विविध >> स्वतंत्रता संग्राम का वसंत स्वतंत्रता संग्राम का वसंतनारायण देसाई
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1917 से 1931 के सत्याग्रह पर आधारित...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
(1917 से 1931 के सत्याग्रह)
अहिंसा मनुष्य में विद्यामान प्रबल से प्रबल शक्ति है-गांधी जी
भूमिका
1917 से 1931 का अरसा भारत के इतिहास में कभी न भुलाया जा सकने वाला काल
है। अपनी आजादी की लड़ाई की यह वसंत ऋतु थी। इस काल के दौरान देश ने सारी
दुनिया के सामने अपनी ताकत प्रकट की। वही देश जो तब तक गुलामी का दुखड़ा
गाता था। अब सिर उठाकर, छाती तानकर चल पड़ा और दुनिया के सबसे बड़े
साम्राज्य के सामने अधिकारपूर्वक अपनी स्वतंत्रता का दावा करने के योग्य
हुआ। इन बर्षों के दौरान स्वराज्य के लिए जो आंदोलन हुए, उन्होंने अंग्रेज
सरकार की नींव हिला डाली।
यह हलचल अपूर्व थी। देश ने ऐसी हलचल पहले कभी देखी न थी। एक दक्षिण अफ्रीका के सिवाय बाकी सारी दुनिया ने भी ऐसा आंदोलन देखा न था। उस समय तक दुनिया में समाज में परिवर्तन करने के जो प्रयास हुए थे वे या तो भय दिखाकर या लोभ दिखाकर। पर ये आंदोलन जैसे हुए जिनका आधार भय नहीं था और न ही लोभ समाज में जबरदस्त परिवर्तन करनेवाली इस नई पद्धति को उसे खोजने वालों ने नाम भी नया दिया था-सत्याग्रह। इसका आधार सत्य था और इसे साधने की संपूर्ण साधना का नाम अहिंसा थी। दुनिया तब तक सत्य के महत्त्व को पहचान गई थी। प्रत्येक युग में दुनिया में ऐसे आग्रही पुरुष हुए भी हैं। परंतु सत्याग्रह दुनिया के लिए एकदम नया साधन था। सत्याग्रह पाप का सख्त विरोध करता है, परंतु उसका प्रयत्न पापी को पाप से बचा लेने का होता है। इसलिए सत्याग्रह के अंत में कोई किसी का दुश्मन नहीं रहता और अधिकतर तो उसमें दोनों पक्ष अपनी जीत का अनुभव करते हैं। सत्याग्रह में सामने वाले पक्ष को पीड़ा देने के बदले स्वयं राजी-खुशी से अपने आप कष्ट सहन करना होता है। इसमें सत्याग्रही को मारना नहीं बल्कि खुद मरना सीखना पड़ता है। सत्याग्रही एक तरफ तो सामने वाले पक्ष के अन्याय को खत्म करने का प्रयास करता है, तो दूसरी तरफ अपने में अधिक से अधिक शुद्धि लाने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार सत्याग्रही की शुद्धि ही सत्याग्रही की शक्ति का मूल आधार होती है।
सामूहिक सत्याग्रह के अनेक प्रकार होते हैं, पर इनमें मुख्य प्रकार लोकशिक्षण, असहयोग, बहिष्कार और सविनय कानून भंग को गिना जा सकता है। हम जिस काल के सत्याग्रहों का विचार करने जा रहे हैं उसमें इन सभी साधनों का उपयोग अपने देश में किया गया था।
सन् 1915 में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए स्वदेश लौटे। दक्षिण आफ्रीका में बर्षों तक सत्याग्रह का उपयोग कर उन्होंने वहां बसे भारतवासियों को रंगद्वेष और आर्थिक प्रतिस्पर्धा के कारण होने वाले अन्याय से मुक्त कराया था। ‘कर्मवीर गांधी’ के रूप में गांधी जी का इस देश में भी अच्छा मान था। परंतु इस देश की राजनीति में उनका प्रवेश एकदम नया था। अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर गांधी जी ने 1916 का सारा वर्ष सार्वजनिक भाषण करने में बिताने के बजाय पूर देश में घूम-घूमकर देश की परिस्थिति को गहराई से समझने में बिताया। उन्होंने सदैव रेल के तीसरे दर्जे में यात्रा की। मेलों में जाकर, गांवों में घूमकर उन्होंने देशवासियो की सच्ची मनःस्थिति का ज्ञान प्राप्त किया। वे जनता में हिल-मिलाकर उसकी नाड़ी पहचानने लगे थे।
साबरमती में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना कर उन्होंने कुछ उत्तम साथियों का साहचर्य पाया था और सत्याग्रह के लिए जरूरी आंतरिक शुद्धि और साथ ही कुशलता का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया था।
देश के अनेक नेता गांधी जी की ओर से कुछ उत्सुकता और कुछ मानभरी दृष्टि से देखते थे। गोखले जी और तिलक महाराज ने उनकी सार्वजनिक तौर पर प्रशंसा की थी। दादाभाई नौरोजी के साथ उनका दक्षिण आफ्रीका से ही लंबा पत्र-व्यवहार चला आ रहा था। इससे पूर्व दो बार कांग्रेस की वार्षिक बैठकों में उपस्थित होकर उन्होंने देश के अनेक नेताओं का दिल जीत लिया था। कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ उनकी इतनी आत्मीयता थी कि दक्षिण अफ्रीका से जब वे आए तब गांधी जी के फिनिक्स आश्रम और टाल्सटाय फार्म के आश्रम कुमारों को रवींद्रनाथ ने अपने शांति निकेतन में रहने का स्थान दिया था और खुद गांधी जी जब शांति निकेतन गए, तब वहां के आश्रम के सारे काम स्वयं कर लेने के प्रयोग के विचार का कवि ने स्वागत किया था।
