ऐतिहासिक >> शाहंशाह शाहंशाहनागनाथ इनामदार
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प्रस्तुत है एक ऐतिहासिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पूरे हिन्दुस्तान पर अपनी सख्त हुकूमत चलाने के लिए प्रसिद्ध शाहंशाह
आलमगीर औरंगजेब की जिन्दगी इतिहास के भीतर और बाहर एक अजीब रसायन में
डूबी-सी लगती है। निकटवर्ती रिश्तेदार उसकी प्रशंसा करते समय हिचकिचाते
हैं तो दुश्मन उसकी निन्दा करने में सम्भ्रमित रहते हैं। बन्धु हत्या और
पितृ-कारावास जैसे कार्यों का गुनहगार था वह शाहंशाह। दुनिया के समकालीन
सत्ताधीश भी उसके बारे में कभी ठीक से अन्दाजा नहीं लगा सके। कहा जाता है
कि तख्ते-ताउस पर बैठकर शाहंशाह जब अपनी हुकूमत चला रहा था, दूर विलायत से
लन्दन के रंगमंच पर तब उसकी रोमांचकारी जीवनी पर नाटक खेला जा रहा था।
एक लम्बी उम्र, लक्ष्य को सफल बनानेवाली जिद और अपने नियत कार्य पर निष्ठा रखते हुए अथक कष्ट उठाने का साहस लेकर हिन्दुस्तान का यह बादशाह अपने जनानखाने से लेकर सियासत तक का कामकाज देख रहा था। लेकिन हर बात की बारीकी से खबर रखने वाले आलमगीर को अपनी ढलती उम्र में अनादिकाल से चली आयी अटल शोकान्तिका का भी सामना आखिरकार करना ही पड़ा। जाहिर है कि इस मोड़ पर विचार और विकार अपनी जगह बदले हैं; ऐसी स्थिति में शाहंशाह ने अपने अन्दर के मनुष्य को किस तरह सँभाला होगा यह ऊहापोह साहित्यकर्मियों, खास तौर से कथाकारों को सदा सोचने पर बाध्य करता आया है। मराठी कथाकार नागनाथ इनामदार ने अपने इस वृहद् उपन्यास में औरंगजेब के जीवन-कर्म और उसके परिवेश को एक विराट् फलक पर रूपायित करने की कोशिश की है, उन पर बहुआयामी प्रकाश डाला है। शाहंशाह के भीतर के मनुष्य को समझने का यह भी तो एक तरीका है। इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी पाठकों को यह उपन्यास रुचिकर तो लगेगा ही, विचार के लिए नयी सामग्री भी देगा।
एक लम्बी उम्र, लक्ष्य को सफल बनानेवाली जिद और अपने नियत कार्य पर निष्ठा रखते हुए अथक कष्ट उठाने का साहस लेकर हिन्दुस्तान का यह बादशाह अपने जनानखाने से लेकर सियासत तक का कामकाज देख रहा था। लेकिन हर बात की बारीकी से खबर रखने वाले आलमगीर को अपनी ढलती उम्र में अनादिकाल से चली आयी अटल शोकान्तिका का भी सामना आखिरकार करना ही पड़ा। जाहिर है कि इस मोड़ पर विचार और विकार अपनी जगह बदले हैं; ऐसी स्थिति में शाहंशाह ने अपने अन्दर के मनुष्य को किस तरह सँभाला होगा यह ऊहापोह साहित्यकर्मियों, खास तौर से कथाकारों को सदा सोचने पर बाध्य करता आया है। मराठी कथाकार नागनाथ इनामदार ने अपने इस वृहद् उपन्यास में औरंगजेब के जीवन-कर्म और उसके परिवेश को एक विराट् फलक पर रूपायित करने की कोशिश की है, उन पर बहुआयामी प्रकाश डाला है। शाहंशाह के भीतर के मनुष्य को समझने का यह भी तो एक तरीका है। इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी पाठकों को यह उपन्यास रुचिकर तो लगेगा ही, विचार के लिए नयी सामग्री भी देगा।
शाहंशाह
.....आदमी सच से रूबरू होता ही नहीं है। वह फरेबबाजी को चालू ही रखता है,
बिना वजह तकलीफ उठाते हुए बिलकुल बेहिसाब भाग-दौड़ करते हुए, और इस उम्मीद
पर जीते हुए वह अपना एक-एक आनन्द, अपना एक-एक सुख अनजाने गँवाता जाता है।
बीती हुई जिन्दगी तो वह किसी हालत में दुबारा नहीं जी पाता....जिन्दगी के
रौनक से भरपूर गुलाबी सवेरे में जो कभी जो उसके हाथों में नहीं आ सका, वह
ढलती उम्र में उसको मिल जाएगा, यह ख्याल कर आदमी अपना हाथ बढ़ाकर उसको
पकड़ने के लिए हाथ-पैर पटकता रहता है। कभी तो अपने दिल की मुराद पूरी
होगी, यह सोचकर वह पूरी ताकत से किस्मत से टक्कर लेता रहता है। लेकिन जब
अपना खोखलापन वह जान पाता है, तब उसकी देह पर रह जाती है चन्द धज्जियाँ और
जख्म, और चारों ओर होता है अन्धकार-अन्तहीन अन्धकार। धमनियों का खून सूख
चुका होता है। आँखें हमेशा को बन्द होने को मिचने लगती हैं।....
