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रहस्य-रोमांच >> होशियार खबरदार

होशियार खबरदार

सुरजीत

प्रकाशक : हरबंश लाल एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5792
आईएसबीएन :81-89198-09-2

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रोमांचक उपन्यास - तस्करी और अवैध धंधो पर आधारित उपन्यास

Hoshiyar Khabardar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पूर्वकथ्य

सुरजीत जी से मेरा परिचय सन् 1977-78 से है। साहित्य-जगत् में उनकी शख्सीयत किसी तआरुफ़ की मुहताज नहीं है, क्योंकि हिन्दी, उर्दू, पंजाबी भाषा की विविध रचनाओं का एक से दूसरी भाषा में अनुवाद करने के लिए तो वह विख्यात हैं ही, उनकी मौलिक रचनाएं भी प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत उपन्यास भी उन्हीं मौलिक रचनाओं की एक कड़ी है।

आज लगभग हर देश का वातावरण तस्करी के ज़हर से दूषित होता जा रहा है। इसका एहसास तो उस देश के प्रत्येक नागरिक को है, परन्तु इससे उबरने का साहस किसी में नहीं। और यदि कोई इस कँटीले मार्ग पर चलकर जीवन को आपदाओं में डाल देता है तो कामयाबी उसे ज़रूर मिलती है। इसी कथ्य को अपनी वर्णनात्मक एवं उत्सुकता बनाये रखनेवाली रोचक शाली में उन्होंने यहाँ प्रस्तुत किया है।
सुरजीत केवल इस उपन्यास के लेखक ही नहीं अपितु देश के एक सच्चे नागरिक भी हैं जिनके लिए ऐसा ज़हरीला वातावरण उनकी वरदाश्त से बाहर है और इसीलिए इसका पर्दाफ़ाश करके वह अपने नागरिक कर्तव्यों को भली-भाँति निभाने में कामयाब रहे हैं।


डॉ. हरिवंश अनेजा

होशियार खबरदार


राजेश नौकरों के क्वार्टरों के बाहर आंगन में उगे हुए पेड़ की छाया में बैठ गया। वह छरहरे शरीर और शोख आँखोंवाला लड़का था बम्बई की गर्म और तेज धूप पेड़-पत्तों में से छन-छनकर उसपर पड़ रही थी। उस धूप में उसका गहरा साँवला रंग चमक रहा था। उसके हाथ में एक छोटी-सी बाँसुरी थी। वह उसे धीरे-धीरे बजा रहा था। सामने कोठी की खुली खिड़की में उसे सेठजी दिखायी दे रहे थे। इन्हीं सेठजी के पास उसका पिता नौकर था।

सेठजी भारी शरीर और लम्बे कद के एक बहुत कठोर स्वभाव के व्यक्ति थे। राजेश ने प्रायः उन्हें अपने पिता को झिड़कते और घुड़कते हुए देखा था। अपने पिता को यों झिड़कियाँ खाते देखकर उसका मन उदास हो जाता था। उसे अपना पिता संसार में सबसे अधिक स्नेहशील और कृपालु दिखायी देता था। वह बड़ा परिश्रमी था और उसका हर समय ही प्रयत्न रहता था कि किसी प्रकार अपने स्वामी को खुश रखे, किन्तु सेठजी कभी उसके काम से प्रसन्न नज़र नहीं आते थे। कभी-कभी राजेश की माँ अपने पति से पूछा करती थी, ‘राजेश के पिता ! सेठजी तुमपर क्यों नाराज़ हो गये थे ?’
‘राजेश का पिता एक ठंडी सांस भरकर उत्तर देता, ‘पता नहीं क्यों ? वह मेरे हर प्रयत्न के बावजूद मुझसे नाराज़ ही रहते हैं।’

उस दिन प्रतःकाल से अब तक कोई बात न हुई थी। राजेश अपनी बाँसुरी पर एक प्यारी-सी धुन बजाने और पेड़ की छाया में इधर-उधर घूमने लगा। खिड़की में उसे सेठजी की शक्ल दिखायी दी और उसके साथ ही राजेश ने उनकी कड़कती हुई आवाज़ सुनी, ‘प्यारेलाल ! अरे ओ प्यारे ! कहाँ मर गये तुम !’
‘आ रहा हूँ सेठ जी !’ राजेश को अपने पिता की आवाज़ सुनायी दी।

किन्तु सेठ जी उसी प्रकार क्रोध में बकते-झकते रहे। शायद राजेश के पिता से कोई ग़लती हो गयी थी। राजेश का मन फिर उदास हो गया। उसने अपने हाथों को एक-दूसरे में मज़बूती से जकड़ लिया। उसे अपने पिता की दशा पर दुख हो रहा था। उसका पिता सेठजी के हर आदेश पर सारा दिन उनके आगे-पीछे भागा-फिरता था, पर बदले में फिर भी झिड़कियाँ ही खाता था।

