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वोले शोयिंका की कवितायें

वीरेन्द्र कुमार बरनवाल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :241
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5760
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत हैं कविताएँ........

Vole shoyinka ki kavitayein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


अश्वेत अफ्रीका की परंपरा, संस्कृति और धार्मिक विश्वास में युगों-युगों से रचे-बसे मिथकों की काव्यात्मकता और उनकी नई रचनात्मक सम्भावनाओं को शोयिंका ने ही पहली बार पहचाना। प्राचीन यूनानी मिथकों की आधुनिक योरोपीय व्याख्या से प्रेरित हो उन्होंने योरूबा देवमाला की सर्वथा नई दृष्टि से देखा। साहित्य और कला के अपार रचना-सामर्थ्य को प्रतिबिम्बित करने वाले योरूबा देवता ओगुन इस नव्य दृष्टिकोण को रेखांकित करती है।

ओगुन के माध्यम से शोयिंका अपने व्यापक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य की अभिव्यक्ति करते हैं। ओगुन की गौरवशाली मिथकीय परम्परा और महिमा के अनुरूप काव्य शैली की उद्भावना कर वह मनुष्य के अस्तित्व पर अपनी टिप्पणी करते हैं। यद्यपि उनके उपन्यास ‘दि इन्टरर्प्रेटर्स और नाटक ‘दि डान्स आफ फारेस्टस’ तथा ‘दि रोड’ जैसी गद्य कृतियों में ओगुन की सबल उपस्थिति को नजर अन्दाज करना दुष्कर है, उनकी दार्शनिक और सौन्दर्यपरक प्रवृत्तियों के  व्यापक, आलम्बन बन कर ओगुन अपनी पूरी छटा उनकी कविताओं में ही बिखेरते हैं।

‘अगर मनुष्य नहीं तो फिर किस देवता में इतना दम है जो पूर्णता का दावा कर सके’, अपने खास लहज़े में उन्होंने एक बार एलान किया था। इससे स्पष्ट है कि रूढ़िगत अर्थ में देवताओं में उनकी आस्था कभी नहीं रही। देवताओं की सार्थकता वह मनुष्य के संकल्प और शक्ति की अभिव्यक्ति तथा उसकी ऊर्जा और सामूहिक सत्ता के अलौकिक पक्षों के प्रतिनिधि के रूप में ही मानते हैं। अतः शोयिंका की रचनात्मकता का चरम साध्य मनुष्य ही है।

 विश्व श्रृंखला की पहली पुस्तक के रूप में नाइजीरिया के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित सुविख्यात कवि वोले शोयिंका की कविताओं का संग्रह हिन्दी पाठकों को समर्पित करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ अपने साहित्यिक दायित्व के निर्वाह में एक और नया कदम उठा रहा है।


प्रस्तुति


भारतीय भाषाओं की उत्कृष्ट कृतियों के उनके भाषायी क्षेत्र से बाहर एक व्यापक धरातल पर लाने में  भारतीय ज्ञानपीठ की विशिष्ट भूमिका रही है। जब इन कृतियों को विभिन्न श्रंखलाओं में प्रकाशित करने की योजना बनी थी उसी समय यह विचार भी था कि यथाशीघ्र अन्य देशों की भाषाओं के अच्छे साहित्य को भी हिन्दी पाठकों को उपलब्ध कराया जाये इसके लिए लोकोदय ग्रंथमाला की एक नयी श्रृंखला ‘विश्वभारती’’ के अन्तर्गत हम नोबेल पुरस्कार से सम्मानित सुविख्यात नाइजीरियाई कवि वोले शोयिंका की कविताओं का संकलन प्रस्तुत कर रहे है। इन कविताओं का अनुवाद किया है वीरेन्द्र कुमार बरनवाल ने जिनकी अश्वेत साहित्य-विशेषकर  अफ्रीकी कविता-में गहरी अभिरुचि है। इस संकलन के सम्पादन में मृणाल पाण्ये के सहयोग के लिए मैं उनका अत्यंत आभारी हूँ। हमें आशा है कि हम शीघ्र ही विभिन्न विदेशी भाषाओं के सत् साहित्य के प्रकाशन में अधिक सक्रिय हो सकेंगे।

