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संताली लोक-कथाएँ

डोमन साहु

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :162
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5881
आईएसबीएन :81-237-3546-4

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प्रस्तुत हैं डोमन साहु कि संताली लोक कथाएँ....

Santali Lok Kathayein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


संताली लोक-कथाओं का यह संकलन संताल-समाज के आत्म गौरव, साधारण जीवन के प्रति आत्मीय और विश्वास का अनुपम उदाहरण है। इन कहानियों में सामान्य जन की बड़ी महत्ता दिखाई देती है, संताल-समाज में प्रेमी-प्रेंमिकाओं की कथाएं तो अनेक मिलती है, परन्तु यहां नल-दमन्यती का प्रेम या लैला-मजनूं की कथाओं के प्रेम की तरह नहीं हैं, सामान्य जन का प्रेम है। कथाओं के पात्र मनुष्य पशु, पक्षी, प्रकृति, पेड़-पौधे, नदी-पहाड़ सब हैं। सब में आपसी वार्तालाप की पूरी गुंजाईश है। यहां सामान्य जीवन की सारी गतिविधियां, सारी हरकतें अपने सहज रूप में व्याप्त हैं। प्रेम-द्वेष, राग-अनुराग, लोभ-लालच, झगट, त्याग-निष्ठा, नेकी-ठगी, पक्ष-विपक्ष, नेत-नियम, ईमान-धरम सब मौजूद है। अर्थात इन कहानियों के जरिए संताल समाज का पूरा जनपद अपनी पूरी परंपरा पूरे लोकाचार के साथ आम पाठकों को मुखातिब है।

इन भाषाओं का पुनर्लेखन डोमन साहु ‘समीर’ (30 जून 1924) ने किया है। साहित्य अकादमी द्वारा भाषा सम्मान (1997) के अलावा इन्हें कई प्रांतीय-राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। तुलनात्मक अध्ययन, कविता लेखन, निबंध लेखन, अनुवाद, कहानी, लेखन, शब्द कोश संपादन आदि विभिन्न क्षेत्रों में इन्होंने हिन्दीं, अंगिका और संताली की सेवा की है। इनकी कुछ प्रमुख कृतियां हैं- हिन्दी और संतालीः तुलनात्मक अध्ययन संताली भाषा और साहित्य, हिन्दी संताली शब्द कोश, अंगिक हिन्दी शब्दकोश आदि।

भूमिका



प्रचीन काल में ही हमारे देश में, भारत, में मूलतः आग्नेय (ऑस्ट्रिक), द्रविड़, आर्य और तिब्बती-बर्मी प्रजातियों के लोगों का निवास रहता आया है। आग्नेय प्रजातीय लोगों में संताल, मुंडा, हो, खड़िया, भूमिज, कोरकू, कोरवा आदि जन-जातीय लोग प्रमुख हैं। इसमें से संताल लोगों की जनसंख्या तो औरों से अधिक है ही प्रतिशीलता में भी ये लोग औरों से लगभग आगे हैं। संप्रति संताल लोगों की आबादी इस देश के झारखण्ड, पश्चिम बंगाल उड़ीसा, असम और पूर्वात्तर के कतिपय राज्यों में लगभग पचास लाख की संख्या में है। इन लोगों की मातृभाषा ‘संताली’ कहलाती है, जो युगों से अशिक्षा और उपेक्षा की विभीषिकाओं के बीच भी, एक वाचिक भाषा के रूप में ही, जीवित रहती आई है जबकि अब एक लिखित भाषा के रूप में भी इसे समुचित स्थान प्राप्त हो गया है। झारखंड के दुमका और रांची विश्वविद्यालयों में उच्चतम (एम.ए) स्तर तक संताली भाषा-साहित्य के अध्ययन-अध्यापन का प्रावधान है, निम्नतर स्तरों में तो है ही। उसी प्रकार, पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा में भी माध्यामिक स्तरों तक संताली के पठन-पाठन की व्यवस्था होने की सूचना है। साथ ही दूरदर्शन और आकाशवाणी के कलकत्ता, राँची आदि कतिपय केन्द्रों से संताली में समाचारों और विभिन्न प्रकार की रचनाओं के प्रसारण हुआ करते है।

