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अँधेरा समुद्र

परितोष चक्रवर्ती

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :123
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5865
आईएसबीएन :9788126314140

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परितोष चक्रवर्ती का चौथा कहानी-संग्रह है- ‘अँधेरा समुद्र’। परितोष हमारे समय के एक ज़रूरी कहानीकार हैं जो खण्ड खण्ड अस्मिताओं को गूँथकर भारत के एक वृहत्तर सामाजिक आख्यान को रचते हैं।

Andhera Samudra is Hindi Book of Stories by Paritosh Chakravarti - अँधेरा समुद्र -परितोष चक्रवर्ती

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मूलत: कवि संवेदना के कथाकार परितोष चक्रवर्ती का चौथा कहानी-संग्रह है- ‘अँधेरा समुद्र’। परितोष हमारे समय के एक ज़रूरी कहानीकार हैं जो खण्ड खण्ड अस्मिताओं को गूँथकर भारत के एक वृहत्तर सामाजिक आख्यान को रचते हैं। ‘अँधेरा समुद्र’ का अँधेरा नब्बे के दशक के बाद भारतीय समाज में छाया बाज़ारवाद, मुक्त अर्थव्यवस्था की हिंस्रता, आवारा पूँजी और काले धन का असीमित विस्तार, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की घातक प्रतिस्पर्धा, चमकीले विज्ञापनों का ‘अँधेरा’ है, जिसमें आम आदमी कई कठिन पाटों के बीच बुरी तरह पिस रहा है। विडम्बना ही है के यह ‘अँधेरा’ जगमगाती और चौंधिया देनेवाली रोशनियों से भरपूर है। परितोष इस अँधेरे में समुद्र की सम्यक् और संयत पड़ताल करते हैं- बिना कोई अतिवादी निष्कर्ष पर पहुँचे। इस मायने में परितोष का कथात्मक धैर्य क़ाबिलेतारीफ़ है।

परितोष के मित्रों का कहना है कि वे संबंधों के कथाकार हैं। संबंधो में वे डूबते हैं और भँवर के बीच भी चले जाते हैं और सामाजिक यथार्थ के सहारे उबरकर उस गहराई को पाठक तक सम्प्रेषित कर देते हैं।

संक्षेप में, ‘अँधेरा समुद्र’ समग्रता में स्टिरियोटाइप पाठकीय चेतना को ध्वस्त कर उसे रिइन्वेंट करनेवाली कहानियों का एक अनूठा संग्रह है।

पत्थर

‘‘बाबूजी, जल्दी से इधर आइए।’’
वे कब से सोचते आ रहे थे कि आँगन को एक बाउंड्रीवाल से घेर दें, पर लम्बे खर्च के खयाल से मन-ही-मन सिकुड़कर रह जाते। लेकिन बड़े बेटे की पहली पोस्टिंग जब नागपुर के रिजर्व बैंक में हुई और उसने अपने वेतन में से पहली बार घर के लिए कुछ भेजा तो उन्होंने तुरन्त बाउंड्रीवाल बनवाने का निर्णय ले लिया था। आखिर यह घर भी तो उसी के हाथों बना था।
हेडमिस्त्री की आवाज से उनकी सोच का क्रम टूट गया और वे आँगन की ओर बढ़े। चार मजदूर खुदाई का काम रोककर चुपचाप खड़े उनकी ओर देख रहे थे और और हेडमिस्त्री की निगाहें बाउंड्रीवाल के लिए खोदे जा रहे गड्ढे की ओर थीं। वे पास पहुँचे तो हेडमिस्त्री ने उनका ध्यान खुदे हुए एक हिस्से की ओर खींचा।

‘‘बाबूजी, पता नहीं कौन-सी पत्थर जैसी चीज बीच में आ गयी है, गैंती से तो एक इंच भी आगे खुदाई नहीं हो पाएगी। मैंने घन से भी चोट करके देख लिया, इस पर कोई असर नहीं पड़ा।’’

