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सहस्रफण

विश्वनाथ सत्यनारायण

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :455
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 586
आईएसबीएन :81-263-0113-9

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प्रस्तुत उपन्यास में अंग्रेज सरकार का सहारा लेकर किये गये आघात,अन्ध-अनुकरण के फलस्वरूप भारतीय जीवन की हो चुकी एवं हो रही दुर्गति आदि बातों का अत्यन्त प्रभावशाली अनुशीलन वर्णन किया गया है..

Sahasraphana - A hindi Book by - Vishwanath Satyanarayan सहस्रफण - विश्वनाथ सत्यनारायण

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘सहस्रफण’ कवि-सम्राट विश्वनाथ सत्यनारायण का बृहत् एवं सर्वमान्य उपन्यास है। 1934 में रचित इस उपन्यास में मुख्यतया भारतीय जन-जीवन के सन्धिकाल का चित्रण है। प्राचीन संस्कृति के मूल्यों पर अँग्रेज सरकार का सहारा लेकर किये गये आघात, अन्ध-अनुकरण के फलस्वरूप भारतीय जीवन की हो चुकी एवं हो रही दुर्गति, ‘स्वधर्म’ की वास्तविक महत्ता आदि बातों का अत्यन्त प्रभावशाली अनुशीलन इस उपन्यास में किया गया है। कहा जा सकता है कि इसमें इतिहास भी है, समाजशास्त्र भी है राजनीति भी है और प्राचीन संस्कृति का निरूपण भी है। और सबसे बड़ी विशेषता है इसके कथानक की रसात्मकता। कथा-संविधान, पात्र-पोषण, वर्णन-पटुता, कथोपकथन-चमत्कार, उदात्त कल्पना-प्रचुरता एवं कलामय धर्मासक्ति-इनके माध्यम से कृतिकार ने जिस वर्तमान सन्धिकाल की पृष्ठभूमि उपन्यास में निरूपित की है, उसके अनुसार लेखक का आशय है कि आज हमारी प्राचीन आस्थाएँ तो शिथिल पड़ रही हैं, किन्तु उनके स्थान पर उतने ही स्पृहणीय नये मूल्यों की स्थापना नहीं हो सकी है।

धर्म के प्रति विशिष्ट आश्वस्तता के साथ-साथ गहन शास्त्रीय विवेचन और प्रगाढ़ औपन्यासिक स्वरूप का निर्वाह ‘सहस्रफण’ में जितना और जैसा हो पाया है, इसका विस्मयकारी अनुभव पढ़कर ही किया जा सकता है। उपन्यास का हिन्दी रूपान्तर किया है-डॉ.पी.वी.नरसिंह राव ने।
हिन्दी पाठकों को समर्पित है इस महत्त्वपूर्ण कृति का नवीनतम संस्करण।


प्रास्ताविक



बीसवीं शताब्दी के मूर्धन्य भारतीय साहित्यकार श्री विश्वनाथ नारायण के तेलुगु बृहत् उपन्यास ‘बेयिपडगलु’ का हिन्दी अनुवाद ‘सहस्रफण’ हिन्दी पाठकों के कर कमलों में अर्पित करते हुए मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है। जो लोग श्री सत्यनारायण से परिचित हैं, वे कई वर्षों से अनुभव करते आये हैं कि सत्यनारायण जी की प्रखर प्रतिभा केवल एक भाषा-भाषी प्रान्त तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, क्योंकि एक ही प्रान्त में वह समा नहीं सकती। श्री सत्यनारायण का साहित्यिक व्यक्तित्व अनूठा है, अनन्य-सामान्य है, अद्वितीय है। उनमें कई ऐसे गुण हैं जो साधारणतया एक व्यक्ति में इकट्ठे नहीं पाये जाते। उनके साहित्यिक व्यक्तित्व में साहित्यिकता कितनी है, वैचारिकता कितनी मात्रा में है, भावुकता किस प्रमाण में है और रसात्मकता कहाँ तक सम्पन्न हुई है—इन बातों का विश्लेषण कठिन है। आज तक यह विश्लेषण किसी ने किया भी नहीं है। तथापि यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि श्री विश्वनाथ सत्यनारायण का साहित्य अनुसंधान एवं ग्वेषणा के उत्सुक साहित्यिकों के लिए विस्तृत तथा अक्षुण्ण क्षेत्र प्रस्तुत करता है।

