कविता संग्रह >> सहसा कुछ नहीं होता सहसा कुछ नहीं होताबसन्त त्रिपाठी
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इस संग्रह में ‘स्वप्न से बाहर’,‘सन्नाटे का स्वेटर’,‘हम चल रहे हैं’ आदि कविताएं हैं...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सहसा कुछ नहीं होता
‘स्वप्न से बाहर’, ‘सन्नाटे का
स्वेटर’,
‘हम चल रहे हैं’—इन तीन खण्डों में संयोजित
बसन्त
त्रिपाठी की कविताएँ सपने देखने, न देखने—उनमें रह पाने, न रह
पाने
की छटपटाहट की कविताएँ हैं। कुछ बीत चुका है जो अब सपना हो गया
है
और कुछ वह जिसकी आकांक्षा लिये इन्सान गतिशील बना है—तमाम
अवरोधों
के विरुद्ध ! ‘बाज़ार में बदलने की शुरुआत थी/एक घाव अब टीसने
लगा
था’—यह आज की युवा कविता का दर्द है, मजबूरी है और
पूर्व
स्मृतियों की कसक है। बसन्त त्रिपाठी भी इन्हीं से खदेड़े जा रहे हैं
लेकिन उनकी अभिव्यक्ति की रागात्मकता तथा उसके बीच अचानक आ खड़ी एक बेलाग
समझदारी, दूर खड़े होकर खुद को परखने की नज़र, बार-बार इन कविताओं में कवि
की पहचान बनती है :
बसन्त त्रिपाठी की कविताओं में युवा मन का यह संज्ञान तो है कि ‘सहसा कुछ नहीं होता’, किन्तु जब वह इस धीरे-धीरे बदले ‘आज’ में खुद को धकेला हुआ पाता है तो बेचैनी में कच्चा किशोर बन जाता है—‘मुझे लगा कि न चाहने के बावजूद/एक कीड़े में तब्दील होता जा रहा हूँ।’
स्वेटर अभी भी बसन्त के लिए एक स्त्री-ध्वनित शब्द है—एक-एक घर उठ गिरा कर बुना स्वेटर ! ‘सन्नाटे का स्वेटर’ खण्ड की कविताएँ औरतों से मुखातिब हैं—अपने खास बसन्तिया अन्दाज में; हालाँकि खण्ड के प्रवेश-द्वार पर रघुवीर सहाय की पंक्तियाँ हैं। लड़कियों की सदियों-जनित उदासी के बावजूद इस खण्ड में बर्फ पिघलने का संकेत है, कवि के स्वप्नों में कपोलें फूटती है। यहां रनिवास में विद्रोह है, देवदासियों में बारिश का किस्सा है, उस बच्ची की उम्मीद है जिसकी राह दुनिया तक रही है, लॉटरी बेचने वाली लड़की की हँसी है, चुराई हुई जिन्दा साँसें हैं, शक्ति भरती औरत है। ‘स्वप्न से बाहर’ निकल कर कवि उम्मीद की दहलीज पर कदम रखता है और जाहिर है कि उसके बाद ‘हम चल रहे हैं’ की स्थिति अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है।
प्रकृति को ठोस आकार और दृश्य में बदलने की खूबी बसन्त त्रिपाठी में है, चाहे वह असम की चाय हो, या कच्ची सड़क का नुकीला पत्थर या गुल्लक में पड़ी ज़रूरत। यहाँ एक कवि है जो ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर पैर साध रहा है। उसका यह सधाव दिमाग और दिल के सन्तुलन से पैदा हो रहा है।
सधाव की यह कोशिश बसन्त की कविताओं से नयी उम्मीद जगाता है।
बसन्त त्रिपाठी की कविताओं में युवा मन का यह संज्ञान तो है कि ‘सहसा कुछ नहीं होता’, किन्तु जब वह इस धीरे-धीरे बदले ‘आज’ में खुद को धकेला हुआ पाता है तो बेचैनी में कच्चा किशोर बन जाता है—‘मुझे लगा कि न चाहने के बावजूद/एक कीड़े में तब्दील होता जा रहा हूँ।’
