुद्धि अत्यन्त कुसाग्र खेल-कूद में उनका एक विशेष स्थान था, तथा दार्शनिक अध्ययन एवं संगीतशास्त्र आदि में उनकी प्रवीणता बड़ा उच्च स्तर की थी। अपने साथियों के वे निर्द्वन्द्व नेता थे। कॉलेज में उन्होंने पाश्चात्य विचार-धाराओं का केवल अध्ययन ही नहीं किया था, बल्कि उसको आत्मसात भी और इसी के फलस्वरूप इनके मस्तिष्क में प्रखर तर्कशीलता की बीजारोपण हो गया था। उनमें एक ओर जहाँ आध्यात्मिकता के प्रति जन्मजात प्रवृत्ति तथा प्राचीन धार्मिक प्रथाओं के प्रति आदर था, दूसरी ओर उतना ही उनका प्रखर बुद्धियुक्त तार्किक स्वभाव था।

परिणाम यह हुआ कि इन दोनों विचार-धाराओं में संघर्ष उत्पन्न हो गया। इस द्वन्द्व-परिस्थिति में उन्होंने ब्रह्म समाज में कुछ समाधान पाने का यत्न किया। ब्रह्म समाज उस समय की एक प्रचलित धार्मिक, सामाजिक संस्था थी। ब्राह्म समाजवादी निराकार ईश्वर में विश्वास करते थे, मूर्ति-पूजा का खण्डन करते तथा विभिन्न प्रकार के सामाजिक सुधारों में कार्यरत रहते थे। नरेन्द्रनाथ का एक प्रश्न यह था—‘‘क्या ईश्वर का अस्तित्व है ?’’ इस प्रश्न के निर्विवाद उत्तर के लिए वे अनेक विख्यात् धार्मिक नेताओं से मिले किन्तु सन्तोषजनक उत्तर न पा सके—उनकी आध्यात्मिक पिपासा और भी बढ़ ही गयी।


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