विवेकानन्द साहित्य >> विवेकवाणी विवेकवाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक विवेकवाणी....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तावना
(प्रथम संस्करण)
‘Teachings of Swami Vivekananda’ इस अंग्रेजी ग्रन्थ
का
हिन्दी अनुवाद ‘विवेकवाणी’ पाठकों के सम्मुख रखते
हमें हर्ष
हो रहा है। विभिन्न विषयों पर स्वामी विवेकानन्दजी के विचार इस पुस्तक में
समाविष्ट हुए हैं। इस ग्रन्थ को हम स्वामीजी के विचारों का
प्रतिनिधि-ग्रन्थ कह सकते हैं।
स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुष इस धरातल पर सैकड़ों वर्षों बाद ही अवतीर्ण होते हैं। इस बार स्वामीजी का आगमन समस्त मानव जाति के लिए हुआ है, परन्तु विशेष रूप से यह भारत के लिए अत्यन्त कल्याणकारी है। भगवान श्रीरामकृष्ण देव के संस्पर्श में आकर स्वामीजी ने निर्विकल्प समाधि द्वारा सत्य प्राप्ति के पश्चात् लोकहित का कार्य शुरू किया। अतः उनकी वाणी में हमें दैवी शक्ति तथा ओज का अनुभव होता है। स्वामी विवेकानन्दजी ने अमेरिका, इग्लैण्ड तथा भारत आदि देशों में जो विभिन्न व्याख्यान दिये तथा भिन्न-भिन्न समयों पर विशिष्ट जनसमुदाय के सम्मुख अपने विचार प्रकट किये, उन्हें ही प्रस्तुत पुस्तक में हमने एकत्रित किया है। यह ग्रन्थ स्वामी विवेकानन्दजी के उदात्त, ओजस्वी, प्रेरणादायी विचारों के संदर्भ ग्रंथ’ के रूप में भी लाभप्रद हो सकता है।
इन विचारों से भारतीय जनमानस का विशेष उपकार हुआ है। इसमें ऐसा एक भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा है—जिस पर स्वामीजी ने अपने विचार प्रकट न किये हों। अतः इन विचारों की सहायता से हमारे युवा वर्ग के सामने उन्होंने एक चुनौती प्रस्तुत की है, जिससे हमारा वैयक्तिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन एक नये सुदृढ़ आधार पर खड़ा रह सकेगा। इन स्फुट विचारों का संकलन हमने अद्वैत आश्रम, मायावती से दस खण्डों में प्रकाशित विवेकानन्द साहित्य से किया है। प्रत्येक उक्ति के अन्त में खण्ड संख्या तथा पृष्ठ संख्या दी हुई है।
हमें विश्वास है कि यह ग्रन्थ प्रत्येक सत्य जिज्ञासु साधक तथा स्वदेशप्रेमी नागरिक के लिए विशेष लाभकारी सिद्ध होगा।
स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुष इस धरातल पर सैकड़ों वर्षों बाद ही अवतीर्ण होते हैं। इस बार स्वामीजी का आगमन समस्त मानव जाति के लिए हुआ है, परन्तु विशेष रूप से यह भारत के लिए अत्यन्त कल्याणकारी है। भगवान श्रीरामकृष्ण देव के संस्पर्श में आकर स्वामीजी ने निर्विकल्प समाधि द्वारा सत्य प्राप्ति के पश्चात् लोकहित का कार्य शुरू किया। अतः उनकी वाणी में हमें दैवी शक्ति तथा ओज का अनुभव होता है। स्वामी विवेकानन्दजी ने अमेरिका, इग्लैण्ड तथा भारत आदि देशों में जो विभिन्न व्याख्यान दिये तथा भिन्न-भिन्न समयों पर विशिष्ट जनसमुदाय के सम्मुख अपने विचार प्रकट किये, उन्हें ही प्रस्तुत पुस्तक में हमने एकत्रित किया है। यह ग्रन्थ स्वामी विवेकानन्दजी के उदात्त, ओजस्वी, प्रेरणादायी विचारों के संदर्भ ग्रंथ’ के रूप में भी लाभप्रद हो सकता है।
