जीवनी/आत्मकथा >> स्वामी विवेकानन्द और उनका अवदान स्वामी विवेकानन्द और उनका अवदानस्वामी विदेहात्मानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक स्वामी विवेकानन्द और उनका अवदान...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्वामी विवेकनन्द की प्रतिभा बहुमुखी थी। चालीस वर्ष से भी कम आयु तथा
लगभग दस वर्ष के अपने कार्यकाल के दौरान वे अपने सम्पूर्ण जगत् और विशेषकर
भारत को जो कुछ दे गए, वह आगामी अनेक शताब्दियों तक मानवता की थाती बनी
रहेगी। धर्म, दर्शन, शिक्षा, संस्कृति, इतिहास, कला, साहित्य,
विज्ञान-समाज-सुधार, अर्थनीति, सामाजवाद, नारी-जागरण आदि नानाविध विषयों
पर स्वामीजी के मौलिक एवं कालजयी विचार दस खण्डों में प्रकाशित उनके
साहित्य में बिखरे पड़े हैं। वस्तुत: अपने जीवन तथा सन्देश के माध्यम से
उन्होंने विश्व में एक युगान्तर उपस्थित किया, जिसे पूर्ण रूप से विकसित
होने में सम्भवत: शताब्दियाँ लग जाएँगी। भारत को यदि जीवित रहना है और
प्रगति करते हुए अपने खोये हुए गौरव को प्राप्त करना है, जो अपनी
राष्ट्रीय समस्याओं का हल उसे विवेकानन्द में ही ढूँढना होगा।
राममोहन, केशव सेन, दयानन्द, रानाडे, एनीबेसेंट, रामकृष्ण एवं अन्य चिन्तकों तथा सुधारकों ने भारत में जो जमीन तैयार की, विवेकानन्द उसमें से अश्वत्थ होकर उठे। अभिनव भारत को जो कुछ कहना था, वह विवेकानन्द के मुख से उद्गीर्ण हुआ। अभिनव भारत को जिस दिशा की ओर जाना था, उसका स्पष्ट संकेत विवेकानन्द ने दिया। विवेकानन्द ने दिया। विवेकानन्द वह समुद्र है, जिसमें धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीय तथा उपनिषद् और विज्ञान, सब के सब समाहित होते हैं।
राममोहन, केशव सेन, दयानन्द, रानाडे, एनीबेसेंट, रामकृष्ण एवं अन्य चिन्तकों तथा सुधारकों ने भारत में जो जमीन तैयार की, विवेकानन्द उसमें से अश्वत्थ होकर उठे। अभिनव भारत को जो कुछ कहना था, वह विवेकानन्द के मुख से उद्गीर्ण हुआ। अभिनव भारत को जिस दिशा की ओर जाना था, उसका स्पष्ट संकेत विवेकानन्द ने दिया। विवेकानन्द ने दिया। विवेकानन्द वह समुद्र है, जिसमें धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीय तथा उपनिषद् और विज्ञान, सब के सब समाहित होते हैं।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
प्रकाशक का निवेदन
स्वामी विवेकनन्द की प्रतिभा बहुमुखी थी। चालीस वर्ष से भी कम आयु तथा
लगभग दस वर्ष के अपने कार्यकाल के दौरान वे अपने सम्पूर्ण जगत् और विशेषकर
भारत को जो कुछ दे गए, वह आगामी अनेक शताब्दियों तक मानवता की थाती बनी
रहेगी। अपने जीवन के सन्ध्या-काल में उन्होंने स्वयं भी तो कहा था कि जो
कुछ वे कर चुके हैं वह पन्द्रह सौ वर्षों के लिए यथेष्ट होगा। स्वामीजी के
विचारों की चिर-प्रांसगिकता के विषय में पं. जवाहरलाल नेहरु ने 1950 ई.