लोक-कथाएं आदिकाल से ही, लोक-गीतों, लोकोक्तियों आदि की तरह विभिन्न मानव-समाजों में प्रचलित रहती आई हैं जिसने संताल-समाज वंचित नहीं रहा है। इन लोगों में कोई पेशेवर या नियमित (रेगुलर) कथा-वाचन तो नहीं होते। परंतु, विभिन्न प्रकार की कथाएं कही-सुनी जाने की परंपरा युगों से विद्यमान रही है। कहा जा सकता है कि संताली लोक-गीत मुख्यतः तरुणियों के बाँटे पड़े हैं। तो लोक-कथाएं प्रधानतः तरुणों के हिस्से में आई हैं। साधारणतः तरुणों की टोलियां, जाड़े के दिनों में, खलियानों में बनी मड़इयों में या अन्य स्थानों में जमा हुआ करती हैं जहाँ तरह-तरह के किस्से कहते-सुनते उनका समय बीता करता है। परिवार की बड़ी-बूढ़ियां भी जब-तब बाल-बच्चों को तरह-तरह की कहानियाँ सुनाकर उनका मनोरंजन किया करती हैं।

संताली लोक-कथाएँ मुख्यतः लोगों के मनोरंजन के साधन हुआ करती हैं। परंतु, प्रकारांतर से, वे तरह-तरह के उपदेशों और जानकारियों के माध्यम भी हुआ करती हैं। फलतः, चमत्कार और मनोरंजन की बातें तो उनमें रहती ही हैं, साथ ही प्रेम, दया, करुणा, भय साहस, परोपकार, धूर्तता, मूर्खता आदि के तत्त्व भी रहा करते हैं।
संताली लोक-कथाओं के विषय प्रधानतः जीवन और जगत-संबंधी बातों या घटनाएं है। संक्षेपतः, उन्हें निन्मांकित श्रेणियों में रखा जा सकता है-

1. सृष्टि-कथाएं, जिनमें पृथ्वी, मनुष्य, सूर्य, चंद्र, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि की उत्पत्ति, स्थिति आदि से संबंधित कथाएं हैं
2. संताल लोगों के विभिन्न गोत्रों, उपगोत्रों, पर्व-त्योहारों, रीति-रिवाजों आदि से संबंधित कथाएं
3. देवी-देवता, भूत-प्रेत, ओझा-डाइन, आदि से संबंधित कथाएं
4. राजा-रानी, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका आदि से संबंधित कथाएँ
5. मित्रता या शत्रुता संबंधी कथाएँ
6. पिता-पुत्र, भाई-भाई, भाई-बहन, सास-बहू आदि से संबंधित कथाएं
7. बाघ, सिंह, भालू, सियार, मुर्गी, चील, गिद्ध आदि से संबंधित कथाएं
8. विभिन्न पेशेवरों और जातियों से संबंधित कथाएं तथा
9. अन्याय कथाएँ।
संताली लोक-कथाओं के राजा-रानी आदि सामान्यतः समाज के संपन्न और तथाकथित बड़े लोगों के प्रतीक हुआ करते हैं। प्रेमी-प्रेमिकाओं की कथाएँ तो अनेक हैं, परंतु नल-दमयन्ती, लैला-मजनूं, हीर-रांझा आदि-जैसी कोई लोक विश्रुत कथा संताली में नहीं है। यौनाचार-संबंधी कहानियां भी हैं, परंतु उनका समावेश इस संग्रह मे नहीं किया गया है।

सृष्टि-कथाओं में ‘ठाकुर जिउ’ और ‘ठाकरान’ (ठाकुर-ठकुराइन) की चर्चाएं हैं जिन्हें सृष्टिकर्ता माना गया है जबकि ‘चांदों’ (‘सिञ चांदो’ अर्थात सूर्य और ‘ञिन्दा चांदो’ अर्थात् चंद्रमा) को पति-पत्नी माना गया है, तारे जिनके बच्चे हैं। उन दोनों को भी देवता का दर्जा प्राप्त है। पृथ्वी कैसे बनी, मनुष्य की उत्पप्ति कैसे हुई, किसी गोत्र के लिए किस पशु या किस पक्षी की मांस क्यों वर्जित है, कौन-सा पशु या पक्षी इस अवस्था या किस स्वभाव को कैसे प्राप्त हुआ आदि के संकेत इन कथाओं में अपने-अपने ढंग से मिलते हैं। ज्ञातव्य है कि संताल लोगों के कुल बारह गोत्र (‘पारिस’) तथा प्रत्येक गोत्र के अनेक उपगोत्र (‘खूंट’) हैं जिनके कुल-देवता भिन्न-भिन्न हैं तथा उन्हें बलि भी भिन्न-भिन्न जीवधारियों की दी जाने की प्रथा है। परंतु यहां उन विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं समझी गई हैं।