शाहंशाह
तापी के तट पर ग्रीष्म ऋतु का भास होने लगा था। दोपहर को गरम हवाएँ नदी के
तट पर सघन हरी अमराई को कुछ न गठानती हुई बुरहानपुर शहर की इमारतों के
पत्थरों को तप्त कर रही थीं।
जामा मस्जिद की ऊँची मीनारों के प्रतिबिम्ब तापी की धारा में थिरक रहे थे। मीनार से दोपहर की नमाज की बाँग तीव्र स्वर में उठी। बुरहारन पुर की परली ओर जहाँनाबादी बगीचे में मुमताजमहल की कब्र के पास हलचल शुरू हो गयी। कब्र घनी झाड़ी से ढकी हुई थी। कब्र के चारों ओर पुरुष के बराबर ऊँची सफेद कनात लगी हुई थी।
मुमताज की संगमरमर की कब्र के पास घुटने टेककर मलिका बानू प्रार्थना कर रही थी। चेहरे पर पड़ा हुआ काला बुरका उसने पीछे की ओर उलट दिया था। अपने नाजुक हाथ ऊपर करके अल्लाह से अपनी बहिन की आत्मा की शान्ति की दुआ माँग रही थी। प्रार्थना समाप्त कर मस्तक को धरती पर टेककर उसने क्षणभर कब्र की ओर देखा। कुछ देर बाद दीर्घ उच्छ्वास छोड़कर वह खड़ी हो गयी। कब्र की ओर बने नक्काशीदार दरवाजे के पास उसकी दासी हाथों में जूतियाँ लिये अदब़ से खड़ी मालकिन का इन्तजार कर रही थी। बानू ने इमारत के बाहर कदम रखा। दासी ने झुककर तत्क्षण जूतियाँ उसके पैरों के पास रख दीं।
मलिका बानू अपने ही विचार में लीन थी। पास ही पीठ दिये पालकी के कहार सिर झुकाए खड़े थे। पालकी के पास आते ही उसके कानों में शब्द पड़े, ‘‘बेगम साहिबा, इजाजत हो तो अर्ज करूँ !’’ आगे बढ़ाया हुआ पैर रोककर मलिका बानू ने मुड़कर पीछे देखा। बुरका की नकाब अभी पीछे ही पड़ी थी। सामने दासी खड़ी थी। वह आगे आकर बोली, ‘‘एक अर्ज करनी है।’’
‘‘हाँ, बोल।’’
‘‘औरंगजेब यहाँ आनेवाले हैं—’’
मलिका बानू के चेहरे पर नाराजगी की सलवट पड़ गयी। दासी का बोलना बीच में ही रोककर वह बोली, ‘‘हीरा, तुझको कितनी बार कह चुकी हूँ कि औरंगजेब मेरी बहिन का लड़का है इसलिए मैं उसका नाम लेती हूँ। परन्तु बदतमीज, तेरे मुँह से वह शब्द शोभा नहीं देता।’’
‘‘माफ कीजिए बेगम साहिबा, गलती हो गयी।’’ हीरा जमीन की ओर देखती हुई बोली, ‘‘शाहजादे साहब जल्दी ही यहाँ आने वाले हैं।’’
‘‘तो क्या हुआ ? उसी की तो यह सारी तैयार हो रही है।’’
इसी मामले में तो एक अजीब बात दिखाई दे रही है। रहा नहीं गया, इसलिए बेगम साहिबा को वह कहने की इच्छा हुई।’’
‘‘बोलो।’’
‘‘कई दिन पहले बेगम साहिबा ने बुरहानपुर के जौहरियों और कपड़े के व्यापारियों को बुलाकर शहजादे साहब के लिए तरह-तरह के जवाहरात और कीमती कपड़े खरीदकर कोठी पर पहुँचाने का हुक्म दिया था।’’
‘‘हमको याद है इसकी। अब तक जवाहरात और कपड़े कोठी पर पहुँच गए होंगे।’’
‘‘नहीं बेगम साहिबा, कोठी पर कुछ नहीं आया है।
‘‘क्यों ?’’ नाजुक ऊँची भौहें ऊँची कर मलिका बानू ने पूछा।
‘‘खान साहब ने मना कर दिया है।’’
‘‘खान साहब ने ? आश्चर्य से। परन्तु किसलिए ?’’