‘राजेश बेटे ! आओ ना, खाना खा लो !’ उसे अपनी माँ की प्यार-भरी आवाज़ सुनायी दी।
खाने का नाम सुनकर उसका मन खुश हो गया। वह प्रायः भूखा रहता था, क्योंकि उसके पिता की तनख्वाह बहुत कम थी और बहुत-से नौकरों की तरह उनका गुज़ारा भी बड़ी कठिनाई से होता था। सेठजी बड़े कंजूस थे। वे तनख्वाह के अतिरिक्त वे उन्हें कुछ न देते थे। यहाँ तक कि घर का बचा-खुचा खाना भी उन्हें न मिलता था। व खाने–पीने की चीजों-वाली अलमारियों पर ताले लगाकर रखते थे। खाना पकाने के लिए सेठ जी स्वयं नाप-तोलकर चीज़ें देते कि कहीं वे बेईमानी करके उनमें से कुछ रख न लें नौकर बहुत ईमानदार थे और किसी की चीज़ की चोरी की नीयत से हाथ लगाना भी पाप समझते थे।

कोठी के गैराज के ऊपर एक छोटा-सा अँधेरा कमरा था। उसमें वे रहते थे। राजेश की माँ कमरे में चावलों की देगची सामने रखे हुए बैठी थी। राजेश और उसकी छोटी बहन सरोज ने अपनी-अपनी थालियाँ खाली कर दीं और वह चमचे के साथ उसमें चावल डालने लगीं। चावलों में से महक उठ रही थी। चावलों के साथ बड़ी सादा-सी तरकारी थी। राजेश एक-एक कौर को मज़े से ले-लेकर खाता रहा। शीघ्र ही उन्होंने अपनी–अपनी थालियाँ फिर खाली कर दीं। देगची में अब थोड़े से चावल रह गये थे। इसलिए और चावल मिलने की कोई आशा नहीं थी। बाकी चावल राजेश के पिता के लिए थे। वह अभी खाने के लिए न आये थे। राजेश ने सरोज की थाली की ओर देखा और सरोज ने उसको मुँह चिढ़ा दिया। उसकी काली चमकदार आँखें उसके माथे पर बिखरे हुए काले बालों में शरारत से मुस्करा रही थीं। राजेश और सरोज का प्रायः इस बात पर मुकाबला हो जाता था कि खाना बाद में कौन समाप्त करता है, पर आज सरोज की थाली में चावल पड़े देखकर वह अनुभव कर रहा था कि वह हार गया।

इतने में राजेश के पिता प्यारेलाल ने कमरे में प्रवेश किया। वह बेहद उदास और थका-हारा दिखायी दे रहा था। सरोज को उसकी माँ ने बाहर भेज दिया कि जाकर पेड़ की छाया में सो रहे। पर राजेश अपनी जगह ही बैठा रहा, ताकि अपने पिता के साथ बातें कर सके उसकी माँ अपने पति के साथ थाली में बचे-खुचे चावल डालने लगी। पेंदे को खुरच-खुपरचकर चावल निकाल रही थी। उसकी कलाइयों में काँच की चूड़ियँ खनक रही थीं। उसकी कमीज गहरे जामुनी रंग की थी। चावलों की थाली अपने पति की ओर बढ़ाते हुए उसने पूछा, ‘‘आज सुबह यह क्या झगड़ा हो रहा था ?’

‘पता नहीं, सेठ जी क्यों ख्वाहमख्वाह नाराज़ होने लगते हैं, उनका स्वभाव हर समय ही बिगड़ा रहता है। भगवान् का दिया उनके बास सब-कुछ है। खाने को तरह-तरह की वस्तुएँ, रहने को भव्य कोठी और खर्च को अत्यधिक धन।’
‘पर पिताजी ! सेठजी की दुकान तो छोटी-सी है। फिर इतना धन कहाँ से आता है ?’

‘ठीक है।’ राजेश के पिता ने सिर हिलाकर कहा, ‘पर मेरा विचार है कि धन कमाने के लिए वह कोई और...’
उसने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी। राजेश की माँ ने अपने पाँव के संकेत से उसे ऐसी बातें करने से मना कर दिया था। राजेश ने विस्मय से पहले अपनी माँ और फिर पिता के चेहरे की ओर देखा और देखकर बोला, ‘आपका विचार है कि वे कोई अनुचित व्यापार करते हैं ?’
‘हुश !’ राजेश की माँ तेज़ी से अपने पति की ओर मुड़ी।


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