गांधी जी ने जब देश में सार्वजनिक काम करना शुरू किया तब हमारे यहां मुख्य रूप से तीन धाराएं काम कर रही थीं। राजनीति में काम करने वाले नेताओं में कुछ विनीत थे, जिन्हें सामान्य जनता ‘नरम दल’ का कहती थी। गोपाल कृष्ण गोखले, सुरेंद्रनाथ बनर्जी आदि उनके नेता थे। दूसरे कुछ उग्रवादी थे। इन्हें लोग ‘गरम-दल’ का कहते थे। तिलक महाराज, लाला लाजपतराय आदि उनके नेता थे। तीसरी धारा आध्यात्मिक पुरुषों की थी जिसमें स्वामी विवेकानंद और अरविंद घोष वगैरह खास आगे थे। ये लोग सीधे तो राजनीतिक में नहीं थे, परंतु उनके विचारों और साधना का प्रभाव सारे देश के मन पर अचूक पड़ता था।
गांधी जी के देश में आने से पहले ही कांग्रेस का गरम दल और नरम में विभाजन हो चुका था। गांधी जी जब आए तब यह विभाजन जुड़ने के लक्षण दिखा रहा था। नरम दल के लोगों का कार्यक्रम विनय-विवेकपूर्वक अंग्रेजों से देश के लिए सच्चे अधिकार के दावे की मांग कर सुधारों द्वारा देश को आगे ले जाने का था। गरम दल के लोगों को इतने से संतोष न था। ये लोग दबने-छिपनेवाले नहीं, वरन स्पष्टवादी थे और भारत की दुखद परिस्थिति का सटीक वर्णन अपने भाषणों, साथ ही लेखों द्वारा करके अन्याय की कड़े शब्दों में निंदा करना चाहते थे। आध्यात्मिक लोग सेवा और चित्त शुद्धि की साधना द्वारा समाज के स्तर को ऊंचा लाना चाहते थे।
गांधी जी को इन तीन प्रकार के लोगों के कुछ खास गुण आकर्षित करते थे। नरम दल के लोगों की नम्रता उन्हें अच्छी लगती थी। गरम दल के लोगों की स्वराज पाने की उत्कट इच्छा उन्हें आकर्षित करती थी और आध्यात्मिक नेताओं की चित्त शुद्धि की बात उन्हें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में भी बहुत जरूरी लगती थी। गांधी जी के सत्याग्रह के कार्यक्रम में नरम दल की नम्रता थी, गरम दल की तीव्रता थी और आध्यात्मिक लोगों की चित्त शुद्धि थी। इसी से सत्याग्रह के कार्यक्रम में देश के युवकों को इन तीनों का त्रिवेणी संगम साकार होता लगा।
अपने देश के हजारों वर्षों से ध्यान, ज्ञान दान, तप आदि के द्वारा ऋषियों ने आत्म शुद्धि के माध्यम से मोक्ष के संस्कार सींचे थे। बीच में जब संस्कार क्षीण हुए तब संतों की परंपरा ने इस अग्नि के ऊपर पड़ी कर्मकांड, अंधश्रद्धा, वहम, अज्ञान और आलस्य की राख को अपने सादे, भक्तिमय, तपोमय जीवन के उदाहरण द्वारा हटाकर ज्ञान की आभा प्रकट की। राजा राममोहन राय और रामकृष्ण परमहंस के जमाने से प्रार्थना, समाज, आर्य समाज आदि संस्थाओं और आंदोलनों द्वारा समाज में तेजी से सुधार करने का प्रयास था। गांधी जी के सत्याग्रह के कार्यक्रम में और उनके सत्याग्रही जीवन में देश को साधना और सुधार का भी मेल दिखाई देता था।
इसके साथ ही राजनीति में एक छोटा पर जोशीला वर्ग ऐसा भी था जो गुलामी को दूर करने में हिंसा का सहारा लेने को सही मानता था और जब-जब हिंसा के काम भी करता था। अंग्रेज उन्हें आंतकवादी कहते थे। देश के लोग इन्हें क्रांतिकारी कहते थे। गांधी जी हिंसा का खुलकर विरोध करते परंतु क्रांतिकारियों के देशप्रेम और उनकी निडरता के गांधी जी प्रशंसक थे।
गांधी जी से पहले लगभग सभी राजनैतिक नेता का स्वराज का अर्थ-देश का तंत्र अंग्रेजों के बदले देश के लोगों के हाथों में आए तथा देश के भविष्य का निर्माण देश के लोग ही कर सकें-मात्र इतना ही सीमित करते थे। गांधी जी ने भारत आने से पहले ही 1909 में ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक द्वारा स्वराज विषयक अपनी धारणा स्पष्ट की थी। वे यह मानते थे कि देश की आजादी अंग्रेजों ने नहीं छीनी, वरन् हमने ही आपसी फूट, लालच और अन्य कमजोरियों के कारण अपनी आजादी खोई है। अपनी गुलामी मात्र राजनैतिक गुलामी ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक गुलामी भी है। अंग्रेजों के राज्य द्वारा जो पश्चिमी सभ्यता अपने देश में घर कर रही है, वह इंद्रिय सुखों की ओर दृष्टिवाली एवं जरूरतों को बढ़ाकर भोगवाद का पोषण करनेवाली है। हमारी सभ्यता आत्मा को महत्त्व देकर सादगी, संयम, संतोष, स्वाश्रय, स्वावलंबन द्वारा शांतिमय समाज की रचना करनेवाली है। इंद्रियों को मुख्य समझनेवाली पश्चिमी भोगवादी सभ्यता की जगह जब हम आत्मा का उत्कर्ष साधनेवाली संयमी-संतोषी सभ्यता स्थापित कर सकेंगे, तभी सच्चे अर्थ में हिंद को स्वराज मिलेगा। गांधी जी मानते थे कि स्वराज यानी ‘स्व का राज’ नहीं, अपितु ‘अपने ऊपर राज’।
