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निजी सचिव

सत्य प्रसाद पाण्डेय

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5873
आईएसबीएन :978-81-7043716-

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एक चरित प्रधान मनोवैज्ञानिक उपन्यास...

Niji Sachiv

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘निजी सचिव’ एक चरित प्रधान मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। इसमें एक ऐसी आत्मदम्भी नारी का चित्रण है। जो एक पुरुषत्व हीन व्यक्ति से विवाहित होकर भी अपनी आत्म पीड़ा के विषाद को सदैव मधुर मुस्कान में ही बिखेरती रहती है। वह एक अप्रतिम रूप, सौन्दर्य, शाल, शिक्षा गण से युक्त आधुनिकतम नारी है, फिर भी समाज उसे एक स्त्रेण और परम विलासिनी समझता है परन्तु वह कहीं भी अपने चरित्र की रक्षा के लिए वकालत को एक शब्द भी नहीं कहती है। जीवन का खुल कर सम्यक् उपभोग करती हुई जीती है और अंत में टूट अवश्य गई परन्तु झुकी नहीं। प्रयोग की दृष्टि से उपन्यास असाधारण है और ख्याति भी पर्याप्त अर्जित करेगा।

दो शब्द


‘निजी सचिव’ की रचना केवल एक संयोग है। अभी तक मैंने जो उपन्यास लिखे हैं, वे किसी न किसी ‘थीम’ को लेकर ही लिखे हैं। केवल यही एक उपन्यास है जिसे केवल चित्रण की प्रबल चाह को पूरा करने के लिए चित्रकार के नाते लिखा गया हूँ। यह चित्र कैसे बन पड़ा है, यह तो पाठक ही बतायेंगे। पर इसे लिखकर मुझे आत्मतुष्टि अवश्य हुई।
मैं आत्माराम एण्ड संस के संचालक श्री पुरी जी का हार्दिक रूप से कृतज्ञ हूँ जिन्होंने इस उपन्यास के तत्काल प्रकाशन की व्यवस्था की तथा अपनी श्रीमती का भी, जिनसे इसे लिखने में समय-समय पर प्रेरणा मिलती रही है।

सत्यप्रसाद पाण्डेय

निजी सचिव
1


प्राइवेट सेक्रेटरी के स्थान के लिए मैंने कुछ दिन पूर्व एक प्रार्थना-पत्र दिया था। आज पूरे बारह बजे मुझे उसी सिलसिले में इण्टरव्यू पर पहुँचना था। अस्तु मैं नहा-धोकर तथा थोड़ा-सा नाश्ता कर तैयार हो गया। पास में घड़ी नहीं थी कि समय का पता चले। नीचे वाली मंजिल में कपड़ों की दुकान थी जहाँ दीवार पर क्लाक लटकी हुई होती थी। नीचे उतर उसी घड़ी पर समय देखा और फिर अपने कमरे में वापस आ गया। अभी साढ़े दस ही बजे थे। समय काटना मुश्किल हो रहा था। जवाहर नगर में कनॉट सरकस पहुँचने में बस पौना घण्टा लेती थी। इस हिसाब से मुझे अपने घर से ग्यारह-सवा ग्यारह बजे चल देना ही उचित था। यानी कि अभी आधा पौना घण्टा बाकी था।

दस बजे तक तो बसों में खूब भीड़ रहती है पर उसके बाद बस स्टैण्ड पर पहुँचते ही फौरन बस मिल जाती है। यूँ ही बस स्टैण्ड पर खड़े होना इसलिए मैंने उचित न समझा। समय काटने के लिए कोट की जेब से मैंने फिर शान्ति का पत्र निकाला और पढ़ने लग गया। उसने सारे पत्र में कुल अपने कालिज की चर्चा की थी, केवल अन्त में बुआजी की कुशल लिखी थी और पैसे भेजने का अस्पष्ट-सा अनुरोध। पत्र समाप्त कर मैं आँख मूँद कर लेट-सा गया। लेट क्या गया, शान्ति और बुआ जी के चिन्तन में खो गया। मेरी आँखों के सामने अपने कस्बे का वातावरण मूर्तिमान हो उठा, जहाँ मेरे और शान्ति के हित के लिए जीवन से संघर्ष करती हुई बुआ जी अपनी जीर्ण देह को घसीटती चली जा रही थीं- केवल हीक पर ही। बुआ जी ही हमारे माँ-बाप के स्थान पर थीं। शान्ति को बुआ जी से प्रेम था और उसके दु:खों का एहसास नहीं। वह तो समझती थी कि बुआ जी नित्य हमारे समक्ष हँसती रहती हैं। तो नि:संदेह आनन्द में ही होंगी पर मैं जानता था कि उस हँसी और परोक्ष आनन्द-प्रदर्शन के पीछे उनका जीवन नैराश्य से कितना परिपूर्ण था। वह हँसी केवल हमारी हँसी को कायम रखने के लिए- बुआ जी के सूखे होंठों से प्रस्फुटित होती थी मानो उसी हँसी के स्रोत्र से वे हमारी नन्हीं कोमल जिन्दगी को हरा रखना चाहती थीं। दुर्भाग्य के प्रचण्ड ताप का उन्होंने कभी हमें एहसास नहीं होने दिया।
‘‘शर्मा जी, बीबी पैसे माँग रही है।’’