इन विचारों से भारतीय जनमानस का विशेष उपकार हुआ है। इसमें ऐसा एक भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा है—जिस पर स्वामीजी ने अपने विचार प्रकट न किये हों। अतः इन विचारों की सहायता से हमारे युवा वर्ग के सामने उन्होंने एक चुनौती प्रस्तुत की है, जिससे हमारा वैयक्तिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन एक नये सुदृढ़ आधार पर खड़ा रह सकेगा। इन स्फुट विचारों का संकलन हमने अद्वैत आश्रम, मायावती से दस खण्डों में प्रकाशित विवेकानन्द साहित्य से किया है। प्रत्येक उक्ति के अन्त में खण्ड संख्या तथा पृष्ठ संख्या दी हुई है।
हमें विश्वास है कि यह ग्रन्थ प्रत्येक सत्य जिज्ञासु साधक तथा स्वदेशप्रेमी नागरिक के लिए विशेष लाभकारी सिद्ध होगा।
प्रकाशक
विवेकवाणी
(स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएँ)
1
मनुष्य
1. सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही
श्रेष्ठतम है;
मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों
से—यहाँ
तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं। देवताओं
को भी ज्ञान-लाभ के लिए मनुष्यदेह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही
ज्ञान-लाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं। यहूदी और मुसलमानों
के अनुसार, ईश्वर ने देवदूत और अन्य समुदय सृष्टियों के बाद मनुष्य की
सृष्टि की। और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने देवदूतों से मनुष्य को
प्रणाम और अभिनन्दन कर आने के लिए कहा। इबलीस को छोड़कर बाकी सबने ऐसा
किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतान बन गया। इस
रूपक के पीछे यह महान् सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य
सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। (1/53-54)
2. आश्चर्य की बात है कि सभी धर्म एक स्वर से घोषणा करते हैं कि मनुष्य पहले निष्पाप और पवित्र था, पर आज उसकी अवनति हो गयी है, इस भाव को फिर वे रूपक की भाषा में या दर्शन की स्पष्ट भाषा में अथवा कविता की सुन्दर भाषा में क्यों न प्रकाशित करें, पर वे सब के सब अवश्य इस एक तत्त्व की घोषणा करते हैं। (2/5)
3. अतएव मनुष्य का प्रकृत स्वरूप एक ही है, वह अनन्त और सर्वव्यापी है, और यह प्रतिभासिक जीव मनुष्य के इस वास्तविक स्वरूप का एक सीमाबद्ध भाव मात्र है, इसी अर्थ में पूर्वोक्त पौराणिक तत्व भी सत्य हो सकते हैं कि प्रातिभासिक जीव, चाहे वह कितना ही महान् क्यों न हो, मनुष्य के इस अतीन्द्रिय, प्रकृत स्वरूप का धुँधला प्रतिबिम्ब मात्र है। अतएव मनुष्य का प्राकृत स्वरूप—आत्मा—कार्य-कारण से अतीत होने के कारण, देश-काल से अतीत होने के कारण, अवश्य मुक्तस्वभाव है। वह कभी बद्ध नहीं थी, न ही बद्ध हो सकती थी। यह प्रातिभासिक जीव, यह प्रतिबिम्ब, देश-काल-निमित्त के द्वारा सीमाबद्ध होने के कारण बद्ध है। अथवा हमारे कुछ दार्शनिकों की भाषा में, ‘प्रतीत होता है, मानो वह बद्ध हो गयी है, पर वास्तव में वह बद्ध नहीं है।’ (2/10-11)
4. सम्पूर्ण शास्त्र एवं विज्ञान मनुष्य के रूप में प्रकट होनेवाली इस आत्मा की महिमा की कल्पना भी नहीं कर सकते। यह समस्त ईश्वरों में श्रेष्ठ है, एकमात्र वही ईश्वर है, जिसकी सत्ता सदैव है और सदैव रहेगी। (2/212)
5. आदमी भ्रमवश अपने से बाहर विभिन्न देवताओं की तलाश में रहता है, पर जब उसके अज्ञान का चक्कर समाप्त होता है, तो वह पुनः लौटकर अपनी आत्मा पर आ टिकता है। जिस ईश्वर की खोज में वह दर दर भटकता रहा, वन-प्रान्तर तथा मन्दिर-मस्जिद को छानता रहा, जिसे वह स्वर्ग में बैठकर संसार पर शासन करने वाला मानता रहा, वह कोई अन्य नहीं, बल्कि उसकी अपनी आत्मा है। वह मैं है, और मैं वह, मैं ही (जो आत्मा हूँ) ब्रह्म हूँ, मेरे इस तुच्छ ‘मैं’ का कभी अस्तित्व नहीं रहा। (2/213)