श्री विश्वनाथ सत्यनारायण तेलुगु साहित्य में चोटी के कवि हैं, चोटी के उपन्यासकार हैं, चोटी के नाटककार हैं, चोटी के कहानीकार एवं आलोचक हैं। यह हुआ उनके साहित्य के स्थान का निर्देश। परन्तु यह निर्देश अस्पष्ट ही कहलाएगा। उनकी अपनी विशेषता तो सर्वतोमुखी प्रतिभा में है। प्रचलित साहित्यिक विधाओं में उन्होंने किसी को नहीं छोड़ा; सभी को अपनाया और सभी में अपनी प्रतिभा को चमकाया। कवि के रूप में सत्यनारायण जी का वैशिष्ट्य विशेष उल्लेखनीय है। ‘‘श्रीमद्रामायण कल्पवृक्ष’ नाम से सम्पूर्ण रामायण महाकाव्य की रचना करके उन्होंने इस आधुनिक युग में एक अद्भुत कार्य किया है। कई विद्वानों का मत है कि तेलुगु में आज जितनी रामायणों की रचना हुई है, उन सब में यह ‘कल्पवृक्ष’ मुकुटायमान है। कई साहित्यिकों का यह भी मत है कि श्री सत्यनारायण आदि से अन्त तक तत्त्वतः कवि और केवल कवि हैं, चाहे वे कोई भी रचना कर रहे हों। इस मूल्यांकन से सब लोग सहमत हों या न हों परंतु सत्यनारायण जी की सभी रचनाओं में जो काव्यमयता सामान्य गुण के रूप में विद्यामान है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता।

‘रामायण कल्पवृक्ष’ महाकाव्य के अतिरिक्त सत्यनारायण जी ने अनेक खण्ड-काव्यों और गीत-काव्यों की रचना की है। उनकी सिद्धहस्ता इसी बात से प्रकट होती है कि उनके लिखे हुए ‘किन्नरसानी पाटटलु’ नामक गीत आन्ध्र प्रदेश के लाखों पाठकों को आनन्द-विभोर करने में समर्थ हुए हैं। महाकाव्य एवं गीत-इन दोनों का एक ही लेखनी से निकलकर समान रूप से लोकप्रिय होना प्रायः अन्यत्र बहुत कम देखने में आता है।

उपन्यासकार एवं कहानीकार के रूप में श्री विश्वनाथ सत्यनारायण का व्यक्तित्व अत्यन्त व्यापक है, महान् है, विराट् है। यहाँ भी कहना होगा कि एक ही लेखनी से इतनी भिन्न-भिन्न प्रकार की रचनाओं का निकलना अत्यन्त विलक्षण है, क्या वस्तु में, क्या शैली में, क्या कथानक में—सत्यनारायण जी की रचनाओं में जो विविधता पाई जाती है, उसे देखते ही बनता है। तिनके से लेकर ब्रह्माण्ड तक कोई भी वस्तु और कोई भी व्यक्ति सत्यनारायण जी के संवेदनशील अनुशीलन का विषय बन सकता है, बनता आया है। चरित्र-चित्रण एकदम अनूठा है, वैचित्र्यपूर्ण है। तथापि उनके पात्र सीधे ‘जीवन-मंच’ से आये हुए होते हैं, किसी काल्पनिक ‘रंगमंच’ से नहीं। उनके पात्रों के चरित्रों का रेखांकन (delineation) वास्तव तथा कल्पना का अत्यन्त रोचक सम्मिश्रण प्रस्तुत करता है। पात्रों में वास्तव स्पष्ट दीखता है परन्तु साथ-साथ कल्पना भी जहाँ–तहाँ झाँकती रहती है। यह उनकी एक मुख्य विशेषता है।