मेरे चिन्तन में अचानक उक्त शब्दों से बाधा पहुँची तो मैं चेतन हुआ। वह कपड़ों पर प्रेस करने के पैसों का तकाजा लेकर आई थी। पर मुझे इस समय उन पैसों की चिन्ता न हुई, अपितु यह सोचकर घबरा गया कि मालूम यूँ चिन्तन करते-करते कहीं इण्टरव्यू का समय न निकल गया हो। भागता हुआ मैं नीचे फिर उसी कपड़े की दूकान पर गया जहाँ घड़ी लटक रही थी और उसी तरह भागता हुआ ही वापस आकर उस धोबन की छोकरी से बोला कि फिर शाम को आ जाये। इस समय मुझे जल्दी ही कही जाना था।

‘‘बाबू जी ! तीन बार आ चुकी हूँ और आपने तीनों बार ही टाल दिया है। कुल दस आने की ही तो बात है !’’
‘‘अरे जा भी तू। नहीं जानता कि सवा-बारह बज गए। मुझे बारह बजे कनॉट सरकस पहुँचना था।’’ कहता हुआ उसकी कलाई पकड़ कर मैं उसे कमरे से बाहर ले आया और फिर द्वार पर ताला लगाकर नीचे उतर गया।

कनॉट प्लेस स्थित मैरीना बस-स्टैण्ड पर जब मैं बस से उतरा तो एक व्यक्ति से पूछने पर पता चला कि एक बजने में 10 मिनट बाकी थे। भागता हुआ मैं निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा। कम्पनी कार्यालय, जहाँ से मुझे इंटरव्यू लैटर प्राप्त हुआ था, दूसरी मंजिल पर था। नीचे जीने में सकेत पट्टी और ऊपरी मंजिल के ऊपर दूसरी मंजिल के बाहर विशाल बोर्ड पर निम्न शब्दों में कम्पनी का नाम लिखा हुआ था :
‘‘मजूमदार एण्ड कम्पनी- इम्पोर्टज एण्ड एक्सपोर्टर्ज’’
(प्रोपरायटर्ज- आसीत मजूमदार एण्ड सन)
दुमंजिले में पहुँच कर द्वार खड़े चपरासी को मैंने वह इंटरव्यू-लैटर दिखाया और अन्दर जाने की अनुमति चाही।
वह बोला, ‘‘आप इसी बराण्डे में पाँच कमरे छोड़ कर छठे कमरे में जाइये। वहाँ डायरेक्टर साहब के कमरे में पेशी चल रही है।’’

मैं उन पाँच कमरों को गौर से देखता हुआ छठे कमरे में पहुँचा तो मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। भला इतनी बड़ी कम्पनी में एक महत्त्वपूर्ण पद के लिए कैसे मैं योग्य समझा जाता। मानता हूँ कि मुझे मारकीटिंग का अनुभव है और बिजनेस-संबंधी आलेख आदि तैयार करने में थोड़ी-बहुत निपुणता भी प्राप्त है; पर अभी तक इतनी बड़ी कम्पनी में मैंने नौकरी नहीं की थी। जिन पाँच कमरों को देखता हुआ मैं चला आया था, उनसे कम्पनी के उच्च स्तर और भव्यता का पूरा दिग्दर्शन हो चुका था। मैं गत चार वर्षों से कई फर्मों में काम तो कर चुका था पर इतनी उच्च स्तर की कम्पनी में अपने उत्तरदायित्व को सँभाल सकूँगा, इसका मुझे उस वैभव और शान को देखकर विश्वास न हो रहा था।