इस कार्य में ज्ञानपीठ के सभी अधिकारियों से समय-समय पर मुझे जो परामर्श और सहयोग मिलता रहा है उसके लिए मैं अत्यंत आभारी हूं। विशेष रूप से प्रकाशन की पूरी व्यवस्था के लिए नेमिचन्द्र जैन, चक्रेश जैन व सुधा पाण्डेय ने बहुत परिश्रम किया है। अपने इन सहयोगियों का मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। इस पुस्तक की इतनी सुरूचिर्ण साज-सज्जा के लिए कलाकार पुष्पकणा मुखर्जी व सुन्दर छपाई के लिए अंबुज जैन के प्रति आभार व्यक्त करने में मुझे बहुत प्रसन्नता है।

1 नवम्बर, 1990

बिशन टंडन
निदेशक

संदेश


‘संस्कृतियों के स्वभाव में सर्वत्र पहले से ही विद्यमान द्विपक्षीय सांस्कृतिक संवाद की खोज और पुष्टि, ग्रहणशील मानस की समृद्धि के अविरल स्त्रोत है तथा सृजनात्मक साहस के पुनर्नवीनीकरण के साधन भी। भारतीय महाद्वीप की अन्य प्राचीन सभ्यताओं की भाषाओं में अफीकी कल्पना से अद्भुद रचनाओं के अनुवाद ऐसे संवादों के मुक्ति कौशल के अंग हैं। मैं अपेक्षा से कहीं अधिक सन्तुष्ट हूँ कि मेरी अपनी रचनायें, अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही सही, इस प्रक्रिया में अपना योगदान दे रही हैं। इस अध्यवसायी अनुवादक श्री बरनवाल को उनके अथक प्रीतिकर श्रम के लिए मेरे निर्व्याज धन्यवाद।’

23 अप्रैल, 1990

-वोले शोयिंका

वोले शोयिंका


वोले शोयिंका-जिनका पूरा नाम अकिन्वान्डे ओलुवोले शोयिंका है-का जन्म ओगुन राज्य में स्थिति अव्योकुटा कस्बे में 13 जुलाई 1934 को हुआ था। इनके पिता एनिओला शोंयिंका एक अध्यापक थे और मां आयोडेले (इया) ओलुवोले अपनी दुकान चलाती थीं। इस दम्पति ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया था इसलिए बालक शोयिंका का वपतिस्मा संस्कार हुआ। लेकिन बचपन से ही बालक शोयिंका पर अपने दादा के मूल योरूबा प्रकृति धर्म (एनिमिज्म) पर अटल रहने का गहरा प्रभाव पड़ा। इसी के फलस्वरूप उनके मन मनुष्य के प्रति अगाध आस्था जनमी। आगे चलकर योरूबा जनजाति की भाषा और संस्कृति से अभिन्न जुड़ाव का उनकी सृजनात्मकता में अद्भुद उपयोग हुआ। युवा होते-होते 1963 में वोले शोयिंका ने ईसाई धर्म सार्वजनिक रूप से परित्याग करके प्रकृति धर्म में आस्था व्यक्ति की और उनकी पुर्नस्थापना के लिए प्रयत्नशील हो गए।

रायल कोर्ट थियेटर लंदन में प्ले-रीडर के रूप में जीवन आरम्भ करके वह नाइजीरिया के कई विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी साहित्य और नाट्य कला के प्राध्यापक रहे। कालान्तर में लेगान विश्वविद्यालय घाना और शेफील्ड विश्वविद्यालय इंग्लैण्ड में विजिटिंग प्रोफेसर और चर्चित कालेज कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय इंगलैण्ड व कॉर्नेल विश्वविद्यालय अमरीका के फैलो बने। अपनी प्रतिबद्धताओं और अभिव्यक्ति के कारण कई बार जेल यात्रा करनी पड़ी।
साहित्य की लगभग सभी विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान। वर्ष 1986 के साहित्य के नोबेल पुरस्कार से विभूषित।

