कविता संग्रह >> शहर अब भी सम्भावना है शहर अब भी सम्भावना हैअशोक वाजपेयी
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प्रस्तुत हैं कविताएँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘शहर अब भी एक सम्भावना है’—सिर्फ़ हिन्दी के वरिष्ठ
कवि आलोचक अशोक बाजपेयी का पहला कविता संग्रह ही नहीं था; उसने नयी कविता
में एक युवा कवि की अलग जगह बनायी थी और एक अपेक्षाकृत कठिन राह का संकेत
भी दिया था। उसमें भाषा की ताज़ा और उत्तेजक उपयोग, और उसके माध्यम से एक
ऐसा संसार प्रकट हुआ था जिसमें मानवीय सम्बन्ध कुछ गहरे, कुछ बदले हुए और
कुछ अप्रत्याशित थे।
अशोक वाजपेयी की कुछ प्रसिद्ध और प्रौढ़ कविताएँ जैसे ‘आसन्नप्रसवा माँ के लिए तीन गीत’, ‘प्यार करते हुए –सूर्य-स्मरण’ आदि इसी संग्रह में पहले पहल एकत्र हुई थीं।
अपनी जिस जीवनाशक्ति, ऐन्द्रियता, मातृ-करुणा प्रेम नश्वरता आदि से अशोक वाजपेयी की कविता अलग से पहचानी जाती रही है बुनियादी भूगोल इसी संग्रह में प्रकट है।
अपने पहले प्रकाशन के 38 वर्ष बाद भारतीय ज्ञानपीठ इस संग्रह का यह पुनर्नवा संस्करण प्रकाशित कर रहा है।
अशोक वाजपेयी की कुछ प्रसिद्ध और प्रौढ़ कविताएँ जैसे ‘आसन्नप्रसवा माँ के लिए तीन गीत’, ‘प्यार करते हुए –सूर्य-स्मरण’ आदि इसी संग्रह में पहले पहल एकत्र हुई थीं।
अपनी जिस जीवनाशक्ति, ऐन्द्रियता, मातृ-करुणा प्रेम नश्वरता आदि से अशोक वाजपेयी की कविता अलग से पहचानी जाती रही है बुनियादी भूगोल इसी संग्रह में प्रकट है।
अपने पहले प्रकाशन के 38 वर्ष बाद भारतीय ज्ञानपीठ इस संग्रह का यह पुनर्नवा संस्करण प्रकाशित कर रहा है।
भूमिका
‘शहर अब भी सम्भावना है’ मेरा पहला कविता-संग्रह था
और पहली
पुस्तक भी। वह 27 जून, 1966 को प्रकाशित होकर आया था जिस दिन मेरा ब्याह
भी हुआ। कुल पच्चीस बरस के युवा कवि का पहला संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ ने
छापा यह कुछ असाधारण घटना थी। उन दिनों प्रतिष्ठित कवियों तक के संग्रह
निकलने में बड़ी देर और मुश्किल होती थी। लेकिन अगर यह सम्भव हुआ तो श्री
लक्ष्मीचन्द्र जैन की सदाशयता और युवा सर्जनात्मकता में उनके भरोसे से।
मेरे माता-पिता दोनों ही दिवंगत हैं, जिन्हें यह पहली पुस्तक उनके बड़े
बेटे द्वारा समर्पित थी।
इस संग्रह में 1957 से 1965 के दौरन लिखी गयी लगभग डेढ़ सौ कविताओं में से कुल सत्तावन ही शामिल की गयी थीं। चयन मैंने कुछ सख्ती और अच्छी-बुरी समझ से किया था। उस समय मेरे लिए कवि होना जितना महत्त्वपूर्ण थी, उतना ही उत्तेजक था युवा होना। हालाँकि कुछ कविताएँ दिल्ली आने के बाद यहाँ लिखी गयी थीं, इस संग्रह की अधिकांश कविताओं का भूगोल मेरे तब के छोटे शहर सागर का है।
पहले ही संग्रह में बीसवीं शताब्दी के एक महाकवि की यह उक्ति ‘मेरे आरम्भ में ही मेरा अन्त है’ दी गयी थी। लगभग अड़तीस बरसों बाद मैं साफ देख पाता हूँ कि मेरी कविता के संसार का स्थायी भूगोल, एक तरह से, इस संग्रह से ही अंकित हो गया था। घर-परिवार, प्रेम, मृत्यु, प्रकृति, शब्द और भाषा, कलाएँ, लोग आदि की थीमें बाद में गहरी और नयी रंगतों में उभरती रही हैं उनके बीज इस संग्रह में हैं।
