हास्य-व्यंग्य >> रहा किनारे बैठ रहा किनारे बैठशरद जोशी
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प्रस्तुत है व्यंग्य निबंधों का संग्रह...
Raha kinare baith
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपने बारे में विशेषणों के इस्तेमाल किये जाने पर शरद जोशी को सख्त एतराज रहा है। और यह एतराज सही भी है। क्योंकि आज जहां हिंदी का अधिकांश व्यंग्य लेखन बैठे ठाले का धंधा हो गया है और भारी भरकम विशेषणों के लबादे ओढ़ कर व्यंग्य के नाम पर महज मसखरे करिश्मों की कतार खड़ी है, वहीं एक किनारे बैठ शरद जोशी की अपनी एक अलग पहचान बन चुकी है। यानी उनकी एक मुकम्मल हैसियत है, या कह लें-हिंदी के व्यंग्य साहित्य को एक नयी दिशा देने वाले इन गिने लोगों में शरद जोशी का नाम महत्त्वपूर्ण नहीं, प्रमुख है। और शायद इसीलिए विशेषणों की चमकार उनके लिए बेमतलब है।
प्रस्तुत संग्रह ‘रहा किनारे बैठ’ शरद जोशी के तीखे व्यंग्य निबंधों का संग्रह है। इन निबंधों में व्यंग्य का वह भोंथरापन नहीं है और न कसैलापन ही है जिससे पाठक की सुरुचि बिदक जाये। इनमें सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और आसपास की उन तमाम विसंगत स्थितियों पर बेसाख्ता चोट और खरोंच है, जिन्हें पढ़ कर मुमकिन है, आपको लगे कि ऐसा ही कुछ आप भी करना-कहना चाहते हैं।
प्रस्तुत संग्रह ‘रहा किनारे बैठ’ शरद जोशी के तीखे व्यंग्य निबंधों का संग्रह है। इन निबंधों में व्यंग्य का वह भोंथरापन नहीं है और न कसैलापन ही है जिससे पाठक की सुरुचि बिदक जाये। इनमें सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और आसपास की उन तमाम विसंगत स्थितियों पर बेसाख्ता चोट और खरोंच है, जिन्हें पढ़ कर मुमकिन है, आपको लगे कि ऐसा ही कुछ आप भी करना-कहना चाहते हैं।
झरता नीम : शाश्वत थीम
घर के सामने, और विशेष रूप से अपने ही आंगन में पेड़ लगा हो, तो जब तब भावुक हो जाने का सुभीता रहता है। पेड़ की तरफ़ देखा और वहीं लगे हाथ भावुक हो लिये। गांठ से कुछ जाता नहीं और मन भीग जाता है। मौक़ा-मुसीबत बड़े काम की चीज़ है। आप चाहें उसका तना पकड़ रो सकते हैं, चाहें उसके पत्ते देख खुश हो सकते हैं। अनुभूति के क्षेत्र में किसी किस्म की ख़िदमत हो, पेड़ हाज़िर है। जो लोग अपने आंगन में पेड़ खड़ाकर लेते हैं, इस मामले में बड़े मज़े में रहते हैं।
आदमी आदमी से या दूसरे मायनों में स्त्री से एडजस्ट न कर सके, पर आदमी पेड़ और पेड़ आदमी से आसानी से एडजस्ट कर लेता है। फलदार पेड़ हो तो एडजस्ट होने में अपेक्षाकृत सुविधा रहती है। खैर, आदमी भी फलदार हो तो वहां भी एडजस्टमेंट सरल हो जाता है। स्त्री अपनी सारी स्मृतियां और भावना घर के पुराने ताक़ में रख फलदार व्यक्ति के साथ कछौटा कस चल देती है। केवल भावुक मन वाले ही फलविहीन के साथ एडजस्ट करते