‘‘कारण नहीं मालूम पड़ा। परन्तु आज सुबह ही आगरे से कोई जरूरी खलीता आया था, उसको पढ़कर खान साहब ने झटपट हुक्म भेजकर जवाहरात और कपड़े लेकर आनेवाले व्यापारियों को मना कर दिया।’’
‘‘तेरी खबर पक्की है ?’’
‘‘हाँ बेगम साहिबा, इन कानों ने जो सुना वह कह दिया। शाहजादे साहब पर आपकी बड़ी ममता है। दक्षिण में जाने के लिए वे बुरहानपुर आ रहे हैं। उनके स्वागत के लिए आप कितनी तैयारी कर रही हैं, यह सब मैं देख रही हूँ। इसलिए आज की घटना पर मुझको बड़ा आश्चर्य हुआ।’’
‘‘अच्छा ! खान साहब इस समय कहाँ हैं ?’’
‘‘यहीं हैं। शाहजादे साहब उनकी छावनी की व्यवस्था यहीं की जा रही है। उसकी देखभाल वे खुद कर रहे हैं।’’
मलिका बानू ने ताली बजायी। सुनते ही दूसरी ओर से एक खोजा दौड़कर आया और मुजरा करके खड़ा हो गया। उसकी ओर देखते हुए मलिका बानू ने आवाज चढ़ाकर कहा, ‘‘खान साहब से कहो कि हम उनसे मिलना चाहती हैं।’’
हुक्म सुनकर भी तामीर करने की बजाय खोजा वहीं खड़ा था। मालकिन की ओर देखता हुआ वह झिझककर बोला, ‘‘हुक्म की तामील बस अभी करता हूँ। परन्तु एक खबर देने आ रहा था कि बेगम साहिबा ने याद फरमाया इसलिए दौड़ता आया।’’
‘‘कैसी खबर ?’’
‘‘दानिशमन्दखान आगरे से आये हैं।’’
‘‘यह हमें मालूम है।’’
‘‘वे बेगम साहिबा से जल्दी से जल्दी मिलना चाहते हैं। इजाजत लेने के लिए उन्होंने मुझको भेजा है।’’
‘‘हमसे मिलना चाहते हैं ?’’
‘हाँ बेगम साहिबा, खान साहब के तम्बू से वे सीधे जनानखाने की ओर आये हैं। बाहर दारोगा के तम्बू में मिलने के लिए रुके हुए हैं।’’
‘‘ठीक है। उनसे कहो कि हम इस समय फुर्सत में है। हम जनानखाने के महल में बैठती हैं।’’
‘‘जो इर्शाद।’’
जनानखाने के कमरे में मखमल का परदा टँगा हुआ था। उसके बाहर बैठक में मनसद लगी हुई थी। परदे के पीछे मलिका बानू जाकर बैठ गयी। उसी समय खोजा ने दानिशमन्दखान को परदे के सामने हाजिर किया। परदे में बने हुए झरोखे से मलिका बानू ने बाहर देखा। ठोड़ी पर दाढ़ी रखे हुए तीस वर्ष का खान बाहर खड़ा था। जैसे ही खोजा ने नाम लिया, नीचे की ओर झुककर उसने बायें हाथ से पैरों तक लटकते अँगरखे को सँवारकर मुजरा किया।
‘‘कहिए खान साहब, क्या अर्ज है ?’’ मलिका बानू ने परदे के पीछे से पूछा।
‘‘बात जरा परेशानीतलब है, इसलिए मैं इतनी जल्दी आया हूँ।’’
‘‘बोलिए खानसाहब, हमारे बहिनौत औरंगजेब यहाँ कब तक पहुँच रहे हैं ?’’