सैद्धान्तिक रूप से श्री विश्वानाथ सत्यनारायण साहित्य में ध्वनि-प्रतिध्वनि के प्रबल समर्थक हैं। प्राचीन साहित्यिक सिद्धान्तों पर उनका इतना अधिकार है कि उन्हें विद्वद्वृन्द ‘अभिनव मल्लिनाथ’ कहते हैं। तेलुगु और संस्कृत के कुछ महाकाव्यों में किये गये शब्द-प्रयोगों तथा ध्वन्यात्मक विशिष्टताओं के विषय में उन्होंने अनेक लेख लिखे हैं। लेखों के अतिरिक्त प्रायः सैकड़ों व्याख्यान भी दिये हैं। सत्यनारायण जी का व्याख्यान श्रोताओं के लिए एक उदात्त अनुभव होता है। उनकी वाणी कहीं गंगा की तरह धीर-गम्भीर, कहीं पर्वतों से कूदने वाली निर्झरणी की तरह उतावलापन लिये हुए, कहीं बादलों की गड़गड़ाहट जैसी भायनकता और कहीं कोकिल के पंचम स्वर का अनुसरण करने वाली होती है ! शब्दों का आयोजन श्री विश्वनाथ सत्यनारायण को विशेष आकर्षित करता है। इसी को वे उत्तम कोटि का साहित्य मानते हैं और औरों से मनवाने की निरन्तर चेष्टा करते हैं। इसी का वे स्वयं अपनी रचनाओं में भरसक अनुष्ठान करते हैं।

इस प्रकार श्री विश्वनाथ सत्यनारायण साहित्यिक क्षेत्र में अद्वितीय स्थान के अधिकारी हैं। विस्तार, विविधता, विद्वता, गम्भीरता, उदात्तता, सहृदयता, रसात्मकता—ये सभी गुण उनके साहित्यिक व्यक्तित्व में प्रचुर मात्रा में विद्यामान हैं।

इस साहित्यिक वैशिष्ट्य के साथ–साथ श्री विश्वनाथ सत्यनारायण का वैचारिक पक्ष है जो उनकी सारी रचनाओं पर अपनी अमिट छाप डाल हुए है। इस पक्ष को समझे बिना सत्यनारायण जी का साहित्यक पक्ष भी पूर्ण रूप से नहीं समझा जा सकता। श्री विश्वनाथ सत्यनारायण एम.ए. भी हैं और प्राचीन परम्परा एवं संस्कृति के मर्मज्ञ भी। वेदों, उपनिषदों एवं शास्त्रों के वे अच्छे ज्ञाता भी हैं और साथ ही अंग्रेजी साहित्य तथा अन्य आधुनिक शास्त्रों के पारखी भी। उनके साहित्यिक व्यासंग का प्रारंभिक काल देश के इतिहास में बड़े उथल-पुथल का काल था। इस प्रकार सत्यनारायण जी के व्यक्तित्व में परस्पर मेल न खाने वाले दो सांस्कृतिक प्रवाहों का समावेश हुआ। समावेश क्या हुआ, संघर्ष उत्पन्न हुआ। सत्यनारायण जी के विचार प्राचीन भारतीय वैदिक संस्कृति एवं परम्परा में शत-प्रतिशत पगे हैं। जैसा कि उन्होंने ‘सहस्रफण’ के नायक से कहलवाया है, वे सोलहों आने ‘वैदिक’ हैं।

