धर्म एवं दर्शन >> आत्मोन्नति के सोपान आत्मोन्नति के सोपानस्वामी आत्मानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक आत्मोन्नति के सोपान
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तावना
रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर (छत्तीसगढ़) के संस्थापक
ब्रह्मलीन, श्रीमत् स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने आकाशवाणी हेतु सामायिक
विषयों पर विचारोत्तेजक वर्ताएँ लिखी थीं, जो आकाशवाणी के विभिन्न
केन्द्रों द्वारा प्रसारित होती रही है तथा काफी लोकप्रिय भी हुई हैं।
इनकी उपादेयता को देखकर इन्हें पुस्तकाकार में ‘आत्मोन्नति के
सोपान’ के नाम से प्रकाशित किया जा रहा है।
उच्च मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने वाली ये वर्ताएँ आज के दिग्भ्रान्त तथा समस्याग्रस्त मानव को जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण, नया उत्साह और नयी प्रेरणा प्रदान कर उसे आत्मोन्नति की दिशा में अग्रसर कराने में समर्थ होंगी, इसमें कोई सन्देह नहीं। कई विषय आपस में सम्बन्धित होने के कारण उनके विवेचन में पुनरावृत्ति होना स्वाभाविक है, पर वह विषय-वस्तु को हृदयंगम कराने में सहायक ही होगा।
इस पुस्तक के संयोजन और प्रकाशन में मेरठ की डा. (श्रीमती) रेखा अग्रवाल का बहुमूल्य सहयोग प्राप्त हुआ है। इसके लिए हम उनके बड़े आभारी हैं।
आशा है यह पुस्तक सुधीजनों द्वारा समादृत होगी।
उच्च मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने वाली ये वर्ताएँ आज के दिग्भ्रान्त तथा समस्याग्रस्त मानव को जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण, नया उत्साह और नयी प्रेरणा प्रदान कर उसे आत्मोन्नति की दिशा में अग्रसर कराने में समर्थ होंगी, इसमें कोई सन्देह नहीं। कई विषय आपस में सम्बन्धित होने के कारण उनके विवेचन में पुनरावृत्ति होना स्वाभाविक है, पर वह विषय-वस्तु को हृदयंगम कराने में सहायक ही होगा।
इस पुस्तक के संयोजन और प्रकाशन में मेरठ की डा. (श्रीमती) रेखा अग्रवाल का बहुमूल्य सहयोग प्राप्त हुआ है। इसके लिए हम उनके बड़े आभारी हैं।
आशा है यह पुस्तक सुधीजनों द्वारा समादृत होगी।
डॉ. ओमप्रकाश वर्मा
द्वितीय संस्करण की भूमिका
‘आत्मोन्नति के सोपान’ के प्रथम संस्करण की पाँच हजार
प्रतियाँ बिना किसी प्रयास के शीघ्र समाप्त हो गयीं। यह इस पुस्तक की
लोकप्रियता का प्रमाण है। बहुत दिनों से पाठकों द्वारा इसके पुनः प्रकाशन
की माँग की जाती रही है। अतः इसका द्वितीय संस्करण पाठकों के समक्ष
प्रस्तुत करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
पुस्तक के मुखपृष्ठ की सज्जा का कार्य श्री अशोक फतनानी, रायपुर ने किया है। ‘प्रूफ रीड़िग’ के कठिन कार्य में रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर के श्रीमत् स्वामी विदेहात्मानन्द जी एवं श्री वीरेन्द्र वर्मा, रायपुर ने बहुत श्रम किया है ये सभी साधुवाद के पात्र है।
पुस्तक के प्रकाशन का व्यय दाऊ श्री तुंगनराम चन्द्राकर ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वहन किया है। उनके इस उदार सहयोग के लिए उन्हें अनेक धन्यवाद। आशा है कि पाठक पूर्व की भाँति इस संस्करण से भी लाभान्वित होंगे।
पुस्तक के मुखपृष्ठ की सज्जा का कार्य श्री अशोक फतनानी, रायपुर ने किया है। ‘प्रूफ रीड़िग’ के कठिन कार्य में रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर के श्रीमत् स्वामी विदेहात्मानन्द जी एवं श्री वीरेन्द्र वर्मा, रायपुर ने बहुत श्रम किया है ये सभी साधुवाद के पात्र है।
