विवेकानन्द साहित्य >> शिक्षा शिक्षास्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक शिक्षा....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वक्तव्य
(प्रथम संस्करण)
इस पुस्तक में स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा पर विधायक और स्फूर्तिप्रद
विचारों को प्रस्तुत किया गया है। स्वामीजी का ओजपूर्ण और प्रगतिशील
व्यक्तित्व था। उन्होंने अपने विचारों में यह प्रतिपादित किया कि आज भारत
को मानवता तथा चरित्र का निर्माण करनेवाली शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है।
उनके मत से सभी प्रकार की शिक्षा और संस्कृति का आधार धर्म होना चाहिये।
उन्होंने अपने इस सिद्धान्त को अपनी कृतियों और व्याख्यानों में बराबर
पुरस्सर किया है।
मद्रास-सरकार के शिक्षा मंत्री श्री टी.एस. अविनाशीलिंगम्जी ने स्वामीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का संग्रह कर उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। यह पुस्तक उसी का हिन्दी रूपान्तर है। हम श्री अविनाशीलिंगम्जी के कृतज्ञ हैं कि उन्होंने हमें अपनी पुस्तक को हिन्दी में अनुवादित तथा प्रकाशित करने की अनुमति दी है।
इस पुस्तक का अनुवाद हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक पं. द्वारकानाथजी तिवारी, बी.ए., एल.एल.बी., दुर्ग, सी.पी. ने करके दिया है। इस बहुमूल्य कार्य के लिए हम श्री द्वारकानाथ जी को हार्दिक धन्यवाद देते हैं। उनका यह कहना अनुवाद भाषा तथा भाव दोनों की दृष्टि से सच्चा रहा है।
हम पं. शुकदेव प्रसादजी तिवारी (श्री विनयमोहन शर्मा) एम.ए., एल.एल.बी., प्राध्यापक, नागपुर महाविद्यालय के बड़े आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक के कार्य में हमें बहुमूल्य सूचनाएँ दी हैं।
हमें आशा है कि जनता हमारे इस प्रकाशन से लाभान्वित होगी।
मद्रास-सरकार के शिक्षा मंत्री श्री टी.एस. अविनाशीलिंगम्जी ने स्वामीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का संग्रह कर उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। यह पुस्तक उसी का हिन्दी रूपान्तर है। हम श्री अविनाशीलिंगम्जी के कृतज्ञ हैं कि उन्होंने हमें अपनी पुस्तक को हिन्दी में अनुवादित तथा प्रकाशित करने की अनुमति दी है।
इस पुस्तक का अनुवाद हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक पं. द्वारकानाथजी तिवारी, बी.ए., एल.एल.बी., दुर्ग, सी.पी. ने करके दिया है। इस बहुमूल्य कार्य के लिए हम श्री द्वारकानाथ जी को हार्दिक धन्यवाद देते हैं। उनका यह कहना अनुवाद भाषा तथा भाव दोनों की दृष्टि से सच्चा रहा है।
हम पं. शुकदेव प्रसादजी तिवारी (श्री विनयमोहन शर्मा) एम.ए., एल.एल.बी., प्राध्यापक, नागपुर महाविद्यालय के बड़े आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक के कार्य में हमें बहुमूल्य सूचनाएँ दी हैं।
हमें आशा है कि जनता हमारे इस प्रकाशन से लाभान्वित होगी।
प्रकाशक
वक्तव्य
(परिवर्धित दशम संस्करण)
प्रस्तुत पुस्तक का यह परिवर्धित संस्करण पाठकों के सम्मुख रखते हमें
प्रसन्नता हो रही है। इस पुस्तक में स्वामी विवेकानन्दजी के
‘शिक्षा’ विषयक विधायक और स्फूर्तिप्रद विचारों को
प्रस्तुत
किया गया है।
