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खोखले पेड़ों के शहर में

अशोक कुमार शर्मा

प्रकाशक : शाश्वत प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5845
आईएसबीएन :81-86509-40-2

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प्रस्तुत उपन्यास ‘खोखले पेड़ों के शहर में’ आज की तथाकथित लोकतन्त्रीय व्यवस्था का जीता-जागता दस्तावेज़ है।

Khokhale Pedon Ke Shahar Mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


अनेक पुरस्कारों से सम्मानित यशस्वी कथाकार श्री अशोक कुमार शर्मा का यह पाँचवा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके एक बृहत उपन्यास है। इससे पूर्व उनके एक बृहत उपन्यास ‘सलाखों से छलकी हुई सुगन्ध’ को हरियाणा साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया था। प्रस्तुत उपन्यास ‘खोखले पेड़ों के शहर में’ आज की तथाकथित लोकतन्त्रीय व्यवस्था का जीता-जागता दस्तावेज़ है।

सरकारी तन्त्र के पेड़ों का हर तना, उसकी हर शाखा बाहरी हरियाली के बावजूद कितनी खोखली और बेमानी हो चुकी है, यही इस उपन्यास का कथ्य है और इस सबका मुख्य कारण है, आज की आर्थिक स्थितियाँ तथा रातों-रात लखपति ही नहीं अपितु करोड़पति बन जाने की महत्वाकाक्षाएँ। हमें विश्वास है कि शर्मा जी की पूर्वप्रकाशित कृतियों की तरह प्रस्तुत कृति भी पाठकों के मन-मस्तिष्क पर अपनी रचनाधर्मिता का गहरा प्रभाव छोड़ने में कामयाब होगी।


पूर्वकथ्य



सभ्यता के कई स्तर तथा संस्कृति के अनेक सोपान तय करने के पश्चात आज का मानव पत्थर-युग से निकलकर, वर्तमान के ‘हाई टैक’ युग तक पहुँचा। अनेक पेड़-पौधों तथा जीव–जन्तुओं से अटे पड़े वनों से निकलकर, कंकरीट के जंगलों में उसने निवास बनाया। गहरी अँधेरी कंदराओं से बाहर आकर चाँद तक की उड़ान भरी। विकास के क्रम में उसके शरीर में परिवर्तन आए उसका चेहरा बदला तथा मस्तिष्क के छोटे-से कटोरे में उसने ज्ञान के विशाल समुद्र भर लिये, लेकिन मन में कुछ आदिम प्रवृत्तियाँ फिर भी यथावत् बनी रहीं। जो पास है, हाय में है; उससे असन्तुष्ट तथा उदासीनता, और जो नहीं है, उसके प्रति लालसा, उसे पाने की बेचैनी। संभवतः इसी प्रवृत्ति ने उसे निरन्तर विकास और प्रगति के लिए बाध्य और प्रेरित भी किया होगा।

लेकिन वन्य जीवन या पत्थर-युग से जारी उसकी लड़ाई आज भी चल रही है। तब अपनी जान बचाने के लिए फलों अथवा कंदमूल के लिए, भोज्य शिकार के लिए लड़ता था; आज पैसे के लिए लड़ रहा है। निःसन्देह लड़ाई का स्वरूप बदल गया है, शस्त्र बदल गए हैं। नेता घोटाले कर रहे हैं, कर्मचारी रिश्वत चाहता है, व्यापारी कालाबाजारी में लिप्त है, और पेशेवर मार्गदर्शक न होकर बलैकमेलर या दलाल बन गए हैं। पैसे के पीछे हर कोई भाग रहा है; इस बात से बेपरवाह कि इस दौड़ में वह इतना हाँफ-थक चुका है कि पैसे से मिलनेवाली सुविधाओं को उपयोग करने का सामर्थ्य ही उसमें नहीं बचा या फिर पैसे से अधिक मूल्यवान कुछ पीछे छूट गया है या फिर उस अतिरिक्त पैसे के साथ-साथ कुछ विषाक्त भी उसके शरीर अथवा परिवार में घुस आया है।

इच्छा यही रहती है कि अधिक पैसे का मालिक होने के कारण उसके अस्तित्व का पेड़ बाहर से ऊँचा-मोटा और हरा-भरा दिखना चाहिए। इस बात की परवाह नहीं कि भीतर से कितना घुन लग गया, तना खोखला हो चुका अथवा जड़े मिट्टी छोड़ रही हैं। आनेवाली तेज़ आँधियों से जूझते शहर की कहानी है; उपन्यास में।