हैं। वे तो फलविहीन पेड़ के साथ भी एडजस्ट कर लेते हैं। उनके साथ पेड़ भी एडजस्ट कर लेता है जैसे ‘झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की (पता नहीं किसकी पंक्ति है, जाने कब पढ़ी थी। यों भी हम नाम बता कर उसका प्रचार करने के पक्ष में नहीं। यह हमारी साहित्यिक ‘स्ट्रेटेजी’ है कि संदर्भ दो, मगर नाम गायब़ कर दो)। इसमें हुआ यह कि जब नीम के पत्ते झरने लगे और उधर मन की उदासी बढ़ने लगी। दोनो हरकतें समानांतर, साथ साथ चालू हुईं, या उलटा हुआ। जब मकान मालिक के मन की उदासी बढ़ने लगी तो आंगन के नीम, ने सोचा, चलो इसी वक़्त कुछ पत्तियां झरा दो। साहित्य के अध्ययन से मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि पेड़ पौधे और पूरी प्रकृति बैठी हमेशा कवि का मूड भांपती रहती है। कवि का जैसा मूड हुआ, प्रकृति वैसा ही करती है। कवि का मन उदास हुआ तो नीम के पत्ते झरने लग जाते हैं। और मूड अच्छा हुआ तो उसी समय सूखे पत्तों का झरना रुक जाता है-नयी नयी कोंपलें फूटने लगती हैं। कहावत है (या हो सकती है) :
‘जिस माजने का कवि, उस माजने के पेड़-पौधे’,
या यों कि
‘जैसा बोलें कविराम, वैसा नाचे नीम आम’;
‘जबहूं कवि हरसे, तबहूं जल बरसे;
या यों कि
‘कवि हुआ ढुलमुल तो चुप्प हुई बुलबुल।
घर का पेड़ हो, बाप ने बोया हो, तो भावुकता का अधिकार पुश्तैनी हो जाता है। धीरे धीरे पूरा मिजाज़ आंचलिक हो जाने की संभावना रहती है। पेड़ के साथ आपके पूरे व्यक्तित्व के कंडीशंड हो जाने का खतरा रहता है। जो लोग एक छायादार पेड़ के संदर्भ में अपने को बड़ा वड्रसवर्थ या रवींद्रनाथ लगते हैं, आगे जा कर बड़े गंवार मनई साबित होते हैं। यह तो हिंदी साहित्य है, जहां सब चल जाता है। यहां गंवार मनई भी गाछ-बिरछ का जिक्र कर ढोलक बाजे से सुर निकाल धंधा चला लेता है। साहित्य प्रेमी व्यक्ति के संस्कार और रुचियां बकरी की तरह होते हैं। जहां जो भी हरा भरा मिल जाता है, प्रेम से चर लेता है। अभाव में मुंह लटका लेता है।
जब कवि का पेड़ सूखता है, उसे भी दुख होता है। साहित्य में ‘नेचर’ का खरबूजा जैसा रंग बदलता है, पाठक के ‘नेचर’ का खरबूजा भी देख कर रंग बदल लेता है। इसके अलावा भी जो पारिवारिक ऊष्मा के कवि हैं, घर की खिड़की से बाहर झांक कर पेड़ की डाली, चांद, बादल या गाय-ढोर का नज़ारा देख अपने मन की बात कहते हैं। जब तक पास के पेड़ से लटक कर कथ्य और शिल्प के आकाश में झूलने लगते हैं। ऐसी रचनाओं के बलबूते पर पेड़ के साथ साहित्य और साहित्य के साथ पेड़ पनपता है। कभी वहीं कोई पक्षी घोंसला बना ले और नर-मादा अपने चोंचले शुरू कर दें, तो प्रेमकथा का रंग बांधने में सुविधा होती है। अकेली बैठी उपन्यासों की औरतें घर से घोंसलें की तुलना करने लगती हैं। बाबू दफ्तर चला जाता है। भाग्य का टाइपराइटर बजाने और वह औरत बच्चों को कीड़े-मकोड़े