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भारत में शक्तिपूजा

स्वामी सारदानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :87
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5894
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक भारत में शक्तिपूजा...

Bharat Mein Shaktipooja a hindi book by Swami Sardanand - भारत में शक्तिपूजा - स्वामी सारदानन्द

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

स्वामी सारदानन्दकृत ‘भारत में शक्तिपूजा’ का यह अष्टम संस्करण हम हर्ष के साथ पाठकों के सम्मुख रखते हैं। हिन्दी-साहित्य-संसार में शक्तिपूजा-संबंधी प्रामाणिक ग्रन्थों के प्रकाशन की विशेष आवश्यकता है। शक्तिपूजा के तत्त्व की यथार्थ जानकारी के अभाव में जन-मन में उसके सम्बन्ध में कई प्रकार की भ्रमात्मक धारणाएँ फैली हुई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में विद्वान् लेखक ने शक्तितत्त्व के महत्त्वपूर्ण पहलुओं की विशद विवेचना करते हुए उन भ्रामक धारणाओं के निराकरण की ओर सार्थक प्रयत्न किया है। शक्तिपूजा का उद्भव, उसका क्रमविकास, उसकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि तथा मानव-जीवन के चरमोद्देश्य भगवत्प्राप्ति में उसकी उपादेयता—ऐसे विषयों पर इस ग्रन्थ में अनुभवी लेखक द्वारा पूरा पूरा प्रकाश डाला गया है।

मूल ग्रन्थ बँगला भाषा में सारदानन्दजी द्वारा लिखा गया है। स्वामी सारदानन्दजी भगवान् के लीलापार्षदों में से तथा स्वामी विवेकानन्दजी के गुरुभाई। उनकी आध्यात्मिक अनुभूति की गहराई अथाह थी और उनका पाण्डित्य भी वैसा ही विचक्षण था। उनकी योजना प्रस्तुत ग्रन्थ को दो भागों में निकालने की थी, पर द्वितीय भाग लिखने के पूर्व ही वे महासमाधि में विलीन हो गये। शक्तिपूजा के विषय पर उनका यह ग्रन्थ वंगदेश में प्रामाणिक माना जाता है। वंगभाषी जनता ने बड़े ही उत्साहपूर्वक इसका स्वागत किया है।
इस पुस्तक का सफल अनुवाद श्री गोपाचन्द्र वेदान्तशास्त्री, वाराणसी से किया है जिनके हम हृदय से आभारी हैं।
हमारा विश्वास है कि हिन्दी भाषी जनता भी उसी उत्साह के साथ इस प्रकाशन का स्वागत करेगी और इसके अनुशीलन से लाभान्वित होगी।

प्रकाशक

उत्सर्ग

जिनकी करुणादृष्टि से ग्रन्थकार संसार की सभी नारीमूर्तियों के भीतर श्रीजगदम्बा की विशेष शक्ति के प्रकाश की उपलब्धि करके धन्य हुआ है, उन्हीं के श्रीचरणकमलों में यह पुस्तक भक्तिपूर्ण चित्त से समर्पित है। इति।

विनीत
ग्रन्थकार

निवेदन


‘‘भारत में शक्तिपूजा’’ पुस्तक का प्रथम भाग प्रकाशित हो रहा है। पाठकवृन्द द्वारा इसका आदर हुआ तो इसका द्वितीय भाग भी प्रकाशित करने की इच्छा है।* शक्तिपूजा, विशेष रूप से मातृभाव भारत की निजी सम्पत्ति है। मातृभाव से प्रथक् अन्य भावों की शक्तिपूजा का कुछ अंश अन्य देशों को माँ जगदम्बा कह कर पुकारना केवल भारत में ही दिखाई पड़ता है। बहुत दिनों तक पवित्र और संयत भाव से शक्तिपूजा करने के फलस्वरूप भारत के ऋषि-मुनियों ने ही प्रथम ज्ञात होकर प्रचार किया था कि जगदम्बा सगुण और निगुण दोनों ही हैं। पुरुष और प्रकृति-ब्रह्म और माया-नाम से भारत के दर्शनकारों ने जिन दो पदार्थों का इस संसार के मूल रूप से निर्देश किया है, वे एक ही वस्तु के एक ही समय विद्यमान दो विभिन्न भाव या प्रकाशविशेष हैं। यथार्थ में देशकालावच्छिन्न या नामरूप के अवलम्बन से सबाह्यान्तर-जगत-उपलब्धिकारी मानव-मन एक ही समय जगदम्बा के ये दो भाव साक्षात् प्रत्यक्ष करने में असमर्थ है। क्योंकि मान-मन स्वभावतः ही ऐसे उपादानों से गठित है कि वह आलोक-अन्धकार की तरह परस्परविरुद्ध उन दोनों भावों को एक
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*ग्रन्थकार की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। द्वितीय भाग लिखने के पूर्व ही उनका देहावसान हो गया।


