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संवाद तुमसे

विजय देव नारायण साही

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 588
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ कविताओं का संग्रह...

Samvad Tumse - A hindi Book by - Vijay Dev Narayan Sahi संवाद तुमसे - विजय देव नारायण साही

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

.....और मुझे लग रहा है कि खुलने में या बन्द हो जाने में बोलने में या मौन में दोनों में वह जो बारीक-सी सुख की रेखा है वह तो एक जैसी है इसलिए दोनों में कोई अन्तर नहीं है मेरी आत्मा दोनों में वर्तमान है और मैं दो हिस्सों में बँटा नहीं हूँ और यह अनुभव करके भी हर्ष होता है क्योंकि वह अपने में ही एक निधि जैसे कोई खोई हुई चीज़ वापस मिल जाय।

...मुझे लगता है मैं कोई विजन (Vision) देख रहा हूँ। और तुम उस विजन में नहीं हो। लेकिन उस विजन को देखते-देखते मेरे मन में एक तन्मय उन्माद उमड़ता आ रहा है जो धीरे-धीरे मेरे पूरे शरीर पूरी आत्मा पर छाता जा रहा है। और मैं एक एनरजेटिक (energetic) बादल से घिर गया हूँ। और मेरे भीतर से प्रकाश का प्रभामण्डल फूट रहा है। और ऐसी दशा में शब्द बिलकुल बेकार हैं, मुद्राएं भी बेकार हैं।

लेकिन तुम मेरे उस तन्मय उन्माद (rapture) को छू रही हो-क्योंकि वह प्रभामण्डल तुमको स्पर्श करता हुआ फैलता जा रहा है और शब्दों और मुद्राओं से परे एक संवाद स्थापित हो रहा है और जहाँ मैं उस विजन से अभिभूत हूँ मेरे पार्श्व में स्थित तुम मेरे उन्माद को देख रही हो, छू रही हो, महसूस कर रही हो और तुम उस विज़न को भी देख रही हो और वह उन्माद तुम पर भी छाने लगता है और धीरे-धीरे वह विज़न अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता वह सिर्फ उस दूरस्थ पहाड़ी की तरह हो जाता है जो अपनी तरफ लौटती हुई गूँज के लिए रिफलेक्टर का काम करती है। जो महत्त्वपूर्ण है वह है यह तन्मय उन्माद (rapture) विज़न की सार्थकता उस तन्मय उन्माद को उत्पन्न करने में है।.... और इस समय लग रहा है कि न मैं अन्तर को मथ कर उमड़ते हुए शब्दों से डरता हूँ और न खामोश धड़कनों से। दोनों एक ही चीजें हैं और दोनों में ही मैं हूँ।


प्रस्तुति


‘मछली घर’ की भूमिका में साही जी ने बताया था कि ‘तीसरा सप्तक’ और ‘मछली घर’ में तब तक लिखी उनकी समस्त कविताएं संकलित नहीं हैं। उन बची हुई कविताओं में से कुछ तो आकाशवाणी से प्रसारित हुई थीं, कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं, कुछ औपचारिक-अनौपचारिक गोष्ठियों में पठित हुई थीं ‘साखी’ में भी ‘मछली घर’ के बाद की लिखी सब कविताएं नहीं हैं। मैंने अपनी समझ में ‘साखी’ के लिए उन्हीं कविताओं का चयन किया जो ‘साखी’ के मिजाज के अनुकूल लगीं मुझे तो मालूम था और कुछ का रूप विन्यास स्पष्टतया साखी का था। तो मेरे पास ‘तीसरा सप्तक’ और उसके पूर्व की ‘मछली घर’ और ‘साखी’ के क्रम की कविताएँ शेष थीं। समय-समय पर लोगों ने ऐसी कविताओं के बारे में मुझसे पूछा, जिनसे वे प्रभावित हुए थे पर जिन्हे उन्होंने साही जी के संग्रहों में नहीं पाया। ‘ईंट के नीचे’ आज हमने फिर किया शब्द का आखेट’, ‘मुझे नहीं मालूम था’ के विषय में डॉ. जगदीश गुप्त और डॉ. राम बचनराय ने जिज्ञासा प्रकट की थी। फिर ‘तीसरा सप्तक’ की कुछ कविताएं ऐसी हैं जिन्होंने साही जी की पहचान बनाई। अतः उनका साही जी के एकल संग्रह में होना जरूरी है।

इस संग्रह को तैयार करने में मेरे सामने दो समस्याएं उपस्थित हुईं :छटवें दशक से लेकर नवें दशक तक की कविताएं मेरे पास थीं। इन्हें बांधने वाली डोर कहां से मिले ? मैं यह भी चाहती थी कि कवि की स्वलिखित भूमिका भी हो। दोनों समस्याओं का समाधान साही जी के लिखे एक पत्र से मिल गया उसमें वह रसायन मिल गया जिसकी तरलता में उदात्त से लेकर सामान्य तक सब जज़्ब हो गया। क्योंकि शेष सब निमित्त मात्र है असली उद्दिष्ट है वह ‘तन्मय उन्माद’ जो कवि और श्रोता के बीच संवाद स्थापित करता है।