‘‘चम्बल तक मैं शहजादे के साथ था। वहाँ से शिकार के लिए वे थोड़े से चुने हुए लोग लेकर जंगल में चले गये। मुझको उन्होंने आगरे से जनानखाना लाने के लिए रवाना कर दिया।’’
यह खबर हमको बहुत पहिले ही मिल गयी है। आप उनका जनानखाना ले आये हैं ?’’
‘‘जी नहीं, बेगम साहिबा। यही कहने के लिए आया हूँ।’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘मैं जनानखाना नहीं ला सका।’’
‘‘लेकिन क्यों ?’’
‘‘इजाजत नहीं मिली।’’
‘‘इजाजत ? और किसकी इजाजत चाहिए थी ? शाहजादे आज-कल में ही यहाँ पहुँचने वाले हैं। उनका जनानखाना उनसे पहले यहाँ नहीं पहुँचा है, यह मालूम पड़ने पर वो खफा हो जाएँगे, यह मालूम है न ?’’
‘‘हाँ, अच्छी तरह मालूम है।’’
‘‘तो फिर जनानखाना लाने में कसूर क्यों किया ?’’
‘‘कसूर मैंने नहीं किया, बेगम साहिबा।’’
‘‘फिर किसने किया ?’’
‘‘जैसा कि तय हुआ था, शाहजादे साहब का जनानखाना लेने के लिए मैं आगरा गया। वहाँ पहुँचते ही शाही गुर्जबरदारों ने मुझपर हुक्म चलाया।’’
‘‘बड़े आश्चर्य की बात है विश्वास नहीं होता।’’
‘‘बात ही ऐसी हुई है कि विश्वास नहीं हो सकता।’’
‘‘लेकिन आखिर ऐसा हुआ क्या जो शाही चोबदारों को हुक्म देना पड़ा ?’’
‘‘उनके पास बादशाही हुक्म था।’’
‘‘क्या हुक्म था ?’’
‘‘हुक्म यह था कि शाहजादे औरंगजेब दक्षिण जा रहे हैं, इसलिए यदि वे अपना जनानखाना और कुटुम्ब-कबीला दक्षिण में ले जाना चाहेंगे तो इसके लिए बादशाह की इजाजत नहीं है। शाहजादे का जनानखाना आगरे से बाहर नहीं जाएगा।’’
‘‘अच्छा ! तो बादशाह सलामत ने औरंगजेब का जनानखाना आगरा जाने से रोक दिया है ?’’
‘‘मतलब तो यही निकलता है।’’
फिर तुमने क्या किया ?’’
‘‘मैं फौरन बादशाह सलामत के पास गया।’’
‘‘और तब ?’’
‘‘बादशाह सलमात ने मुझको मिलने की इजाजत नहीं दी। शाही जनानखाने के दारोगा ने बाहर-ही-बाहर मुझको सारी बातें बता दीं।’’
‘‘क्या बाते बतायीं ?’’
‘‘शाहजादे दारा ने बादशाह से हुक्म लिया है कि औरंगजेब का जनानखाना आगरे में ही रोककर रखा जाय।’’
‘‘शाहजादे दारा साहब ने ऐसा किया ?’’
‘‘उस दारोगा ने मुझको यही बताया था।’’
‘‘अफसोस ! यह जब औरंगजेब को पता चलेगा तब क्या होगा, यह समझ में नहीं आता। या अल्लाह ! आगरे में क्या हो रहा है ? दारा और औरंगजेब में इतनी दुश्मनी क्यों है, यही समझ में नहीं आता।’’
‘‘‘लेकिन बेगम साहिबा—’’ दानिशमन्द खान बीच में ही बोला, ‘‘दोनों में चाहे जितनी दुश्मनी हो फिर भी बादशाह सलामत को एक की तरफदारी नहीं करनी चाहिए थी।’’
‘‘अल्लाह जाने इसका नतीजा क्या होगा ! दारा, औरंगजेब, शुजा, मुराद सब मेरी ही बहिन के लड़के हैं। उसकी माँ की आत्मा की शान्ति के लिए मैं उसी की कब्र पर अल्लाह से प्रार्थना कर रही थी। अल्लाह की बड़ी मेहरबानी समझनी चाहिए कि कि बड़े होकर बेटों का यह यह व्यवहार दिखायी पड़ने से पहले ही मुमताज बेगम अल्लाह के घर चली गयीं। उनका नाजुक दिल इन बातों से टूक-टूक हो गया होता।’’
‘‘हुक्म हो तो कुछ अर्ज करूँ !’’