पुस्तक के प्रकाशन का व्यय दाऊ श्री तुंगनराम चन्द्राकर ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वहन किया है। उनके इस उदार सहयोग के लिए उन्हें अनेक धन्यवाद। आशा है कि पाठक पूर्व की भाँति इस संस्करण से भी लाभान्वित होंगे।
डॉ. ओमप्रकाश वर्मा
समय की पाबन्दी वस्तुतः मन के केन्द्रीकरण का अभ्यास है। मन में असीम
सम्भावनाएं निहित हैं। इन सम्भावनाओं को प्रकट करने का साधन मन का
केन्द्रीकरण ही है। समय की पाबन्दी का अभ्यास पहले-पहल कष्टप्रद मालूम
होता है। पर धैर्यपूर्वक यदि उसे कोई साध लेता है, तो उसके लिए विश्व अपना
खजाना खोल देता है।
जिस देश में चरित्रवान व्यक्तियों की संख्या जितनी अधिक होगी, वह देश जीवन के सभी क्षेत्रों में उतना ही समृद्ध होगा। मन्दिर में जाना, पूजा-पाठ आदि करना चरित्र की कसौटी नहीं है। ये चारित्र्य को प्रकट करने का साधन बन सकती हैं, यदि इन क्रियाओं के पीछे हमारा मनोभाव दिखावे का अथवा स्वार्थपूर्ति का न हो। खेद की बात तो यह है कि अधिकांशतः हमारी धार्मिक क्रियाएं भी हमारे स्वार्थ-साधन का ही अंग होती हैं और इसलिए चरित्र के प्राकट्य में साधक होने के बदले बाधक बन जाती हैं।
मनुष्य अनैतिक इसलिए हो जाता है कि वह अपने को मात्र देह में आबद्ध एक प्राणी मानता है। इसलिए वह स्वार्थ-केन्द्रित हो जाता है। पर यदि उसमें अपने ईश्वरत्व का बोध जागे, तो वह अपने स्वार्थ की संकीर्ण सीमा से ऊपर उठेगा और अधिक व्यापक दृष्टि का अधिकारी बनेगा। धीरे-धीरे वह अपने में निहित सत्य को बाहर दूसरों में भी देखने में समर्थ होगा। इसी को मनुष्य के ईश्वरत्व का जागरण कहते हैं।
देश के प्रति व्यक्ति की भक्ति तीन स्तरों पर प्रकट होती है। पहले स्तर पर वह देश के लिए अनुभव करता है। दूसरे स्तर पर वह देश की दुर्दशा के निवारण तथा उसकी समस्याओं को दूर करने के उपाय खोजता है। तीसरे स्तर पर वह उन उपायों के कार्यान्वयन में जी-जान से लग जाता है। बस, ऐसी ही लगन और निष्ठा, दृढ़ मनोबल और इच्छाशक्ति; आलस्य और कुसंस्कारों को दूर कर देश को ऊपर उठा सकती है।
जिस देश में चरित्रवान व्यक्तियों की संख्या जितनी अधिक होगी, वह देश जीवन के सभी क्षेत्रों में उतना ही समृद्ध होगा। मन्दिर में जाना, पूजा-पाठ आदि करना चरित्र की कसौटी नहीं है। ये चारित्र्य को प्रकट करने का साधन बन सकती हैं, यदि इन क्रियाओं के पीछे हमारा मनोभाव दिखावे का अथवा स्वार्थपूर्ति का न हो। खेद की बात तो यह है कि अधिकांशतः हमारी धार्मिक क्रियाएं भी हमारे स्वार्थ-साधन का ही अंग होती हैं और इसलिए चरित्र के प्राकट्य में साधक होने के बदले बाधक बन जाती हैं।
मनुष्य अनैतिक इसलिए हो जाता है कि वह अपने को मात्र देह में आबद्ध एक प्राणी मानता है। इसलिए वह स्वार्थ-केन्द्रित हो जाता है। पर यदि उसमें अपने ईश्वरत्व का बोध जागे, तो वह अपने स्वार्थ की संकीर्ण सीमा से ऊपर उठेगा और अधिक व्यापक दृष्टि का अधिकारी बनेगा। धीरे-धीरे वह अपने में निहित सत्य को बाहर दूसरों में भी देखने में समर्थ होगा। इसी को मनुष्य के ईश्वरत्व का जागरण कहते हैं।
देश के प्रति व्यक्ति की भक्ति तीन स्तरों पर प्रकट होती है। पहले स्तर पर वह देश के लिए अनुभव करता है। दूसरे स्तर पर वह देश की दुर्दशा के निवारण तथा उसकी समस्याओं को दूर करने के उपाय खोजता है। तीसरे स्तर पर वह उन उपायों के कार्यान्वयन में जी-जान से लग जाता है। बस, ऐसी ही लगन और निष्ठा, दृढ़ मनोबल और इच्छाशक्ति; आलस्य और कुसंस्कारों को दूर कर देश को ऊपर उठा सकती है।
जीवन का प्रयोजन
जीवन के प्रयोजन पर दो दृष्टियों से विचार किया गया है। पहली दृष्टि
जड़वादी दृष्टि है। विज्ञान इस दृष्टि का प्रतिनिधित्व करता है। तथा,
