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कंचनतारा - 2

धर्मसिंह चौहान

प्रकाशक : अनुरोध प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5834
आईएसबीएन :81-88135-25-9

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विभिन्न स्वरूपों में प्रतिष्ठित नारी आँगन की बहुवर्णित महिमा से लेकर देवत्व के गुणों तक महामण्डित है।

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Kanchan Tara -2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत उपन्यास ‘कंचनतारा’ (दो भाग) नैतिक संस्कारों में पली-बढ़ी एक ऐसी युवती की कहानी है; संघर्ष-गाथा है जो मात्र अपने दैहिक अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उस समय तक सबका पालन करती रहती है, जब तक उसके ज्ञान चक्षु नहीं खुल जाते। शरीर-प्राप्ति का वास्तविक अर्थ समझते ही वह ऐसी नयी पकड़ लेती है जिस पर अग्रसर होकर उसे सच्चे साथी मिलते हैं; स्वाभाविक संवेदनाओं की तरल तरंगें मिलती हैं और परिपक्व संगति, अव्यक्त पीड़ा, संबंधों की अभिशप्त दरिद्रता तथा अपनों की अनूठी निकटता और मिलता है जीवन-मूल्यों का स्नेहिल परिप्रेक्ष्य....और इन सबके प्राप्त होते ही वह सदा-सदा के लिए अमरत्व को प्राप्त कर लेती है। उसकी योगगाथा उस धरती की नहीं अपितु सम्पूर्ण वसुधा के कण-कण में व्याप्त हो जाती है। विश्वास है, लेखक के पूर्व प्रकाशित अन्य उपन्यासों की तरह ही इसका भी पाठकों द्वारा भरपूर स्वागत होगा।

दो शब्द


विभिन्न स्वरूपों में प्रतिष्ठित नारी आँगन की बहुवर्णित महिमा से लेकर देवत्व के गुणों तक महामण्डित है। इसकी बृहत क्षमताओं का विस्तार सौम्यता, शालीनता एवं कोमलता का अनुपम प्रारूप बनकर कण-कण में व्याप्त है। कहीं इसमें वसुन्धरा-सी धैर्यशक्ति के दर्शन होते हैं तो कहीं यह शीतल-निर्मल सरिता-जैसी निर्बाध रूप में बहती चली जा रही है, कहीं पर्वत-सदृश्य अटल है तो कहीं पत्नी के रूप में अर्धांगिनी बनकर सपाट बिछी हुई प्रतीत होती है। कहना होगा। सहस्त्रों युगों से यह पावन विभूति सद्यःसाहचर्य तथा जननस्त्रोत का श्रेष्ठमत प्रतीक बनकर इतिहास के दृश्य-अदृश्य पन्नों पर सघन रूप में निहित है।

मानवी भावनाओं का सुनियोजित आदर करने वाली, अनेकानेक मधुर सम्बन्धों का एक साथ निर्वाह करने वाली, प्रेम-वात्सल्य की समग्र एवं प्रेरक-प्रतीक, जगत-श्रृंखला का स्निग्ध सम्पर्क, स्वजन से सहज रूप में एकाकार होनेवाली, अनुभूतियों से पूर्ण तथा सांसारिक ध्रुवों की सत्य-सटीक परिभाषित अनुप्रेरणा आज के वैज्ञानिक-युग में यदि दीन-हीन बना दी गई है तो इसका कारण कोई अभिशाप नहीं बल्कि मनुष्य की क्षुद्र विकृति है जिसके वशीभूत होकर वह नारी के गौरवमय तथा चिरसंचित उपलब्धियों को एक किनारे करके उसे निर्जल-जर्जर बना देने की राहों में अग्रसर रहता है और प्रतिबिम्बों का कोहरा जमाकर उसकी अक्षत-निरापद गरिमा को धूमिल करने का दुष्प्रयत्न करता रहता है जबकि सृष्टि के अंन्तिम क्षणों तक नारी-प्रतिष्ठा सुभाषित प्रमाणों के साथ अविजित-अक्षुण्ण रहेगी क्योंकि नर किसी न किसी नारी के गर्भ की ही उत्पत्ति है।