का चुग्गा खिलाती मादा को देख अपने अधफूले पेट पर हाथ फेरने लगती है। साहित्य में ऐसे दृश्य ‘बॉक्स ऑफ़िस हिट’ साबित हुए हैं। यह सब पेड़ का प्रताप है। बुद्धि के नंगेपन को ढंकने के लिए पेड़ के पत्ते बड़े काम आये हैं। जब कुछ समझ नहीं आया, पाठक को पेड़ में बांध दिया और ख़ुद ऊपर चढ़ पर डालियां हिलाने लगे। ले बेटा, चाट प्रकृति। भगवान की बनायी है, सस्ती पड़ती है।
फिर भी मुझे तो आंगन में खडे पेड़ की बात करने वाले कवि अच्छे लगते हैं। जो है उसी की बात करते हैं। अपनी अक़्ल और अनुभूति की सीमाओं से परिचित हैं। आरामकुर्सी पर पड़े पड़े इंद्रधनु रौंदने का दम तो नहीं भरते। प्रकृति को ले कार साहित्य में बड़ा ‘फ्रॉड’ चलता है। प्रकृति एक विशेष काव्यनीति में सहायक रही है। इस हरी राजनीति को आम पाठक समझ नहीं पाता। जब भी समस्याएं साक्षात हो कर गला पकड़ती हैं, कवि चुपके से वृक्षों के झुरमुट में घुस लेता है। जब मुसीबत छंट गयी, धीरे से निकला और जो जीता उसकी जयजयकार करने लगा। गुलमोहर, पलाश, अमलतास, पीपल, बड़, आम, नीम का अच्छा खासा जंगल है, जो तटस्थता के मौसम में सिर छुपाने के काम आता है। तटस्थता की राजनीति का रहस्य सब समझते हैं। पर कवि को कुछ नहीं कहते परंपरा से उसे प्रकृति पर हक़ प्राप्त है। अभिव्यक्ति के निस्तार के लिए वह जहां चाहे कुलांचें भर सकता है। उसे कालिदास से गुरुमंत्र मिला है : ‘विक्रम के दोष खोजने से बेहतर है प्रकृति की बात करो।’ ‘कैरियर शुद्ध रहता है, ‘वेरायटी’ बनी रहती है। प्रकृति पल पल वेश परिवर्तित करती है, कवि की गिरगिट प्रतिभा नित नये रंग बदलती है। अपना कोई क्या बिगाड़ सकता है। और जब विक्रम के ख़िलाफ़ देश की जनता में असंतोष के अंकुर विरोधी पार्टी को मिले भारी वोटों की तरह पनपने लगें, तब विक्रम की दरबारी अकादमी से पुरस्कृत प्रकृतिवादी कवि को सुविधा है कि वह विरोध के सुरों में एक सुर अपना मिला, बदलते इतिहास की वी.आई.पी. लिस्ट में भी अपना नाम लिखवा ले।
पेड़ से बहुत फ़ायदे हैं। वह कड़ी धूप में शरण देता है। पेड़ बहुत उपयोगी वस्तु है। उसके घने पत्ते अतीत की कई शर्मिदगियों को ढंकते हैं। झुरमुट अनेक घोटालों के केंद्र रहे हैं। साहित्य में भी कम घोटाले नहीं हुए हैं। कोई चाहे तो कविता और प्रकृति तथा कविता और राजनीति पर अलग अलग थीसिसें न लिख कर एक ही प्रबंध में सारी शोध कर सकता है। पुस्तक पठनीय होगी, पर पी.एच.डी. नहीं मिलेगी, विश्वविद्यालय के आंगन में भी काव्यनीति का एक पुराना पेड़ लगा है। हेड ऑफ़ दि डिपार्टमेंट जब अपनी खिड़की से झांकते हैं, वह पेड़ उन्हें दिखायी देता है। उसकी हवा का झोंका उन्हें अहं को संतोष देता है। वे विचारों की ज़मीन पर नयी बागवानी के समर्थक नहीं। वे कवि को उनके दिखाऊ मूल्यों पर स्वीकार करते हैं। इरी और निरी भावुकता के वे संरक्षक हैं, ढाल हैं। कहावत है (या हो सकती है) कि :
