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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस प्रवचन चतुर्थ पुष्प

मानस प्रवचन चतुर्थ पुष्प

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : बिरला अकादमी आफ आर्ट एण्ड कल्चर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5870
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत हैं मानस प्रवचन...

Manas Pravachan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

चैत नवरात्रि के पावन पर्व पर श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर देहली में आयोजित किया जाने वाला मानस-यज्ञ प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी श्रीराम नवमी को सानन्द सम्पन्न हुआ। अन्तिम दिन श्री घनश्यामदास जी बिरला के समापन भाषण से स्वर्ण-सौरभ का संयोग उपस्थित हुआ। उनकी अनुभूति और भगवद्विश्वास से भरी वाणी ने श्रोता समूह को आह्लादित और प्रेरित किया। इस अवसर पर दिया गया उनका प्रेरक भाषण ‘‘मानस-प्रवचन’’ के साथ प्रकाशित किया जा रहा है।

वस्तुतः समापन के अवसर पर जो सुखद संयोग उपस्थित हुआ था वह बड़ा ही उत्साह वर्धक था। श्री घनश्यामदास जी, श्री बसन्त कुमार जी तथा चि. आदित्य विक्रम जी बिरला के रूप में तीन पीढ़ियों के श्रद्धा के उत्तराधिकार का यह दृश्य मानस महिमा को व्यक्त करने वाला था। श्री रामचरितमान की कालजयी रचना ने विभिन्न पीढ़ियों को अपनी ओर आकृष्ट किया है।
‘‘मानस-प्रवचन’’ का प्रकाशन वस्तुतः मानस के प्रति श्रद्धाञ्जलि का ही एक भाग है। श्रीमती सरला तथा श्री बसन्त कुमार जी बिरला की आस्था ही प्रकाशन के पीछे प्रेरक रूप में विद्यमान है। उनके समग्र परिवार के प्रति मैं मंगल कामना प्रकट करता हूं।

प्रवचनों के सम्पादन का कार्य मेरे शिष्य उमाशंकर शर्मा ने किया है, वे आशीर्वाद के पात्र हैं। सम्पादन के पश्चात जिन लोगों ने पुनर्लेखन के द्वारा इसे प्रेस तक पहुंचाया है, उन्हें भी आशीर्वाद देता हूं। यह कार्य श्री विष्णु कान्त पाँडे. कु. रजनी तथा श्री गोविन्द शंकर नायडू के द्वारा सम्पन्न हुआ। श्री गोविन्द प्रसाद दुबे एवं श्री मैथिली शरण (सुरेश) की सेवा भी इस दिशा में सहयोगी रही हैं। ये लोग आशीर्वाद के पात्र हैं।
प्रतिवर्ष इसके सम्पादन कार्य में अत्यधिक विलम्ब हो जाता है, फिर भी इसका समय पर प्रकाशन श्री बाबू लाल जी बियाणी के स्नेह युक्त अथक प्रयास का परिचायक है। एतदर्थ वे साधुवाद के पात्र हैं।

रामकिंकर


श्री घनश्यामदास जी बिरला


का समापन भाषण

(रामनवमी, 12 अप्रैल 2981)

भाइयों और बहिनो,
प्रवचन का आज अन्तिम दिन है। इस उपसंहार के अवसर पर मुझे पंडितजी को धन्यवाद और साधुवाद देने का सुखद काम सौंपा गया है। मुझे इसकी प्रसन्नता है। हर वर्ष यहां प्रवचन होते हैं और पंडितजी प्रवचन करते हैं, अमृत की वर्षा करते हैं और सबको मंगल दान करते हैं। जो सुनते हैं उनका भी मंगल होता है और वक्ता का भी मंगल होता है। इसलिए हम सब लोग उनके अत्यन्त अनुगृहीत हैं।

मुझे प्रसन्नता है कि राम की महिमा से यह जनता मोहित हैं। और जहां-जहां पंडितजी के प्रवचन होते हैं लोग बड़ी श्रद्धा से इस राम-कथा को सुनने वहां जाते हैं। यह एक शुभ चिह्न है कि हम लोग भक्तिमार्ग की ओर जा रहे हैं। मैं पंडितजी का अनुगृहीत हूं और आप सबकी ओर से मैं इनको साधुवाद देता हूं।

भारतवर्ष में प्राचीन काल से ईश्वर की उपासना का क्रम चलता रहा है। विधि बदलती रही है। क्रम भी कभी-कभी बदलता रहा है। लेकिन लक्ष्य एक ही रहा है कि किस प्रकार भागवत-प्राप्ति करना। आत्म-कल्याण ही ध्येय रहा है।
वैदिक काल में प्रधानतया ब्रह्म की उपासना होती थी। किन्तु जैसा कि हमारे शास्त्रों में कहा गया है ब्रह्म अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है। सर्वत्र व्याप्त है। सूक्ष्म से भी सूक्ष्म इन्द्रियातीत है। महान् से भी महान्। इसलिए अव्यक्त ब्रह्म की पूजा कठिन है। गीता में भी अन्य शास्त्रों में भी आचार्यों ने यह बताया कि भगवान की उपासना के लिए अव्यक्त की उपासना मनुष्य के लिए कठिन है।
इसलिए भक्तिमार्ग का अवलम्बन् सबको बताया। भक्ति मार्ग की प्रेरणा दी।