ऐसे आदर्शों को लेंकर गांधी जी ने हमारे देश के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था। उनकी पूंजी थी दक्षिण अफ्रीका में उनके द्वारा खोजा गया निश्चित परिणाम देनेवाला साधन-सत्याग्रह। अपने आदर्शों व मूल्यों को अपने रोज के जीवन में ढाल लेने का उनका, जोश, लोगों के बीच जाकर लोगों की भावनाओं को परखने की उनकी चतुराई और अपने से पहले के सभी नेताओं के गुणों को देखकर उनके प्रति भरपूर आदर और नम्रता से कार्य करने का तरीका, फिर भी अपने को जो सत्य लगे उसे सारे जगत का विरोध सहन कर भी स्पष्ट करने और उस पर डटे रहने की उनकी दृढ़ता-इन गुणों को लेकर गांधी जी ने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था।
यह हलचल अपूर्व थी। देश ने ऐसी हलचल पहले कभी देखी न थी। एक दक्षिण अफ्रीका के सिवाय बाकी सारी दुनिया ने भी ऐसा आंदोलन देखा न था। उस समय तक दुनिया में समाज में परिवर्तन करने के जो प्रयास हुए थे वे या तो भय दिखाकर या लोभ दिखाकर। पर ये आंदोलन जैसे हुए जिनका आधार भय नहीं था और न ही लोभ समाज में जबरदस्त परिवर्तन करनेवाली इस नई पद्धति को उसे खोजने वालों ने नाम भी नया दिया था-सत्याग्रह। इसका आधार सत्य था और इसे साधने की संपूर्ण साधना का नाम अहिंसा थी। दुनिया तब तक सत्य के महत्त्व को पहचान गई थी। प्रत्येक युग में दुनिया में ऐसे आग्रही पुरुष हुए भी हैं। परंतु सत्याग्रह दुनिया के लिए एकदम नया साधन था। सत्याग्रह पाप का सख्त विरोध करता है, परंतु उसका प्रयत्न पापी को पाप से बचा लेने का होता है। इसलिए सत्याग्रह के अंत में कोई किसी का दुश्मन नहीं रहता और अधिकतर तो उसमें दोनों पक्ष अपनी जीत का अनुभव करते हैं। सत्याग्रह में सामने वाले पक्ष को पीड़ा देने के बदले स्वयं राजी-खुशी से अपने आप कष्ट सहन करना होता है। इसमें सत्याग्रही को मारना नहीं बल्कि खुद मरना सीखना पड़ता है। सत्याग्रही एक तरफ तो सामने वाले पक्ष के अन्याय को खत्म करने का प्रयास करता है, तो दूसरी तरफ अपने में अधिक से अधिक शुद्धि लाने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार सत्याग्रही की शुद्धि ही सत्याग्रही की शक्ति का मूल आधार होती है।
सामूहिक सत्याग्रह के अनेक प्रकार होते हैं, पर इनमें मुख्य प्रकार लोकशिक्षण, असहयोग, बहिष्कार और सविनय कानून भंग को गिना जा सकता है। हम जिस काल के सत्याग्रहों का विचार करने जा रहे हैं उसमें इन सभी साधनों का उपयोग अपने देश में किया गया था।
सन् 1915 में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए स्वदेश लौटे। दक्षिण आफ्रीका में बर्षों तक सत्याग्रह का उपयोग कर उन्होंने वहां बसे भारतवासियों को रंगद्वेष और आर्थिक प्रतिस्पर्धा के कारण होने वाले अन्याय से मुक्त कराया था। ‘कर्मवीर गांधी’ के रूप में गांधी जी का इस देश में भी अच्छा मान था। परंतु इस देश की राजनीति में उनका प्रवेश एकदम नया था। अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर गांधी जी ने 1916 का सारा वर्ष सार्वजनिक भाषण करने में बिताने के बजाय पूर देश में घूम-घूमकर देश की परिस्थिति को गहराई से समझने में बिताया। उन्होंने सदैव रेल के तीसरे दर्जे में यात्रा की। मेलों में जाकर, गांवों में घूमकर उन्होंने देशवासियो की सच्ची मनःस्थिति का ज्ञान प्राप्त किया। वे जनता में हिल-मिलाकर उसकी नाड़ी पहचानने लगे थे।
साबरमती में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना कर उन्होंने कुछ उत्तम साथियों का साहचर्य पाया था और सत्याग्रह के लिए जरूरी आंतरिक शुद्धि और साथ ही कुशलता का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया था।