अँग्रेज़ी पढ़ाई की सत्ता के कारण एवं तत्कालीन ब्रिटिश सरकार का आसरा लेकर भारतीय संस्कृति पर निरन्तर दुराक्रमण करने वाले अन्य प्रभावों के कारण सत्यनारायण जी के व्यक्तित्व में एक प्रतिक्रिया की प्रवृत्ति-सी उत्पन्न हुई। प्रतिभावान एवं विद्वान होने के नाते किसी भी प्रकार के ढोंग उसे उन्हें चिढ़ थी। आधुनिक सभ्यता के नाम पर समाज में नये प्रकार के पाखण्ड एवं अन्याय का जो दौर-दौरा चल पड़ा, उससे सत्यनारायण जी की आत्मा खीझ उठी। हमारी संस्कृति के मूल्य तत्त्वों को समझे बिना ही उसकी ओछी आलोचना करने का जो फैशन सर्वत्र चल पड़ा था, उसका खण्डन करने के लिए सत्यनारायण जी की प्रभावशाली लेखनी बारम्बार उठी है। उनका तर्क पक्का है, विद्वता अपार है, वाग्वैदग्ध्य अचूक है और सद्भावना अप्रतिम। एक बात में कहना हो तो ‘‘स्वधर्मे निर्धनं श्रेयः परधर्मो भयावह:’’—यही उनकी पृष्ठभूमि का सारांश है। यह पृष्ठभूमि लगभग उनकी सारी रचनाओं में मिल सकती है। परन्तु सबसे अधिक व्यापक रूप में वह प्रायः ‘सहस्रफण’ में विद्यामान है।

‘सहस्रफण’ भी विश्वनाथ सत्यनारायण का सर्वमान्य बृहत् उपन्यास है। ‘ज्याँ क्रिस्टोफ़ी’ जैसी रचनाओं की तरह इस उपन्यास में इतिहास भी है, समाजशास्त्र भी है, राजनीति भी है, प्राचीन संस्कृति का सर्वश्रेष्ठ निरूपण भी है इस कला की पराकाष्ठा भी है, शास्त्रार्थ भी है, डाँट-फटकार भी है और बहुत बड़ी मात्रा में रसात्मकता भी है। कुछ आलोचकों ने ‘सहस्रफण’ को उपन्यास कहना भी पसन्द नहीं किया था। प्रायः उनका मत इस अर्थ में ठीक है कि ‘सहस्रफण’ उपन्यास के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है।

‘सहस्रफण’ का मुख्य विषय है, भारतीय जीवनदर्शन में वर्तमान ‘सन्धिकाल’ का विवेचना एवं विश्लेषण। लेखक ने एक ऐसे युग का चित्रण किया है प्राचीन मूल्यों का उच्चाटन हो रहा है, पर उसके स्थान पर उतने ही स्पृहणीय नये मूल्यों की स्थापना नहीं हो पाती। परिणाम है संघर्ष, अनिश्चितता, अवनति। ऊपरी तड़क-भड़क से चकाचौंध करने वाली तथाकथित आधुनिक सभ्यता में सचमुच कितना सार है, कितनी कल्याणकारिता है, कितनी लक्ष्य-शुद्धि है और कितना ढोंग और ढकोसला है—इसका मार्मिक विवेचन ‘सहस्रफण’ में किया गया है। उपन्यास का निष्कर्ष यह है कि भारतवर्ष में समाज-रचना की नींव हमारे चिन्तन-आदर्शों के आधार पर ही होनी उचित है। किसी और आधार पर वह नींव खोखली ही रहेगी।

‘सहस्रफण’ के सन्देश को इतने थोड़े शब्दों में सूत्र-रूप में कह डालना, प्रायः उचित न होगा। अन्ततोगत्वा यह एक साहित्यिक रचना है, वेदान्त या शास्त्र की पोथी नहीं, अतएव इस वृहत रचना के कलात्मक एवं रसात्मक पक्ष को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
यही उचित है।