में अपने एक भाषण के दौरान कहा था, ‘‘यदि आप स्वामी
विवेकानन्द की रचनाओं एवं व्याख्यानों को पढें, तो आप उनमें एक बड़ी
विचित्र बात पाएँगे और यह है कि वे कभी पुराने नहीं लगते। यद्यपि ये बातें
आज से 56 वर्ष (अब लगभग सौ वर्ष) पूर्व कही गई थीं, तथापि आज भी तरो-ताजा
लगती हैं कि उन्होंने जो कुछ भी लिखा या कहा वह हमारी अथवा विश्व की
समस्याओं के मूलभूत पहलुओं से संबंधित है, इसीलिए वे पुरानी नहीं लगतीं।
आज भी आप उन्हें पढ़ें तो वे नयी ही प्रतीत होंगी।....अत: स्वामी जी ने जो
कुछ लिखा या कहा है वह हमारे हित में है और होना भी चाहिए तथा आने वाले
लम्बे अरसे तक वह हमें प्रभावित करता रहेगा।’’
धर्म, दर्शन, शिक्षा, संस्कृति, इतिहास, कला, साहित्य, विज्ञान-समाज-सुधार, अर्थनीति, समाजवाद, नारी-जागरण आदि नानाविध विषयों पर स्वामीजी के मौलिक एवं कालजयी विचार दस खण्डों में प्रकाशित उनके साहित्य में बिखरे पड़े हैं। वस्तुत: अपने जीवन तथा सन्देश के माध्यम से उन्होंने विश्व में एक युगान्तर उपस्थित किया, जिसे पूर्ण रूप से विकसित होने में सम्भवत: शताब्दियाँ लग जाएँगी। उनके अवदान को इसी पक्ष में ध्यान में रखकर अनेक विचारकों ने उन्हें युगनायक, युगप्रवर्तक, युगाचार्य, विश्वविवेक, विश्वमानव, राष्ट्रद्रष्टा, विचारनायक, योद्धा, संन्यासी आदि आख्याएँ प्रदान की हैं। भारत को यदि जीवित रहना है और प्रगति करते हुए अपने खोये हुए गौरव को प्राप्त करना है, जो अपनी राष्ट्रीय समस्याओं का हल उसे विवेकानन्द में ही ढूँढना होगा। भारत एवं उसकी परम्पराओं के अध्ययन-मनन में डूबकर स्वामीजी मानो भारतात्मा हो गए थे, उन्होंने स्वयं भी कहा है, ‘‘मैं घनीभूत भारत हूँ।’’ अतएव भारत के आसन्न स्वर्णिम भविष्य के स्वागतार्थ यह आवश्यक है कि हमारी वर्तमान पीढ़ी स्वामीजी के विशद साहित्य का विभिन्न दृष्टिकोणों से गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करे।
1893 ई. में स्वामी विवेकानन्द के शिकागो में आयोजित धर्ममहासभा में भाग लेने तथा सनातन हिन्दू धर्म से विश्व का परिचय कराने के बाद से सम्पूर्ण जगत् में और विशेषकर भारत में एक अभिनव जागरण का सूत्रपात हुआ। उनकी अभूतपूर्व सफलता से प्रेरणा पाकर भारतवासियों के हृदय में आत्मविश्वास का उदय हुआ और जीवन के सभी क्षेत्रों में इस देश की महान विभूतियों ने मुक्तकण्ठ से स्वामीजी का ऋण स्वीकार किया है।
भारत एवं भारतेतर देशों के लेखकों, विचारकों एवं मनीषियों ने विभिन्न अवसरों पर स्वामीजी के जीवन, सन्देश तथा अवदान के विविध पक्षों पर मूल्यवान विचार व्यक्त किए हैं, जिनमें से कुछ मूल अथवा अनुवाद के रूप में रामकृष्ण संघ की प्रमुख त्रैमासिक (अब मासिक) पत्रिका ‘विवेक-ज्योति’ में समय समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। इनमें से महत्त्वपूर्ण लेखों को स्थायित्व प्रदान