देश के अनेक नेता गांधी जी की ओर से कुछ उत्सुकता और कुछ मानभरी दृष्टि से देखते थे। गोखले जी और तिलक महाराज ने उनकी सार्वजनिक तौर पर प्रशंसा की थी। दादाभाई नौरोजी के साथ उनका दक्षिण आफ्रीका से ही लंबा पत्र-व्यवहार चला आ रहा था। इससे पूर्व दो बार कांग्रेस की वार्षिक बैठकों में उपस्थित होकर उन्होंने देश के अनेक नेताओं का दिल जीत लिया था। कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ उनकी इतनी आत्मीयता थी कि दक्षिण अफ्रीका से जब वे आए तब गांधी जी के फिनिक्स आश्रम और टाल्सटाय फार्म के आश्रम कुमारों को रवींद्रनाथ ने अपने शांति निकेतन में रहने का स्थान दिया था और खुद गांधी जी जब शांति निकेतन गए, तब वहां के आश्रम के सारे काम स्वयं कर लेने के प्रयोग के विचार का कवि ने स्वागत किया था।
गांधी जी ने जब देश में सार्वजनिक काम करना शुरू किया तब हमारे यहां मुख्य रूप से तीन धाराएं काम कर रही थीं। राजनीति में काम करने वाले नेताओं में कुछ विनीत थे, जिन्हें सामान्य जनता ‘नरम दल’ का कहती थी। गोपाल कृष्ण गोखले, सुरेंद्रनाथ बनर्जी आदि उनके नेता थे। दूसरे कुछ उग्रवादी थे। इन्हें लोग ‘गरम-दल’ का कहते थे। तिलक महाराज, लाला लाजपतराय आदि उनके नेता थे। तीसरी धारा आध्यात्मिक पुरुषों की थी जिसमें स्वामी विवेकानंद और अरविंद घोष वगैरह खास आगे थे। ये लोग सीधे तो राजनीतिक में नहीं थे, परंतु उनके विचारों और साधना का प्रभाव सारे देश के मन पर अचूक पड़ता था।
गांधी जी के देश में आने से पहले ही कांग्रेस का गरम दल और नरम में विभाजन हो चुका था। गांधी जी जब आए तब यह विभाजन जुड़ने के लक्षण दिखा रहा था। नरम दल के लोगों का कार्यक्रम विनय-विवेकपूर्वक अंग्रेजों से देश के लिए सच्चे अधिकार के दावे की मांग कर सुधारों द्वारा देश को आगे ले जाने का था। गरम दल के लोगों को इतने से संतोष न था। ये लोग दबने-छिपनेवाले नहीं, वरन स्पष्टवादी थे और भारत की दुखद परिस्थिति का सटीक वर्णन अपने भाषणों, साथ ही लेखों द्वारा करके अन्याय की कड़े शब्दों में निंदा करना चाहते थे। आध्यात्मिक लोग सेवा और चित्त शुद्धि की साधना द्वारा समाज के स्तर को ऊंचा लाना चाहते थे।
गांधी जी को इन तीन प्रकार के लोगों के कुछ खास गुण आकर्षित करते थे। नरम दल के लोगों की नम्रता उन्हें अच्छी लगती थी। गरम दल के लोगों की स्वराज पाने की उत्कट इच्छा उन्हें आकर्षित करती थी और आध्यात्मिक नेताओं की चित्त शुद्धि की बात उन्हें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में भी बहुत जरूरी लगती थी। गांधी जी के सत्याग्रह के कार्यक्रम में नरम दल की नम्रता थी, गरम दल की तीव्रता थी और आध्यात्मिक लोगों की चित्त शुद्धि थी। इसी से सत्याग्रह के कार्यक्रम में देश के युवकों को इन तीनों का त्रिवेणी संगम साकार होता लगा।
अपने देश के हजारों वर्षों से ध्यान, ज्ञान दान, तप आदि के द्वारा ऋषियों ने आत्म शुद्धि के माध्यम से मोक्ष के संस्कार सींचे थे। बीच में जब संस्कार क्षीण हुए तब संतों की परंपरा ने इस अग्नि के ऊपर पड़ी कर्मकांड, अंधश्रद्धा, वहम, अज्ञान और आलस्य की राख को अपने सादे, भक्तिमय, तपोमय जीवन के उदाहरण द्वारा हटाकर ज्ञान की आभा प्रकट की। राजा राममोहन राय और रामकृष्ण परमहंस के जमाने से प्रार्थना, समाज, आर्य समाज आदि संस्थाओं और आंदोलनों द्वारा समाज में तेजी से सुधार करने का प्रयास था। गांधी जी के सत्याग्रह के कार्यक्रम में और उनके सत्याग्रही जीवन में देश को साधना और सुधार का भी मेल दिखाई देता था।
इसके साथ ही राजनीति में एक छोटा पर जोशीला वर्ग ऐसा भी था जो गुलामी को दूर करने में हिंसा का सहारा लेने को सही मानता था और जब-जब हिंसा के काम भी करता था। अंग्रेज उन्हें आंतकवादी कहते थे। देश के लोग इन्हें क्रांतिकारी कहते थे। गांधी जी हिंसा का खुलकर विरोध करते परंतु क्रांतिकारियों के देशप्रेम और उनकी निडरता के गांधी जी प्रशंसक थे।
