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धर्म-जिज्ञासा

स्वामी आत्मानन्द

प्रकाशक : अद्वैत आश्रम प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5906
आईएसबीएन :81-7505-282-1

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प्रस्तुत है पुस्तक धर्म-जिज्ञासा...

Dharam Jigyasa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

आज के व्यस्तता के युग में, धर्म-अध्यात्म तथा उसके व्यावहारिक स्वरूप को जानने के लिए बड़े-बड़े ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिए समय निकाल पाना व्यक्ति के लिए कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। आशा है ‘धर्म-जिज्ञासा’ शीर्षक हमारा यह नया प्रकाशन इस दिशा में कुछ सहायता कर सकेगा।

रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर, से प्रकाशित होनेवाली हिन्दी त्रैमासिकी ‘विवेक -ज्योति’ के शुरू के वर्षों में पाठकों के प्रश्न तथा उसके साथ तत्कालीन सम्पादक ब्रह्मलीन स्वामी आत्मानन्दजी द्वारा लिखित उनके उत्तर भी मुद्रित हुआ करते थे। उनमें से अधिकांश प्रश्न तथा उनके उत्तर आज भी अत्यन्त प्रासंगिक हैं। स्वामी विदेहात्मानन्दजी ने उनका भलीभाँति सम्पादन करके मासिक ‘विवेक-ज्योति’ के जनवरी 2002 से नवम्बर 2003 तक के तेईस अंकों में उनका पुनर्मुद्रण किया था। वहीं से हम उन्हें पुस्तकाकार प्रस्तुत कर रहे हैं। पुस्तक के रूप में प्रकाशनार्थ सम्पादक ने प्रश्नो तथा उनके उत्तरों को विषयों के अनुसार सजा दिया है और उनकी एक अनुक्रमणिका भी बना दी है। इस सुन्दर प्रस्तुतीकरण के लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं।

आशा है इस ‘धर्म-जिज्ञासा’ पुस्तक के अनुशीलन से पाठकों की धर्म-अध्यात्म तथा अन्य अनेक आनुषंगिक विषयों यथा—कर्मवाद, पूनर्जन्म, पुरुषार्थ, विज्ञान तथा धर्म का आपसी सम्बन्ध, साधना, गुरु आदि विषयक बहुत-सी जिज्ञासाओं का समाधान हो जाएगा और भारतीय संस्कृति से संलग्न अनेक प्रकार की जानकारियाँ भी प्राप्त होंगी।

प्रकाशक

धर्म-जिज्ञासा

धर्म का स्वरूप

प्रश्न : ‘धर्म’ शब्द से आपका क्या तात्पर्य है ? मेरी समझ में तो धर्म के ही कारण खून-खराबियाँ होती हैं, मानवता आपस में कटती-मरती है। पाकिस्तान और भारत के दंगे क्या धर्म के ही कारण नहीं हुए ?
उत्तर : मनुष्य भली और बुरी दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों का मिश्रण है। भली प्रवृत्तियाँ उसे उदारता और पर-दुख-कातरता की ओर ले जाती हैं, जबकि बुरी प्रवृत्तियों से वह स्वार्थी, ओछा, लोलुप तथा वासनामय होता जाता है। धर्म भली प्रवृत्तियों को उभारता है, पनपाता है और बुरी प्रवृत्तियों का दमन करता है। संसार का कोई भी धर्म मनुष्य को आपस में लड़ने के लिए नहीं कहता, बल्कि धर्म तो सबको एकता की डोर में बाँध देना चाहता है। धर्म की परिभाषा देते हुए भीष्म पितामह महाभारत में कहते हैं—

धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः।
यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।।


अर्थात्—‘जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे ‘‘धर्म’’ कहते हैं। ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को एकसूत्रता में बाँध देने की ताकत है, वह निश्चय ही धर्म है।’

उपर्युक्त परिभाषा से धर्म का स्पष्ट स्वरूप सामने आता है। आप इससे स्वयं ही विचार कर सकते हैं कि धर्म कैसे खून-खराबियों के लिये जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? यह आजकल का एक ओछा तर्क है कि धर्म ही समस्त दोषों का कारण है। पर वस्तुतः धर्म दोषी नहीं है। दोष तो हमारा है और वह यह कि हम धर्म के निर्देशों को जीवन में नहीं उतारते। मनुष्य में स्वाभाविक ही विभाजन की प्रवृत्ति है। धर्म इस प्रवृत्ति पर रोक लगाता है।

यदि आपके तर्क को थोड़ी देर के लिए स्वीकार भी कर लिया जाए कि धर्म के कारण खून-खराबियाँ होती हैं, दंगे होते हैं, तो हम एक प्रश्न आपके सामने रखेंगे कि जो एक ही धर्म के मानने वाले होते हैं, वे क्यों आपस में लड़ते-मरते हैं ? एक ही ईसाई धर्म के माननेवाले कई चर्चों में बँट गए हैं और आपस में वैसे ही लड़ते हैं जैसे दूसरे धर्म वालों से। इसलाम धर्म भी कई सम्प्रदायों में बँटकर मार-काट पर उतारू होता है। शिया-सुन्नी के झगड़े प्रसिद्ध ही हैं। हिन्दू धर्म के भी कई सम्प्रदाय हैं, जो एक दूसरे को नीचा दिखाने की ताक में रहते हैं। इन सबका क्या कारण है ? आप शायद कहेंगे कि सम्प्रदाय भी धर्म के अन्तर्गत आते हैं, अतः सम्प्रदायों के झगड़े को भी धर्म का झगड़ा कहा जा सकता है।

यदि ऐसा है तो एक दूसरा प्रश्न रखता हूँ—पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) में एक ही सम्प्रदाय के लोगों में भी मार-काट हुई थी, वह क्यों हुई ?1 बंगाली मुसलमान और बिहारी मुसलमान—दोनों आपस में क्यों लड़े ? एक ही सम्प्रदाय के आसामियों और बंगालियों में लड़ाई हुई, दंगा हुआ। यह क्यों ? आप कहेंगे कि यह प्रान्तीयतावाद के कारण हुआ। जो हो, पर यहाँ तो धर्म जिम्मेदार नहीं था। वैसे ही श्वेत और अश्वेत, पूँजीवाद और साम्यवाद तथा इसी प्रकार के अनेक द्वन्द्वों के चलते जो खून खराबियाँ होती हैं, वहाँ पर तो धर्म नहीं रहता, फिर केवल धर्म पर ही आक्षेप क्यों ?

तात्पर्य यह हुआ कि विभाजन मनुष्य के स्वभाव में है और धर्म उस विभाजन की प्रवृत्ति पर रोक लगाता है। जितने भी महान् धर्म-प्रचारक, धर्म-संस्थापक हुए हैं, उन सबकी वाणी विश्व-बन्धुत्व के गीत गाती है; सारे धर्म एक ही सत्य का बखान करते हैं और मनुष्य की स्वाभाविक कमजोरियों पर विजय पा लेने का आह्वान करते हैं। इस दृष्टिकोण से यदि आप धर्म को देखें, तो आपकी धर्म-सम्बन्धी धारणा में आमूल परिवर्तन हो जाएगा और धर्म को विध्वंसक कहने के बजाय आप उसे विश्व का संरक्षक ही कहेंगे।


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