मद्रास सरकार के भूतपूर्व शिक्षामंत्री श्री टी.एस. आविनाशीलिंगम्जी ने स्वामीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का संकलन किया था जो 1943 में रामकृष्ण मठ, मद्रास से ‘Education’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक का पण्डित द्वारकानाथजी तिवारी द्वारा किया गया हिन्दी रूपान्तर ‘शिक्षा’ नाम से अब तक हमारे मठ से प्रकाशित होता रहा।
बाद में मूल अंग्रेजी पुस्तक के पंचम संस्मरण में कुछ नये अध्याय जोड़े गये एवं कुछ अध्यायों का पुनर्लेखन किया गया। तदनुसार प्रस्तुत परिवर्धन एवं परिशोधन किया गया है। इसमें समाविष्ट ‘व्यक्तिमत्व का विकास’, ‘साध्य तथा साधन’, ‘कर्तव्य क्या है’, ‘स्वामी की तरह कर्म करो’ ये नये अध्याय स्वामी विवेकानन्द के साहित्य के हिन्दी अनुवाद से संकलित किये गये हैं। अन्त में संदर्भ सूची भी दी गयी है।
हमारा विश्वास है कि प्रस्तुत परिवर्धित संस्मरण पाठकों के लिए लाभदायक सिद्ध होगा।
मद्रास सरकार के भूतपूर्व शिक्षामंत्री श्री टी.एस. आविनाशीलिंगम्जी ने स्वामीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का संकलन किया था जो 1943 में रामकृष्ण मठ, मद्रास से ‘Education’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक का पण्डित द्वारकानाथजी तिवारी द्वारा किया गया हिन्दी रूपान्तर ‘शिक्षा’ नाम से अब तक हमारे मठ से प्रकाशित होता रहा।
बाद में मूल अंग्रेजी पुस्तक के पंचम संस्मरण में कुछ नये अध्याय जोड़े गये एवं कुछ अध्यायों का पुनर्लेखन किया गया। तदनुसार प्रस्तुत परिवर्धन एवं परिशोधन किया गया है। इसमें समाविष्ट ‘व्यक्तिमत्व का विकास’, ‘साध्य तथा साधन’, ‘कर्तव्य क्या है’, ‘स्वामी की तरह कर्म करो’ ये नये अध्याय स्वामी विवेकानन्द के साहित्य के हिन्दी अनुवाद से संकलित किये गये हैं। अन्त में संदर्भ सूची भी दी गयी है।
हमारा विश्वास है कि प्रस्तुत परिवर्धित संस्मरण पाठकों के लिए लाभदायक सिद्ध होगा।
प्रकाशक
शिक्षा
1
शिक्षा का तत्त्व
जानना यानी प्रकट करना
मनुष्य की अन्तनिर्हित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।1 ज्ञान
मनुष्य में स्वभाव-सिद्ध है; कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता; सब अन्दर ही
है। हम जो कहते हैं कि मनुष्य ‘जानता’ है, यथार्थ
में,
मानवशास्त्र-संगत भाषा में, हमें कहना चाहिए कि वह ‘आविष्कार
करता’ है, ‘अनावृत’ या
‘प्रकट’ करता है।
मनुष्य जो कुछ ‘सीखता’ है, वह वास्तव में
‘आविष्कार
करना’ ही है। ‘आविष्कार’ का अर्थ है-
मनुष्य का अपनी
अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा के ऊपर से आवरण को हटा लेना। हम कहते हैं कि
न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार किया। तो क्या वह आविष्कार कहीं एक
कोने में न्यूटन की राह देखते बैठा था ? नहीं, वरन् उसके मन में ही था। जब
समय आया, तो उसने उसे जान लिया या ढूँढ़ निकाला। संसार को जो कुछ ज्ञान
प्राप्त हुआ है, वह सब मन से ही निकला है। विश्व का असीम ज्ञानभण्डार
स्वयं तुम्हारे मन में है। बाहरी संसार तो एक सुझाव, एक प्रेरक मात्र है,
जो तुम्हें अपने ही मन का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करता है। सेवा के
गिरने से न्यूटन को कुछ सूझ पड़ा और उसने अपने मन का अध्ययन किया। उसने