करने की कामना से हम उपरोक्त पत्रिका में अब तक प्रकाशित विवेकानन्द-विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री का संकलन इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही हमने डॉ. केदारनाथ लाभ द्वारा छपरा, (बिहार) से प्रकाशित होनेवाली मासिकी ‘विवेक-शिखा’ से भी कुछ सामग्री का संयोजन किया है। इनमें से प्रत्येक रचना उनके व्यक्तित्व अथवा चिन्तन के किसी-न-किसी पक्ष पर विशेष प्रकाश डालती है। हिन्दी के कुछ लब्धप्रतिष्ठ कवियों की विवेकानन्द विषयक कविताओं को भी इसमें सम्मिलित कर लिया गया है।
‘विवेक-ज्योति’ पत्रिका के प्रबंध-सम्पादक तथा रायपुर स्थित रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम के सचिव सत्यरूपानन्द जी के हम विशेष आभारी हैं, जिन्होंने उदारतापूर्वक हमें यह संकलन प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान की है। हमें आशा है कि ‘विवेकानन्द’ के प्रेमियों तथा अध्येताओं के लिए यह ग्रन्थ बड़ा रोचक तथा उपयोगी सिद्ध होगा।
धर्म, दर्शन, शिक्षा, संस्कृति, इतिहास, कला, साहित्य, विज्ञान-समाज-सुधार, अर्थनीति, समाजवाद, नारी-जागरण आदि नानाविध विषयों पर स्वामीजी के मौलिक एवं कालजयी विचार दस खण्डों में प्रकाशित उनके साहित्य में बिखरे पड़े हैं। वस्तुत: अपने जीवन तथा सन्देश के माध्यम से उन्होंने विश्व में एक युगान्तर उपस्थित किया, जिसे पूर्ण रूप से विकसित होने में सम्भवत: शताब्दियाँ लग जाएँगी। उनके अवदान को इसी पक्ष में ध्यान में रखकर अनेक विचारकों ने उन्हें युगनायक, युगप्रवर्तक, युगाचार्य, विश्वविवेक, विश्वमानव, राष्ट्रद्रष्टा, विचारनायक, योद्धा, संन्यासी आदि आख्याएँ प्रदान की हैं। भारत को यदि जीवित रहना है और प्रगति करते हुए अपने खोये हुए गौरव को प्राप्त करना है, जो अपनी राष्ट्रीय समस्याओं का हल उसे विवेकानन्द में ही ढूँढना होगा। भारत एवं उसकी परम्पराओं के अध्ययन-मनन में डूबकर स्वामीजी मानो भारतात्मा हो गए थे, उन्होंने स्वयं भी कहा है, ‘‘मैं घनीभूत भारत हूँ।’’ अतएव भारत के आसन्न स्वर्णिम भविष्य के स्वागतार्थ यह आवश्यक है कि हमारी वर्तमान पीढ़ी स्वामीजी के विशद साहित्य का विभिन्न दृष्टिकोणों से गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करे।
1893 ई. में स्वामी विवेकानन्द के शिकागो में आयोजित धर्ममहासभा में भाग लेने तथा सनातन हिन्दू धर्म से विश्व का परिचय कराने के बाद से सम्पूर्ण जगत् में और विशेषकर भारत में एक अभिनव जागरण का सूत्रपात हुआ। उनकी अभूतपूर्व सफलता से प्रेरणा पाकर भारतवासियों के हृदय में आत्मविश्वास का उदय हुआ और जीवन के सभी क्षेत्रों में इस देश की महान विभूतियों ने मुक्तकण्ठ से स्वामीजी का ऋण स्वीकार किया है।