एक कथा में कहा गया है कि आसमान पहले बहुत नीचे था; परंतु एक बार जब एक बुढि़यां ओखल में धान कूट रही थी तक उसका मूसल आसमान से टकराया करता था। इसी से उस बुढ़िया ने आसमान पर जोर से अपना मूसल दे मारा, जिससे आसमान ऊपर उठ गया।
पिता-पुत्र, भाई-बहन, भाई-बहन, सास-बहू, भाई-भौजाई, सौतेली मां आदि से संबंधित कथाएं संताल-समाज के सम्यक दर्पण-से हैं। सौतेली मां की दुष्टता इन कथाओं में उभरी है। उसी प्रकार ननद के प्रति भौजाईयों का तिरस्कार भी उभरा है।

पशुओं की कथाओं में सियार को यहाँ भी बहुत धूर्त प्रदर्शित किया गया है। बाघ-भालू को सियार का मामा तथा सियार को उन दोनों का भांजा कहा गया है। सियारों की कथाएं तो संताली में बहुत-सी हैं, किंतु उन सबका समावेश यहां किया जाना संभव नहीं। सियार एक चालबाज, चाटुकार और विचारक के रूप में संताली लोक-कथाओं में चित्रित है; किंतु, कभी-कभी वह दूसरों के फेर में भी पड़ जाया करता है। वह मुर्गी भाई है, पर उस पर भी मौका पाकर अपना हाथ साफ कर डालने से बाज नहीं आता है ! वह किसी को भी संकट में डाल सकता है तो किसी को उससे उबार भी सकता है। स्पष्ट है कि समाज के रंगे सियारों से हमारे संताल भाई भी अपरिचित नहीं रहे हैं।

बाघ संताली लोक-कथाओं में एक बली पुरुष का प्रतीक है। वह बहुधा इस ताक में रहा करता है कि किस प्रकार किसी कृषक-कन्या को अपनाया जाए। परंतु, बहुत बार उसके मनसूबों पर पानी फिर जाया करता है और उसकी बुरी गत हो जाती है। भालू से बाघ की मित्रता भी होती है और कभी-कभी शतुत्रा भी। उन दोनों के बीच उठे विवादों का फैसला अनेक बार सियार ने किया है। मुर्गी ममतामयी मां का सुंदर उपमान संताली लोक-कथाओं में है। उसे अपने छौनों पर बड़ी ममता रहा करती है।
जो नायक अपनी नायिका को उसकी रजामंदी से या जबरदस्ती कहीं ले भागे, उसका प्रतीक भेड़िया तथा उस नायिका का प्रतीक बकरी है।

संताली लोक-कथाओं में विभिन्न पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, प्रकृति के विभिन्न जड़-चेतन भी मनुष्य की भाषा समझते और सबसे बातें करते हैं। मनुष्य से पानी को शिकायत है कि वह (मनुष्य) उससे (पानी से) स्नान, करता है अपने कपड़े साफ करता है और उसे गंदा कर जाता है। पेड़ को शिकायत है कि आदमी उसकी छाया में विश्राम करता और चलते-चलते उसकी टहनियाँ भी तोड़कर ले जाया करता है। बैल को शिकायत है कि आदमी तब तक उससे अपना काम लेता है जब तक उससे (बैल में) शक्ति रहती है और उसकी शक्ति क्षीण हो जाने पर उसे दूसरो के हाथ बेच देता है।