‘सहस्रफण’ के पात्रों का चरित्र-चित्रण अनूठा है। पुराने जमींदार कृष्णम नायडू, उनके बेटे रंगाराव और पोते हरप्पा का चित्रण तीन पीढ़ियों के परस्पर अन्तर को स्पष्ट करता है। देवदासी, गणाचारी, हरिया, रुक्मिणम्माराव, रामेश्वर शास्त्री—ये सभी पात्र अत्यन्त उदात्त हैं; तथापि उनका युग समाप्त होता दिखाया गया है। कोई चाहे या न चाहे, उनके पुनरागमन की कोई सम्भावना नहीं। लेखक ने इस वास्तविक स्थिति को स्वीकार किया है। यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि सत्यनारायण जी ने इस अस्तंगत व्यवस्था के अन्तिम चरण को उसके अत्यन्त वैभवपूर्ण स्वरूप में चित्रित अवश्य किया, परन्तु यह कहीं नहीं कहा कि वही व्यवस्था आगे भी सदा के लिए बनी रहे। आदर्श युवराज के रूप में हरप्पा का महान चित्र लेखक ने अवश्य उपस्थित किया है; परन्तु साथ-साथ यह भी स्पष्ट किया है कि अन्य सभी युवराज भोग-लालसा एवं रंग-रलियों में आपाद-मस्तक डूबे हुए हैं।

कुमारस्वामी, मंगम्मा, रामेश्वरम, ईटसन, चन्द्रारेड्डी, कबीर, मागन्ना आदि ऐसे पात्र हैं जो मिला-जुला व्यक्तित्व रखते हैं और साधारण समाज में पाये जाते हैं। किसी भी युग में उन्हें देखा जा सकता है।

बच जाते हैं अरुन्धती और धर्माराव—प्रकृति और पुरुष। अनादि के प्रतीक, कालनिरपेक्ष वैदिकता के प्रतिनिधि—ये पात्र जन्म लेते हैं, हँसते हैं, रोते हैं, शरीर से मिट भी जाते हैं। परन्तु ये ऐसी विभूति हैं जो शास्वत तत्त्वों पर निर्मित हैं। अतएव ये शाश्वत हैं। इस धर्म-भूमि में वे कभी नष्ट नहीं होंगे। ‘सम्भवामि युगे युगे’ का वे अनुसरण करते हैं।

श्री विश्वनाथ सत्यनारायण वस्तुतः प्रगति के विरोधी नहीं है। प्राचीन संस्कृति पर उनकी जो आस्था है, उसका आधार अन्ध-श्रद्धा नहीं है, साम्प्रदायिक कट्टरपन नहीं है असहिष्णुता नहीं है। यह सच है कि जगह-जगह पर धर्माराव की बातों में थोड़ा बहुत वितण्डावाद-सा झलकता है। परन्तु यह वितण्डावाद के आक्रमणकारी विपक्षों के आक्रमणकारी तथा आततायी वितण्डावाद की रोक-थाम के लिए उद्दिष्ट है, ‘स्वधर्म की रक्षा के लिए अभिप्रेत है। उसमें स्वयं दुराक्रमण करने की प्रवृत्ति लेश-मात्र भी नहीं। ‘सहस्रफण’ में कई सन्दर्भों से यह बात देखी जा सकती है। समाज सुधार के नाम पर जो अन्याय, लूट-खसोट और ढोंग बाजार गरम है उसकी कड़ी आलोचना जगह-जगह मिलती है। आधुनिक जीवन के कई निकृष्ट पहलुओं की पोल खोली गयी है।

कहीं-कहीं तो दलीलें बड़ी ही तीखी हैं। तथापि उनकी सचाई पर किसी को सन्देह नहीं हो सकता। लेखक के सभी विचारों से सभी पाठकों का सहमत होना आवश्यक नहीं; परन्तु जिस ढंग से देश की वर्तमान अवनति का वास्तविक चित्र लेखक ने खींचा है, वह निस्सन्देह प्रभावशाली है।