यदा-कदा नारी को सर्वसुलभ-भोग्या सरीखे अभद्र दृष्टान्त देकर मलिन करने की धृष्टता की गई है पुरुष भूल गए हैं कि इनको पूर्ण रूपेण पाने की उत्कण्ठा में समय-समय पर रक्त की अनगिनत नदियाँ भी बहाई गई हैं वस्तुतः कुछ लोग भले ही कुत्सित विचारों तथा घृणित उपकरणों का बेसुरा सहारा लेकर सर्वस्व को कंलकित करने का दुष्साहस करने लगे हैं परन्तु इस सत्य को कदापि अन्धकार में नहीं धकेला जा सकता है कि समस्त सृष्टि को सशक्त रूप में निर्मित एवं विकसित करने में सर्वाधिक सुदृढ़ भूमिका स्त्री-जाति की ही है। लता की भाँति अवलम्ब पर फलने-फूलने में बदनाम नारी अन्यान्य की जीवनचर्या का कितना विपुल स्तम्भ बनती है। इस कटु सत्य को विस्मृति कर देनेवाले ऐसे पूर्वाग्रही संकीर्णताओं से ग्रसित ही कहे जाएंगे।

रीतियों-कुरीतियों, रूढ़ियों औऱ परम्पराओं जैसी अगणित सामाजिक अदृश्य आधार के बल पर नारी को सदैव के लिए कुन्द बनाकर रख पाना अब नितान्त असम्भव है। भावनाओं में सतत बह जानेवाली सरलता नारी ने स्वार्थी मनुष्य की कुण्ठित लिप्साओं को भँलीभाँति पहचान लिया है। तभी तो आज यह पूरे आत्मविश्वास एवं आत्माभिमान के साथ विविध कर्मक्षेत्रों में उतर पड़ी है। नारीत्व की मर्यादा को अपराजित बनाए रखकर, कर्मयोग से अभिभूत कर देना उसमें अपना मूलमन्त्र बना लिया है और समर्पण के अर्थ परिवर्तित कर दिए हैं।

प्रस्तुत कृति (दो भागों में) संस्कारों में पली-बढ़ी ऐसी ही एक युवती की संघर्ष-गाथा है जो मात्र अपने दैहिक अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उस समय तक सबका मूक पालन करती रहती है, जब तक उसके ज्ञान-चक्षु नहीं खुल जाते। काया-प्राप्ति का वास्तविक अर्थ समझते ही ऐसी नवीन राह पकड़ लेती है। जिस पर उसे सच्चे साथी मिलते हैं। और मिलती हैं, स्वाभाविक संवेदनाओं की तरल-मृदु लहरें, परिपक्व सहतचर्य, अव्यक्त पीड़ा सम्बन्धों की अभिशप्त दरिद्रता और अपनों की अनूठी निकटता तथा जीवन मूल्यों का शोभनीय पक्ष-विपक्ष..स्नेहिल परिप्रेक्ष्य और इन सबके प्राप्त होते ही सदा-सदा के लिए अमरत्व को प्राप्त कर लेती है। उसकी यशोगाथा उस धरती ही नहीं अपितु सम्पूर्ण वसुन्धरा के कण-कण में व्याप्त हो जाती है।

कंचनतारा

एक

सारे दिन समस्त ग्राम्य परिपेक्ष्य पर किसी पावन-पर्व-जैसी उमंग-तरंग छाई रही। स्त्री-पुरुष तथा बाल-वृद्ध सभी ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। विवाह समारोह हरदौली के वर्षों पुराने शिवालय के प्रांगण में सम्पन्न हुआ। हवन वेदी पर सजीली दूल्हे के रूप में जुगलकिशोर के सिर पर सेहरा बँधा था, जबकि दुल्हन के परिधान में रत्ना अत्यन्त सुन्दर लग रही थी। गाँव का आधा भाग वधू-पक्ष में मिल गया था तो शेष भाग स्वयमेव सहर्ष वर-पक्ष की ओर सम्मिलित हो गया था। सान्ध्य समय की मधुरिम बेला में मन्त्रोच्चार के मध्य भावरें पड़ीं। कन्या-दान देवराज ने किया। फेरे पड़ने तक सरिता वधू-परिवार का अंग थी लेकिन दोनों के परिणय-सूत्र में बँधने के बाद भी निष्क्रिय न रह सकी। सहेलियों संग हँसती-खेलती वर-पक्ष में जा मिली। सरिता एक पल के लिए भी रत्ना से अलग नहीं हुई, अन्त तक हँसी-ठिठोली करती रही। उत्साह देखते ही बनता था। द्वार-प्रवेश तक दुल्हन का साथ निभाया।