6. ईश्वरोपासना करने के लिए प्रतिमा आवश्यक है, तो उससे कहीं श्रेष्ठ मानव-प्रतिमा मौजूद ही है। यदि ईश्वोपासना के लिए मन्दिर निर्माण करना चाहते हो, तो करो, किन्तु सोच लो कि उससे भी उच्चतर, उससे भी महान् मानव देह रूपी मन्दिर के भीतर तो पहले से ही मौजूद है। (8/23)
7. जीवित ईश्वर तुम लोगों के भीतर रहते हैं, तब भी तुम मन्दिर, गिरजाघर आदि बनाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो। मनुष्य-देह में स्थित मानव-आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है। पशु भी भगवान् के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है ताजमहल जैसा। यदि मैं उसकी उपासना नहीं कर सका, तो अन्य किसी भी मन्दिर से कुछ भी उपकार नहीं होगा। जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य-देहरूपी मन्दिर में उपविष्ट ईश्वर की उपलब्धि कर सकूँगा, जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्तिभाव से खड़ा हो सकूंगा और वास्तव में उनमें ईश्वर देख सकूँगा, जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव आ जायगा, उसी क्षण मैं सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊँगा—बाँधने वाले पदार्थ हट जायँगे और मैं मुक्त हो जाऊँगा। (8/29-30)
8. यह आदर्श व्यवस्था वह है, जिसमें मनुष्य का अहंभाव पूर्णतया नष्ट हो जाता है, उसका स्वत्व-भाव लुप्त हो जाता है, जब उसके लिए ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसे वह ‘मैं’ और ‘मेरी’ कह सके, जब वह पूर्णतया आत्म-विसर्जन कर देता है, मानो अपनी आहुति दे देता है। इस प्रकार अवस्थापन्न व्यक्ति के अन्दर में स्वयं ईश्वर निवास करता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति की अहं-वासना पूर्ण रूप से नष्ट हो गयी है, एकदम निर्मूल हो गयी है। यह है आदर्श व्यक्ति। (7/227)
9. जिस परिणाम में मनुष्य इन्द्रियपरायणता को छोड़कर उच्च भाव-जगत् में अवस्थान करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, जिस परिणाम में वह विशुद्ध चिन्तन रूपी प्राणवायु फेफड़ों के भीतर खींचने में समर्थ हो जाता है तथा जितने अधिक समय तक वह उच्च अवस्था में रह सकता है, केवल इसी आधार पर उसका विकास आँका जा सकता है।(9/259)
2. आश्चर्य की बात है कि सभी धर्म एक स्वर से घोषणा करते हैं कि मनुष्य पहले निष्पाप और पवित्र था, पर आज उसकी अवनति हो गयी है, इस भाव को फिर वे रूपक की भाषा में या दर्शन की स्पष्ट भाषा में अथवा कविता की सुन्दर भाषा में क्यों न प्रकाशित करें, पर वे सब के सब अवश्य इस एक तत्त्व की घोषणा करते हैं। (2/5)
3. अतएव मनुष्य का प्रकृत स्वरूप एक ही है, वह अनन्त और सर्वव्यापी है, और यह प्रतिभासिक जीव मनुष्य के इस वास्तविक स्वरूप का एक सीमाबद्ध भाव मात्र है, इसी अर्थ में पूर्वोक्त पौराणिक तत्व भी सत्य हो सकते हैं कि प्रातिभासिक जीव, चाहे वह कितना ही महान् क्यों न हो, मनुष्य के इस अतीन्द्रिय, प्रकृत स्वरूप का धुँधला प्रतिबिम्ब मात्र है। अतएव मनुष्य का प्राकृत स्वरूप—आत्मा—कार्य-कारण से अतीत होने के कारण, देश-काल से अतीत होने के कारण, अवश्य मुक्तस्वभाव है। वह कभी बद्ध नहीं थी, न ही बद्ध हो सकती थी। यह प्रातिभासिक जीव, यह प्रतिबिम्ब, देश-काल-निमित्त के द्वारा सीमाबद्ध होने के कारण बद्ध है। अथवा हमारे कुछ दार्शनिकों की भाषा में, ‘प्रतीत होता है, मानो वह बद्ध हो गयी है, पर वास्तव में वह बद्ध नहीं है।’ (2/10-11)