वे झुककर गड्ढे में झाँकते हैं। ठीक कह रहा है मिस्त्री- एक पत्थर जैसी ही सतह दिखाई पड़ रही है, जिसमें एक अजीब किस्म की चमक है। कुछ-कुछ गुलाबी आभा लिये हुए एक चमकदार सफेदी। उन्होंने सुझाया, ‘‘लखन, इसके आसपास थोड़ा चौड़ाई में भी खोदकर देखो, शायद कुछ पता चले।’’
इस बीच उनकी पत्नी सुचित्रा और छोटा बेटा आँगन में आ गये थे। सबके साथ वे भी उस चीज को अपने तरीके से समझने की कोशिश करने लगे। उधर हेडमिस्त्री ने उस जगह को चौड़ाई में खुदवाना शुरू कर दिया। मजदूर आशंकित मन से अपनी गैंती और सब्बल चला रहे थे। इस इलाके में आज भी साधारण लोगों का चमत्कारों के प्रति विश्वास है।

दो घंटे की मशक्कत के बाद करीब साढ़े-चार फीट लम्बा, तीन फीट चौड़ा और ढाई फीट मोटा एक मजबूत पत्थर का टुकड़ा खींच-खाँचकर बाहर निकाला गया। पत्थर का रंग देखकर अनायास उसके संगमरमर होने का भ्रम होता था, यद्यपि इस पूरे प्रान्त में संगमरमर मिलने का कोई उदाहरण नहीं था।

पत्थर को बाहर निकालने के बाद मजदूरों ने उस पर कई बार घन से चोट की, सब्बल भी चलाया, लेकिन पत्थर पर न कोई खरोच आयी और न ही वो कहीं से टूटा। अचानक छोटे बेटे ने सुझाया, ‘‘प्रजापति अंकल को बुलाकर क्यों न दिखा लिया जाय।’’

प्रजापति पड़ोस में रहते थे और मारबल के विशेषज्ञ थे। शिवकुमारजी के बुलावे पर वे आये और उन्होंने पत्थर का बारीकी से मुआयाना किया, पर वे भी नहीं बता पाये कि यह मारबल है या नहीं। आज तक ऐसा मारबल उनके देखने में नहीं आया था, जो घन मारने पर भी न टूटे। उन्होंने सुझाव दिया, ‘‘यदि आप चाहें तो इसे मेरी मारबल वाली साइट पर भिजवा दें। मैं इसकी कटिंग करने की कोशिश करूँगा।’’

प्रजापति जी के सुझाव पर सुचित्रा ने उत्साहपूर्वक सहमति जतायी और हेडमिस्त्री भी उनकी हाँ-में-हाँ मिलाता दिखाई दिया, किन्तु शिवकुमारजी इस सबसे निरपेक्ष अपने में खोए हुए थे। उन्हें बारबार एक ही सवाल कचोटता रहा कि यह विचित्र पत्थर आखिर मेरे ही आँगन में क्यों दबा पड़ा रहा ? पता नहीं वे क्यों इसे एक स्वाभाविक और साधारण घटना नहीं मान पा रहे थे। अन्तत: सभी सुझावों को धकेलकर वे स्वागत की तरह बोल पड़े, ‘‘जब यह अजीब-सा पत्थर मेरे आँगन में निकला है तो यह आँगन में ही एक किनारे पड़ा रहे। कभी-कभार जब मुझे कमरे में बैठकर डिजाइनिंग के काम में दिक्कत होगी तो मैं नीचे बैठ इस पर टेक लगाकर काम किया करूँगा। इतने चमकदार पत्थर के बेस पर कुछ क्रियेटिव काम करने में बड़ा मजा आएगा।’’

उस घटना को दो साल हो गये। अगले माह उन्हें अपनी कम्पनी से रिटायरमेंट मिल जाएगा। यूँ भी कम्पनी में पिछले दो-तीन सालों से उनके लायक विशेष काम नहीं रह गया था। कम्पनी बड़ी थी और विज्ञापन के इतर वह विदेशों में इवेंट मैनेजमेंट का काम करने लगी थी, अत: उनके जैसे आर्टिस्टों की अब कोई खास जरूरत नहीं रह गयी थी। अब तो अधिकांश काम कम्प्यूटर पर होने लगा था और इस उम्र में वे कम्प्यूटर के सहारे कोई डिजाइन क्या बनाते ! यह तो गनीमत थी कि उनके मालिक का बड़ा बेटा उनके साथ पढ़ा था, इसलिए पिछले तीन साल से तकरीबन बिना काम के ही उन्हें वेतन मिल रहा था। यह स्थिति उनके लिए कई बार असह्य हो उठती और वे अपने-आपको कम्पनी पर बोझ समझने लगते, किन्तु सुचित्रा इस ‘बोझ’ शब्द पर जमकर रिएक्ट करती- ‘‘तुम क्या दिन-भर वहाँ खाली बैठे रहते हो, जो अपने को बोझ कहते हो ? पिछले तीन वर्ल्ड ट्रेड फेयर्स के लिए तुमने जो प्रोजेक्ट एवं डिजाइन बनाकर दिये, उन पर कम्पनी की कम-से-कम दो करोड़ रुपये की बिलिंग हुई। क्या उसका कोई मूल्य नहीं है ? मेरी समझ में नहीं आता कि तुम दूसरों के एहसान को इतना बढ़ा-चढ़ाकर क्यों देखते हो ? तुम्हारी मदद से जो लोग उपकृत हुए, वे तो भूलकर भी तुम्हारी तरफ झाँकने नहीं आते।’’