‘एकतरफ़ा प्रकृति दोतरफ़ा पोलटिक्स’;
या यों कि
वृक्ष ओझल विरोध ओझल’;
‘देखो हम कवियन की रीत, खायें पोलटिक्स, उगलें गीत या यों कि
‘विरोध में कमी, ख़ुश अकादमी’;
या यों कि
लिखी सिर्फ़ प्रकृति की बात, लगो कोर्स में हाथ के हाथ’;
या लगो कोर्स में शान के साथ।
सघन गहराइयों में न जाओ, अमान्य रूप से झरते तथ्यों को ही बीनो, तो भी आंगन में लगा पेड़ बड़ा सहायक है। जब चाहें गुस्सा कम करने या आंखें नम करने में मदद करता है। परगांव गये पिया जब घर पर चिट्ठी लिखते हैं, तो आंगन के पेड़ के विषय में भी पूछते हैं, मधुआ की मां, इस साल तो आम में बहुत बौर आये होंगे। वहां होता तो सूंघता। काफ़ी आम देगा अपना गाछ। क्या कहने, चिट्ठी पढ़ कर सुनाता ज्ञानी पोस्टमैन उस करुण प्रसंग के साथ सारा मामला भांप लेता है।
जाती बेर धीरे से कहता है, ‘मधुआ की मां, इस बरस तो मधुआ के बापू घर नहीं आ रहे। कभी आम में बैर आये तो हमें याद करना। और मधुआ की मां लाज से मुंह फिरा आंगन के आम की ओर मुंह फेर खड़ी हो जाती है। पोस्टमैन एक सुख संचारक केलेंडर रसीली नज़रों से निहारता आगे बढ़ जाता है।
दूसरा प्रसंग, नानूराम शास्त्री की मोड़ी शकुन की विदाई। घूंघट में मुंह छुपा रोने-धोने का क्रम चालू। जाती बेर वह आंगन में लगे वृक्ष की ओर देखती है, इसी के नीचे खेलकूद कर बड़ी हुई। ललुआ पंडित छोरे ने इसी गाछ के नीचे पहली बार कलाई पकड़ी, वह मन ही मन वृक्ष को प्रणाम कर कहती है-हे गाछ महाराज, जेस्कैंडल की पुटरिया तेरी डार पर लटकाय कर जाये रही हूं। बिसकू एक्सपोज मत करना महाराज। अपनी बिटिया की लाज रखना। औरतें तभी समवेत में रोती हैं, ‘अरे, अब इन गाछ-बिरछ को तेरे बिन कौन पानी देगा री बिटिया और बिटिया वृक्ष देवता को प्रमाण कर डोली की तरफ बढ़ जाती है। देखने वालों की आंखों में एक आंचलिक सीन खिंच आता है।
ऐसे अनेक प्रसंग हैं, आंगन में लगे पेड़ के इर्द गिर्द कई बातें हैं, जिनमें लेखक और कवि पूरी प्रतिभा का उपयोग कर खप सकते हैं। खप चुके हैं। कहावत है (या हो सकती है) कि :
पेड़ के प्रसंग और कविता के रंग, इनमें कभी कमी नहीं आती; या यों कि
झरता नीम, शाश्वत थीम; या यों कि
नीम फले या आम, कवि के आवै काम;
या यों कि
पता खड़के कलम फड़के।
यदि आम भावुक हैं, ज्ञानी हैं और आंगन में लगे पेड़ पर विश्वास करते हैं, तो इन कहावतों को भी सच मानिए, चाहे आपने सुनी हों या न सुनी हों। क्योंकि कहावत है कि हाथी पर ज्यों महावत, भाषा में त्यों कहावत।’ उसके बिना तथ्य से आप भटक जायेंगे।