भारत एवं भारतेतर देशों के लेखकों, विचारकों एवं मनीषियों ने विभिन्न अवसरों पर स्वामीजी के जीवन, सन्देश तथा अवदान के विविध पक्षों पर मूल्यवान विचार व्यक्त किए हैं, जिनमें से कुछ मूल अथवा अनुवाद के रूप में रामकृष्ण संघ की प्रमुख त्रैमासिक (अब मासिक) पत्रिका ‘विवेक-ज्योति’ में समय समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। इनमें से महत्त्वपूर्ण लेखों को स्थायित्व प्रदान करने की कामना से हम उपरोक्त पत्रिका में अब तक प्रकाशित विवेकानन्द-विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री का संकलन इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही हमने डॉ. केदारनाथ लाभ द्वारा छपरा, (बिहार) से प्रकाशित होनेवाली मासिकी ‘विवेक-शिखा’ से भी कुछ सामग्री का संयोजन किया है। इनमें से प्रत्येक रचना उनके व्यक्तित्व अथवा चिन्तन के किसी-न-किसी पक्ष पर विशेष प्रकाश डालती है। हिन्दी के कुछ लब्धप्रतिष्ठ कवियों की विवेकानन्द विषयक कविताओं को भी इसमें सम्मिलित कर लिया गया है।
‘विवेक-ज्योति’ पत्रिका के प्रबंध-सम्पादक तथा रायपुर स्थित रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम के सचिव सत्यरूपानन्द जी के हम विशेष आभारी हैं, जिन्होंने उदारतापूर्वक हमें यह संकलन प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान की है। हमें आशा है कि ‘विवेकानन्द’ के प्रेमियों तथा अध्येताओं के लिए यह ग्रन्थ बड़ा रोचक तथा उपयोगी सिद्ध होगा।
22 अप्रैल, 2002
ई.
प्रकाशक
स्वामी विवेकानन्द
एक जीवनझाँकी
मुंशी प्रेमचन्द
(उपन्यास-सम्राट लेखक ने यह उर्दू भाषा में अपने साहित्यिक जीवन के उषाकाल
में लिखा था, जो ‘जमाना’ मासिक के मई 1908 ई. के अंक
में
प्रकाशित हुआ था। बाद में इसका यह हिन्दी अनुवाद लेखक ने स्वयं किया।
प्रस्तुत लेख उनकी ‘कलम, तलवार और त्याग’ नामक पुस्तक
में
साभार गृहीत हुआ है। स्मरणीय है कि उस समय तक स्वामीजी की कोई प्रामाणिक
जीवनी प्रकाशित नहीं हुई थी, अत: तथ्यों में कहीं भूलें होते हुए भी हम इस
लेख को ऐतिहासिकता के लिए प्रकाशित कर रहे हैं।)
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि जब जब धर्म का ह्नास और पाप की प्रबलता होती है, तब-तब मैं मानव-जाति के कल्याण के लिए अवतार लिया करता हूँ। इस नाशवान् जगत् में सर्वत्र सामान्यत: और भारतवर्ष में विशेषत: जब कभी पाप की वृद्धि या और किसी कारण (समाज में) संस्कार या नवनिर्माण की आवश्यकता हुई, तो ऐसे सच्चे सुधारक और पथप्रदर्शक प्रकट हुए हैं, जिनके आत्मबल ने सामयिक परिस्थिति पर विजय प्राप्त की। पुरातन-काल में जब पाप-अनाचार प्रबल हो उठे, तो कृष्ण भगवान आए और अनीति-अत्याचार की आग बुझायी। इसके बहुत दिन बाद क्रूरता, विलासिता और स्वार्थपरता का फिर दौरदौरा हुआ, तो बुद्ध ने जन्म लिया और उनके उपदेशों ने धर्मभाव की ऐसी धारा बहा दी, जिसने कई सौ साल तक जड़वाद को सिर न उठाने दिया। पर जब कालप्रवाह ने इस उच्च आध्यात्मिक शिक्षा की नींव को भी खोखला कर दिया और उसकी आड़ में दम्भ-दुराचार ने फिर जोर पकड़ा, तो शंकर स्वामी ने अवतार लिया और अपनी वाग्मिता तथा योगबल से धर्म के परदे में होनेवाली बुराइयों की जड़ उखाड़ दी। अनन्तर कबीर साहब और श्री चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए और अपनी आत्मसाधना का सिक्का लोगों के दिलों पर जमा गए।