4. सम्पूर्ण शास्त्र एवं विज्ञान मनुष्य के रूप में प्रकट होनेवाली इस आत्मा की महिमा की कल्पना भी नहीं कर सकते। यह समस्त ईश्वरों में श्रेष्ठ है, एकमात्र वही ईश्वर है, जिसकी सत्ता सदैव है और सदैव रहेगी। (2/212)
5. आदमी भ्रमवश अपने से बाहर विभिन्न देवताओं की तलाश में रहता है, पर जब उसके अज्ञान का चक्कर समाप्त होता है, तो वह पुनः लौटकर अपनी आत्मा पर आ टिकता है। जिस ईश्वर की खोज में वह दर दर भटकता रहा, वन-प्रान्तर तथा मन्दिर-मस्जिद को छानता रहा, जिसे वह स्वर्ग में बैठकर संसार पर शासन करने वाला मानता रहा, वह कोई अन्य नहीं, बल्कि उसकी अपनी आत्मा है। वह मैं है, और मैं वह, मैं ही (जो आत्मा हूँ) ब्रह्म हूँ, मेरे इस तुच्छ ‘मैं’ का कभी अस्तित्व नहीं रहा। (2/213)
6. ईश्वरोपासना करने के लिए प्रतिमा आवश्यक है, तो उससे कहीं श्रेष्ठ मानव-प्रतिमा मौजूद ही है। यदि ईश्वोपासना के लिए मन्दिर निर्माण करना चाहते हो, तो करो, किन्तु सोच लो कि उससे भी उच्चतर, उससे भी महान् मानव देह रूपी मन्दिर के भीतर तो पहले से ही मौजूद है। (8/23)
7. जीवित ईश्वर तुम लोगों के भीतर रहते हैं, तब भी तुम मन्दिर, गिरजाघर आदि बनाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो। मनुष्य-देह में स्थित मानव-आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है। पशु भी भगवान् के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है ताजमहल जैसा। यदि मैं उसकी उपासना नहीं कर सका, तो अन्य किसी भी मन्दिर से कुछ भी उपकार नहीं होगा। जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य-देहरूपी मन्दिर में उपविष्ट ईश्वर की उपलब्धि कर सकूँगा, जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्तिभाव से खड़ा हो सकूंगा और वास्तव में उनमें ईश्वर देख सकूँगा, जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव आ जायगा, उसी क्षण मैं सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊँगा—बाँधने वाले पदार्थ हट जायँगे और मैं मुक्त हो जाऊँगा। (8/29-30)
8. यह आदर्श व्यवस्था वह है, जिसमें मनुष्य का अहंभाव पूर्णतया नष्ट हो जाता है, उसका स्वत्व-भाव लुप्त हो जाता है, जब उसके लिए ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसे वह ‘मैं’ और ‘मेरी’ कह सके, जब वह पूर्णतया आत्म-विसर्जन कर देता है, मानो अपनी आहुति दे देता है। इस प्रकार अवस्थापन्न व्यक्ति के अन्दर में स्वयं ईश्वर निवास करता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति की अहं-वासना पूर्ण रूप से नष्ट हो गयी है, एकदम निर्मूल हो गयी है। यह है आदर्श व्यक्ति। (7/227)
9. जिस परिणाम में मनुष्य इन्द्रियपरायणता को छोड़कर उच्च भाव-जगत् में अवस्थान करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, जिस परिणाम में वह विशुद्ध चिन्तन रूपी प्राणवायु फेफड़ों के भीतर खींचने में समर्थ हो जाता है तथा जितने अधिक समय तक वह उच्च अवस्था में रह सकता है, केवल इसी आधार पर उसका विकास आँका जा सकता है।(9/259)
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