-अशोक कुमार शर्मा

खोखले पेड़ों के शहर में
एक


‘एक और पेड़ गिर गया !’ अनायस ही सपना के मुँह से निकला। दफ्तर के प्रांगण में पहला कदम उसने अभी रखा नहीं था, मेन गेट से बाहर ही थी वह। बाजीगर मौहल्ले के दफ्तर तक प्रतिदिन उसे छोड़ने आने वाला आटो रिक्शा, अभी उसके पीछे खड़ा पंख-से फड़फडा रहा था। अपने घर से दफ्तर जाने के लिए निकली थी तो मौहल्ले के सामने सेवा समिति स्कूल की चारदीवारी के ऊपर एक युवा, स्वस्थ और हरा-भरा पेड़ औंधे मुँह गिरा पड़ा दिखाई दिया था। मच्छी मौहल्ला, ईदगाह रोड तथा राय मार्किट पार कर। स्टाफ रोड पर पहुँची थी तो इस सैनिक क्षेत्र की चौड़ी चिकनी सड़क के दोनों किनारों पर उगे घनी छाया-वाले पेड़ों में से कई, इधर-उधर लुड़क पड़े थे। कइयों की टूटी हुई हरी शाखाएँ काली सड़क पर बिखरी पड़ी थीं। सुबह का तेज़ रफ्तार ट्रैफिक उनमें से सँभल-सँभलकर गुज़र रहा था।

दफ्तर से थोड़ा पहले, पीर के मज़ार के ठीक पीछे-वाला पेड़ जिसकी नीचे झुकी घनी शाखाएँ मज़ार के ऊपर छाता-सा ताने रहती थी, जड़ से उखड़कर काफ़ी नीचे झुक आया था। एक शाखा सड़क पर अटक कर, खम्भे की तरह उसे ज़मीन पर आ गिरने से रोके हुए थी। मज़ार पर हरे कपड़े पहने हमेशा बैठा रहनेवाला सेवादार, अगरबत्तियाँ जलाने की बजाए; हाथ में पकड़े अंगोछे से; वहाँ उड़कर गिरी छोटी शाखाएँ और सूखे पत्ते साफ़ कर रहा था।

स्टाफ रोड से दफ्तर के मेन गेट तक पहुँचेवाली फर्लांग-भर लम्बी लिंक रोड; जिसके दोनों ओर विवाहित सैनिकों के दो मंजिला फलैटों की कतारें थीं और लिंक रोड तथा फ्लैटों के बीच के स्थानों पर; फूल-पौधों क्यारियों के अतिरिक्त सफ़ेद के सीधे ऊँचे पेड़, मुस्तैद सैनिकों की तरह कतारबद्ध सीना ताने खड़े रहते थे-उनमें से कई पेड़ धराशायी हो चुके थे।

सपना को कुछ भी असामान्य नहीं लगा था। वह समझती थी, पेड़ों की नियति है यह। वे कटने या गिरने के लिए ही उगते हैं। कटने से बच जाएं तो गिरते ही हैं। पेड़ कभी जड़ों से मिट्टी सरक कर बह जाने पर, कभी टक्कर के कारण या फिर कभी तना खोखला हो जाए तो ज़रा-सी तेज हवा भी उन्हें बीच में से तोड़ कर गिरा देती है। .....और फिर मई का महीना है यह। अक्सर आँधिया आती रहती हैं। दिन भर हवा बन्द रही हो तो शाम को अथवा रात को बीचोंबीच आँधी आ ही जाती है।

महलनुमा बड़ी कोठियाँ अथवा बहुमंजिला इमारतों के दड़बेनुमा फ्लैटों में रहने वालों को इसके आने का, बन्द दरवाज़ों, खिड़कियों के खड़कने से पता चलता है। बिजली की आँख-मिचौली तथा पावर कट से परेशान जो लोग मकान के सामने गली में अथवा सड़क किनारे खाट बिछाकर सोते हैं या फिर सौभाग्य से उनके पास अपनी छत और हो और छत पर बिस्तर लगाकर सोते हों, आँधी को काफ़ी करीब से देख लेते हैं, आँखों में भरी धूल के बावजूद भी उड़ते हुए बिस्तर, कपड़े, खनकते सरकतें, रात को पीने के लिए रखे पानी के बर्तन, उड़न तश्तरी की तरह सिर के ऊपर से गुजर जाने वाले, टू़टे हुए साइन बार्ड, कहीं दूर से उड़ आई सूखी झाड़ियाँ, पेड़ों की टूटी शाखाएँ या फिर पत्ते। आँखों, कानों और मुँह में धूल भरती है तो मस्तिष्क में भर जाता है आसपास के पेड़ों के झुमने का स्वर।