इसके माने यह नहीं हैं कि भक्तिमार्ग ज्ञान से कोई भिन्न वस्तु है। भक्तिमार्ग और ज्ञान और कर्म इन सबका समन्वय है। भक्तिमार्ग से भगवान आसानी से समझ में आते हैं। इसलिए वैदिक काल में यद्यपि पूर्ण ब्रह्म की उपासना प्रचलित थी किन्तु इस उपासना के लिए प्रतीक बना दिए गये। और इसके अनुसार वेदों में उपासना के लिए सूर्य, देवता, चन्द्रमा देवता, अग्नि देवता इत्यादि को प्रतीक मानकर उनकी प्रार्थना की गई, उनकी पूजा भी की गई।
शास्त्रों में यह बताया गया है कि किसी भी देवता की पूजा करो वह अन्त में ईश्वर की ही पूजा है, पूर्ण ब्रह्म की ही पूजा है। किन्तु चूंकि पूर्ण ब्रह्म अनिर्वचनीय है, अव्यक्त है इसलिए उसमें ध्यान लगाना कठिन है। इसलिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है।

ऋषियों में यद्यपि वैदिक काल में अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, रुद्र इत्यादि प्रतीकों की उपासना बताई किन्तु उसमें भी अपूर्णता रह गई। क्योंकि सूर्य की उपासना तो करो किन्तु सूर्य भेदभाव नहीं करता-पापी को भी प्रकाश देता है, पुण्यात्मा को भी वैसा ही प्रकाश देता है। इसलिए भक्तों को इस वृत्ति से पूर्ण संतोष नहीं हुआ। भक्तों को तो ऐसा भगवान् चाहिए जो कि भक्त की रक्षा करे और जो दुष्ट हों, उनका नाश करे। यह जब तक नहीं बनता तब तक भक्ति पनपती नहीं।

तो इसलिए पौराणिक काल में ऋषियों ने अवतार की उपासना बताई। अवतार के हेतु बताया। अवतार का हेतु था धर्म की ग्लानि हो, अधर्म की वृद्धि हो तब अवतार अधर्म का नाश करते हैं, दुष्टों का दमन करते हैं और अच्छे पुरुषों की रक्षा करते हैं। इसलिए राम और कृष्ण ये जो भागवत और महाभारत में बड़े अवतार हुए उनकी उपासना का क्रम चला।
पहले जो सूर्य-चन्द्रमा की उपासना थी उस क्रम को बदलकर ऋषियों ने यह नया आदेश चलाया कि हम अवतारों की उपासना करें। क्योंकि अवतार सक्रिय हैं, उनका कर्मक्षेत्र सीमित नहीं है। चन्द्रमा और सूर्य सक्रिय तो हैं किन्तु उनका क्षेत्र सीमित है। वे दुष्ट को दण्ड नहीं देते। अग्नि से दुष्ट भी जलता है और पुण्यात्मा भी जल जाता है—कोई भेदभाव नहीं है। इसलिए उस भेदभाव को मिटाने के लिए ये अवतार पैदा हुए और उनका हेतु था दुष्टों का दमन और सत्पुरुषों की रक्षा। इसी हेतु को लेकर अवतार प्रकट हुए।

तो कृष्ण और राम ये हमारे दो महा अवतार हैं। और पौराणिक काल से ही इन्हीं की पूजा चलती आ रही है। और इसी का प्रवचन भी हो रहा है, जिसे आप सुनते हैं और अपने-आपका मंगल करते हैं।
सूर्य भक्तों को आकर्षण नहीं करता क्योंकि जैसा मैंने बताया सबको एक-सा ताप देता है, अग्नि सबको एक-सा जलाती है किन्तु भेदभाव करते हैं—सत्पुरुष की रक्षा करते हैं, दुष्ट का दमन करते हैं। इसलिए इस भेदभाव के कारण अवतारों की पूजा चली।
अब आप समझ गये कि अवतार किस तरह भक्ति का पोषण करते आये हैं। किस तरह भक्तों को आकर्षण करते हैं। यह पंडितजी ने आपको प्रवचन में बताया ही है।
अब रामायण की कथा की तरफ जरा ध्यान दीजिए। जब रामचन्द्रजी वनवास से लौटने को थे, चौदह साल बीत गये थे, केवल एक दिन जब बाकी रहा तब अयोध्या के लोगों में चिन्ता आ गई :


रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहं तह सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग।।


राम के बियोग से सब दुबले हो गये। अब आप देखिए सूर्य के वियोग से कोई दुबला नहीं होता। अगर जेठ के महीने में बहुत जोर की गर्मी पड़ती है तो आप सूर्य से वियोग करना चाहते हैं और अग्नि से भी आप पूरा सहयोग नहीं चाहते।
किन्तु अयोध्या में यह संकल्प-विकल्प प्रारंभ हुआ कि राम कल आयेंगे या नहीं आयेंगे। तो चिन्ता में लोगों का खून सूख गया तो इससे मालूम होता है कि लोगों में कितनी बड़ी जबर्दस्त भावना रामभक्ति की ओर जा रही थी। उसी भक्ति के कारण लोग भगवान् की तरफ झुके।
अब जब भगवान् अयोध्या पहुंच जाते हैं तो सबको बड़ी प्रसन्नता होती है।



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