गांधी जी से पहले लगभग सभी राजनैतिक नेता का स्वराज का अर्थ-देश का तंत्र अंग्रेजों के बदले देश के लोगों के हाथों में आए तथा देश के भविष्य का निर्माण देश के लोग ही कर सकें-मात्र इतना ही सीमित करते थे। गांधी जी ने भारत आने से पहले ही 1909 में ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक द्वारा स्वराज विषयक अपनी धारणा स्पष्ट की थी। वे यह मानते थे कि देश की आजादी अंग्रेजों ने नहीं छीनी, वरन् हमने ही आपसी फूट, लालच और अन्य कमजोरियों के कारण अपनी आजादी खोई है। अपनी गुलामी मात्र राजनैतिक गुलामी ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक गुलामी भी है। अंग्रेजों के राज्य द्वारा जो पश्चिमी सभ्यता अपने देश में घर कर रही है, वह इंद्रिय सुखों की ओर दृष्टिवाली एवं जरूरतों को बढ़ाकर भोगवाद का पोषण करनेवाली है। हमारी सभ्यता आत्मा को महत्त्व देकर सादगी, संयम, संतोष, स्वाश्रय, स्वावलंबन द्वारा शांतिमय समाज की रचना करनेवाली है। इंद्रियों को मुख्य समझनेवाली पश्चिमी भोगवादी सभ्यता की जगह जब हम आत्मा का उत्कर्ष साधनेवाली संयमी-संतोषी सभ्यता स्थापित कर सकेंगे, तभी सच्चे अर्थ में हिंद को स्वराज मिलेगा। गांधी जी मानते थे कि स्वराज यानी ‘स्व का राज’ नहीं, अपितु ‘अपने ऊपर राज’।
ऐसे आदर्शों को लेंकर गांधी जी ने हमारे देश के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था। उनकी पूंजी थी दक्षिण अफ्रीका में उनके द्वारा खोजा गया निश्चित परिणाम देनेवाला साधन-सत्याग्रह। अपने आदर्शों व मूल्यों को अपने रोज के जीवन में ढाल लेने का उनका, जोश, लोगों के बीच जाकर लोगों की भावनाओं को परखने की उनकी चतुराई और अपने से पहले के सभी नेताओं के गुणों को देखकर उनके प्रति भरपूर आदर और नम्रता से कार्य करने का तरीका, फिर भी अपने को जो सत्य लगे उसे सारे जगत का विरोध सहन कर भी स्पष्ट करने और उस पर डटे रहने की उनकी दृढ़ता-इन गुणों को लेकर गांधी जी ने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था।
चंपारण
प्रवेश का निमित्त बना था उत्तर बिहार का चंपारण। गांधी जी 1916 की लखनऊ
की कांग्रेस महासभा की बैठक में भाग लेने गए थे। गरम दल और नरम दल के
नेताओं के बीच समझौता और हिंदू-मुस्लिम नेताओं के बीच के करार के कारण इस
महासभा में जबरदस्त उत्साह का वातावरण था। इस महासभा में उत्तर बिहार का
एक किसान अपने यहां किसानों पर नील के कारखानों के गोरे मालिकों द्वारा
किए जाने वाले जुल्मों से संबंधित फरियाद सुनाने के लिए, एक के बाद एक
नेताओं से मिलने का प्रयास कर रहा था। परंतु सामान्य रूप से उच्च-मध्य
वर्ग के और पढ़े-लिखे इन नेताओं के पास राजकुमार शुक्ल नाम के इस किसान की
परेशानी की बात सुनने की फुरसत नहीं थी। उसने देखा कि गांधी जी दूसरे
नेताओं की तरह व्यस्त नहीं थे। कारण यह था कि वे कांग्रेस में नए-नए आए थे
और उनके सिर पर बड़ी जिम्मेदारियां नहीं थीं। इतना ही नहीं, वे
काठियावाड़ी पगड़ी और साफा में और नेताओं से अलग और कुछ-कुछ अपने जैसे
दिखाई देते थे। इसलिए उसने गांधी दी से चंपारण की ‘तिनकठिया
व्यवस्था’ (इस व्यवस्था के अंतर्गत यहां के किसानों को उसके हर
बीघे
जमीन के तीन कट्ठे अंश पर नील की खेती करना अनिवार्य कर दिया गया था) की
बात की।
गांधी जी के आंदोलन में दक्षिण अफ्रीका में ‘गिरमिटिया’ किसान (भारत से मजदूरी कराने के लिए एक ‘एग्रीमेंट’ के अंतर्गत दक्षिण अफ्रीका ले जाये गए लोग ‘गिरमिटिया’- ‘एग्रीमेंट’ का अपभ्रंश-किसान कहलाते थे।) और खान के मजदूर साथ थे और वे गरीब लोगों की सच्चाई, उनकी कष्ट सहन करने की शक्ति और उनकी वफादारी पर मुग्ध थे। साथ ही, किसी के भी साथ बात करते हुए उसकी बात बड़े ध्यान से सुनने का गांधी जी का स्वभाव था। इसी से गांधी जी और राजकुमार शुक्ल में मेल बैठ गया। गांधी जी को लगा कि राजकुमार शुक्ल की बात में सच्चाई है और किसानों के प्रति उनके मन में वास्तविक पीड़ा है। परंतु खुद जांच-पड़ताल किए बिना कोई प्रश्न हाथ में न लेने की गांधी जी की आदत थी। लखनऊ कांग्रेस के तुरंत बाद का उनका कार्यक्रम पहले से ही निश्चित हो चुका था। हां, थोड़े दिन बाद वे कलकत्ता जाने वाले थे। वहां राजकुमार शुक्ल आकर उन्हें साथ ले जाएं, यह निश्चित कर उनके साथ चंपारण जाने की बात गांधी जी ने कबूल कर ली। इसमें शायद यह भी कल्पना रही होगी कि अगर शुक्ल जी को अपने प्रश्न के समाधान में सच्ची रुचि होगी तो वह कलकत्ता पहुंच जाएंगे और अगर उनकी बात गंभीर नहीं होगी तो वे कलकत्ता तक आने का जहमत उठाएंगे ही नहीं। परंतु कलकत्ता की बैठक के समय राजकुमार शुक्ल तो सचमुच आ पहुंचे और गांधी जी भी अपने दिये गए वचन को निभाने हेतु दूसरे कार्यक्रम छोड़कर राजकुमार शुक्ल के साथ चंपारण जाने को तैयार हो गए। इस तरह गांधी जी की अपने देश की पहली सत्याग्रह यात्रा की शुरुआत हुई।