स्वेटर अभी भी बसन्त के लिए एक स्त्री-ध्वनित शब्द है—एक-एक घर उठ गिरा कर बुना स्वेटर ! ‘सन्नाटे का स्वेटर’ खण्ड की कविताएँ औरतों से मुखातिब हैं—अपने खास बसन्तिया अन्दाज में; हालाँकि खण्ड के प्रवेश-द्वार पर रघुवीर सहाय की पंक्तियाँ हैं। लड़कियों की सदियों-जनित उदासी के बावजूद इस खण्ड में बर्फ पिघलने का संकेत है, कवि के स्वप्नों में कपोलें फूटती है। यहां रनिवास में विद्रोह है, देवदासियों में बारिश का किस्सा है, उस बच्ची की उम्मीद है जिसकी राह दुनिया तक रही है, लॉटरी बेचने वाली लड़की की हँसी है, चुराई हुई जिन्दा साँसें हैं, शक्ति भरती औरत है। ‘स्वप्न से बाहर’ निकल कर कवि उम्मीद की दहलीज पर कदम रखता है और जाहिर है कि उसके बाद ‘हम चल रहे हैं’ की स्थिति अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है।
प्रकृति को ठोस आकार और दृश्य में बदलने की खूबी बसन्त त्रिपाठी में है, चाहे वह असम की चाय हो, या कच्ची सड़क का नुकीला पत्थर या गुल्लक में पड़ी ज़रूरत। यहाँ एक कवि है जो ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर पैर साध रहा है। उसका यह सधाव दिमाग और दिल के सन्तुलन से पैदा हो रहा है।
सधाव की यह कोशिश बसन्त की कविताओं से नयी उम्मीद जगाता है।
इन्दु जैन
स्वप्न से बाहर
हमारा ही समय था
जब हमने नोट किया, हमारी दुनिया में
चुपके से प्रवेश कर गया बाजार
जब हमने नोट किया, हमारी दुनिया में
चुपके से प्रवेश कर गया बाजार
विनय सौरभ
यह उस आदमी की कहानी है
जो ठूँठ के नीचे खड़ा छाया की आस लगाए है।
जो ठूँठ के नीचे खड़ा छाया की आस लगाए है।
-गीत
नदी का स्वप्न
शोर में डूबती हुई एक शाम है
जहाँ थक हार कर एक नदी
अपने स्वप्न में चली जाती है
नदी के स्वप्न में
एक धोबी है
घाट के चिकने पत्थर पर उदास बैठा हुआ
एक दिन उसे निर्वासन की सजा सुनाई गयी थी
कर दिया गया था मुक्त
कि धोओ अब अपने कपड़े सिर्फ
नदी के स्वप्न में आदिवासी हैं
पर्यावरणविद् की घोषणा के बाद
कँटीले तारों से घिरे जंगल की सीमा से बाहर खदेड़े हुए
स्लेट पट्टी और धूसर श्याम पट से घिरे
मास्साब हैं
लँगड़ा ऐनक सँभालते हुए
नदी के स्वप्न में
उसकी सतह पर नावों से टहलते मछेरे हैं
पवित्र किनारों के भव्य मन्दिरों में
तोंदे सहलाते पण्डे हैं
और आधी रात नदी की धार में
कचरा बहाते मिल मालक
नदी के स्वप्न में
शाश्वत और तात्कालिकता के द्वन्द्व की
खौपनाक चीत्कारें हैं
और है एक कवि
स्वप्न की फैंटेसी को लिपिबद्ध करता हुआ
स्वप्न से बिलकुल बाहर।
जहाँ थक हार कर एक नदी
अपने स्वप्न में चली जाती है
नदी के स्वप्न में
एक धोबी है
घाट के चिकने पत्थर पर उदास बैठा हुआ
एक दिन उसे निर्वासन की सजा सुनाई गयी थी
कर दिया गया था मुक्त
कि धोओ अब अपने कपड़े सिर्फ
नदी के स्वप्न में आदिवासी हैं
पर्यावरणविद् की घोषणा के बाद
कँटीले तारों से घिरे जंगल की सीमा से बाहर खदेड़े हुए
स्लेट पट्टी और धूसर श्याम पट से घिरे
मास्साब हैं
लँगड़ा ऐनक सँभालते हुए
नदी के स्वप्न में
उसकी सतह पर नावों से टहलते मछेरे हैं
पवित्र किनारों के भव्य मन्दिरों में
