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विष पत्थर

ताराशंकर वन्द्योपाध्याय

प्रकाशक : भारत ज्ञान विज्ञान प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5738
आईएसबीएन :000

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इस संग्रह में ‘कमल मांझी की कहानी’,‘विष-पत्थर’, ‘बाबूराम का बबुआ’,‘रविवार की बैठकी’, ‘इन्सान का मन’,‘संपेरे की कहानी’, ‘सुकूं और भुकू’, ‘एक्सीडेंट’ और ‘बारिश की बौछार’

Vish patthar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित ताराशंकर वंद्योपाध्याय, रवीन्द्रनाथ टैगोर और शरतचन्द्र के बाद बंगाल के प्रमुख लेखकों में से एक हैं। उनका नाम विभूतिभूषण वंध्योपाध्याय और मणिक वंद्योपाध्याय के साथ लिया जाता है।
ताराशंकर का समग्र साहित्य स्वाधीनता की लड़ाई की पृष्ठिभूमि में मनुष्य का जीवन संगीत मात्र ही नहीं है। कथा-साहित्य के तीन प्रमुख उपादानों स्थान, काल और पात्र की नींव पर जिन अविस्मरणीय कहानियों और उपन्यासों की उन्होंने रचना की है, वह जनता का सार्वकालिक जीवन संगीत है।

रवीन्द्रनाथ ने एक बार कहा था, ‘‘बहुसंख्यक गांवों से भरपूर हमारा जो देश है उस देश को देखने की दृष्टि हमने खो दी है। हमारे साहित्य क्षेत्र में जिन लोगों ने इस संकीर्ण सीमाबद्ध दृष्टि को पूरे देश में व्यापकता से प्रसारित किया है उनमें ताराशंकर का स्थान सबसे आगे है।’

खासकर रवीन्द्रनाथ ने जिन्हें ‘अंत्यज’ ‘मंत्रवर्जित’ कहा है, उन अवज्ञात अनार्य लोगों के सुख-दुख, सुगति-दुर्गति को ताराशंकर ने जिस रसदृष्टि से देखा था वैसी दृष्टि बांग्ला साहित्य में विरल ही है। इस दृष्टि से उनके उपन्यासों की तुलना में उनकी कहानियां बांग्ला साहित्य की अविस्मरणीय संपदा है। उनकी कहानियों ने विचित्र रस के उपादान से हमारे कथा-साहित्य को समृद्ध किया है।

बंगाल के गांवों पर लिखते हुए ताराशंकर ने कोई नई जमीन नहीं तोड़ी थी, क्योंकि शरतचन्द्र तथा कुछ अन्य लेखक ग्रामीणजनों के बारे में लिख चुके थे, पर उनके पास ताराशंकर जैसा ज्ञान, विशाल दृष्टि और इतिहास बोध नहीं था।
वस्तुतः वंगाल के ग्रामीण समाज को ऐसी समग्र सार्वभौम दृष्टि से ताराशंकर से पहले किसी और ने नहीं देखा।

भूमिका


साहित्य में लेखकों के दो प्रकार के वर्ग होते हैं। पहले वर्ग में ऐसे लेखक होते हैं जो आते ही सफलता के सर्वोच्च शिखर पर बैठ जाते हैं। बंगला साहित्य में विभूषित वंद्योपाध्याय ऐसे उदाहरण हैं। उनका पहला उपन्यास ‘पथेर पांचाली’ ही उनके जीवन का श्रेष्ठ उपन्यास साबित हुआ। बाद में उन्होंने ढेरों उच्चकोटि की कहानियां, उपन्यास आदि लिखे लेकिन शायद अपनी बाद की लिखी हुई किसी भी कृति को अपनी सर्वप्रथम कृति से ज्यादा महत्त्वपूर्ण पाये।

दूसरे वर्ग के लेखकों की शुरुआत रचनाएँ सामान्य ही होती हैं। उनकी प्रतिभा को लोगों की नजरों में आने के लिए दीर्घकालीन कठोर साधना की जरूरत पड़ती है। ताराशंकर इसी वर्ग के लेखक थे। उनकी पहले दौर की लिखी काफी रचनाएं औसत दर्जे की हैं। लंबे समय तक काफी कुछ देखने-परखने के बाद, व्यर्थता की काफी ग्लानि और निराशा पार करके उन्होंने अपने लेखन की धाक जमायी थी। अपराजित आत्मविश्वास और ईश्वर-भक्ति ने उन्हें सफलता के शिखर पर पहुँचाया।