कलकत्ते से दोनों पटना गए। राजकुमार गांधी जी को बाबू राजेंद्र प्रसाद के यहां ले गए, परंतु वे घर पर नहीं थे। गांधी जी की पटना के मौलाना मजहरुल हक़ से पूर्व पहचान थी। उन्हें चिट्ठी लिखी। मौलाना स्वयं गाड़ी लेकर लेने आए। परंतु उनके घर रुकने के आग्रह को छोड़कर गांधी जी ने उनसे चंपारण जाने की व्यवस्था करने की बात कही। मौलाना ने गांधी जी को पहले मुजफ्करपुर जाने को कहा। आचार्य कृपलानी उन्हें तथा गांधी जी को पहचानते थे। आघी रात को गांधी जी की ट्रेन मुजफ्फरपुर पहुंची। वहां आचार्य कृ़पलानी अपनी शिष्य मंडली के साथ गांधी जी का स्वागत करने के लिए स्टेशन पर खड़े थे। मुजफ्फरपुर में गांधी जी से बिहार के कुछ वकील मिले। उन्होंने उनसे कहा कि राजकुमार शुक्ल द्वारा की गई फरियाद में सच्चाई है। किसानों की ओर से कोट में केस लड़ने वाले ये वकील अच्छी-खासी फीस लिया करते थे। गांधी जी ने उनसे इस पीड़ित प्रजा को कोर्ट-कचहरी के जंजाल से मुक्त करने की सलाह दी। उन्होंने कहा, ‘‘जहाँ लोग इतने भयभीत रहते हों, वहां कचहरी के मार्फत इलाज थोड़े ही होगा ? लोगों का डर निकालना ही उनके लिए और असली औषधि है।’’
उत्तर बिहार में नील की खेती होती थी।
नील के भाव अंतर्राष्ट्रीय बाजार के हिसाब से घटते-बढ़ते रहते। भाव बढ़े चाहे घटे, तब भी अपने कारखानों को कच्चा माल नियमित रूप से मिलता रहे, इस दृष्टि से नील के गोरे कारखाने वालों (जिन्हें ‘नीलवर’ कहा जाता था) ने ऐसी परंपरा डाली की प्रत्येक किसान को अनिवार्य रूप से अपने खेत में तीन कट्ठा जमीन पर नील की खेती करनी होगी। किसानों को नील की खेती महंगी पड़ती थी, तो भी उसके लिए नीलवर उन पर तरह-तरह के अत्याचार करते थे। गांधी जी इसकी ही जांच करने निकले थे। गांधी जी ने रोग की जड़ पकड़ी और वकीलों से कहा कि जब तक तिनकठिया प्रथा खत्म न हो जाए, तब तक हम चैन से नहीं बैठ सकते। गांधी जी ने यह भी देख लिया था कि वे तो दो दिन के लिए परिस्थिति देखने आए हैं, पर इस काम में तो दो बरस लग सकते हैं। खुद इसकी तैयारी रखकर उन्होंने वकीलों से कहा कि इस काम में उनकी मदद की जरूरत पड़ेगी। वकीलों ने पूरी रात गांधी जी के साथ चर्चा में बिताई। गांधी जी ने उनसे कहा कि ‘‘मुझे तुम्हारी वकालत की शक्ति का कम काम पड़ेगा, तुम्हारे जैसों से मैं कातिब का और दुभाषिया का काम चाहता हूं। इसमें जेल भी जाना पड़ सकता है। तुम यह जोखिम उठाओ, यह मुझे अच्छा लगेगा। पर वह न उठाना हो तो भले ही न उठाओ, पर वकील न रहकर कातिब होना और अपना धंधा अनिश्चित समय के लिए छोड़ देना-यह कुछ कम नहीं मांग रहा हूं।’’
बिहार के अग्रणी वकील श्री ब्रजकिशोर बाबू ने गांधी जी की बात को समझा। उन्होंने अच्छी तरह प्रश्न पूछकर पूरी बात को स्पष्ट कर लिया। अंत में अपना निश्चय बताया, ‘‘हम इतने लोग, आप जो भी काम सौंपेंगे, उसे करने के लिए तैयार रहेंगे। जेल जाने की बात नई है। उसके लिए शक्ति प्राप्त करने की कोशिश करेंगे।’’
गांधी जी को तो किसानों की हालत की जांच करनी थी। फरियादों में कितना सत्य है, यह देखना था। उसके बारे में हजारों मजदूरों से मिलना था। पर इसके पहले नील के मालिकों और कमिश्नर से भी मिलने की उन्हें जरूरत लगी।
सत्याग्रही ‘अपने पक्ष में ही सारा सत्य है’ यह मानकर नहीं चलता। वह अपना मन खुला रखता है और सामने वाले पक्ष की बात को भी पूरी-पूरी समझने की कोशिश करता है।
गांधी जी ने नील के मालिकों के संगठन के सचिव और तिरहुत के कमिश्नर को पत्र लिखा। सचिव ने तो गांधी जी को साफ सुना दिया कि ‘‘आप परदेशी कहलाएंगे। हमारे और किसानों के बीच में आपको नहीं आना चाहिए। फिर भी आपको कुछ कहना हो तो आप मुझे लिखकर बताएं।’’ गांधी जी ने सचिव से विनयपूर्वक कहा, ‘‘मैं अपने को परदेशी नहीं मानता, किसान चाहें तो मुझे उनकी स्थिति जांचने-देखने का पूरा अधिकार है।’’ कमिश्नर ने तो गांधी जी को धमकाना शुरू कर दिया और मुजफ्फरपुर से आगे बढ़े बिना तिरहुत कमिश्नरी छोड़ जाने की सलाह दी।