सुचित्रा के कथन में उन्हें कहीं कुछ अतिरेक नहीं लगता, किन्तु उनकी अपनी मानसिक बुनावट में पता नहीं ऐसा क्या है कि उन्हें दूसरों के निमित्त किये गये अपने काम उतने बड़े नहीं लगते, जितने दूसरों के द्वारा उनके लिए किये गये काम लगते हैं। वे चाहकर भी सुचित्रा की तरह नहीं सोच पाते। क्या यह इसलिए है कि वे अपनी मध्यवर्गीय कुंठाओं की दीवार से बाहर नहीं झाँक पाते ? क्या वाकई ऐसी कोई कुंठा उनके भीतर जाने-अनजाने पल रही है ? यह सोचते हुए उन्हें और कुछ नहीं सूझता तो वे स्वयं ही उत्तर देते हैं- ‘ऑर्ट कॉलेज से निकलकर कुछेक सालों के संघर्ष के बाद इतनी बड़ी कम्पनी में उन्हें सम्मानजनक काम मिल गया था। एक साधारण सुकून की जिन्दगी और कामचलाऊ साधन के लिए उन्हें कोई दिक्कत कभी नहीं हुई, तो फिर कुंठा कैसी ?’

छोटे बेटे को एक आईटी फर्म में काम मिल गया है। अब तो बड़े की शादी भी जल्दी ही कर देनी है। वे अपने अन्य हमउम्रों की तरह रिटायरमेंट के बाद की चिन्ताओं से कतई परेशान नहीं हैं। पिछले दस-पन्द्रह सालों से विभिन्न बचत योजनाओं के जरिये उन्होंने इतना सहेज लिया है कि उन्हें खामखा चिन्तित होने की जरूरत नहीं है। यूँ भी उन्होंने ऐसा कोई शौक नहीं पाला कि जिसके लिए बहुत अधिक पैसों की आवश्यकता हो। दाल-रोटी और दवा का प्रबंध उतने से हो ही जाएगा। दोनों बच्चे काम पर लग गये हैं। वे कोई मदद न भी करें, पर अपना-अपना तो सँभाल ही लेंगे।
जब से यह पत्थर आँगन के किनारे में रखा है, वे स्केचिंग या क्रियेटिव कांसेप्ट के काम ज्यादातर वहीं बैठकर करते हैं। गर्मी की रातों में एक्सटेंशन के सहारे टेबिल-लैम्प को भी आँगन में ले आते हैं ताकि उस पत्थर पर ही काम कर सकें। उस समय जाने-अनजाने वे कई-कई बातें अपने-आपसे भी करते हैं और तब उन्हें लगता हैं जैसे वह पत्थर भी कहीं उनकी दिनचर्या में शामिल हो रहा है। कई बार जब उन्हें अपने कमरे में लेटे-लेटे एक अजीब-सी बेचैनी होती है, तो वे बाहर निकलकर उस पत्थर पर बैठ जाते हैं और चुपचाप सिगरेट-पर-सिगरेट फूँकते हुए बेहद सुकून महसूस करते हैं। दफ्तर में मालिक से लेकर सहयोगी तक उन्हें एक अच्छा विज्यूलाइजर मानते हैं, पर इस पत्थर की उपस्थिति का एहसास उन्हें इतनी तीव्रता से होने के बावजूद वे इसे विज्यूलाइजर नहीं कर पाते। बात वहीं आकर अटक जाती है कि वे किस प्रकार पत्थर का स्पन्दित होना चित्रित करें। कई बार एक अजीब-सा बिम्ब उन्हें परेशान करता है। वे पत्थर की सतह पर अपना चेहरा उभरता महसूस करते और तब उनका पूरा वजूद उनकी इस सोच के विरुद्ध मुखर होने लगता। कागज पर उनके सोचे-समझे बिम्ब खो जाते। उन्होंने हजारों पोर्ट्रेट और बिम्ब कई-कई विज्ञापनों एवं विज्ञापन फिल्मों की पृष्ठभूमि पर उभारे हैं, लेकिन आज तक अपने-आपको कैनवास पर उतार पाने की न उन्होंने कभी कोशिश की और न उनसे वैसा करते बना। कई बार तो वे अकेले बैठे हुए चौंक भी जाते। उन्हें लगता जैसे कोई उनकी पीठ सहला रहा है। वे समझ नहीं पाते कि इस पत्थर के आसपास होने पर ही उन्हें ऐसा क्यों लगता है।

