पौराणिक कथाएँ >> रामायण रामायणधरमपाल बारिया
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प्रस्तुत है मर्यादा पुरुषोत्तम श्राराम का दिव्य जीवन चरित...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रामनाम की महिमा अपरंपार है। इसे उल्टा जपकर भी एक साधारण मानव महर्षि बन
गया। पाषाण हृदय को नवनीत बनाने की क्षमता है राम के चरित्र में। व्याध
द्वारा आहत क्रौंच की आर्त ध्वनि सुनकर जब वाल्मीकि के मुख से अनायास
करुणा द्रवित हुई तो नारद ने वाल्मीकि को रामचरित्र की रचना के लिए
प्रेरित किया। तब वाल्मीकि बने आदिकवि और उनकी
‘रामायण’ बनी
आदिकाव्य।
इसी आदिकाव्य से प्रेरित होकर संपूर्ण विश्व में रामचरित्र की विभिन्न भाषाओं में रचना हुई। गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना ‘रामचरित मानस’ का मूलाधार भी यही महाकाव्य है। तुलसीदास जी ने राम को भगवान के रूप में, अपने इष्ट के रूप में स्वीकारा, इसलिए तुलसी के राम वाल्मीकि के राम से कुछ मायनों में भिन्न हो गए-वाल्मीकि के राम विष्णु का अवतार होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ की भाषा आम बोलचाल की थी, इसलिए यह ग्रंथ जन-जन में लोकप्रिय हुआ।
इस पुस्तक को तैयार करते समय हमने उपरोक्त दोनों ग्रंथों को आधार बनाया है। ‘रामचरित मानस’ में ‘लव-कुश काण्ड’ नहीं है। इसे वाल्मीकि रामायण से लिया गया है। क्या मूल है और क्या क्षेपक-इस विवाद में बिना पड़े हमने यह प्रयास किया है कि रामचरित्र को सरल और स्पष्ट भाषा में प्रस्तुत किया जाए।
हमें विश्वास है कि सुंदर चित्रों से सुसज्जित यह पुस्तक भारतीय संस्कृति की संपूर्ण झलक देती हुई आने वाली पीढ़ी को जीवन दिशा देगी। आज के परिवेश में यह जरूरी भी है कि लोगों के समक्ष राम का आदर्श सरल सुगम भाषा शैली में प्रस्तुत किया जाए।
इसी आदिकाव्य से प्रेरित होकर संपूर्ण विश्व में रामचरित्र की विभिन्न भाषाओं में रचना हुई। गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना ‘रामचरित मानस’ का मूलाधार भी यही महाकाव्य है। तुलसीदास जी ने राम को भगवान के रूप में, अपने इष्ट के रूप में स्वीकारा, इसलिए तुलसी के राम वाल्मीकि के राम से कुछ मायनों में भिन्न हो गए-वाल्मीकि के राम विष्णु का अवतार होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ की भाषा आम बोलचाल की थी, इसलिए यह ग्रंथ जन-जन में लोकप्रिय हुआ।
इस पुस्तक को तैयार करते समय हमने उपरोक्त दोनों ग्रंथों को आधार बनाया है। ‘रामचरित मानस’ में ‘लव-कुश काण्ड’ नहीं है। इसे वाल्मीकि रामायण से लिया गया है। क्या मूल है और क्या क्षेपक-इस विवाद में बिना पड़े हमने यह प्रयास किया है कि रामचरित्र को सरल और स्पष्ट भाषा में प्रस्तुत किया जाए।
हमें विश्वास है कि सुंदर चित्रों से सुसज्जित यह पुस्तक भारतीय संस्कृति की संपूर्ण झलक देती हुई आने वाली पीढ़ी को जीवन दिशा देगी। आज के परिवेश में यह जरूरी भी है कि लोगों के समक्ष राम का आदर्श सरल सुगम भाषा शैली में प्रस्तुत किया जाए।