दूसरी दृष्टि आध्यात्मिक दृष्टि है। भारत की तत्त्वमीमांसा और विशेषकर
वेदान्त में यह दृष्टि निबद्ध है। जीवन के सूक्ष्मतर रहस्यों के क्षेत्र
में विज्ञान की कोई गति नहीं है, इसलिए वह जीवन के प्रयोजन पर तात्त्विक
दृष्टि से विचार नहीं कर सकता। जो लोग भौतिकवादी विचारधारा रखते हैं, वे
जन्म को तथा जीवन की समस्त घटनाओं को एक्सिडेंट (आकस्मिक) माना करते हैं।
भारत में भी ऐसे जड़वादी चर्वाक रहें है, जिन्होंने जीवन के
आगे-पीछे कुछ भी नहीं देखा। वे तो यहाँ तक कह गए-
‘‘यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋण कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।’’ जब तक जीओ,
मौज से
जीओ। यदि उसके लिए उधार घी की आवश्यकता हो, तो वह भी करो। एक बार देह के
भस्सीभूत हो जाने पर आने का सवाल ही कहाँ है।
अनेक भौतिकवादियों ने इस जीवन को आकस्मिक माना। वे इसका कोई लक्ष्य या उदेश्य नहीं देख पाये। पर आज का विज्ञान किसी घटना को आकस्मिक नहीं करता। यदि कोई बात दिखाई देती है तो केवल इसलिए कि हम उसके पीछे छिपे नियम को जानने में असमर्थ हैं। इसी प्रकार आज का विज्ञान भी जीवन को निरुदेश्य नहीं मानता। हम प्रवाह-पतित तिनके नहीं है कि जिधर हमें प्रवाह बहा ले जाय। बहते रहेंगे। आज कोई भी व्यक्ति अपने जीवन को लक्ष्यहीन नहीं मान सकता। पैसा कमाना और धन संचय करना, परिवार का पालन-पोषण करना, समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करना-यह सब जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। यह तो पशु-पक्षी भी करते हैं। चीटियाँ संग्रह करती है, पशु-पक्षी अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। चीटियाँ संग्रह करती है, पशु-पक्षी अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। पशु भी अपने दल का नेता होना पसन्द करते हैं। यदि मनुष्य भी इसी सब कुछ को स्पृहणीय माने, तो उसमें और पशु में क्या भेद ? संस्कृत के एक सुभाषित में कहा गया है- ‘‘आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। धर्मों हि तेषामधिको विशेषः तेनैव हीनाः पशुभिः समानाः हैं।’’ आहार, निद्रा, भय और प्रजनन की वृत्तियों पशुओं और मनुष्यों में धर्म की वृत्ति अधिक या विशेष हुआ करती है। यदि मनुष्य धर्म की वत्ति से हीन हो जाय तो वह पशु के ही समान हैं।
वह धर्म ही मनुष्य में विशेषता लाता है। पशु अपने मन का नियन्त्रण नहीं कर सकता। वह अपनी गतिविधियों का साक्षी नहीं बन सकता, क्योंकि वह अपनी सहज प्रवृत्तियों के द्वारा परिचालित होता है। वह मानो सहज हचकर अपनी क्रियाओं को देख सकता है। यही उकी विशेषता है। पर मनुष्य का मन इतना विकसित है कि वह अपनी क्रियाओं को समझने और पकड़ने में समर्थ होता है, वह मानो सहज हटकर अपनी क्रियाओं को देख सकता है। यही उसकी विशेषता है। पर यह विशेषता आज उसमें सम्भावना के रूप में छिपी है। यह सम्भावना जितनी मात्रा में प्रकट होती है, उतनी मात्रा में मनुष्य अपनी विकास-यात्रा का स्वामी होता जाता है और जिस दिन वह इस सम्भावना को पूरी तरह प्रकट कर लेता है, उस दिन वह पूर्ण बन जाता है, बुद्ध बन जाता है, कृष्ण और ईसा बन जाता है, रामकृष्ण बन जाता है, सत्य का साक्षात्कार लेता है। उसके जीवन में तब विकास -क्रम की पूर्णता साधित हो जाती है।
लिंकन बार्नेट अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दि युनिवर्स एंड डाक्टर आईंस्टीन’ में लिखते हैं कि मनुष्य अपनी इस सम्भावना से अपरिचित होने के कारण ही आशान्ति और दुःख का शिकार है। उसके अनुसार मनुष्य की ‘नोबलेस्ट एण्ड मोस्ट मिस्टीरियस फैकल्टी’ –सबसे उदात्त और रहस्यमयी क्षमता है-‘‘ दि एबिलिटी टू टान्सेण्ड हिमसेल्फ एण्ड परसीव हिमसेल्फ इन दि अक्ट आफ परसेप्शन’’- अपने को लाँघकर देखने की इस क्रिया में अपने आपको देखने की सामर्थ्य। मनुष्य की इसी क्षमता को हम धर्म की भाषा में साक्षीभाव के नाम से पुकारते हैं। पशु में यह क्षमता नही होती है, उसे हम ‘धर्म’ के नाम से सम्बोधित करते हैं।