साथ एक ही समय ग्रहण नहीं कर सकता। इस कारण देश-कालावच्छिन्न सगुण भाव की उपलब्धि करते समय जगदम्बा के निर्गुण भाव की उपलब्धि वह नहीं कर सकता। परन्तु समाधि की सहायता से उच्च भूमिका में आरोहण कर जब वह जगन्माता के निर्गुण स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव करता ही तब उसके मन में उसके सगुण भाव और सगुणभावप्रसूत संसार की उपलब्धि नहीं होती। किन्तु समाधिभूमि से उतर आने पर पुनः साधारण भाव प्राप्त होने पर भी उसे समाधिकालानुभूत जगदम्बा के निर्गुण भाव की कुछ स्मृति रह जाती है, उससे वह निस्सन्दिग्ध भाव से समझ सकता है कि वह निर्गुण और सगुण दोनों ही हैं। इस कारण जगत्कारण के स्वरूप-सम्बन्धी पूर्णत्त्व की उपलब्धि करने का एकमात्र मार्ग है—निर्विकल्प समाधिलाभ, इस बात को भारत के सभी ऋषि और दर्शनकार एक वाक्य से स्वीकार कर गये हैं। प्रतीक के अवलम्बन् से शक्तिपूजा उस समाधिलाभ की सहायक है, इस बात की उपलब्धि करते भारत के ऋषि और आचार्य अनादिकाल से इसका जनसाधारण में प्रचार करते आये हैं।

यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि प्रतीक किसे कहते हैं। शास्त्रकार कहते हैं—आन्तर और बाह्य संसार के अंतर्गत जो विशेष शक्ति-शाली पदार्थ मानव-मन में स्वभाव से ही अन्तर के भाव को प्रकाशित करके उसे जगत्कारण के अनुसन्धान और साक्षात् प्रत्यक्ष करने में नियुक्त करता है, उसी को प्रतीक कहते हैं और धातु, प्रस्तर या मृत्तिका आदि किसी प्रकार के पदार्थ से गठित कृत्रिम मूर्तिविशेष में जगत्कारण के सृष्टि-स्थिति आदि गुणों का आरोप या आवेश की कल्पना करते पूजा-ध्यान आदि की सहायता से जगन्माता के साक्षात् स्वरूप की उपलब्धि करने की चेष्टा को ही मूर्तिपूजा कहते हैं। ‘‘अब्रह्मणि ब्रह्मदृष्टयानुसन्धानम्’’ अर्थात् जो ससीम होने के कारण पूर्ण ब्रह्म नहीं है, उस प्रकार के किसी पदार्थ या प्राणी को ब्रह्म समझकर तदद्वारा पूर्ण ब्रह्म की स्वरूपानुभूति की चेष्टा करना ही प्रतीक और प्रतिमा की पूजा है।

थोड़ा विचार करने से ही प्रतीत होगा कि प्रत्येक प्रतीक या प्रतिमा के पीछे साधक अनादिकाल से जगत्कारण के गुणों या शक्तियों का परिचय पाकर या आरोप करके उनकी पूजा करते आये हैं। इसी कारण अगणित सम्प्रदायों में विभक्त अगणित देव-देवियों की मूर्तियों के अवलम्बन द्वारा अनादिकाल से किसी न किसी भाव से वे शक्तिपूजा ही करते आये हैं और अभी भी वैसा ही कर रहे हैं—इसे समझने में विलम्ब नहीं लगता। यथार्थ में साधक जगत्कारण को पुरुष या नारी किसी भी भाव से क्यों न ग्रहण करे, स्वयं के, प्रकृतिगत संस्कारों के अधीन होकर ही वह वैसा करता है और उस भाव के अवलम्बन से वह जगत्कारण की शक्ति की ही पूजा करता है।

किसी भी भाव के अवलम्बन से किसी भी प्रतीक में जगत्कारण की शक्ति की उपासना क्यों न की जाए, उसमें साधक के मन का पूर्ण अनुराग न रहने से साधना में सिद्धिलाभ नहीं होता। वह अनुराग या भक्ति ही उसे धीरे-धीरे उसके मन में संसार के सब प्रकार के भोग-सुखों के प्रति हेय-ज्ञान उत्पन्न कर उसे सब प्रकार के स्वार्थों के अनुसन्धान के हाथ से मुक्त कर देती है। किसी भी भाव के अवलम्बन से साधक प्रवृत्त क्यों न हो और साधना में प्रवृत्त होने के पहले उसके मन में कितनी ही स्वार्थपरता और भोगसुखेच्छा क्यों न रहे, यदि किसी प्रकार से उसके मन में अपने उपास्यदेव के ऊपर बिन्दुमात्र भी यथार्थ अनुराग उत्पन्न हो तो उसका कभी विनाश नहीं हो सकता।

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