आदौ राम तपोवनाधिगमनं हत्वा मृगं कांचनं
वैदेही हरणं जटायुमरणं सुग्रीव संभाषणं
बाली निर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरी दाहनं
पश्चाद्रावण कुम्भकर्ण हननं एतद्धि रामायणम्।
वैदेही हरणं जटायुमरणं सुग्रीव संभाषणं
बाली निर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरी दाहनं
पश्चाद्रावण कुम्भकर्ण हननं एतद्धि रामायणम्।
सर्वप्रथम राम का वनगमन, स्वर्ण मृग का मारा जाना, सीता का हरण, जटायु का
मरण, सुग्रीव से मैत्री, बालि वध, समुद्र पार जाना, लंका का दहन, उसके बाद
रावण और कुंभकर्ण का वध यही रामायण है।
प्रथम सोपान
बाल काण्ड
राम ईश्वर का अवतार हैं। राम महामानव हैं। देवताओं और ऋषि-मुनियों ने
भगवान विष्णु की प्रार्थना की, तब उन्होंने इनकी रक्षा के लिए अयोध्या में
जन्म लिया। उनकी बाल लीलाओं में अलौकिकता है। वे सामान्य बालक दिखते हुए
भी परमविशिष्ट हैं। विश्वामित्र के साथ वन में जाकर उन्होंने ताड़का,
सुबाहु को मार गिराया। विश्वामित्र के साथ राम जनकपुर गए। रास्ते में
उन्होंने अहल्या का उद्धार किया-वह अपने पति के शाप से पाषाण बन गई थी।
राम ने जनकपुर में शिव-धनुष को तोड़ा। जनक पुत्री सीता ने राम के गले में
जयमाला डाल दी। राम के छोटे भाइयों-भरत, लक्ष्ण और शत्रुघ्न का विवाह सीता
की छोटी बहनों से हुआ। अयोध्या प्रसन्नता के सागर में हिलोरें लेने लगी।
महाराज दशरथ की चिंता
भारत में एक अति प्राचीन नगरी है-अयोध्या।
इस नगरी को मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु ने सरयू नदी के तट पर बसाया था। वैवस्वत मनु सूर्यवंश के आदि प्रवर्तक थे, अतः उनके पुत्र द्वारा बसाई गई इस नगरी को सूर्यवंशियों की नगरी कहा गया। सूर्यवंश में अनेक प्रतापी राजा हुए जिनमें सत्यवादी हरिश्चंद्र, सगर, भगीरथ, दिलीप, रघु, अज आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। महाराज दशरथ सूर्यवंशी सम्राट रघु के पौत्र थे। सम्राट् रघु के नाम पर ही सूर्यवंश का नाम रघुवंश पड़ा था। महाराज दशरथ महाप्रतापी, ज्ञानी, धर्मावलंबी व दयावन थे।
उनकी तीन रानियां थीं-कौशल्या, कैकेई और सुमित्रा। तीनों ही सुंदर, सुशील पतिव्रता एवं पवित्राचरण करने वाली थीं।
अपने पूर्वजों की भांति महाराज दशरथ भी सूर्य के उपासक थे। वे नित्य प्रति सर्वप्रथम भगवान सूर्य की उपासना करके ही राज-काज किया करते थे। अयोध्या नगरी सभी ओर से सुखी एवं संपन्न थी, फिर भी महाराज दशरथ के मुख पर प्रसन्नता दिखाई नहीं देती थी। इसका कारण था कि तीन रानियों के होने पर भी वे संतान सुख से वंचित थे। वे सदा इसी चिंता में डूबे रहते थे कि उनके बाद उनके राज्य की बागडोर कौन संभालेगा ? कुल को एक पुत्र न देने की सूरत में वह किस प्रकार अपने पितृऋण से मुक्त होंगे ?
एक बार जब वे अपने कुल गुरु, वसिष्ठ के साथ सू्र्योपासना कर रहे थे, तो उनके हृदय की वेदना होंठों पर आ गई। वे बोले, ‘‘गुरुवर ! कृपा कर हमारी चिंता दूर कीजिए।’’
‘‘कैसी चिंता राजन ?’’