डगमगाते कदम रखते हुए मैंने छठे कमरे में प्रवेश किया जहाँ उम्दा जूट की दरी और उसके ऊपर आलीशान सोफे बिछे हुए थे। दो-तीन सोफों के बीच में पालिश से चमकती हुई गोल मेजें रखी हुई थीं और उनमें से प्रत्येक के ऊपर एक-एक ऐश-ट्रे। सोफों पर लोग विराजमान थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि किससे निवेदन करूँ कि मैं इंटरव्यू के लिए उपस्थित हुआ था। उन लोगों में से किसी ने भी तो मेरी ओर आँख नहीं उठाई। आराम से बैठे हुए उनमें से या तो कोई सिगरेट पी रहा था या कुछ परस्पर बातचीत करते जाते थे। एक ओर मुझे वर्दी पहने हुए एक चपरासी दिखाई दिया, तो मैं उसके पास पहुँचकर बोला, ‘‘मैं इंटरव्यू देने आया हूँ। बारह बजे का समय दिया था, पर बस में ज़रा देर हो गई।’’

वह लापरवाही से बोला, ‘‘अपना कागज मुझे दे दीजिए और आराम से आप भी एक ओर बैठ जाइये।’’
मैं ‘आप भी’- शब्दों पर थोड़ी देर तो सोचता रहा पर तभी मुझे अहसास हुआ कि वहाँ सोफों पर विराजमान व्यक्ति मेरी ही भाँति प्रत्याशी थे न कि कम्पनी के डायरेक्टर अथवा कर्मचारी। रूमाल से मुंह पोछ कर मैं इत्मीनान के साथ एक ओर बैठ गया।

इंटरव्यू अन्दर के कमरे में लिया जा रहा था जिसके बाहर वह चपरासी खड़ा था। यानी कि वह कमरा, जहाँ मेरे अतिरिक्त अन्य प्रत्याशी आराम फरमा रहे थे, डायरेक्टर का कमरा न होकर, आगन्तुकों के प्रतीक्षालय के रूप में प्रयुक्त होता था। यह बात जब मेरी समझ में आई तो कम्पनी की शान-शौकत का और भी अधिक प्रभाव मेरे मस्तिष्क पर पड़ना स्वाभाविक था और परिणाम स्वरूप मेरा रहा-सहा विश्वास भी जाता रहा। मेरे ढीठ मन ने कहा कि जो भी हो, इंटरव्यू तो देना ही है। ना पसन्द ही तो किया जाऊँगा- फाँसी पर तो चढ़ने से रहा।

वहाँ विराजमान व्यक्ति बुलाये जाने पर अन्दर जाते रहे और मैं दिल की धड़कनों पर काबू किये अपने बुलाये जाने की प्रतीक्षा करता रहा। अचानक मुझे लगा कमरे में एक तेज हवा का झोंका खुशबू छोड़ता हुआ एक ओर से आया और दूसरी ओर चला गया; अथवा यूँ कहिये कि एक बिजली-सी आँखों को चकाचौंध करती हुई बराण्डे से उदित हुई और डायरेक्टर के कमरे में जाकर अस्त हो गई। चपरासी को मैंने जोर से सैल्यूट मारते हुए देखा और तुरन्त उसके पश्चात एक अजीब-सी हलचल। मेरे साथ बैठे अन्य व्यक्ति भी विस्मित थे कि कौन हो सकती थी वह असाधारण सुन्दर-तरुणी, जिसके आगमन पर सारी कम्पनी ही थरथरा उठी थी। हमने कम्पनी के उच्च अधिकारियों को आदर और सम्मान के साथ उस महिला को डायरेक्टर के कमरे में ले जाते देखा। वे उसके पीछे बड़े अदब के साथ चल रहे थे मानों किसी सम्राज्ञी के पीछे सिर झुकाये दरबारी लोग चल रहे हों। कुछ ही क्षणों के बाद बैरों की चहलकदमी देखने को मिली।

मुझे उस तरुणी का सौन्दर्य इहलौकिक नहीं जान पड़ा, परलौकिक-सा लगा। ऊपर से यह शान और दबदबा। मेरी उत्सुकता चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी, यहाँ तक कि मैं भूल गया था कि मेरा इंटरव्यू होनेवाला था। दिल में कुछ देर पूर्व जो धड़कने तेजी से चलने लगी थीं, वे कायम थी, पर अब भय का स्थान उत्सुकता और सौन्दर्यप्रियता ने ले लिया था। तभी थोड़ी देर बाद चपरासी ने मेरा नाम पुकारा तो मुझे बुखार-सा हो गया। दिल इतने जोरों से धक्-धक् करने लग गया कि लगा, मानो मेरा हार्ट फेल होनेवाला हो। तभी मेरे
ढीठ मन ने मुझे दुबारा फटकार दी- ‘जाओ भी- इंटरव्यू ही तो है, फिर अपने घर चले जाना। जो कुछ पूछा जाय......साफ-साफ बता देना।’


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