ईसा की पिछली शताब्दी के प्रारम्भ में जड़वाद ने फिर सिर उठाया, और इस बार उसका आक्रमण ऐसा प्रबल था, अस्त्र ऐसे अमोघ और सहायक ऐसे प्रबल थे कि भारत के आत्मवाद को उसके सामने सिर झुका देना पड़ा। और कुछ ही दिनों में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तथा अटक से कटक तक उसकी पताका फहराने लगी। हमारी आँखें इस भौतिक प्रकाश के सामने चौंधिया गयीं और हमने अपने प्राचीन तत्त्वज्ञान, प्राचीन शास्त्रविज्ञान, प्राचीन समाज-व्यवस्था, प्राचीन धर्म और प्राचीन आदर्शों को त्यागना आरम्भ कर दिया। हमारे मन में दृढ़ धारणा हो गयी कि हम बहुत दिनों में मार्गभ्रष्ट हो रहे थे और आत्मा-परमात्मा की बातें निरी ढकोसला हैं। पुराने जमाने में भले ही इनसे कुछ लाभ हो, पर वर्तमान काल के लिए यह किसी प्रकार उपयुक्त नहीं और इस रास्ते से हटकर हमने नये राज-मार्ग को न पकड़ा, तो कुछ ही दिनों में धरा-धाम से लुप्त हो जाएँगे।
ऐसे समय में पुनीत भारत-भूमि में पुन: एक महापुरुष का आविर्भाव हुआ, जिसके हृदय में अध्यात्म-भाव का सागर लहरा रहा था; जिसके विचार ऊँचे और दृष्टि दूरगामी थी; जिसका हृदय मानव-प्रेम से ओतप्रोत था। उसकी सच्चाई-भरी ललकार ने क्षण भर में जड़वादी संसार में हलचल मचा दी। उसने नास्तिक्य के गढ़ में घुसकर साबित कर दिया कि तुम जिसे प्रकाश समझ रहे हो, वह वास्तव में अन्धकार है, और यह सभ्यता, जिस पर तुमको इतना गर्व है, सच्ची सभ्यता नहीं। इस सच्चे विश्वास के बल से भरे हुए भाषण ने भारत पर भी जादू का असर किया और जड़वाद के प्रखर प्रवाह ने अपने सामने ऊँची दीवार खड़ी पायी, जिसकी जड़ को हिलाना या जिसके ऊपर से निकल जाना, उसके लिए असाध्य कार्य था।
आज अपनी समाज-व्यवस्था, अपने वेदशास्त्र, अपने रीति-व्यवहार और धर्म को हम आदर की दृष्टि से देखते हैं। यह उसी पूतात्मा के उपदेशों का सुफल है कि हम अपने प्राचीन आदर्शों की पूजा करने को प्रस्तुत हैं और यूरोप के वीर पुरुष और योद्धा, विद्वान और दार्शनिक हमें अपने पण्डितों और मनीषियों के सामने निरे मालूम होते हैं। आज हम अपनी किसी बात को, चाहे वह धर्म और समाज-व्यवस्था से संबंध रखती हो या ज्ञान-विज्ञान से, केवल इसलिए मान लेने को तैयार नहीं हैं कि यूरोप में उसका चलन है। किन्तु उसके लिए अपने धर्मग्रन्थों और पुरातन पूर्वजों का मत जानने का यत्न करते और उनके निर्णय को सर्वोपरि मानते हैं।