आदमी आदमी से या दूसरे मायनों में स्त्री से एडजस्ट न कर सके, पर आदमी पेड़ और पेड़ आदमी से आसानी से एडजस्ट कर लेता है। फलदार पेड़ हो तो एडजस्ट होने में अपेक्षाकृत सुविधा रहती है। खैर, आदमी भी फलदार हो तो वहां भी एडजस्टमेंट सरल हो जाता है। स्त्री अपनी सारी स्मृतियां और भावना घर के पुराने ताक़ में रख फलदार व्यक्ति के साथ कछौटा कस चल देती है। केवल भावुक मन वाले ही फलविहीन के साथ एडजस्ट करते हैं। वे तो फलविहीन पेड़ के साथ भी एडजस्ट कर लेते हैं। उनके साथ पेड़ भी एडजस्ट कर लेता है जैसे ‘झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की (पता नहीं किसकी पंक्ति है, जाने कब पढ़ी थी। यों भी हम नाम बता कर उसका प्रचार करने के पक्ष में नहीं। यह हमारी साहित्यिक ‘स्ट्रेटेजी’ है कि संदर्भ दो, मगर नाम गायब़ कर दो)। इसमें हुआ यह कि जब नीम के पत्ते झरने लगे और उधर मन की उदासी बढ़ने लगी। दोनो हरकतें समानांतर, साथ साथ चालू हुईं, या उलटा हुआ। जब मकान मालिक के मन की उदासी बढ़ने लगी तो आंगन के नीम, ने सोचा, चलो इसी वक़्त कुछ पत्तियां झरा दो। साहित्य के अध्ययन से मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि पेड़ पौधे और पूरी प्रकृति बैठी हमेशा कवि का मूड भांपती रहती है। कवि का जैसा मूड हुआ, प्रकृति वैसा ही करती है। कवि का मन उदास हुआ तो नीम के पत्ते झरने लग जाते हैं। और मूड अच्छा हुआ तो उसी समय सूखे पत्तों का झरना रुक जाता है-नयी नयी कोंपलें फूटने लगती हैं। कहावत है (या हो सकती है) :
‘जिस माजने का कवि, उस माजने के पेड़-पौधे’,
या यों कि
‘जैसा बोलें कविराम, वैसा नाचे नीम आम’;
‘जबहूं कवि हरसे, तबहूं जल बरसे;
या यों कि
‘कवि हुआ ढुलमुल तो चुप्प हुई बुलबुल।
घर का पेड़ हो, बाप ने बोया हो, तो भावुकता का अधिकार पुश्तैनी हो जाता है। धीरे धीरे पूरा मिजाज़ आंचलिक हो जाने की संभावना रहती है। पेड़ के साथ आपके पूरे व्यक्तित्व के कंडीशंड हो जाने का खतरा रहता है। जो लोग एक छायादार पेड़ के संदर्भ में अपने को बड़ा वड्रसवर्थ या रवींद्रनाथ लगते हैं, आगे जा कर बड़े गंवार मनई साबित होते हैं। यह तो हिंदी साहित्य है, जहां सब चल जाता है। यहां गंवार मनई भी गाछ-बिरछ का जिक्र कर ढोलक बाजे से सुर निकाल धंधा चला लेता है। साहित्य प्रेमी व्यक्ति के संस्कार और रुचियां बकरी की तरह होते हैं। जहां जो भी हरा भरा मिल जाता है, प्रेम से चर लेता है। अभाव में मुंह लटका लेता है।
जब कवि का पेड़ सूखता है, उसे भी दुख होता है। साहित्य में ‘नेचर’ का खरबूजा जैसा रंग बदलता है, पाठक के ‘नेचर’ का खरबूजा भी देख कर रंग बदल लेता है। इसके अलावा भी जो पारिवारिक ऊष्मा के कवि हैं, घर की खिड़की से बाहर झांक कर पेड़ की डाली, चांद, बादल या गाय-ढोर का नज़ारा देख अपने मन की बात कहते हैं। जब तक पास के पेड़ से लटक कर कथ्य और शिल्प के आकाश में झूलने लगते हैं। ऐसी रचनाओं के बलबूते पर पेड़ के साथ साहित्य और साहित्य के साथ पेड़ पनपता है। कभी वहीं कोई पक्षी घोंसला बना ले और नर-मादा अपने चोंचले शुरू कर दें, तो प्रेमकथा का रंग