उधर कई स्त्रियों के साथ माधो चाची जुगलकिशोर के घर का जिम्मा सँभाले थी। स्वागत-सत्कार जैसे कई दायित्वपूर्ण कार्य उसी की देखरेख में चल रहे थे। कई परम्परागत वैवाहिक प्रक्रियाएँ उसी ने सम्पन्न कराई थीं। पुराने अनुभव कई जगह काम आए। अँधेरा घिरने के बाद ही उसका अपने घर पर लौटना सम्भव हो सका।

जुगलकिशोर का घर गाँव के सिरे पर ही था। घर क्या था, घर के नाम पर एक सामान्य कमरा तथा उसके आगे खपरैल का औसारा, उसी के बग़ल में छोटी-सी रसोई। यद्यपि आँगन कोई विशेष बड़ा न था और न ही उसके घेराव के लिए चारदीवारी बनाई गई थी, तथापि आशा के विपरीत सब-कुछ साफ-सुथरा था। घर-आँगन लिपा-पुता हुआ। आँगन के कोने में उगी बेलों के सिरे खपरैल पर फैले हुए थे। जो सिरे ऊपर न पहुँच सके थे, उन्होंने जमीन के पास ही फैलकर अच्छा-खासा झुरमुट-सा बना लिया था। लता-पुष्पों की सुगन्ध आसपास के वातावरण में व्याप्त हो गई थी।

इस समय कृष्ण पक्ष के कारण व्योम-तल पर अनगिनत तारागण झिलमिलाने लगे थे। शरदऋतु के आगमन से परिवेश में हल्की शीतलता का समावेश हो चुका था। पास-पड़ोस वाले अपने दैनिक कार्यों को निबटाकर घरों में दुबकने लगे थे। कई दिन पहले हुई हल्की बूँदा-बाँदी ने हवाओं में ठण्ड-भर दी थी। गलियों में आवारा विचरण करने वाले कुत्तों का संघर्ष-स्वर कहीं दूर से आता सुनाई दे रहा था। शायद वे अपनी साम्राज्य-सीमा के अतिक्रमण पर परस्पर पूरी शक्ति से उलझे थे; एक के पीछे अनेक द्वारा अभिव्यक्ति स्वरूप उच्च स्वर में विलाप कर रहे थे। सबके चले जाने के बाद घर में दो प्राणी ही अकेले रह गए। पलंग के एक सिरे पर बैठी रत्ना मौन-व्यस्त जुगलकिशोर को उड़ती नज़रों से देख लेती जो कमरे में रखे हुए सीमित सामान को उठाकर कभी इधर-से-उधर रखता और कभी उधर-से-इधर ले आता। कभी गैर ज़रूरी सामान को औसारे में रख आता तथा कभी उसे उठाकर पुन: कमरे के भीतर लाकर रख देता। कनखियों से रत्ना को भी देख लेता, मगर वह उससे पहले ही दृष्टि घुमा लेती मानों उसके अत्यावश्यक कार्यों की उसे कोई भनक न मिल रही हो। अपने दूल्हे के शर्मीलेपन पर वह मन-ही-मन अवश्य मुस्करा देती, किन्तु प्रत्यक्ष में कुछ प्रकट न होने दे रही थी। हँसी का आवेग कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता तो दूसरी ओर मुँह फेर लेती।

इसी तरह काफ़ी समय निकल गया। दोनों गुमसुम रहे। परस्पर कोई बातचीत न की जबकि अन्तर्मन एक-दूसरे से संबंधित थे। प्रकटत: ऐसा प्रतीत होता था मानों उन्हें किसी से कोई सरोकार न हो, परस्पर सर्वथा अपरिचित हों। जुगल अभी भी अकारण व्यस्त था। दुल्हन सुहाग-सेज पर निश्चल प्रतीक्षारत विद्यमान थी।

