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कविता संग्रह >> हंस अकेला

हंस अकेला

रमानाथ अवस्थी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5816
आईएसबीएन :81-263-0961-x

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‘हंस अकेला’ की कविताएँ मनुष्य के उदात्त सौन्दर्य के अस्वादन और सत्य की बीहड़ खोज से साक्षात्कार करवाती हैं।

Hans Akela

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


यदि एक वाक्य में कहना हो तो कहा जा सकता है कि राम नाथ अवस्थी विराग के कवि हैं। एक ऐसे विराग के जिसमें अनुराग की पयस्विनी सतत प्रवहमान है। आधुनिक हिन्दी कविता-विशेष रूप से गीत-धारा के पाठक समाज में उनकी कविताएँ एक अद्वितीय सृष्टि के रूप में पढ़ी और पहचानी जाती हैं।

दरअसल उनकी कविताएँ हमारे भीतर रचे-बसे कोमल, मधुर और उत्कृष्ट के साथ-साथ अपने समय के यथार्थ और बेचैनी-भरे एकान्त हाहाकार को भी बड़ी सहजता से अभिव्यक्त करती हैं। ‘हंस अकेला’ की कविताएँ भी मनुष्य के उदात्त सौन्दर्य के अस्वादन और सत्य की बीहड़ा खोज से उपजे एक अखण्डित और विराट अनुभव-छन्द का साक्षात्कार कराती हैं।

प्रस्तुत है वरिष्ठ हिन्दी कवि रामनाथ अवस्थी की कविताओं का नवीनतम संग्रह ‘हंस अकेला’।

निवेदन

गीत के बारे में इतना कुछ कहा और लिखा गया है, जिसे समेट पाना सम्भव नहीं है, फिर भी इस असम्भव को सम्भव करने के लिए अनगिनत विचारकों की अथक परिश्रम करते रहने की लम्बी परम्परा है। यह परम्परा अभी रुकी नहीं है, और सम्भवतः आगे भी नहीं रुकेगी। चन्द्रमा शब्दहीन होकर भी बहुत-कुछ कहता है, भले ही हम उसे सुन न पाते हों; बिलकुल इसी प्रकार एक सूक्ष्म गीत हमसे जाने क्या-क्या कहता है ! इस कथ्य को शब्द देना सहज नहीं है। केवल देखने में ही कवि और पाठक दो हैं, मगर कवि की अन्तर्वाणी से मिलकर दोनों ही एकाकार होते हैं।

यह आत्मीयता ही पाठक और कवि के बीच अनूठा शब्दसेतु है। अतः मैं गीत के पाठक से गीत पर तरस खाने के लिए नहीं कहता। मैं गीत पर प्रयोग करूँ या गीत मुझ पर प्रयोग करे, परंतु मैं गीत को उस अदेखे समुद्र की लहर मानता हूँ, जो हम सबके भीतर है। हर गीत अपने में भले ही पूर्ण न लगे, लेकिन अपनी मौलिकता के रंग में वह इस पूर्णता और अपूर्णता से ऊपर है। ‘बच्चन’ जी का गीत के बारे में एक कथन अनूठा है। वे कहते थे, शाम को घर लौटते हुए हारा-थका मजदूर अगर मेरा गीत गुनगुनाकर किसी हद तक अपनी थकान को भूलता है, तो मेरे विचार से मेरा गीत पूरी तरह सार्थक है।

गीत की अनुगूंज दूर गामी होती है। नदी में नाव खेते, खेत में काम करते अथवा जंगल में ढोर चराते चरवाहे  किसी-न-किसी प्रकार गीत के साथ होते हैं। उनके भीतर कौन-सा गीत तैरता है 1—इस सवाल का जवाब कदाचित् वे भी न दे पाए, मगर इससे गीत की शक्ति का अहसास लगाया जा सकता है।

गीत का हर संकलन अपने-आप में अलग दिखकर भी एक बिन्दु पर एक होता है। यही एकता गीत के स्वरूप का निर्धारण करती है। आज के तथाकथित कुछ कवि गीत को कविता से बेदखल करते हैं, मगर कोई विधा किसी के बेदखल करने से कभी समाप्त नहीं होती। फिर गीत का सम्बन्ध तो हमारे सन्त कवियों तक व्याप्त है। सन्त कवि रैदास कहते हैं, ‘प्रभुजी तुम चन्दन, हम पानी’ मीरा बाई कहती हैं, ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ और सन्त कबीर कहते हैं, ‘पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पण्डित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।’ वास्तव में प्रेम की यह अनुभूति केवल गीत से सम्भव है।

मेरे प्रस्तुत संकलन में जो कविताएँ संगृहीत हैं, वे पिछले दो वर्षों में लिखी गई हैं। केवल ‘एकादशी’ खण्ड के अन्तर्गत, मेरी पहले की लिखी, वे कविताएँ हैं जो मेरे मिजाज़ के बहुत क़रीब हैं इस संग्रह की कविताओं के बारे में मैं कुछ न कहूँगा, वे स्वयं ही अपने बारे में  आपसे सब-कुछ कहेंगी। कविश्री शमशेर बहादुर सिंह के शब्दों में ‘बात बोलेगी, हम महीं। इसलिए अगर कोई बात है, तो मेरी कविताएँ आपसे स्वयं ही बोलेंगी।

अपने इस संग्रह से सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के लिए मैं भारतीय ज्ञानपीठ का आभारी हूँ।


रामनाथ अवस्थी


डूबते रवि ने कहा, मेरा काम लेगा कौन ?
बात सुन सारा जगत्, था निरुत्तर मौन।
एक मिट्टी के दिये ने कहा नत कर माथ,
दीजिए मुझको बनेगा जो करुँगा नाथ।


रवीन्द्रनाथ टैगोर


दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही !


      महाप्राण निराला


गीत

रचनाकार


चाहता हूँ जानूँ उस रचनाकार को,
जिसने रचा इस अनुपम संसार को !

नभ तो है दर्पण अन्तहीन संसार का,
सागर को मिला है प्यार नटनागर का !
माथे पर पर्वत, धरती पर पाँव धरे,
जाने कब से वे इस मुद्रा में खड़े !
शब्द नहीं दे पाता उनके उपकार को !

होने नहीं देता वह हमको अकेला,
सुख-दुख जो मिलें, साथ-साथ झेला !
उसके अलावा है कोई नहीं अपना,
दुनिया तो लगी बस एक झूठा सपना !
यहाँ सब सदा मरे, केवल अधिकार को !

बतलाता उसका पता कोई नहीं,
इस दुख से मेरी आँख रोयी भी नहीं !
कितनी ही चाहों के लिये घूमता हूँ,
अपने हाथों की लकीरें चूमता हूँ !
कोई नहीं सुन रहा मेरी पुकार को !

एक दिन होगा यहाँ कुछ नहीं बचेगा,
फिर नये सिरे से कोई कुछ रचेगा !
काटे नहीं कटते दिन और रात,
गाओ गुनगुनाओ तुम मिलेगा प्रभात !
कोई जीत कोई पाएगा हार को !
चाहता हूँ जानूँ उस रचनाकार को !


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