बांधने में सुविधा होती है। अकेली बैठी उपन्यासों की औरतें घर से घोंसलें की तुलना करने लगती हैं। बाबू दफ्तर चला जाता है। भाग्य का टाइपराइटर बजाने और वह औरत बच्चों को कीड़े-मकोड़े का चुग्गा खिलाती मादा को देख अपने अधफूले पेट पर हाथ फेरने लगती है। साहित्य में ऐसे दृश्य ‘बॉक्स ऑफ़िस हिट’ साबित हुए हैं। यह सब पेड़ का प्रताप है। बुद्धि के नंगेपन को ढंकने के लिए पेड़ के पत्ते बड़े काम आये हैं। जब कुछ समझ नहीं आया, पाठक को पेड़ में बांध दिया और ख़ुद ऊपर चढ़ पर डालियां हिलाने लगे। ले बेटा, चाट प्रकृति। भगवान की बनायी है, सस्ती पड़ती है।
फिर भी मुझे तो आंगन में खडे पेड़ की बात करने वाले कवि अच्छे लगते हैं। जो है उसी की बात करते हैं। अपनी अक़्ल और अनुभूति की सीमाओं से परिचित हैं। आरामकुर्सी पर पड़े पड़े इंद्रधनु रौंदने का दम तो नहीं भरते। प्रकृति को ले कार साहित्य में बड़ा ‘फ्रॉड’ चलता है। प्रकृति एक विशेष काव्यनीति में सहायक रही है। इस हरी राजनीति को आम पाठक समझ नहीं पाता। जब भी समस्याएं साक्षात हो कर गला पकड़ती हैं, कवि चुपके से वृक्षों के झुरमुट में घुस लेता है। जब मुसीबत छंट गयी, धीरे से निकला और जो जीता उसकी जयजयकार करने लगा। गुलमोहर, पलाश, अमलतास, पीपल, बड़, आम, नीम का अच्छा खासा जंगल है, जो तटस्थता के मौसम में सिर छुपाने के काम आता है। तटस्थता की राजनीति का रहस्य सब समझते हैं। पर कवि को कुछ नहीं कहते परंपरा से उसे प्रकृति पर हक़ प्राप्त है। अभिव्यक्ति के निस्तार के लिए वह जहां चाहे कुलांचें भर सकता है। उसे कालिदास से गुरुमंत्र मिला है : ‘विक्रम के दोष खोजने से बेहतर है प्रकृति की बात करो।’ ‘कैरियर शुद्ध रहता है, ‘वेरायटी’ बनी रहती है। प्रकृति पल पल वेश परिवर्तित करती है, कवि की गिरगिट प्रतिभा नित नये रंग बदलती है। अपना कोई क्या बिगाड़ सकता है। और जब विक्रम के ख़िलाफ़ देश की जनता में असंतोष के अंकुर विरोधी पार्टी को मिले भारी वोटों की तरह पनपने लगें, तब विक्रम की दरबारी अकादमी से पुरस्कृत प्रकृतिवादी कवि को सुविधा है कि वह विरोध के सुरों में एक सुर अपना मिला, बदलते इतिहास की वी.आई.पी. लिस्ट में भी अपना नाम लिखवा ले।
पेड़ से बहुत फ़ायदे हैं। वह कड़ी धूप में शरण देता है। पेड़ बहुत उपयोगी वस्तु है। उसके घने पत्ते अतीत की कई शर्मिदगियों को ढंकते हैं। झुरमुट अनेक घोटालों के केंद्र रहे हैं। साहित्य में भी कम घोटाले नहीं हुए हैं। कोई चाहे तो कविता और प्रकृति तथा कविता और राजनीति पर अलग अलग थीसिसें न लिख कर एक ही प्रबंध में सारी शोध कर सकता है। पुस्तक पठनीय होगी, पर पी.एच.डी. नहीं मिलेगी, विश्वविद्यालय के आंगन में भी काव्यनीति का एक पुराना पेड़ लगा है। हेड ऑफ़ दि डिपार्टमेंट जब अपनी खिड़की से झांकते हैं, वह पेड़ उन्हें दिखायी देता है। उसकी हवा का झोंका उन्हें अहं को संतोष देता है। वे विचारों की ज़मीन पर नयी बागवानी के समर्थक नहीं। वे कवि को उनके दिखाऊ मूल्यों पर स्वीकार करते हैं। इरी और निरी भावुकता के वे संरक्षक हैं, ढाल हैं। कहावत है (या हो सकती है) कि :