अपनी अभिव्यक्ति के उचित माध्यम की तलाश में भी उन्हें कम भटकना नहीं पडा। उन्होंने पहले कविताएँ लिखीं, फिर नाटक और सबसे अंत में कथा-साहित्य लिखा। कहानियां और उपन्यास ही ताराशंकर को अपनी बात कहने के उपयुक्त माध्यम नजर आये।

ताराशंकर का साहित्यिक जीवन आठ वर्ष की उम्र में कविताओं से प्रारंभ हुआ। तुदपरांत नाट्य-लेखन में रुचि दिखायी। उनकी नियमित साहित्य-साधना 28 वर्ष की उम्र में लामपुर से प्रकाशित ‘पूर्णिमा’ मासिक पत्रिका से शुरु हुई। कविता, कहानी आलोचना, सम्पादकीय के रूप में इस पत्रिका की ज्यादातर सामग्री उन्हीं की लिखी हुई होती थी। पूर्णिमा में ही ताराशंकर की पहली उल्लेखनीय कहानी ‘प्रवाह का तिनका’ प्रकाशित हुई थी।

कुछ दिन बाद ही ताराशंकर ने ‘रसकली’ नामक कहानी लिखी और ‘प्रवासी’ पत्रिका को प्रकाशनार्थ भेज दी। कई महीनों तक बार-बार लिखने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ। आखिरकार ताराशंकर खुद ‘प्रवासी’ ऑफिस में उपस्थित हुए। जैसा अमूमन होता है, नये लेखक की रचना बिना पढ़े ही सम्पादकीय विभाग ने वापस लौटा दी। उस अस्वीकृत रचना को लेकर ताराशंकर पैदल ही मध्य कलकत्ता से दक्षिण कलकत्ता अपने रिश्तेदार के यहां पहुंचे। उस दिन उनकी आँखें कई बार भर आई थीं। एक बार सोचा कि साहित्य साधना की इच्छा को तिलांजलि देकर गंगा नहाकर घर लौट जायें एवं शांत गृहस्थ की तरह अपनी जीवन खेती-खलिहानी करते हुए गुजार दें।

साहित्य क्षेत्र में अपने पराजय की बात सोचकर उनकी चित्त व्यथित होने लगता था। सौभाग्य से एक दिन डाकघर में उन्हें एक पत्रिका नजर आ गई। उस पत्रिका का नाम था ‘कल्लोल’। ताराशंकर ने कल्लोल का पता नोट कर लिया और उसी पते पर उन्होंने रसकली कहानी भेज दी। जल्दी ही उन्हें कहानी के स्वीकृति होने की सूचना मिली। उत्साहित करने वाले पवित्र गंगोपाध्याय ने लिखा, ‘‘आप इतने दिनों तक मौन क्यों बैठे हुए थे ? महानगरी के साहित्य क्षेत्र में ताराशंकर की वह पहली स्वीकृति थी।

विचारों का साम्य न होने पर भी नये लेखकों के लिए ‘कल्लो’ का द्वार हमेशा खुला रहता था। आगे के दो वर्षों तक ‘कल्लोल’ में ताराशंकर की कई कहानियाँ प्रकाशित हुईं। फिर ‘कालि-कलम’, ‘उपासना’ और ‘उत्तरा’ पत्रिकाओं में छपी थी।
ताराशंकर ने लिखा है कि उनके साहित्य-जीवन का पहला अध्याय अवहेलना और अवज्ञा का काल था। उनकी पुत्री का देहांत आठ वर्ष की उम्र में ही हो गया। कन्या वियोग से शोकाकुल कथाशिल्पी ने इस बार ‘संध्यामणि’ कहानी लिखी। सजनीकांत द्वारा संपादित ‘बंगश्री’ पत्रिका के पहले अंक में यह कहानी ‘श्मशान घाट’ नाम से छपी थी। ‘संध्यामणि’ के पहले ताराशंकर अठारह-उन्नीस कहानियां लिख चुके थे, जिनमें ‘रसकली’, ‘राईकमल’ और ‘मालाचंदन’ जैसी कहानियाँ भी थीं। लेकिन ‘संध्यामणि’ ऐसी पहली कहानी थी जिसे बांग्ला साहित्य में सिर्फ ताराशंकर ही लिख सकते थे।