और वह सब ब्रह्मलीन स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक उपदेशों का ही चमत्कार है।
स्वामी विवेकानन्द का जीवन-वृत्तांत बहुत संक्षिप्त है। दु:ख है कि आप भरी जवानी में ही इस दुनिया से उठ गए और आपके महान् व्यक्तित्व से देश और जाति को जितना लाभ पहुँच सकता था, न पहुँच सका। 1863 ई. में वे एक प्रतिष्ठित कायस्थ कुल में उत्पन्न हुए। बचपन में ही होनहार दिखाई देते थे। अँगरेजी स्कूलों में शिक्षा पायी और 1884 में बी.ए. की डिग्री हासिल की। उस समय उनका नाम नरेन्द्रनाथ था। कुछ दिनों तक ब्राह्म-समाज के अनुयायी रहे। नित्य प्रार्थना में सम्मिलित होते और चूँकि गला बहुत ही अच्छा पाया था, इसलिए कीर्तन-समाज में भी शरीक हुआ करते थे। पर ब्राह्म-समाज के सिद्धान्त उनकी प्यास न बुझा सके। धर्म उनके लिए केवल किसी पुस्तक से दो-चार श्लोक पढ़ देने, कुछ विधि-विधानों को पालन कर देने और गीत गाने का नाम नहीं हो सकता था। कुछ दिनों तक सत्य की खोज में इधर-उधर भटकते रहे।
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि जब जब धर्म का ह्नास और पाप की प्रबलता होती है, तब-तब मैं मानव-जाति के कल्याण के लिए अवतार लिया करता हूँ। इस नाशवान् जगत् में सर्वत्र सामान्यत: और भारतवर्ष में विशेषत: जब कभी पाप की वृद्धि या और किसी कारण (समाज में) संस्कार या नवनिर्माण की आवश्यकता हुई, तो ऐसे सच्चे सुधारक और पथप्रदर्शक प्रकट हुए हैं, जिनके आत्मबल ने सामयिक परिस्थिति पर विजय प्राप्त की। पुरातन-काल में जब पाप-अनाचार प्रबल हो उठे, तो कृष्ण भगवान आए और अनीति-अत्याचार की आग बुझायी। इसके बहुत दिन बाद क्रूरता, विलासिता और स्वार्थपरता का फिर दौरदौरा हुआ, तो बुद्ध ने जन्म लिया और उनके उपदेशों ने धर्मभाव की ऐसी धारा बहा दी, जिसने कई सौ साल तक जड़वाद को सिर न उठाने दिया। पर जब कालप्रवाह ने इस उच्च आध्यात्मिक शिक्षा की नींव को भी खोखला कर दिया और उसकी आड़ में दम्भ-दुराचार ने फिर जोर पकड़ा, तो शंकर स्वामी ने अवतार लिया और अपनी वाग्मिता तथा योगबल से धर्म के परदे में होनेवाली बुराइयों की जड़ उखाड़ दी। अनन्तर कबीर साहब और श्री चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए और अपनी आत्मसाधना का सिक्का लोगों के दिलों पर जमा गए।
ईसा की पिछली शताब्दी के प्रारम्भ में जड़वाद ने फिर सिर उठाया, और इस बार उसका आक्रमण ऐसा प्रबल था, अस्त्र ऐसे अमोघ और सहायक ऐसे प्रबल थे कि भारत के आत्मवाद को उसके सामने सिर झुका देना पड़ा। और कुछ ही दिनों में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तथा अटक से कटक तक उसकी पताका फहराने लगी। हमारी आँखें इस भौतिक प्रकाश के सामने चौंधिया गयीं और हमने अपने प्राचीन तत्त्वज्ञान, प्राचीन शास्त्रविज्ञान, प्राचीन समाज-व्यवस्था, प्राचीन धर्म और प्राचीन आदर्शों को त्यागना आरम्भ कर दिया। हमारे मन में दृढ़ धारणा हो गयी कि हम बहुत दिनों में मार्गभ्रष्ट हो रहे थे और आत्मा-परमात्मा की बातें निरी ढकोसला हैं। पुराने जमाने में भले ही इनसे कुछ लाभ हो, पर वर्तमान काल के लिए यह किसी प्रकार उपयुक्त नहीं और इस रास्ते से हटकर हमने नये राज-मार्ग को न पकड़ा, तो कुछ ही दिनों में धरा-धाम से लुप्त हो जाएँगे।