‘एकतरफ़ा प्रकृति दोतरफ़ा पोलटिक्स’;
या यों कि
वृक्ष ओझल विरोध ओझल’;
‘देखो हम कवियन की रीत, खायें पोलटिक्स, उगलें गीत या यों कि
‘विरोध में कमी, ख़ुश अकादमी’;
या यों कि
लिखी सिर्फ़ प्रकृति की बात, लगो कोर्स में हाथ के हाथ’;
या लगो कोर्स में शान के साथ।
सघन गहराइयों में न जाओ, अमान्य रूप से झरते तथ्यों को ही बीनो, तो भी आंगन में लगा पेड़ बड़ा सहायक है। जब चाहें गुस्सा कम करने या आंखें नम करने में मदद करता है। परगांव गये पिया जब घर पर चिट्ठी लिखते हैं, तो आंगन के पेड़ के विषय में भी पूछते हैं, मधुआ की मां, इस साल तो आम में बहुत बौर आये होंगे। वहां होता तो सूंघता। काफ़ी आम देगा अपना गाछ। क्या कहने, चिट्ठी पढ़ कर सुनाता ज्ञानी पोस्टमैन उस करुण प्रसंग के साथ सारा मामला भांप लेता है।
जाती बेर धीरे से कहता है, ‘मधुआ की मां, इस बरस तो मधुआ के बापू घर नहीं आ रहे। कभी आम में बैर आये तो हमें याद करना। और मधुआ की मां लाज से मुंह फिरा आंगन के आम की ओर मुंह फेर खड़ी हो जाती है। पोस्टमैन एक सुख संचारक केलेंडर रसीली नज़रों से निहारता आगे बढ़ जाता है।
दूसरा प्रसंग, नानूराम शास्त्री की मोड़ी शकुन की विदाई। घूंघट में मुंह छुपा रोने-धोने का क्रम चालू। जाती बेर वह आंगन में लगे वृक्ष की ओर देखती है, इसी के नीचे खेलकूद कर बड़ी हुई। ललुआ पंडित छोरे ने इसी गाछ के नीचे पहली बार कलाई पकड़ी, वह मन ही मन वृक्ष को प्रणाम कर कहती है-हे गाछ महाराज, जेस्कैंडल की पुटरिया तेरी डार पर लटकाय कर जाये रही हूं। बिसकू एक्सपोज मत करना महाराज। अपनी बिटिया की लाज रखना। औरतें तभी समवेत में रोती हैं, ‘अरे, अब इन गाछ-बिरछ को तेरे बिन कौन पानी देगा री बिटिया और बिटिया वृक्ष देवता को प्रमाण कर डोली की तरफ बढ़ जाती है। देखने वालों की आंखों में एक आंचलिक सीन खिंच आता है।
ऐसे अनेक प्रसंग हैं, आंगन में लगे पेड़ के इर्द गिर्द कई बातें हैं, जिनमें लेखक और कवि पूरी प्रतिभा का उपयोग कर खप सकते हैं। खप चुके हैं। कहावत है (या हो सकती है) कि :
पेड़ के प्रसंग और कविता के रंग, इनमें कभी कमी नहीं आती; या यों कि
झरता नीम, शाश्वत थीम; या यों कि
नीम फले या आम, कवि के आवै काम;
या यों कि
पता खड़के कलम फड़के।
यदि आम भावुक हैं, ज्ञानी हैं और आंगन में लगे पेड़ पर विश्वास करते हैं, तो इन कहावतों को भी सच मानिए, चाहे आपने सुनी हों या न सुनी हों। क्योंकि कहावत है कि हाथी पर ज्यों महावत, भाषा में त्यों कहावत।’ उसके बिना तथ्य से आप भटक जायेंगे।
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