अपने मन में विचार की पुरानी कड़ियों को फिर से व्यवस्थित किया और उनमें
एक नयी कड़ी को देख पाया, जिसे हम गुरुत्वाकर्षण का नियम कहते हैं। वह न
तो सेव में था न पृथ्वी के केन्द्रस्थ किसी वस्तु में।2
समस्त ज्ञान अपने भीतर है।
अत: समस्त ज्ञान, चाहे वह लौकिक हो अथवा आध्यात्मिक, मनुष्य के मन में है।
बहुधा वह प्रकाशित न होकर ढका रहता है। और जब आवरण धीरे-धीरे हटता जाता
है, तो हम कहते हैं कि ‘हम सीख रहे है’। ज्यों-ज्यों
इस
आविष्करण की क्रिया बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों हमारे ज्ञान की वृद्धि
होती जाती है। जिस मनुष्य पर से यह आवरण उठता जा रहा है, वह अन्य
व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक ज्ञानी है, और जिस पर यह आवरण तह-पर-तह पड़ा
हुआ है, वह अज्ञानी है। जिस पर से यह आवरण पूरा हट जाता है, वह सर्वज्ञ,
सर्वदर्शी हो जाता है। चकमक पत्थर के टुकड़े में अग्नि के समान, ज्ञान मन
में निहित है और सुझाव या उद्दीपक-कारण ही वह घर्षण है, जो उस ज्ञानाग्नि
को प्रकाशित कर देता है।3 सभी ज्ञान और सभी शक्तियाँ भीतर हैं। हम जिन्हें
शक्तियाँ, प्रकृति के रहस्य या बल कहते हैं, वे सब भीतर ही हैं। मनुष्य की
आत्मा से ही सारा ज्ञान आता है। जो ज्ञान सनातन काल से मनुष्य के भीतर
निहित है, उसी को वह बाहर प्रकट करता है, अपने भीतर देख पाता है।4
आत्मा में अनन्त शक्ति है।
वास्तव में किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे को नहीं सिखाया। हममें से प्रत्येक
को अपने आपको सिखाना होगा। बाहर के गुरु तो केवल सुझाव या प्रेरणा
देनेवाले कारण मात्र हैं, जो हमारे अन्त:स्थ गुरु को सब विषयों का मर्म
समझने के लिए उद्धोधित कर देते हैं। तब फिर सब बातें हमारे ही अनुभव और
विचार की शक्ति के द्वारा स्पष्टतर हो जाएँगी और हम अपनी आत्मा में उनकी
अनुभूति करने लगेंगे।5 वह समूचा विशाल वटवृक्ष, जो आज कई एकड़ जमीन घेरे
हुए हैं, उस छोटे से बीज में था, जो शायद सरसों-दाने के अष्टमांश से बड़ा
नहीं था। वह सारी शक्तिराशि उस बीज में निबद्ध थी। हम जानते हैं कि विशाल
बुद्धि एक छोटे से जीवाणुकोष (protoplasmic cell) में सिमटी हुई रहती है।
यह भले ही एक पहेली-सा प्रतीत हो, पर है यह सत्य। हममें से हर कोई एक
जीवाणुकोश से उत्पन्न हुआ है। और हमारी सारी शक्तियाँ उसी में सिकुड़ी हुई
थी। तुम यह नहीं कह सकते कि वे खाद्यान्न से उत्पन्न हुई हैं, क्योंकि यदि
तुम अन्न का एक पर्वत भी खड़े कर दो, तो क्या उसमें कोई शक्ति प्रकट होगी
? शक्ति वहीं थीं, भले ही वह अव्यक्त या प्रसुप्त रही हो, पर थी वहीं। उसी
तरह मनुष्य की आत्मा में अनन्त शक्ति निहित है, चाहे वह यह जानता हो या न
जानता हो। इसको जानना, इसका बोध होना ही इसका प्रकट होना है।6
पारदर्शक आवरण।
अन्त:स्थ दिव्य ज्योति बहुतेरे मनुष्यों में अवरुद्ध रहती है। वह लोहे की
पेटी में बन्द दीपक के समान है- थोड़ा सा भी प्रकाश बाहर नहीं आ सकता।
पवित्रता और नि:स्वार्थता के द्वारा हम अपने अवरोधक माध्यम की सघनता को
धीरे-धीरे झीना करते जाते हैं और अन्त में वह काँच के समान पारदर्शक बन
जाता है। श्रीरामकृष्ण लोहे से काँच में परिवर्तित पेटी के समान थे,
जिसमें से भीतर का प्रकाश ज्यों-का-त्यों दिख सकता है।7
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