ऐसे समय में पुनीत भारत-भूमि में पुन: एक महापुरुष का आविर्भाव हुआ, जिसके हृदय में अध्यात्म-भाव का सागर लहरा रहा था; जिसके विचार ऊँचे और दृष्टि दूरगामी थी; जिसका हृदय मानव-प्रेम से ओतप्रोत था। उसकी सच्चाई-भरी ललकार ने क्षण भर में जड़वादी संसार में हलचल मचा दी। उसने नास्तिक्य के गढ़ में घुसकर साबित कर दिया कि तुम जिसे प्रकाश समझ रहे हो, वह वास्तव में अन्धकार है, और यह सभ्यता, जिस पर तुमको इतना गर्व है, सच्ची सभ्यता नहीं। इस सच्चे विश्वास के बल से भरे हुए भाषण ने भारत पर भी जादू का असर किया और जड़वाद के प्रखर प्रवाह ने अपने सामने ऊँची दीवार खड़ी पायी, जिसकी जड़ को हिलाना या जिसके ऊपर से निकल जाना, उसके लिए असाध्य कार्य था।
आज अपनी समाज-व्यवस्था, अपने वेदशास्त्र, अपने रीति-व्यवहार और धर्म को हम आदर की दृष्टि से देखते हैं। यह उसी पूतात्मा के उपदेशों का सुफल है कि हम अपने प्राचीन आदर्शों की पूजा करने को प्रस्तुत हैं और यूरोप के वीर पुरुष और योद्धा, विद्वान और दार्शनिक हमें अपने पण्डितों और मनीषियों के सामने निरे मालूम होते हैं। आज हम अपनी किसी बात को, चाहे वह धर्म और समाज-व्यवस्था से संबंध रखती हो या ज्ञान-विज्ञान से, केवल इसलिए मान लेने को तैयार नहीं हैं कि यूरोप में उसका चलन है। किन्तु उसके लिए अपने धर्मग्रन्थों और पुरातन पूर्वजों का मत जानने का यत्न करते और उनके निर्णय को सर्वोपरि मानते हैं।
और वह सब ब्रह्मलीन स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक उपदेशों का ही चमत्कार है।
स्वामी विवेकानन्द का जीवन-वृत्तांत बहुत संक्षिप्त है। दु:ख है कि आप भरी जवानी में ही इस दुनिया से उठ गए और आपके महान् व्यक्तित्व से देश और जाति को जितना लाभ पहुँच सकता था, न पहुँच सका। 1863 ई. में वे एक प्रतिष्ठित कायस्थ कुल में उत्पन्न हुए। बचपन में ही होनहार दिखाई देते थे। अँगरेजी स्कूलों में शिक्षा पायी और 1884 में बी.ए. की डिग्री हासिल की। उस समय उनका नाम नरेन्द्रनाथ था। कुछ दिनों तक ब्राह्म-समाज के अनुयायी रहे। नित्य प्रार्थना में सम्मिलित होते और चूँकि गला बहुत ही अच्छा पाया था, इसलिए कीर्तन-समाज में भी शरीक हुआ करते थे। पर ब्राह्म-समाज के सिद्धान्त उनकी प्यास न बुझा सके। धर्म उनके लिए केवल किसी पुस्तक से दो-चार श्लोक पढ़ देने, कुछ विधि-विधानों को पालन कर देने और गीत गाने का नाम नहीं हो सकता था। कुछ दिनों तक सत्य की खोज में इधर-उधर भटकते रहे।
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