संताली लोक-कथाएं युगों से लोगों के कंठों में ही विराजती रहीं। इसलिए भी कि संताली भाषा, आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले तक, अलिखित ही थी। यह भाषा पहले-पहल 1850 ई, के आसपास एक विदेशी मिशनरी द्वारा लिपिबद्ध की गई थी। उसी तरह संताली लोक-कथाओं के संग्रह और उनके अंग्रेजी-अनुवाद पहले-पहल विदेशी मिशनरियों द्वारा ही किए गए हैं। श्री बोस्वास नामक व्यक्ति ने सन 1909 में ‘फोक लोर आफ संताल परगनाज’ के नाम से कुछ संताली लोक-कथाओं के अंग्रजी अनुवाद लंदन से तथा श्री पी.ओ.बोडिंग नामक एक अन्य मिशनरियों ने सन् 1929 में ‘संताल फोकटेल्स’ के नाम से ओस्लो (नार्वे) से प्रकाशित करवाए थे जो सामान्यताः उपलब्ध नहीं हैं। वे दोनों संग्रह अब तक मेरी दृष्टि में नहीं पड़े हैं। तदुपरांत, सन 1944 सन् में श्री एस.सी. मुर्मू नामक एक संताल-लेखक द्वारा किया गया 138 छोटी-छोटी लोक कथाओं का संग्रह, संताली भाषा में, दुमका से प्रकाशित हुआ है; परंतु, उसमें अन्याय समाजों में प्रचलित लोक-कथाएं भी संताली भाषा (रोमन लिपि) में हैं। फिर, सन 1982 में श्री भागवत मुर्मू ‘ठाकुर’ (अब स्वर्गीय) द्वारा संग्रहीत कुल 12 लोक कथाओं की एक पुस्तक कोहिमा (नागालैंड भाषा परिषद्) से प्रकाशित हुई है। जिसमें संताली मूल के साथ-साथ संकलित कथाओं के हिन्दी अनुवाद भी हैं। इसी प्रकार मेरे संपादन में जून, 1947 से जून, 1983 ई, तक बिहार-सरकार (पटना) द्वारा प्रकाशित संताली भाषा के प्रथम साप्ताहिक पत्र, ‘होड़ -सोम्बाद’, में विभिन्न लेखकों द्वारा प्रेषित संताली की अनेक लोक-कथाएं समय-समय पर प्रकाशित की जाती रही हैं जिनके हिन्दी-अनुवाद नहीं हुए हैं।

इस प्रकार, स्पष्ट है कि हिन्दी में संताली लोक-कथाओं के प्रस्तुतीकरण का यह प्रयास अपने-आप में विशिष्ट है जिसका मुख्य श्रेय नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया (नई दिल्ली) को है। यदि ट्रस्ट के सहायक संपादक डॉ. देव शंकर झा का आग्रह निरंतर नहीं होता रहता तो अपनी कार्य-व्यवस्तताओं के बीच से समय निकालकर मैं यह संग्रह न जानें, कभी प्रस्तुत कर भी सकता या नहीं। एतदर्थ मैं ‘ट्रस्ट’ और डॉ, झा के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रकट करना चाहूँगा कि इस पु्स्तक के प्रस्तुतीकरण द्वारा एक स्तुत्य कार्य संपन्न हुआ है। इस देश के जन-जातीय लोगों की भाषा, साहित्य और संस्कृति विषयक अधिकाधिक प्रकाशन हिन्दी में हो, इसकी नितान्त आवश्यकता है।


डोमन साहु ‘समीर’
समीर कुटीर, टी -विलासी देवघर, झारखंड


मनुष्य और पृथ्वी की रचना कैसे हुई।



कहा जाता है कि पहले सब जगह पानी ही पानी था। मिट्टी पानी के बहुत नीचे थी। उस समय आसमान भी अधिक ऊपर नहीं था। ‘ठाकुर जिउ’ और उनकी पत्नी ‘ठाकरान’ (ठकुराइन), दोनों, आसमान में रहते थे। वे दोनों बारी-बारी से स्नान करने के लिए ‘तोड़े-सुताम’ (एक काल्पनिक तंतु) के सहारे पानी को उतरा करते थे और स्नान करके आसमान में लौट जाया करते थे।

एक बार जब ठकराइन स्नान कर रही थीं तब उनकी हंसली हड्डी के पास से कुछ मैल निकला। ठकुराइन उस मैल को अपनी हथेलियों में लेकर कुछ देर मलती रहीं जिससे दो पक्षियों के स्वरूप बन गये। दोनों देखनें में बहुत सुंदर लगते थे। इसलिए ठकुराइन ने ‘ठाकुर जिउ’ से अनुरोध किया कि वे उन दोनों में प्राण डाल दें। ‘ठाकुर जिउ’ ने पहले को कुछ ना-नुकुर किया, परंतु ठकुराइन की जिद पर उन्होंने उन दोनों में पर ‘ओङ्’ कर दिया (अपने मुँह से फूंक मार दी) इससे दोनों पक्षियों में प्राण आ गये वे उड़ गये परन्तु उन दोनों के बैठने के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी दोनों कब तक उड़ते रहते ?

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