‘‘हाँ, बोलिए खानसाहब।’’
‘‘मुमताज बेगम अगर जिन्दा होतीं तो शायद ऐसा न भी होता। शाहजादे औरंगजेब कभी-कभी ऐसी बातें कहते भी हैं।...
जामा मस्जिद की ऊँची मीनारों के प्रतिबिम्ब तापी की धारा में थिरक रहे थे। मीनार से दोपहर की नमाज की बाँग तीव्र स्वर में उठी। बुरहारन पुर की परली ओर जहाँनाबादी बगीचे में मुमताजमहल की कब्र के पास हलचल शुरू हो गयी। कब्र घनी झाड़ी से ढकी हुई थी। कब्र के चारों ओर पुरुष के बराबर ऊँची सफेद कनात लगी हुई थी।
मुमताज की संगमरमर की कब्र के पास घुटने टेककर मलिका बानू प्रार्थना कर रही थी। चेहरे पर पड़ा हुआ काला बुरका उसने पीछे की ओर उलट दिया था। अपने नाजुक हाथ ऊपर करके अल्लाह से अपनी बहिन की आत्मा की शान्ति की दुआ माँग रही थी। प्रार्थना समाप्त कर मस्तक को धरती पर टेककर उसने क्षणभर कब्र की ओर देखा। कुछ देर बाद दीर्घ उच्छ्वास छोड़कर वह खड़ी हो गयी। कब्र की ओर बने नक्काशीदार दरवाजे के पास उसकी दासी हाथों में जूतियाँ लिये अदब़ से खड़ी मालकिन का इन्तजार कर रही थी। बानू ने इमारत के बाहर कदम रखा। दासी ने झुककर तत्क्षण जूतियाँ उसके पैरों के पास रख दीं।
मलिका बानू अपने ही विचार में लीन थी। पास ही पीठ दिये पालकी के कहार सिर झुकाए खड़े थे। पालकी के पास आते ही उसके कानों में शब्द पड़े, ‘‘बेगम साहिबा, इजाजत हो तो अर्ज करूँ !’’ आगे बढ़ाया हुआ पैर रोककर मलिका बानू ने मुड़कर पीछे देखा। बुरका की नकाब अभी पीछे ही पड़ी थी। सामने दासी खड़ी थी। वह आगे आकर बोली, ‘‘एक अर्ज करनी है।’’
‘‘हाँ, बोल।’’
‘‘औरंगजेब यहाँ आनेवाले हैं—’’
मलिका बानू के चेहरे पर नाराजगी की सलवट पड़ गयी। दासी का बोलना बीच में ही रोककर वह बोली, ‘‘हीरा, तुझको कितनी बार कह चुकी हूँ कि औरंगजेब मेरी बहिन का लड़का है इसलिए मैं उसका नाम लेती हूँ। परन्तु बदतमीज, तेरे मुँह से वह शब्द शोभा नहीं देता।’’
‘‘माफ कीजिए बेगम साहिबा, गलती हो गयी।’’ हीरा जमीन की ओर देखती हुई बोली, ‘‘शाहजादे साहब जल्दी ही यहाँ आने वाले हैं।’’
‘‘तो क्या हुआ ? उसी की तो यह सारी तैयार हो रही है।’’
इसी मामले में तो एक अजीब बात दिखाई दे रही है। रहा नहीं गया, इसलिए बेगम साहिबा को वह कहने की इच्छा हुई।’’
‘‘बोलो।’’
‘‘कई दिन पहले बेगम साहिबा ने बुरहानपुर के जौहरियों और कपड़े के व्यापारियों को बुलाकर शहजादे साहब के लिए तरह-तरह के जवाहरात और कीमती कपड़े खरीदकर कोठी पर पहुँचाने का हुक्म दिया था।’’
‘‘हमको याद है इसकी। अब तक जवाहरात और कपड़े कोठी पर पहुँच गए होंगे।’’
‘‘नहीं बेगम साहिबा, कोठी पर कुछ नहीं आया है।
‘‘क्यों ?’’ नाजुक ऊँची भौहें ऊँची कर मलिका बानू ने पूछा।
‘‘खान साहब ने मना कर दिया है।’’
‘‘खान साहब ने ? आश्चर्य से। परन्तु किसलिए ?’’