वीरेन्द्र कुमार बरनवाल



आजमगढ़ जिले के फूलपुर कस्बे में 10 नवम्बर, 1954 को जनमे वीरेन्द्र कुमार बरनवाल कई वर्षों तक अंग्रेजी भाषा और साहित्य का प्राध्यपन करने के उपरान्त 1969 से भारतीय राजस्व सेवा (I R S)   में कार्यरत हैं। लेकिन मूलतः वह साहित्यकार हैं। उनका लेखन अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में है। अश्वेत साहित्य-विशेष रूप से कविता-और तुलनात्मक साहित्य में उनकी गहरी अभिरूचि है। वोले शोयिंका की कविताओं के अनुवाद से पहले आठ नाइजीरियाई कवियों की चुनी हुई कविताओं के अनवाद का एक संकलन ‘‘पानी के छीटें सूरज के चेहरे पर’’ प्रकाशित हो चुका है।
आजकल वह दिल्ली में आयकर विभाग में आयुक्त के पद पर कार्यकत हैं 36, कोटला रोड नई दिल्ली।

भूमिका


 ‘जड़ों, बन जाओ लंगर मेरे जहाज़ का
लगा दो किनारे मेरे अंगों को,
तूफान के जिद्दी थपेड़ों के बीच,

-वोले शोयिंका

प्रो० शोयिंका बिलाशक साहित्य की दुनिया में अफ्रीका की आवाज माने जाते हैं। विश्वजनीन सरोकारों के साथ-साथ अपनी जड़ों से गहराई से जुड़े रहने का अदम्य संस्कार उन्हें विश्वस्तर के समकालीन रचनाकारों के बीच एक अलग वैशिष्ट्य प्रदान करता है। एक अर्से से अफ्रीकी रचनाकार अफ्रीकी साहित्य को यूरोपीय संस्कृति से  जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। इसका परिणाम हमेशा ही निराशाजनक नहीं रहा। पर इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि अफ्रीकी साहित्य में बाहरी लोगों की प्रारंभिक रुचि ज्यादातर सामाजिक और राजनैतिक कारणों से ही थी। वहाँ का साहित्य राष्ट्रीय और सास्कृतिक अस्मिता की सजग अभिव्यक्ति का आईना बन गया था। जैसे-जैसे एक के बाद दूसरे अफ्रीकी देशों को आजादी हासिल होती गई, एहसास के फोकस में बदलाव आना स्वाभाविक था। बदलती हुई परिस्थितियों ने जिन नई ज्वलन्त समस्याओं और उसके जगी तीव्र अनुभूतियों को जन्म दिया उससे कुछ ऐसे अश्वेत रचनाकार साहित्य की दुनिया को दिये जिनकी उत्कृष्टा रचनात्मक के ताप से अफ्रीका की सृजन-प्रतिभा के प्रति पश्चिमी उदासीनता की बर्फ पिघलने लगी। प्रो० शोयिंका न केवल इन रचनाकारों में भूर्घन्य है बल्कि आज के समस्त विश्व-साहित्य में एक जीवन्त और उत्तेजक सर्जक के रूप में अपना अप्रतिम स्थान रखते है।

बहुमुखी सृजनात्मक प्रतिभा के धनी प्रो० शोयिंका ने साहित्य की सभी विधाओं को अपने विलक्षण अवदान में समृदध किया है। ‘व्यापक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में अपनी काव्यात्मक व्यंजनाओं के साथ अस्तित्व के सम्पूर्ण नाटक की महती संरचना’ के लिये उन्हें वर्ष 86 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। विश्व का यह सर्वोच्य साहित्यकार सम्मान प्राप्त करने वाले वे पहले अश्वेत (ब्लैक) रचनाकार हैं। वस्तुतः उन्होंने यह पुरस्कार अब तक प्रायः अपेक्षित अश्वेत अफ्रीका की ऊर्जस्व सृजन-परंपरा को पहली बार विश्व द्वारा मान्यता के प्रतीक स्वरूप उसके एक प्रतिनिधि के रूप में ही स्वीकार किया है। रंग और नस्ल के आधार पर भेवभाव के खिलाफ उनके जुझारू संकल्प से दीप्त, पुरस्कार में समारोह में दिया गया इनका भाषण जितना ही ओजस्वी है उतना ही चिन्तनपरक भी। अपना यह भाषण उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की जेल में रंगभेद के अंधकार से जूझते प्रकाशपुरुष नेल्सन मंडेला को समर्पित किया था।


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