इन दिनों अक्सर वे अपने ही घर की वैचारिक टकराहट में अपना आपा खो देते हैं। कभी किसी व्यवहारिक मुद्दे को लेकर बड़े बेटे पर उबलते हैं तो कभी छोटे बेटे की स्वाभाविक उछलकूद और हल्के-फुल्के मजाक में नैतिकता का बड़ा सवाल उठा बैठते हैं। दफ्तर भी उनकी मनोदशा से अछूता कहाँ है !

कम्पनी में पिछले पाँच सालों में बनर्जी ने विज्यूलाइजर का पग सँभाल रखा है। वह अक्सर किसी-न-किसी डिजाइन पर उनसे सलाह-मशविरा करता रहा है। वे भी बड़ी उदारता के साथ उससे अपनी हुनर शेयर करते रहे हैं। पर आजकल बात-बात पर वे बनर्जी पर भी उखड़ जाते हैं। परसों की ही बात है। एक साधारण-से कम्प्यूटर डिजाइन पर उन्होंने इस तरह रिएक्ट किया कि बनर्जी देर तक उनकी ओर देखता रह गया- ‘‘तुम क्या समझते हों कि तुम्हारा कम्प्यूटर संवेदनाओं को भी पूरा-का-पूरा रेखांकित कर लेगा ? ये नाम के सॉफ्टवेयर हैं, कम्प्यूटर में कहीं कुछ सॉफ्ट नहीं है। सदियों से मनुष्य की स्पंदित उँगलियाँ ही यह काम करती रही हैं। कल माँ की ममता और बच्चे की किलकारी के एहसास की प्रोग्रामिंग करने का भी तुम दावा करने लगोगे तो क्या मैं मान जाऊँगा ?’’

बहुत देर तक बनर्जी सहित आर्ट डिविजन के सभी लोग चुप रहे। पन्द्रह-बीस मिनट बाद बनर्जी ने उस बोझिल वातावरण को तोड़ने की कोशिश में समोसे का ऑर्डर दिया और एक बनावटी हँसी हँसकर बोला, ‘‘अरे, आज गुरुजी का मूड़ भूख के मारे खराब है, होना भी चाहिए भाई। शाम के साढ़े छह हो रहे हैं। अब तक हम ये भी भूल चुके हैं लंच हमने किया भी है या नहीं ! गुरुजी सच कहते हैं, कम्प्यूटर कभी समोसा खिला सकता है भला ?’’

बनर्जी की इस बात से दफ्तर का खोया हुआ छन्द फिर लौट आया था और वे भीतर-ही-भीतर स्वयं पर झल्ला रहे थे। यदि कम्प्यूटर की दुनिया में कामर्शियल आर्ट के समानान्तर सॉफ्टवेयर के डिजाइनों ने चुनौती खड़ी कर दी है तो क्या उन्हें इस तरह बिफर जाना था ? यह भी भला कोई तरीका है !
इस सबके बीच उन्हें सबसे ज्यादा चुभ जाती है सुचित्रा की टिप्पणी- ‘‘तुम्हें अभी भी सँभल जाना चाहिए। तुम अक्सर बच्चों को बच्चों की तरह देखने की उदारता की बात करते हो और अपने निजी जीवन में अपने बच्चों के बालिग हो जाने की प्रक्रिया को नहीं समझ पाते ? इस तरह तो तुम्हारे अपने ही बच्चे तुम्हें बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे। यदि उलटकर जवाब देने लगे तब क्या कर लोगे ?’’


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