‘संध्यामणि’ छपने के बाद अंतरंग साहित्यकारों के बीच इसकी चर्चा व्यापक हुई। इसके बाद ‘भारतवर्ष’ में छपी ‘डाईनीर बांशी’ (डाईन की बांसुरी) और ‘बंगश्री’ में प्रकाशित दूसरी कहानी ‘मेला’ ने ताराशंकर को कथाकारों की पहली पंक्ति में ला बिठाया।
ताराशंकर ने अपनी साहित्य जीवन की बातों में जिस अपमान की घटना का जिक्र किया है। वह ‘देश’ पत्रिका के दफ्तर में घटा था। यह सन् 1934 की बात है। उसके पहले ‘देश’ के शारदीय विशेषांक में उनकी बहुचर्चित कहानी ’नारी और नागिनी’ छप चुकी थी। ‘देश’ के प्रभात गांगुली ने ‘नारी और नागिनी’ की बेहद प्रशंसा की थी। गांगुली महाशय बड़े मूडी आदमी थे। मिजाज ठीक रहता तो बेहद दिलदरिया थे और अगर मिजाज बिगड़ता तो चीखते-चिल्लाते हुए इस तरह इन्कार करते थे कि लेखक को बहुत अपमानजनक लगता। ताराशंकर की ‘मुसाफिरखाना’ जैसी कहानी उन्हें पसंद नहीं आयी। वे उसे लौटाते हुए बोले ‘यह (अर्थात् ‘देश’ पत्रिका) कोई डस्टबिन नहीं है।’

ताराशंकर की स्थिति धीरे-धीरे ऐसी बन गयी कि उन्हें खारिज नहीं कर सकता था। यदा-कदा आलोचना करते हुए कोई कहता, ‘कहानियाँ अच्छी लिखते हैं, शैली भी अच्छी होती है। लेकिन कहानियां, बड़ी स्थूल होती हैं। उनमें सूक्ष्मता का अभाव है।’ जिज्ञासु ताराशंकर ने इस पर कविगुरु रवीन्द्रनाथ की राय जाननी चाही। उत्तर में रवीन्द्रनाथ ने लिखा, ‘‘तुम्हारी रचनाओं को स्थूल दृष्टि कहकर जिसने बदनाम किया है, मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे लगता है कि तुम्हारी रचनाओं में बड़ा सूक्ष्म स्पर्श होता है और तुम्हारी कलम से वास्तविकता सच बनकर नजर आती है, जिसमें यथार्थ को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। कहानी लिखते वक्त कहानी न लिखने को ही जो लोग बहादुरी समझते हैं तुम ऐसे लोगों के दल में नहीं हो, यह देखकर मैं बहुत खुश हूं। रचना में यथार्थ की रक्षा करना ही सबसे कठिन होता है।’
यथार्थ लेखन के इस दुरूह मार्ग पर ताराशंकर की जययात्रा बिना किसी रोक-टोक के निरंतर बढ़ती ही गयी।

ताराशंकर के रचनाकार के केन्द्रीय वृत्तभूमि में देहात का ब्राह्मण समाज था। लेकिन उनके जीवन बोध ने धीरे-धीरे फैलते हुए सामान्यजन को अपने दायरे में ले लिया। रवीन्द्रनाथ ने सबसे पहले अपनी कहानियों में गांव-देहात के क्षुद्र मनुष्य को स्थान दिया था। लघु प्राण, मामूली कथा, छोटी-छोटी दुख की बातें, जो बेहद सहज और सरल हैं। जिनका जीवन है, उन्हीं को लेकर कविगुरु ने अपनी छोटी कहानियों की मंजूषा सजाकर बांग्ला साहित्य में कहानियों की प्राण-प्रतिष्ठा की। शरत् साहित्य में मुख्यतः देहातों के मध्यवित्त समाज को ही प्राथमिकता दी गयी है। ताराशंकर ने समाज के दीन-हीन अछूत स्तर के लोगों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया। उन्होंने समाज के सभी वर्गों के लोगों को अपनाकर अपने रचना लोक को पूर्णता प्रदान की। इस दृष्टि से ताराशंकर सम्पूर्ण समाज के जीवन-बोध के सर्वप्रथम कलाकार हैं।

उनकी कहानियों में अपने समय का परिवेश उजागर हुआ है। माटी से बने मानव जीवन को ही उन्होंने आविष्कृत किया। इसी दृष्टि से उनके साहित्य को आंचलिक कहा जाता है। अंचल विशेष की प्रकृति और उसी के प्रभाव से नियंत्रित मनुष्य के सुख-दुख की यथार्थता को कहानियों को चित्रित करने से जाहिर है उनमें आंचलिक विशेषताएं नजर आयेंगी ही। इस दृष्टि से यथार्थ जीवन पर जो भी लिखा जाए वही आंचलिक हो जाता है। लेकिन अपने समय और परिवेश की विशेषताओं को ग्रहण करके जो साहित्य चिरंतन मानव-सत्य को उजागर करता है उस साहित्य को आंचलिक विशेषताएं नजर आएंगी ही।