कविता का सच कभी अकेला या अपने आप में पूरा नहीं होता।
उसकी चरितार्थता के लिए दूसरे चाहिए। सौभाग्य से ऐसे दूसरे लगातार मिलते रहे हैं और उनके प्रति गहरी कृतज्ञता है। इस संग्रह का तीसरा संस्करण निकल पा रहा है यह इतना तो एक बार फिर जाहिर करता है, कि शहर के लिए न सही, कविता के लिए संभावना अब भी है। मुझे कोई भ्रम नहीं है। हमारा समय दिन-ब-दिन अँधेरा और हिंस्र होता जा रहा है। कविता उसमें रोशनी शायद ही दिखा सके। लेकिन वह रोशनी की अमिट सम्भावना का विकल्प सक्रिय और सजीव रख सकती है।
इस संग्रह में 1957 से 1965 के दौरन लिखी गयी लगभग डेढ़ सौ कविताओं में से कुल सत्तावन ही शामिल की गयी थीं। चयन मैंने कुछ सख्ती और अच्छी-बुरी समझ से किया था। उस समय मेरे लिए कवि होना जितना महत्त्वपूर्ण थी, उतना ही उत्तेजक था युवा होना। हालाँकि कुछ कविताएँ दिल्ली आने के बाद यहाँ लिखी गयी थीं, इस संग्रह की अधिकांश कविताओं का भूगोल मेरे तब के छोटे शहर सागर का है।
पहले ही संग्रह में बीसवीं शताब्दी के एक महाकवि की यह उक्ति ‘मेरे आरम्भ में ही मेरा अन्त है’ दी गयी थी। लगभग अड़तीस बरसों बाद मैं साफ देख पाता हूँ कि मेरी कविता के संसार का स्थायी भूगोल, एक तरह से, इस संग्रह से ही अंकित हो गया था। घर-परिवार, प्रेम, मृत्यु, प्रकृति, शब्द और भाषा, कलाएँ, लोग आदि की थीमें बाद में गहरी और नयी रंगतों में उभरती रही हैं उनके बीज इस संग्रह में हैं।
कविता का सच कभी अकेला या अपने आप में पूरा नहीं होता।
उसकी चरितार्थता के लिए दूसरे चाहिए। सौभाग्य से ऐसे दूसरे लगातार मिलते रहे हैं और उनके प्रति गहरी कृतज्ञता है। इस संग्रह का तीसरा संस्करण निकल पा रहा है यह इतना तो एक बार फिर जाहिर करता है, कि शहर के लिए न सही, कविता के लिए संभावना अब भी है। मुझे कोई भ्रम नहीं है। हमारा समय दिन-ब-दिन अँधेरा और हिंस्र होता जा रहा है। कविता उसमें रोशनी शायद ही दिखा सके। लेकिन वह रोशनी की अमिट सम्भावना का विकल्प सक्रिय और सजीव रख सकती है।
अशोक वाजपेयी
अपनी आसन्नप्रसवा माँ के लिए तीन गीत
काँच के टुकड़े
काँच के आसमानी टुकड़े
और उन पर बिछलती सूर्य की करुणा
तुम उन सबको सहेज लेती हो
क्योंकि तुम्हारी अपनी खिड़की के
आठों काँच सुरक्षित हैं
और सूर्य की करुणा
तुम्हारे मुँडेरों भी
रोज़ बरस जाती है।
और उन पर बिछलती सूर्य की करुणा
तुम उन सबको सहेज लेती हो
क्योंकि तुम्हारी अपनी खिड़की के
आठों काँच सुरक्षित हैं
और सूर्य की करुणा
तुम्हारे मुँडेरों भी
रोज़ बरस जाती है।
जीवित जल
तुम ऋतुओं को पसन्द करती हो
और आकाश में
किसी-न-किसी की प्रतीक्षा करती हो –
तुम्हारी बाँहें ऋतुओं की तरह युवा हैं
तुम्हारे कितने जीवित जल
तुम्हे घेरते ही जा रहे हैं।
और तुम हो कि फिर खड़ी हो
अलसायी; धूप-तपा मुख लिये
एक नये झरने का कलरव सुनतीं
-एक घाटी की पूरी हरी महिमा के साथ !