श्री विश्वनाथ सत्यनाराण की धार्मिक आस्था और विचारधारा के विषय में विवादों की भी कमी नहीं है। कई लोगों ने उन्हें प्रगति-विरोधी और कट्टर सनातनी बताया है। विशेषकर एक अखिल भारतीय पुरस्कार के सन्दर्भ में (जिसके नाम का उल्लेख यहाँ अनावश्यक है) सत्यनारायण जी के साहित्यिक व्यक्तित्व को काफ़ी बदनाम किया गया। कहना होगा कि आन्ध्र प्रदेश के बाहर कुछ लोग उन्हें इस बदनामी के ही प्रकाश में पहचानने लगे। इस प्रस्तावना के सन्दर्भ में मुझे सत्यनारायण जी की वकालत करना नहीं है। जैसा कि मैं कह चुका हूँ, उनके विचारों से मेरा या किसी अन्य व्यक्ति का पूर्णतया सहमत होना आवश्यक नहीं। तथापि मैं यह अवश्य अनुरोध करूँगा कि सत्यनारायण जी के धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक और साहित्यिक आदि विचारों की प्रशंसा अथवा आलोचना करने से पहले ‘सहस्रफण’ को कुछ गहराई से, कुछ बारीक़ी से पढ़ लेना अच्छा होगा। यह सच है कि वाद-विवाद के सन्दर्भ में कुछ जगहों पर सहस्रफण’ का नायक ऐसी दलीलें पेश करता है जो कट्टरपन्थी कही जा सकती हैं।

परन्तु कथा-संयोजन में, पात्र-पोषण में, चरित्र-चित्रण में और वर्तमान वस्तु-स्थित के विश्लेषण में लेखक ने प्रगति-विरोधी दृष्टिकोण नहीं अपनाया है। राष्ट्रीय भावना को सर्वत्र सराहा है। जगह-जगह पर बड़े उद्योगों की अर्थव्यवस्था को हमारे लिए अनुकूल बताकर ग्रामीण उद्योगों की आत्म-निर्भर अर्थव्यवस्था का समर्थन किया है। उपन्यास का नायक धर्माराव एक सन्दर्भ में अपनी पत्नी का चरण-संवहन करता है। पत्नी के मना करने पर वह कहता है कि पति-पत्नी के सम्बन्ध में अधिकता और न्यूनता का कोई प्रश्न नहीं उठता। कोई भी सनातनी लेखक अपने कथा-नायक के दृष्टि-कोण को इस प्रकार चित्रित नहीं कर सकता। मंगम्मा भ्रष्ट हो जाती है।

परन्तु लेखक ने उसे भ्रष्टा के रूप में तज नहीं दिया। वही भ्रष्टा भक्तिन के रूप में अवतीर्ण होती है और त्याग एवं सौजन्य का उज्ज्वल दृष्टान्त उपस्थित करती है। एक पतिता का ऐसा चरित्र-चित्रण करना किसी कट्टर सनातनी लेखक के लिये असम्भव है। वेश्या रत्नागिरि एवं वेश्या-पुत्री गिरिका का जो चरित्र-चित्रण ‘सहस्रफण’ में किया गया है, वह किसी भी साहित्यिक के लिए गौरवास्पद है। उन दोनों माँ-बेटियों की जो पवित्र कल्पना सत्यनारायण जी ने की है, शायद ही किसी अन्य ने की हो। देवदासी का ऐसा दिव्य सुन्दर चरित्र किसी कट्टरपन्थी सनातनी प्रगति-विरोधी लेखक की लेखनी से कदापि सम्भव नहीं। ‘सहस्रफण’ में आदि से अन्त तक विवाह के मामले में जाति का कहीं प्रतिबंध नहीं है। क्या रामेश्वर शास्त्री, क्या कुमारस्वामी, अन्य जाति वाली स्त्रियों से विवाह करके आदर्श दाम्पत्य निभाते दिखाये गये हैं ? सुख और आनन्द का उपभोग करते पाए गये हैं ? विवाह के विषय में ऐसा दृष्टिकोण अपनाना किसी भी प्रगति-विरोधी सनातनी लेखक के लिए सम्भव नहीं है।

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