इस दृष्टि से यथार्थ जीवन पर जो भी लिखा जाए वही आंचलिक हो जाता है लेकिन अपने समय और परिवेश की विशेषताओं को भी ग्रहण करके जो साहित्य चिरंतन मानव-सत्य को उजागर करता है उस साहित्य को आंचलिक कहकर संकीर्ण बनाना उचित नहीं होगा। ताराशंकर के साहित्य को व्यक्ति अपनी आदिम प्रवृत्ति, युगों से संचित अपने संस्कारक और वंशानुगत आजीविका ढोने वाला परिचित इन्सान। इसीलिए ताराशंकर बंगला के सार्वभौमिक जीवन-शिल्पी हैं।
ताराशंकर की कहानियों को मुख्य विशेषता है समाज के अज्ञात कुलशील क्षुद्र समझे जाने वाले लोगों के प्रति उनकी गहरी संवेदना और अंतरंगता। भारतीय समाज के आदि स्तर के प्रति जो निर्माता थे, परवर्ती काल के आर्य सभ्यता के प्रसार और प्रतिष्ठा के फलस्वरूप वे लोग समाज की सीमारेखा के बाहर अवज्ञात और अवहेलित होकर पड़ा रहे; शिक्षित और सभ्यताभिमानी तथा अपने को ऊँचा समझने वाले लोगों ने जिनकी ओर मुंह उठाकर नहीं देखा, ताराशंकर उन्हीं पतितों-अवहेलितों के कथाकार थे।

‘विष-पत्थर’ कथा-संग्रह में ताराशंकर की चुनिंदा कहानियों को सम्मिलित किया गया है। ‘कमल मांझी की कहानी’, ‘विष-पत्थर’, ‘बाबूराम का बबुआ’, ‘रविवार की बैठकी’, ‘इन्सान का मन’, ‘संपेरे की कहानी’, ‘सुकूं और भुकू’, ‘एक्सीडेंट’ और ‘बारिश की बौछार’ ये सभी कहानियां उनके बेहतर कथा-शिल्प का नमूना हैं और इन कहानियों में मानवीय जीवन के विविध रूप सामने आते हैं।

वंश परंपरा और अपनी देश काल की परिस्थितियों की दृष्टि से भी ताराशंकर सार्वभौम मानव मुक्ति के महान शिल्पी है। मनुष्य की जैविकता उसे पशु स्तर तक ले जाती है। युग-युग से संचित अंध-संस्कार एवं असंयत प्रवृत्ति के वशीभूत होकर वह अमानुष बन जाता है। ताराशंकर ने रचनाकार की सर्वोपरि दृष्टि और लेखक की संवेदनशील सहभागिता के जरिये लोगों के प्रतिदिन के स्खलन-पतन तथा उनके दोषों को महसूस किया था। मानवती के ज्योतिर्मय प्रकाश में मनुष्य की अमानुषिकता का असली चेहरा दिखाना ही उनके रचनाकार का दायित्व रहा है।

-अनुवादक

कमल मांझी की कहानी


उस दिन बूढ़ा कमल मांझी मर गया। वह नब्बे साल का था। या हो सकता है कि बानवे या पन्चानवे का हो। मेरी ही उम्र होने को आयी। बचपन में जब उसे देखा था तब तीस-पैंतीस साल का वह रहा ही होगा। कमल कितनी कहानियाँ सुनाता। अपने पेशे की कहानियां। खबर पाकर उसे देखने कालकेपुर डांगा में गया। सत्तर साल से वे लोग वहीं रह रहे थे। मैंने देखा कालकेपुर डांगा की प्रशस्त जमीन कितनी हरी-भरी हो गयी थी। उन्हीं सबने जंगल साफ करके इसे आबाद किया था। खेती करके इसे उर्वरा बना दिया था।

कमल के बाल-बच्चे मर चुके थे। पड़ोसी ही सुर करके रो रहे थे। इसी तरह रोना पड़ता है।
‘हाय रे, हाय रे ! छातार ऊमूल तिएं द।’ मतलब हाय रे—मेरे छाते की छाया। मेरी छत्रछाया आज उड़ गयी। कोई बैन कर रहा था ‘हाय रे, कईं दि मिरू तिएं द।’ अर्थात् हाय रे, हाय रे ! मेरे महुआ वन का तोता—मेरे महुवा वन का तोता आज उड़ गया।