‘‘कारण नहीं मालूम पड़ा। परन्तु आज सुबह ही आगरे से कोई जरूरी खलीता आया था, उसको पढ़कर खान साहब ने झटपट हुक्म भेजकर जवाहरात और कपड़े लेकर आनेवाले व्यापारियों को मना कर दिया।’’
‘‘तेरी खबर पक्की है ?’’
‘‘हाँ बेगम साहिबा, इन कानों ने जो सुना वह कह दिया। शाहजादे साहब पर आपकी बड़ी ममता है। दक्षिण में जाने के लिए वे बुरहानपुर आ रहे हैं। उनके स्वागत के लिए आप कितनी तैयारी कर रही हैं, यह सब मैं देख रही हूँ। इसलिए आज की घटना पर मुझको बड़ा आश्चर्य हुआ।’’
‘‘अच्छा ! खान साहब इस समय कहाँ हैं ?’’
‘‘यहीं हैं। शाहजादे साहब उनकी छावनी की व्यवस्था यहीं की जा रही है। उसकी देखभाल वे खुद कर रहे हैं।’’
मलिका बानू ने ताली बजायी। सुनते ही दूसरी ओर से एक खोजा दौड़कर आया और मुजरा करके खड़ा हो गया। उसकी ओर देखते हुए मलिका बानू ने आवाज चढ़ाकर कहा, ‘‘खान साहब से कहो कि हम उनसे मिलना चाहती हैं।’’
हुक्म सुनकर भी तामीर करने की बजाय खोजा वहीं खड़ा था। मालकिन की ओर देखता हुआ वह झिझककर बोला, ‘‘हुक्म की तामील बस अभी करता हूँ। परन्तु एक खबर देने आ रहा था कि बेगम साहिबा ने याद फरमाया इसलिए दौड़ता आया।’’
‘‘कैसी खबर ?’’
‘‘दानिशमन्दखान आगरे से आये हैं।’’
‘‘यह हमें मालूम है।’’
‘‘वे बेगम साहिबा से जल्दी से जल्दी मिलना चाहते हैं। इजाजत लेने के लिए उन्होंने मुझको भेजा है।’’
‘‘हमसे मिलना चाहते हैं ?’’
‘हाँ बेगम साहिबा, खान साहब के तम्बू से वे सीधे जनानखाने की ओर आये हैं। बाहर दारोगा के तम्बू में मिलने के लिए रुके हुए हैं।’’
‘‘ठीक है। उनसे कहो कि हम इस समय फुर्सत में है। हम जनानखाने के महल में बैठती हैं।’’
‘‘जो इर्शाद।’’
जनानखाने के कमरे में मखमल का परदा टँगा हुआ था। उसके बाहर बैठक में मनसद लगी हुई थी। परदे के पीछे मलिका बानू जाकर बैठ गयी। उसी समय खोजा ने दानिशमन्दखान को परदे के सामने हाजिर किया। परदे में बने हुए झरोखे से मलिका बानू ने बाहर देखा। ठोड़ी पर दाढ़ी रखे हुए तीस वर्ष का खान बाहर खड़ा था। जैसे ही खोजा ने नाम लिया, नीचे की ओर झुककर उसने बायें हाथ से पैरों तक लटकते अँगरखे को सँवारकर मुजरा किया।
‘‘कहिए खान साहब, क्या अर्ज है ?’’ मलिका बानू ने परदे के पीछे से पूछा।
‘‘बात जरा परेशानीतलब है, इसलिए मैं इतनी जल्दी आया हूँ।’’
‘‘बोलिए खानसाहब, हमारे बहिनौत औरंगजेब यहाँ कब तक पहुँच रहे हैं ?’’
‘‘चम्बल तक मैं शहजादे के साथ था। वहाँ से शिकार के लिए वे थोड़े से चुने हुए लोग लेकर जंगल में चले गये। मुझको उन्होंने आगरे से जनानखाना लाने के लिए रवाना कर दिया।’’
यह खबर हमको बहुत पहिले ही मिल गयी है। आप उनका जनानखाना ले आये हैं ?’’