अपनी इसी क्षमता का प्रकाशन मानव-जीवन का चिर प्रयोजन है।
अनेक भौतिकवादियों ने इस जीवन को आकस्मिक माना। वे इसका कोई लक्ष्य या उदेश्य नहीं देख पाये। पर आज का विज्ञान किसी घटना को आकस्मिक नहीं करता। यदि कोई बात दिखाई देती है तो केवल इसलिए कि हम उसके पीछे छिपे नियम को जानने में असमर्थ हैं। इसी प्रकार आज का विज्ञान भी जीवन को निरुदेश्य नहीं मानता। हम प्रवाह-पतित तिनके नहीं है कि जिधर हमें प्रवाह बहा ले जाय। बहते रहेंगे। आज कोई भी व्यक्ति अपने जीवन को लक्ष्यहीन नहीं मान सकता। पैसा कमाना और धन संचय करना, परिवार का पालन-पोषण करना, समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करना-यह सब जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। यह तो पशु-पक्षी भी करते हैं। चीटियाँ संग्रह करती है, पशु-पक्षी अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। चीटियाँ संग्रह करती है, पशु-पक्षी अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। पशु भी अपने दल का नेता होना पसन्द करते हैं। यदि मनुष्य भी इसी सब कुछ को स्पृहणीय माने, तो उसमें और पशु में क्या भेद ? संस्कृत के एक सुभाषित में कहा गया है- ‘‘आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। धर्मों हि तेषामधिको विशेषः तेनैव हीनाः पशुभिः समानाः हैं।’’ आहार, निद्रा, भय और प्रजनन की वृत्तियों पशुओं और मनुष्यों में धर्म की वृत्ति अधिक या विशेष हुआ करती है। यदि मनुष्य धर्म की वत्ति से हीन हो जाय तो वह पशु के ही समान हैं।
वह धर्म ही मनुष्य में विशेषता लाता है। पशु अपने मन का नियन्त्रण नहीं कर सकता। वह अपनी गतिविधियों का साक्षी नहीं बन सकता, क्योंकि वह अपनी सहज प्रवृत्तियों के द्वारा परिचालित होता है। वह मानो सहज हचकर अपनी क्रियाओं को देख सकता है। यही उकी विशेषता है। पर मनुष्य का मन इतना विकसित है कि वह अपनी क्रियाओं को समझने और पकड़ने में समर्थ होता है, वह मानो सहज हटकर अपनी क्रियाओं को देख सकता है। यही उसकी विशेषता है। पर यह विशेषता आज उसमें सम्भावना के रूप में छिपी है। यह सम्भावना जितनी मात्रा में प्रकट होती है, उतनी मात्रा में मनुष्य अपनी विकास-यात्रा का स्वामी होता जाता है और जिस दिन वह इस सम्भावना को पूरी तरह प्रकट कर लेता है, उस दिन वह पूर्ण बन जाता है, बुद्ध बन जाता है, कृष्ण और ईसा बन जाता है, रामकृष्ण बन जाता है, सत्य का साक्षात्कार लेता है। उसके जीवन में तब विकास -क्रम की पूर्णता साधित हो जाती है।
लिंकन बार्नेट अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दि युनिवर्स एंड डाक्टर आईंस्टीन’ में लिखते हैं कि मनुष्य अपनी इस सम्भावना से अपरिचित होने के कारण ही आशान्ति और दुःख का शिकार है। उसके अनुसार मनुष्य की ‘नोबलेस्ट एण्ड मोस्ट मिस्टीरियस फैकल्टी’ –सबसे उदात्त और रहस्यमयी क्षमता है-‘‘ दि एबिलिटी टू टान्सेण्ड हिमसेल्फ एण्ड परसीव हिमसेल्फ इन दि अक्ट आफ परसेप्शन’’- अपने को लाँघकर देखने की इस क्रिया में अपने आपको देखने की सामर्थ्य। मनुष्य की इसी क्षमता को हम धर्म की भाषा में साक्षीभाव के नाम से पुकारते हैं। पशु में यह क्षमता नही होती है, उसे हम ‘धर्म’ के नाम से सम्बोधित करते हैं।
अपनी इसी क्षमता का प्रकाशन मानव-जीवन का चिर प्रयोजन है।
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