गांधी जी ने साथियों से बात की कि जांच करते हुए सरकार उन्हें रोके तो जेल जाने के समय जो उन्होंने सोचा है, उससे पहले भी आ सकता है। गांधी जी ने यह भी निश्चित कर लिया कि अगर बंदी बनना ही पड़े तो चंपारण जिले के मोतीहारी या बेतिया में ही गिरफ्तार होना चाहिए। मोतीहारी चंपारण जिले का मुख्य शहर था और बेतिया में राजकुमार शुक्ल का घर था। उसके आसपास के किसान ज्यादा गरीब थे, ऐसा भी गांधी जी ने सुना था।
दूसरे ही दिन गांधी जी मोतीहारी पहुंच गए। मेजबान गोरखबाबू का घर तो पहले ही दिन से मानो धर्मशाला ही बन गया। गांधी जी ने सुना कि वहां से पांचेक मील दूर एक किसान पर बहुत अत्याचार हुआ था। गांधी जी एक वकील को साथ लेकर वहां जाने के लिए हाथी पर निकले। उन दिनों बिहार में सवारी के लिए हाथी का बहुतायत में उपयोग किया जाता था। आधे रास्ते में पुलिस सुपरिंटेंडेंट के आदमियों ने आकर कहा कि आपको सुरिंटेंडेंट साहब ने सलाम कहा है। वकील को आगे जाने को कहकर गांधी जी सुपरिंटेंडेंट की किराए की गांड़ी में बैठे। गाड़ी में बैठते ही उसने गांधी जी को चंपारण छोड़ जाने का नोटिस दिया। गांधी जी ने लिख दिया कि मैं चंपारण छोड़ना चाहता। मुझे आगे बढ़कर जांच करनी है। शहर छोड़कर जाने के आदेश का अनादर करने के कारण दूसरे दिन कोर्ट में हाजिर रहने का गांधी जी को समन मिला। सारी रात जागकर गांधी जी ने कुछ जरूरी बातें लिखीं और जो सूचनाएं देनी थीं, वे ब्रजकिशोर बाबू को दीं।
गांधी जी के आंदोलन में दक्षिण अफ्रीका में ‘गिरमिटिया’ किसान (भारत से मजदूरी कराने के लिए एक ‘एग्रीमेंट’ के अंतर्गत दक्षिण अफ्रीका ले जाये गए लोग ‘गिरमिटिया’- ‘एग्रीमेंट’ का अपभ्रंश-किसान कहलाते थे।) और खान के मजदूर साथ थे और वे गरीब लोगों की सच्चाई, उनकी कष्ट सहन करने की शक्ति और उनकी वफादारी पर मुग्ध थे। साथ ही, किसी के भी साथ बात करते हुए उसकी बात बड़े ध्यान से सुनने का गांधी जी का स्वभाव था। इसी से गांधी जी और राजकुमार शुक्ल में मेल बैठ गया। गांधी जी को लगा कि राजकुमार शुक्ल की बात में सच्चाई है और किसानों के प्रति उनके मन में वास्तविक पीड़ा है। परंतु खुद जांच-पड़ताल किए बिना कोई प्रश्न हाथ में न लेने की गांधी जी की आदत थी। लखनऊ कांग्रेस के तुरंत बाद का उनका कार्यक्रम पहले से ही निश्चित हो चुका था। हां, थोड़े दिन बाद वे कलकत्ता जाने वाले थे। वहां राजकुमार शुक्ल आकर उन्हें साथ ले जाएं, यह निश्चित कर उनके साथ चंपारण जाने की बात गांधी जी ने कबूल कर ली। इसमें शायद यह भी कल्पना रही होगी कि अगर शुक्ल जी को अपने प्रश्न के समाधान में सच्ची रुचि होगी तो वह कलकत्ता पहुंच जाएंगे और अगर उनकी बात गंभीर नहीं होगी तो वे कलकत्ता तक आने का जहमत उठाएंगे ही नहीं। परंतु कलकत्ता की बैठक के समय राजकुमार शुक्ल तो सचमुच आ पहुंचे और गांधी जी भी अपने दिये गए वचन को निभाने हेतु दूसरे कार्यक्रम छोड़कर राजकुमार शुक्ल के साथ चंपारण जाने को तैयार हो गए। इस तरह गांधी जी की अपने देश की पहली सत्याग्रह यात्रा की शुरुआत हुई।
कलकत्ते से दोनों पटना गए। राजकुमार गांधी जी को बाबू राजेंद्र प्रसाद के यहां ले गए, परंतु वे घर पर नहीं थे। गांधी जी की पटना के मौलाना मजहरुल हक़ से पूर्व पहचान थी। उन्हें चिट्ठी लिखी। मौलाना स्वयं गाड़ी लेकर लेने आए। परंतु उनके घर रुकने के आग्रह को छोड़कर गांधी जी ने उनसे चंपारण जाने की व्यवस्था करने की बात कही। मौलाना ने गांधी जी को पहले मुजफ्करपुर जाने को कहा। आचार्य कृपलानी उन्हें तथा गांधी जी को पहचानते थे। आघी रात को गांधी जी की ट्रेन मुजफ्फरपुर पहुंची। वहां आचार्य कृ़पलानी अपनी शिष्य मंडली के साथ गांधी जी का स्वागत करने के लिए स्टेशन पर खड़े थे। मुजफ्फरपुर में गांधी जी से बिहार के कुछ वकील मिले। उन्होंने उनसे कहा कि राजकुमार शुक्ल द्वारा की गई फरियाद में सच्चाई है। किसानों की ओर से कोट में केस लड़ने वाले ये वकील अच्छी-खासी फीस लिया करते थे। गांधी जी ने उनसे इस पीड़ित प्रजा को कोर्ट-कचहरी के जंजाल से मुक्त करने की सलाह दी। उन्होंने कहा, ‘‘जहाँ लोग इतने भयभीत रहते हों, वहां कचहरी के मार्फत इलाज थोड़े ही होगा ? लोगों का डर निकालना ही उनके लिए और असली औषधि है।’’
उत्तर बिहार में नील की खेती होती थी।