‘‘जी नहीं, बेगम साहिबा। यही कहने के लिए आया हूँ।’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘मैं जनानखाना नहीं ला सका।’’
‘‘लेकिन क्यों ?’’
‘‘इजाजत नहीं मिली।’’
‘‘इजाजत ? और किसकी इजाजत चाहिए थी ? शाहजादे आज-कल में ही यहाँ पहुँचने वाले हैं। उनका जनानखाना उनसे पहले यहाँ नहीं पहुँचा है, यह मालूम पड़ने पर वो खफा हो जाएँगे, यह मालूम है न ?’’
‘‘हाँ, अच्छी तरह मालूम है।’’
‘‘तो फिर जनानखाना लाने में कसूर क्यों किया ?’’
‘‘कसूर मैंने नहीं किया, बेगम साहिबा।’’
‘‘फिर किसने किया ?’’
‘‘जैसा कि तय हुआ था, शाहजादे साहब का जनानखाना लेने के लिए मैं आगरा गया। वहाँ पहुँचते ही शाही गुर्जबरदारों ने मुझपर हुक्म चलाया।’’
‘‘बड़े आश्चर्य की बात है विश्वास नहीं होता।’’
‘‘बात ही ऐसी हुई है कि विश्वास नहीं हो सकता।’’
‘‘लेकिन आखिर ऐसा हुआ क्या जो शाही चोबदारों को हुक्म देना पड़ा ?’’
‘‘उनके पास बादशाही हुक्म था।’’
‘‘क्या हुक्म था ?’’
‘‘हुक्म यह था कि शाहजादे औरंगजेब दक्षिण जा रहे हैं, इसलिए यदि वे अपना जनानखाना और कुटुम्ब-कबीला दक्षिण में ले जाना चाहेंगे तो इसके लिए बादशाह की इजाजत नहीं है। शाहजादे का जनानखाना आगरे से बाहर नहीं जाएगा।’’
‘‘अच्छा ! तो बादशाह सलामत ने औरंगजेब का जनानखाना आगरा जाने से रोक दिया है ?’’
‘‘मतलब तो यही निकलता है।’’
फिर तुमने क्या किया ?’’
‘‘मैं फौरन बादशाह सलामत के पास गया।’’
‘‘और तब ?’’
‘‘बादशाह सलमात ने मुझको मिलने की इजाजत नहीं दी। शाही जनानखाने के दारोगा ने बाहर-ही-बाहर मुझको सारी बातें बता दीं।’’
‘‘क्या बाते बतायीं ?’’
‘‘शाहजादे दारा ने बादशाह से हुक्म लिया है कि औरंगजेब का जनानखाना आगरे में ही रोककर रखा जाय।’’
‘‘शाहजादे दारा साहब ने ऐसा किया ?’’
‘‘उस दारोगा ने मुझको यही बताया था।’’
‘‘अफसोस ! यह जब औरंगजेब को पता चलेगा तब क्या होगा, यह समझ में नहीं आता। या अल्लाह ! आगरे में क्या हो रहा है ? दारा और औरंगजेब में इतनी दुश्मनी क्यों है, यही समझ में नहीं आता।’’
‘‘‘लेकिन बेगम साहिबा—’’ दानिशमन्द खान बीच में ही बोला, ‘‘दोनों में चाहे जितनी दुश्मनी हो फिर भी बादशाह सलामत को एक की तरफदारी नहीं करनी चाहिए थी।’’
‘‘अल्लाह जाने इसका नतीजा क्या होगा ! दारा, औरंगजेब, शुजा, मुराद सब मेरी ही बहिन के लड़के हैं। उसकी माँ की आत्मा की शान्ति के लिए मैं उसी की कब्र पर अल्लाह से प्रार्थना कर रही थी। अल्लाह की बड़ी मेहरबानी समझनी चाहिए कि कि बड़े होकर बेटों का यह यह व्यवहार दिखायी पड़ने से पहले ही मुमताज बेगम अल्लाह के घर चली गयीं। उनका नाजुक दिल इन बातों से टूक-टूक हो गया होता।’’
‘‘हुक्म हो तो कुछ अर्ज करूँ !’’
‘‘हाँ, बोलिए खानसाहब।’’
‘‘मुमताज बेगम अगर जिन्दा होतीं तो शायद ऐसा न भी होता। शाहजादे औरंगजेब कभी-कभी ऐसी बातें कहते भी हैं।...
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