और आकाश में
किसी-न-किसी की प्रतीक्षा करती हो –
तुम्हारी बाँहें ऋतुओं की तरह युवा हैं
तुम्हारे कितने जीवित जल
तुम्हे घेरते ही जा रहे हैं।
और तुम हो कि फिर खड़ी हो
अलसायी; धूप-तपा मुख लिये
एक नये झरने का कलरव सुनतीं
-एक घाटी की पूरी हरी महिमा के साथ !
जन्मकथा
तुम्हारी आँखों में नयी आँखों के छोटे-छोटे दृश्य हैं।
तुम्हारे कन्धों पर नये कन्धों का
हल्का-सा दबाव है-
तुम्हारे होठों पर नयी बोली की पहली चुप्पी है
और तुम्हारी उँगलियों के पास कुछ नये स्पर्श हैं
माँ, मेरी माँ,
तुम कितनी बार स्वयं से ही उग आती हो
और माँ मेरी जन्मकथा कितनी ताज़ी
और अभी-अभी की है !
तुम्हारे कन्धों पर नये कन्धों का
हल्का-सा दबाव है-
तुम्हारे होठों पर नयी बोली की पहली चुप्पी है
और तुम्हारी उँगलियों के पास कुछ नये स्पर्श हैं
माँ, मेरी माँ,
तुम कितनी बार स्वयं से ही उग आती हो
और माँ मेरी जन्मकथा कितनी ताज़ी
और अभी-अभी की है !
(1960)
साँझ : शिशुजन्म
-मैंने सुना
बरसात की उस धुली शाम
मैंने सोचा
अशोक का भी तो फूल होता है
जिसे मैंने नहीं देखा,
प्रतीक्षा मैं कर नहीं सकता
न की है
फूल की—
कि एक साँझ बहुत आलोक में
देखूँ कि खिड़की के पास,
उसके सींकचे से लिपटा
खिल आया है फूल एक, साँझ का, गुलाब में :
मुझे लगा
झरना कहीं एक हरे पेड़ के नीचे से
बहकर चुपचाप
कहीं पास, बहुत पास मेरे आ गया है
मैंने कहा :
इस धुली शाम के सड़कों पर बिखरे
धुँधले और छोटे अनगिनत आइने हैं
धूप का टुकड़ा भी साँझ का है
बरसात की उस धुली शाम
मैंने सोचा
अशोक का भी तो फूल होता है
जिसे मैंने नहीं देखा,
प्रतीक्षा मैं कर नहीं सकता
न की है
फूल की—
कि एक साँझ बहुत आलोक में
देखूँ कि खिड़की के पास,
उसके सींकचे से लिपटा
खिल आया है फूल एक, साँझ का, गुलाब में :
मुझे लगा
झरना कहीं एक हरे पेड़ के नीचे से
बहकर चुपचाप
कहीं पास, बहुत पास मेरे आ गया है
मैंने कहा :
इस धुली शाम के सड़कों पर बिखरे
धुँधले और छोटे अनगिनत आइने हैं
धूप का टुकड़ा भी साँझ का है
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