उसी समय स्वभाववश रत्ना को विनोद सूझा। कुछ सोचकर वह पलंग से उठी और चुपके से बिना कोई आहट किए किवाडों को बन्द करके साँकल चढ़ा दी। पीठ फिरी होने के कारण जुगल इस अल्पावधि में की गई हरकत को देख न सका, परन्तु जब कुछ सामान उठाकर बाहर रखने के लिए आया तो साँकल चढ़ी हतप्रभ रह गया। अब बाहर जाने का कोई रास्ता न था, उसे इसलिए वहीं ठहर जाना पड़ा। इधर-उधर देखा तो रत्ना उसी जगह स्थिर बैठी थी, लेकिन उसको यह समझने में तनिक भी समय न लगा। कि यह शरारत उसी की हो सकती है। शायद उसकी अनावश्यक व्यवस्ता को भी वह भाँप गई थी; इसलिए जानबूझकर आवागमन का रास्ता अवरुद्ध कर दिया गया था। अब उसने स्वयं भी बन्द द्वार को खोलने का कोई प्रयास नहीं किया और न ही उसे ऐसा कोई औचित्य जान पड़ा, बल्कि सान्निध्य का सुअवसर उसके हाथ लग गया था।

उधर गठरी बनी बैठी दुल्हन अपनी कार्यवाही पर होनेवाली प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में थी; परन्तु जब कई क्षणों तक कोई सुगबुगाहट न मिली तो वह पलटकर देखने लगी। संयोग से उसी समय जुगल ने भी दृष्टि घुमाई। इस प्रकार बचते-बचते हुए भी दोनों की नज़रें हठात् परस्पर टकरा गईं। अब रत्ना स्वयं पर नियंत्रण न रख सकी। अपने भोले-भाले दूल्हे की लज्जामयी भंगिमाओं को देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ी।

प्रत्युत्तर में जुगलकिशोर भी मुस्करा उठा, परन्तु अपने चेहरे पर विचरती खिसियानी दीनता को विलुप्त न कर सका। भीतर की स्थिति स्वयमेव उसके मुख पर जड़वत् हो गई।
उसकी ऐसी दशा को देखकर चंचल रत्ना का उत्साह और भी बढ़ गया। तीक्ष्ण कटाक्ष करती हुई बोली, ‘लड़कियों की तरह शरमाना क्या जरूरी है ?’

‘नहीं तो...म...मैं कहाँ शरमा रहा हूँ।’ वह भी झोंपता हुआ अटककर कह उठा।
‘शरमा नहीं रहे तो फिर क्यों बेकार ही उठा-पटक में फँसे हो, क्यों बचे-बचे फिर रहे हो ?’
‘ऐसी बात तो नहीं है। मैंने सोचा.....।’
‘ज्यादा भोले बनकर मत दिखाओ। मैं तुम्हारे बारे में सब-कुछ जानती हूँ।’
‘मेरे बारे में ? क्या जानती हो मेरे बारे में ?’
‘बहुत-कुछ ! सरिता ने मुझे सबकुछ बता दिया है।’
‘क्या बता दिया है सरिता ने ?’ अब जुगल को कुछ-कुछ आशंका हुई। पता नहीं उस नटखट ने क्या उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ा दी हो।

‘मैं क्यों बताऊँ ? उसी से पूँछ लेना।’ रत्ना ने उसको अकारण उलझता देखकर और भी अधिक उलझाने का यत्न किया।
‘तुम मुझे ऐसे ही बहका रही हो।’ जुगल कुछ सँभलते हुए कहने लगा, ‘वह मेरी मुँह बोली बहन है। कुछ-न-कुछ कहकर मुझे हमेशा छेड़ती रहती है।’
‘मैं झूठ बोल रही हूँ ?’ अबकी बार रत्ना ने उसके भोलेपन पर उठती हँसी को बरबस दबाकर कृत्रिम आश्चर्य जताया।
‘तुम उसी झूठ-सच्ची बातों में आ गई, हो इसीलिए तुम्हें ऐसा लगता है। वह तो मुझे जब भी मिलती है, तंग करके रख देती है। बात-बात पर मेरा मजाक उड़ाती है।’
‘वह सच बोलने वाली लड़की है। तुम ही मुझे चालबाजी दिखा रहे हो।’
‘मैं...?’