कंचनलता साही

भूमिका के नाम पर


....जैसे तुमसे बैठकर मैं एक अनन्त कथा कह रहा हूँ जिसमें शहर हैं नदियां हैं, पर्वत हैं, झील हैं, झरने हैं, धूल हैं, हवा है, लड़ाईयां हैं, भागदौड़ है, नायक हैं, नायिकाएं हैं, कत्ल है, जादू है, टोना है, सेन्स है, नानसेन्स है, सपने हैं, स्टन्ट है, जीवन के आदर्श हैं, सिनिसिज्म है, घोर अहंकार है, पिघलती हुई विनयशीलता है—अल्लम-गल्लम न जाने क्या-क्या है। और यह कथा कभी खत्म नहीं होती। वह एक अनन्त गाथा(Unending epic) की तरह है और तुम सुनती जा रही हो और मैं कहता जा रहा हूँ—और मुझे एहसास होता है एक उमड़ते हुए महा-प्यार का जो मेरे भीतर कहीं सिंचित है और मुझे इस जानकारी पर आश्चर्य हुआ है और फिर मैं एक विचित्र स्पंदित आह्लाद से भर गया हूँ—और मैं प्यार करता हूँ शब्दों को, उनके उमड़ते सिलसिले को, उनके बहाव को और मुझे लगता है कि मैं एक सुरीली झनझनाहट के साथ खोला जा रहा हूँ जैसे चलचित्र की रील खोली जाती है और मैं जो कह रहा हूँ वह रजत-पट पर फिंकते हुए चित्रों की तरह है लेकिन महत्त्व इन चित्रों का नहीं है महत्त्वपूर्ण है यह खुलना, यह चिरन्तन खुलना और इस खुलने का तरल संगीत।

.....और मुझे लग रहा है कि खुलने में या बन्द हो जाने में बोलने में या मौन में दोनों में वह जो बारीक-सी सुख की रेखा है वह तो एक जैसी है इसलिए दोनों में कोई अन्तर नहीं है मेरी आत्मा दोनों में वर्तमान है और मैं दो हिस्सों में बँटा नहीं हूँ और यह अनुभव करके भी हर्ष होता है क्योंकि वह अपने में ही एक निधि जैसे कोई खोई हुई चीज वापस मिल जाय।

...मुझे लगता है मैं कोई विजन (Vision) देख रहा हूँ। और तुम उस विजन में नहीं हो। लेकिन उस विजन को देखते-देखते मेरे मन में एक तन्मय उन्माद उमड़ता आ रहा है जो धीरे-धीरे मेरे पूरे शरीर पूरी आत्मा पर छाता जा रहा है। और मैं एक एनरजेटिक (energetic) बादल से घिर गया हूँ। और मेरे भीतर से प्रकाश का प्रभामण्डल फूट रहा है। और ऐसी दशा में शब्द बिलकुल बेकार हैं, मुद्राएं भी बेकार हैं। लेकिन तुम मेरे उस तन्मय उन्माद (rapture) को छू रही हो-क्योंकि वह प्रभामण्डल तुमको स्पर्श करता हुआ फैलता जा रहा है और शब्दों और मुद्राओं से परे एक संवाद स्थापित हो रहा है और जहाँ मैं उस विजन से अभिभूत हूँ मेरे पार्श्व में स्थित तुम मेरे उन्माद को देख रही हो, छू रही हो, महसूस कर रही हो और तुम उस विजन को भी देख रही हो और वह उन्माद तुम पर भी छाने लगता है और धीरे-धीरे वह विज़न अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता वह सिर्फ उस दूरस्थ पहाड़ी की तरह हो जाता है जो अपनी तरफ लौटती हुई गूँज के लिए रिफलेक्टर का काम करती है।

जो मह्त्त्वपूर्ण है वह है यह तन्मय उन्माद (rapture) विज़न की सार्थकता उस तन्मय उन्माद को उत्पन्न करने में है।.... और इस समय लग रहा है कि न मैं अन्तर को मथ कर उमड़ते हुए शब्दों से डरता हूँ और न खामोश धड़कनों से। दोनों एक ही चीजें हैं और दोनों में ही मैं हूँ।

(साही के एक पत्र से)


पितृहीन ईश्वर : एक मेलोड्रामा


कथाकार


अंध शून्य को वेधित करता
एक क्षीण स्वर किसी बिगुल का
सूने जल में चमकीला मछली का सहसा
तैर गया।
मह महाशर की रात उठी थीं जब आत्माएँ।

डूबे मस्तक
ख़ाली आँखें
हारे चेहरे
घायल सीने
बोझिल बाँहें
उतरे कन्धे
घना अँधेरा
स्तब्ध प्रतीक्षा।


देवदूत



ओ आत्माओं,
ओ आत्माओं,
खंडित करता हूँ मैं अपने शुभ्र मंत्र वे
खंडित करता हूँ मैं वे संदेश पुरातन,
खंडित करता हूँ मैं अपनी पावन आस्था,
ओ आत्माओं,
देख लिया मैंने गिरि सागर,
जंगल, नदियाँ, व्योम, मरुस्थल,
पिता नहीं है,
पिता नहीं है
सचमुच कोई पिता नहीं है,
हम सब के सब सिर्फ़ अभागे, सिर्फ़ अभागे
क्योंकि हमारा पिता नहीं है।

नीले सागर तट पर जाकर
जिसके आगे राह नहीं है,
अपनी आस्तिक छाती का सब ज़ोर लगाकर
मैंने पूछा :
‘‘समय आ गया
राह देखती हैं आत्माएँ
पिता कहाँ हो ?’’
नहीं मिला कोई भी उत्तर,
पागल सागर
उसी तरह फूलता और फूटता रहा।
उत्तर के ध्रुव की सीमा पर
जिसके आगे अतल शून्य है
अपनी पावन छाती का सब ज़ोर लगाकर
मैंने पूछा,




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