यह सब उनके परंपरागत गाने थे। यह प्रथा जाने किस जमाने से चली आ रही थी। इसी तरह रोने का नियम था। इसीलिए रो रहे थे। नहीं तो, नब्बे-पंचानवे साल के बूढ़े के लिए कौन रोता है। कमल ही उनके लिए रोया था।
मेरे बचपन में कमल हमारे खेतों में काम करता था। किसी चलते-फिरते पहाड़ की तरह उसका चेहरा था। मेरे साथ उसका स्नेह संबंध बन गया था। वह मुझे बहुत चाहता था। मुझे कहानियां सुनाता। अपनी कहानियां। कमल अपने समाज का मुखिया था। कालकेपुर डांगा के संथालों का मुखिया।
कमल के दाहकर्म के लिए तैयारियां चल रही थीं।

मुझे कमल से सुनी एक कहानी याद आ गयी, मैं उस वक्त एक साथ ही साहित्य सेवा और देश सेवा कर रहा था। हाल ही में जेल से लौटा था। यह बात सन् 1931 की है। कमल मुझसे मिलने आया। बोला, ‘तुझसे मिलने चला आया।
लोग कहते हैं तू साहबों से लड़ रहा है। यह भी कहते हैं कि तू खूब लिखता-पढ़ता भी है। वे सब छपती हैं। मगर तुझे पता है यह पृथ्वी कैसे बनी ? अब कहते हो, धरती हमारी है मगर धरती के बारे में कुछ पता है ? मुझसे जान लो। अपनी किताब में लिख देना। कुछ भी इस पर विचार करना। समझे ?’
मुझे कौतूहल हुआ था। कहा था, ‘‘बताओ मैं सुनूं। यह सब मुझे कैसे मालूम होगा। तुमने तो कभी कहा नहीं।’
कमल ने कहा, तब सुनो !’

उनके सृष्टि तत्त्व की कहानी !
शुरू में पृथ्वी जलमग्न थी। पानी के नीचे मिट्टी दबी थी। तब ठाकुरजी अर्थात् भगवान ने, जल, जीवन-केकड़ा घड़ियाल मगर, शार्क, विशाल बोआल मछली, केचुआ, कछुआ वगैरह बनाया। इसके बाद ठाकुर बोले—अब किनकी सृष्टि करू ? आदमी की सृष्टि करने की उनकी इच्छा हुई। उन्होंने मिट्टी से आदमी गढ़ा। आदमी बन जाने पर वे फिर उसमें जान डाल देंगे। ऐसे समय आसमान से ‘सिएं सादम’ अर्थात् सूर्य के घोड़े ने उतरकर अपने खुरों से इन्सान के पुतले को रौंद डाले। अपनी सृष्टि के नष्ट होने से ठाकुर बहुत दुखी हुए।

तब ठाकुर ने तय किया कि वे अब मिट्टी से अब कुछ नहीं गढ़ेंगे। इसीलिए उन्होंने अपने सीने के मैल से चिड़िया बनायी। फिर हंस और हंसिनी बनायी। इन दोनों को अपनी हथेलियों पर रखकर वे देखने लगे। खूब सुंदर लगने पर ठाकुर ने फूंक मारी। चिड़िया ठाकुर के फूंक से प्राण पाकर आसमान में उड़ गयीं। जलमग्न पृथ्वी में कहीं भी बैठने की जगह नहीं थी। वे चिड़ियां इसलिए हरदम उड़ती रहती थीं और थक जाने पर ठाकुर की हथेलियों पर आकर बैठ जाती थीं।
ऐसे समय ‘सिएं सादम’ ‘उड़े सुगम’ अर्थात् सूर्य देव के घोड़े पवित्र धागे की सहायता से पानी पीने के लिए आसमान से उतरे। पानी पीते समय ‘सिए सादम’ के मुंह से फेन निकलकर पानी पर गिरा। वह फेन पानी में बहने लगा। तभी से पानी में फेन की सृष्टि हुई।

ठाकुर ने तब दोनों चिड़ियों से कहा—जाओ फेन पर बैठ जाओ। दोनों चिड़ियां जाकर फेन पर बैठ गयीं और बहते-बहते दुनियाँ की सैर करने लगीं। फेन जैसे उनके लिए नाव बन गयी। कुछ दिन बाद चिड़ियों ने ठाकुर से अनुरोध किया-हम दोनों बस उड़ती ही जा रही हैं, मगर हमारे खाने की चीजें तो कहीं मिलती नहीं।
ठाकुर ने मगर को बुलावा भेजा। मगर ने आकर ठाकुर से पूछा, ‘‘ठाकुर मुझे किसलिए बुलाया ?’



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