तोंदे सहलाते पण्डे हैं
और आधी रात नदी की धार में
कचरा बहाते मिल मालक
नदी के स्वप्न में
शाश्वत और तात्कालिकता के द्वन्द्व की
खौपनाक चीत्कारें हैं
और है एक कवि
स्वप्न की फैंटेसी को लिपिबद्ध करता हुआ
स्वप्न से बिलकुल बाहर।
बचपन के शहर के छूट जाने का अर्थ
अपने शहर में खाक होने की गारंटी लिये
हम पैदा नहीं हुए
न ही बुजुर्गों ने विश्वास दिलाया
कि हम यही मरेंगे
हमारे पैरों में चिकिरघिन्नी भी नहीं लगी है
कि बंजारों-सा देशाटन करें
फिर भी हमें छोड़ना पड़ेगा
अपने बचपन का शहर
इस शहर में हम सपने लिए पैदा हुए
इस शहर से सामान लदे ट्रक पर विदा होंगे
हमारे नाम के साथ कभी नहीं जुड़ेंगे
हमारे छोड़े गये घरों के पते
वे बेच रहेंगे केवल
नष्ट नहीं किये गये पुराने खतों में
भूला भटका कोई पुराना परिचित
जब आएगा इस पते पर
तो मायूसी ही मिलेगी उसे
जिन गलियों में हम खेले
जहाँ हमने प्यार किया
जहाँ निरुद्देश घूमते रहे
वहाँ अब सैलानी की तरह जाएँगे
जाएँगे मेहमान की तरह
और आश्चर्य जताएँगे कि कितना बदल गयी हैं गलियाँ !
शहर का चेहरा कितना बदल गया है !!
यह उस तरह भी नहीं
कि अकाल या भुखमरी हो
और टीन के बदरंग बक्से में
दो जोड़ी कपड़े के साथ अलविदा कहें अपने गाँव को
हम भुखमरी और फाके के सम्भावित खतरे से भयभीत हो
छोड़ेंगे अपना शहर
हम छोड़ेंगे अपना शहर
क्योंकि रोज़गार की सुरक्षा मिलेगी किसी दूसरे ठौर
अपनी पुरानी गेंद का उत्तराधिकारी तय किये बगैर
हम छोड़ देंगे अपना शहर
बचपन का शहर ऐसे छूट जाएगा
एक जीवन जैसे बीत गया हो
एक उम्र कि अचानक खत्म हो गयी हो
बचपन के शहर को छोड़
हम अधेड़ ही पैदा होंगे किसी और शहर में।
हम पैदा नहीं हुए
न ही बुजुर्गों ने विश्वास दिलाया
कि हम यही मरेंगे
हमारे पैरों में चिकिरघिन्नी भी नहीं लगी है
कि बंजारों-सा देशाटन करें
फिर भी हमें छोड़ना पड़ेगा
अपने बचपन का शहर
इस शहर में हम सपने लिए पैदा हुए
इस शहर से सामान लदे ट्रक पर विदा होंगे
हमारे नाम के साथ कभी नहीं जुड़ेंगे
हमारे छोड़े गये घरों के पते
वे बेच रहेंगे केवल
नष्ट नहीं किये गये पुराने खतों में
भूला भटका कोई पुराना परिचित
जब आएगा इस पते पर
तो मायूसी ही मिलेगी उसे
जिन गलियों में हम खेले
जहाँ हमने प्यार किया
जहाँ निरुद्देश घूमते रहे
वहाँ अब सैलानी की तरह जाएँगे
जाएँगे मेहमान की तरह
और आश्चर्य जताएँगे कि कितना बदल गयी हैं गलियाँ !
शहर का चेहरा कितना बदल गया है !!
यह उस तरह भी नहीं
कि अकाल या भुखमरी हो
और टीन के बदरंग बक्से में
दो जोड़ी कपड़े के साथ अलविदा कहें अपने गाँव को
हम भुखमरी और फाके के सम्भावित खतरे से भयभीत हो
छोड़ेंगे अपना शहर
हम छोड़ेंगे अपना शहर
क्योंकि रोज़गार की सुरक्षा मिलेगी किसी दूसरे ठौर
अपनी पुरानी गेंद का उत्तराधिकारी तय किये बगैर
हम छोड़ देंगे अपना शहर
बचपन का शहर ऐसे छूट जाएगा
एक जीवन जैसे बीत गया हो
एक उम्र कि अचानक खत्म हो गयी हो
बचपन के शहर को छोड़
हम अधेड़ ही पैदा होंगे किसी और शहर में।
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