‘हाँ, तुम ! इधर आओ। मैं बताती हूँ।’ उसने झाँसा दिया।
अपने सरल स्वभाव के कारण वह भी तत्काल उसकी बातों के घेराव में उसके निकट जा पहुँचा। वह समझ ही न सका कि यह तेज-तर्रार लड़की उसको व्यर्थ की बातों में फँसाकर उसके मन की तह में जमें संकोच को बाहर निकालना चाहती है, उसकी परर्तों को खोलना चाहती है।
‘यहाँ बैठो। बताती हूँ।’ उसके बैठने के लिए पंलग पर अपने निकट ही संकेत किया।
‘लो बैठ गया। अब बताओ, क्या चुगली की है उसने ?’
‘वह बता रही थी....।’ रत्ना स्थिति को असमंजस पूर्ण देखकर रुकी तथा कुछ पल सोचने के पश्चात बोली, ‘अच्छा, यह बताओ, गाँव के नाते से सरिता तुम्हारे चाचा की लड़की है न ?’
‘हाँ, चाचा की लड़की है।’

‘बहुत अच्छी है न ?’
‘बहन है, इसीलिए अच्छी तो लगेगी ही।’ उसके सीधे सपाट शब्दों में स्वीकार।
‘तो वह तुम्हारी अच्छी बहन ही बता रही थी कि तुम बहुत अच्छे हो।’
जुगल पहले तो प्रसन्न हुआ, किन्तु तत्क्षण उसी सादगीपूर्ण ढंग से बोला, ‘बस, इतनी-सी बात थी ? मैं पहले कहता था न, तुम उसकी छल-कपट से भरी बातों में आ गई हो, जूठी बातों पर विश्वास कर बैठी हो।’
‘तुम्हें क्या पता, उसने मुझे कितनी सारी बातें बताई थीं।’ रत्ना ने अपनी बात को छोटी होते देख पुन: मिथ्या का सहारा लिया। इस तरल दोनों के वार्तालाप का सिससिला चल निकला। संकोच दूर हो गए। अपनी-अपनी विपत्तियों तथा परिस्थितियों का सर्वथा निरावरण किया। किस पर क्या बीती, किस तरह माता-पिताविहीन होकर दिन-काटे-कुछ न छिपाकर रखा। दोनों ने इतनी बातें कीं कि छोटे-से अन्तराल में एक-दूसरे का हृदय अपनत्व से भर गया। परस्पर काफी निकट आ गए, मधुर-संबंधों की नींव पड़ गई।

अभी वे दोनों आपसी वार्तालाप में निमग्न ही थे कि अकस्मात् द्वार पर कुछ आहट का एहसास हुआ। तत्काल दोनों जीव नि:शब्द होकर उभरने वाली ध्वनि के प्रति सजग-सतर्क हो गए।
‘कौन है ?’ कुछ छड़ ठहरकर अन्तत: जुगलकिशोर ने ही प्रश्न किया।
प्रत्युत्तर में कोई स्वर न उभरा। वातावरण में निस्तब्धता छाई रही। ‘मैं पूछता हूँ, बाहर कौन है ?’ जवाब न मिलने पर वह पुन: चिंघाड़ा।

‘अरे जुगुल ! जरा दरवाजा तो खोल।’
आवाज लच्छू की थी। जुगल ने क्षण में पहचान ली। साथ-ही-साथ धीमे स्वर में रत्ना को भी बता दिया।
‘कुछ काम है चाचा ?’ उसने गाँव के नाते से उसे चाचा कहकर सम्बोधित किया।
‘हाँ जुगल ! जरूरी काम है इसीलिए तो आया हूँ।’
‘क्या काम पड़ गया इतनी रात को ?’ जुगलकिशोर सीधे स्वभाव में पलंग से उठता हुआ बोला।

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