नील के भाव अंतर्राष्ट्रीय बाजार के हिसाब से घटते-बढ़ते रहते। भाव बढ़े चाहे घटे, तब भी अपने कारखानों को कच्चा माल नियमित रूप से मिलता रहे, इस दृष्टि से नील के गोरे कारखाने वालों (जिन्हें ‘नीलवर’ कहा जाता था) ने ऐसी परंपरा डाली की प्रत्येक किसान को अनिवार्य रूप से अपने खेत में तीन कट्ठा जमीन पर नील की खेती करनी होगी। किसानों को नील की खेती महंगी पड़ती थी, तो भी उसके लिए नीलवर उन पर तरह-तरह के अत्याचार करते थे। गांधी जी इसकी ही जांच करने निकले थे। गांधी जी ने रोग की जड़ पकड़ी और वकीलों से कहा कि जब तक तिनकठिया प्रथा खत्म न हो जाए, तब तक हम चैन से नहीं बैठ सकते। गांधी जी ने यह भी देख लिया था कि वे तो दो दिन के लिए परिस्थिति देखने आए हैं, पर इस काम में तो दो बरस लग सकते हैं। खुद इसकी तैयारी रखकर उन्होंने वकीलों से कहा कि इस काम में उनकी मदद की जरूरत पड़ेगी। वकीलों ने पूरी रात गांधी जी के साथ चर्चा में बिताई। गांधी जी ने उनसे कहा कि ‘‘मुझे तुम्हारी वकालत की शक्ति का कम काम पड़ेगा, तुम्हारे जैसों से मैं कातिब का और दुभाषिया का काम चाहता हूं। इसमें जेल भी जाना पड़ सकता है। तुम यह जोखिम उठाओ, यह मुझे अच्छा लगेगा। पर वह न उठाना हो तो भले ही न उठाओ, पर वकील न रहकर कातिब होना और अपना धंधा अनिश्चित समय के लिए छोड़ देना-यह कुछ कम नहीं मांग रहा हूं।’’
बिहार के अग्रणी वकील श्री ब्रजकिशोर बाबू ने गांधी जी की बात को समझा। उन्होंने अच्छी तरह प्रश्न पूछकर पूरी बात को स्पष्ट कर लिया। अंत में अपना निश्चय बताया, ‘‘हम इतने लोग, आप जो भी काम सौंपेंगे, उसे करने के लिए तैयार रहेंगे। जेल जाने की बात नई है। उसके लिए शक्ति प्राप्त करने की कोशिश करेंगे।’’
गांधी जी को तो किसानों की हालत की जांच करनी थी। फरियादों में कितना सत्य है, यह देखना था। उसके बारे में हजारों मजदूरों से मिलना था। पर इसके पहले नील के मालिकों और कमिश्नर से भी मिलने की उन्हें जरूरत लगी।
सत्याग्रही ‘अपने पक्ष में ही सारा सत्य है’ यह मानकर नहीं चलता। वह अपना मन खुला रखता है और सामने वाले पक्ष की बात को भी पूरी-पूरी समझने की कोशिश करता है।
गांधी जी ने नील के मालिकों के संगठन के सचिव और तिरहुत के कमिश्नर को पत्र लिखा। सचिव ने तो गांधी जी को साफ सुना दिया कि ‘‘आप परदेशी कहलाएंगे। हमारे और किसानों के बीच में आपको नहीं आना चाहिए। फिर भी आपको कुछ कहना हो तो आप मुझे लिखकर बताएं।’’ गांधी जी ने सचिव से विनयपूर्वक कहा, ‘‘मैं अपने को परदेशी नहीं मानता, किसान चाहें तो मुझे उनकी स्थिति जांचने-देखने का पूरा अधिकार है।’’ कमिश्नर ने तो गांधी जी को धमकाना शुरू कर दिया और मुजफ्फरपुर से आगे बढ़े बिना तिरहुत कमिश्नरी छोड़ जाने की सलाह दी।
गांधी जी ने साथियों से बात की कि जांच करते हुए सरकार उन्हें रोके तो जेल जाने के समय जो उन्होंने सोचा है, उससे पहले भी आ सकता है। गांधी जी ने यह भी निश्चित कर लिया कि अगर बंदी बनना ही पड़े तो चंपारण जिले के मोतीहारी या बेतिया में ही गिरफ्तार होना चाहिए। मोतीहारी चंपारण जिले का मुख्य शहर था और बेतिया में राजकुमार शुक्ल का घर था। उसके आसपास के किसान ज्यादा गरीब थे, ऐसा भी गांधी जी ने सुना था।
दूसरे ही दिन गांधी जी मोतीहारी पहुंच गए। मेजबान गोरखबाबू का घर तो पहले ही दिन से मानो धर्मशाला ही बन गया। गांधी जी ने सुना कि वहां से पांचेक मील दूर एक किसान पर बहुत अत्याचार हुआ था। गांधी जी एक वकील को साथ लेकर वहां जाने के लिए हाथी पर निकले। उन दिनों बिहार में सवारी के लिए हाथी का बहुतायत में उपयोग किया जाता था। आधे रास्ते में पुलिस सुपरिंटेंडेंट के आदमियों ने आकर कहा कि आपको सुरिंटेंडेंट साहब ने सलाम कहा है। वकील को आगे जाने को कहकर गांधी जी सुपरिंटेंडेंट की किराए की गांड़ी में बैठे। गाड़ी में बैठते ही उसने गांधी जी को चंपारण छोड़ जाने का नोटिस दिया। गांधी जी ने लिख दिया कि मैं चंपारण छोड़ना चाहता। मुझे आगे बढ़कर जांच करनी है। शहर छोड़कर जाने के आदेश का अनादर करने के कारण दूसरे दिन कोर्ट में हाजिर रहने का गांधी जी को समन मिला। सारी रात जागकर गांधी जी ने कुछ जरूरी बातें लिखीं और जो सूचनाएं देनी थीं, वे ब्रजकिशोर बाबू को दीं।
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