कई बार लगता है कि आँधियां आती ही हैं पेड़ों के लिए। बिछुडें प्रेमी हैं, गले मिलते हैं; आलिंगन करते हैं। एक दूसरे को बेतरह चूमते हैं, दैत्य नृत्य करते हैं, भावातिरेक में हुंकारते हैं। कोई पेड़ जो ज्यादा भावुक होता है, विनम्रता से दोहरा होकर कमर तुड़वा लेता है तो कोई हाथ-पाँव। क्षत-विक्षत अंग छतों पर, छज्जों या बिजली के तारों में उलझे मिलते हैं। कोई-कोई पेड़ भावातिरेक में हृदयाघात का शिकार हो जाता है; आँधी के विदा हो जाने के बाद खेतों में बागों में अथवा सड़क किनारे मृत पाया जाता है, अलगी सुबह !

उसकी मौत की खबर किसी अखबार में नहीं छपती, न किसी टेलीविजन चैनल पर दिखाई जाती है खबर छपती है या दिखाई जाती है तो किसी वी. आई. पी. की कार अथवा खिड़की का शीशा टूट जाने की, टूटी हुई बिजली की तारों के कारण लगी आग से किसी फूस की छत-वाली झोपड़ी के जल जाने की अथवा किसी दुकान के जलकर खाक हो जाने की या फिर घनी धूल, तेज़ हवा के शोर और कम दिखाई देने के कारण; आपस में टकरा गए वाहनों की, उनमें फँसे शवों के निकाले जाने की। पेड़ों की बात कौन करता है, बशर्ते कि उनके गिरने से किसी और का जान-माल का नुकसान न हुआ हो।

लेकिन दफ्तर की चाहरदीवारी के भीतर मुख्य द्वार के समीप ही; एक बड़ा पेड़ गिरा देख सपना क्यों सिहर-सी गई थी, स्वयं भी समझ नहीं पा रही थी, वह। चारदीवारी के भीतर इधर-उधर छितराए बीसियों पेड़ और भी तो थे; जो सही-सलामत खड़े थे। जंगल-जलेबी का वह टुण्डा पेड़ भी सही-सलामत खड़ा था; कोई सात वर्ष पहले जिसकी एक शाखा सपना के पति किशोर को अपने ऊपर चिपटाए नीचे आ गिरी थी; और सिर में लगी चोट के कारण किशोर ने कुछ घंटों बाद ही दम तोड़ दिया था। इसी कारण उसे अपने पति के स्थान पर इस कार्यालय में नौकरी मिली थी। प्रायः वह उस पेड़ को देखती रहती थी, एक विचित्र-सा सम्बन्ध अनुभव होता था, उसके साथ। अक्सर पेड़ पर उस निशान को देखती थी, जहाँ से वह शाखा अपनी जड़ से उखड़ी थी। पुराने घाव के दाग़–जैसा दिखता था, वह। एक ओर की बड़ी टहनी को खो चुका वह पेड़ किसी ऐसे व्यक्ति-सा लगता था जिसकी एक भुजा काट दी गई हो।

सपना लंच के समय में कभी उस पेड़ के नीचे आ बैठती थी तो किशोर उसे अपने आस-पास दिखाई देने लग जाता था, कभी पेड़ पर चढ़ा जंगल-जलेबी की फली चबाता दिखता था, कभी पक्षी बना एक शाखा से दूसरी शाखा पर फुदता दिखता। और अब जब कभी किशोर दिखाई नहीं देता था, पेड़ किसी धूनी रमाए साधू-सा लगने लगता; जिसके तप कर काला हुए चेहरे की सलवटों में उसका अतीत लिखा था और चिलम पी-पीकर मटमैली हो गई उसकी सफ़ेद दाढ़ी मूछों के बीच कसकर बन्द किए उसके रूखे-सूखे होंठ जैसे सपना का भविष्य बताने को आतुर हों।




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