‘‘संतान का मुख देखने की आस में वर्षों बीत गए, मगर हमारी यह अभिलाषा आज भी अधूरी ही है, क्या हम निःसंतान ही इस संसार से विदा हो जाएंगे ? क्या सूर्यवंशियों का शासन अब अयोध्या से खत्म होना चाहता है ?’’ द्रवित स्वर में महाराज दशरथ ने कहा।
‘‘ऐसी निराशा भरी बातें न करो, राजन। ईश्वर इतना कठोर नहीं है। सूर्यदेव की कृपा से तुम्हें संतान सुख अवश्य मिलेगा।’’ गुरु वसिष्ठ ने उन्हें दिलासा दिया।
‘‘कब मिलेगा गुरुवर ? कब आएगा वह शुभ दिन ?’’ व्यथित होकर दशरथ बोले, ‘‘अब धीरे-धीरे हम वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहे हैं।’’
‘‘राजन् ! इसका एक उपाय है। तुम्हें पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करवाना होगा।’’ गुरु वशिष्ट ने कहा।
‘तो कीजिए न गुरुदेव। इसमें विलंब क्या है ?’’ अधीर होकर राजा दशरथ ने पूछा।
‘‘राजन ! उस यज्ञ को केवल श्रृंगी ऋषि ही करवा सकते हैं। आप स्वयं उनके आश्रम पर जाकर उनसे विनती करके उन्हें आदर सहित इस कार्य के लिए लेकर आएं।’’
‘‘जैसी आज्ञा।’’ नतमस्तक होकर महाराज दशरथ ने कहा, ‘‘हम इसी समय जाकर श्रृंगी ऋषि से निवेदन करेंगे।’’
फिर महाराज दशरथ उसी दिन नंगे पांव चलकर श्रृंगी ऋषि के आश्रम पर जा पहुंचे। श्रद्धा और भक्तिपूर्वक उन्होंने श्रृंगी ऋषि को प्रमाण कर उनकी चरण वंदना की, तत्पश्चात हाथ जोड़कर पुत्रेष्टि यज्ञ करवाने का निवेदन किया।
श्रृंगी ऋषि ने उनके निवेदन को स्वीकार कर लिया और उसी दिन राजा दशरथ के साथ अयोध्या आकर यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ के आयोजन की खबर पूरे अयोध्या में फैल गई। समस्त नर-नारी अपने राजा के संतानवान होने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगे।
दूसरी ओर जैसे ही यज्ञ संपन्न हुआ, हाथों में दिव्य खीर से भरा एक पात्र लेकर एक देवपुरुष प्रकट हुए। वे स्वयं अग्निदेव थे। वे बोले, ‘‘राजन। तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हुआ। तुम इस खीर के उचित भाग करके अपनी रानियों को खिला देना। परमपिता तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेंगे।’’
इधर, राजा दशरथ ने दिव्य खीर का पात्र ग्रहण किया, उधर अग्निदेव अंर्तधान हो गए। दिव्य खीर का पात्र एवं मनोकामना सिद्धि का वरदान पाकर राजा दशरथ की खुशी का ठिकाना न रहा। तत्पश्चात श्रृंगी ऋषि को उत्तम दक्षिणा एवं अन्य द्रव्य देकर आदर सहित विदाकर, कुलगुरु से आज्ञा प्राप्त कर राजा दशरथ महल में आए।
राजमहल में आकर राजा ने रानियों को बुलवाया। महाराज के आगमन की खबर पाकर महारानी कौशल्या और कैकेई दौड़ी चली आईं। सुमित्रा किसी कारणवश उस समय न आ सकी। हर्षातिरेक में महाराज को रानियों में खीर वितरित करने के अतिरिक्त दूसरी कोई बात ही नहीं सूझ रही थी। वे तो यही चाहते थे कि रानियां अतिशीघ्र उस खीर का सेवन कर लें ताकि देववाणी भी शीघ्र सत्य सिद्ध हो। अतः उन्होंने खीर दो भागों में बांटकर कौशल्या और कैकेई को दे दी और बोले, ‘‘तुम यथाशीघ्र यह खीर खा लो।’’
रानियों को मालूम था कि महाराज ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया है और उसी के प्रसाद रूप यह खीर हमें मिली है। तभी उन्हें सुमित्रा का ध्यान आया तो उन्होंने अपने-अपने भाग में आधा-आधा भाग सुमित्रा के लिए निकाल दिया। उसी समय सुमित्रा ने वहां आकर अपने हिस्से के दोनों भाग खा लिए।
उस दिव्य खीर के प्रताप से समयानुसार तीनों रानियां गर्भवती हो गईं। जब यह समाचार महाराज दशरथ को मिला तो उनकी खुशी का पारावार न रहा। अब वे संतान की ओर से चिंतामुक्त हो गए।
इस नगरी को मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु ने सरयू नदी के तट पर बसाया था। वैवस्वत मनु सूर्यवंश के आदि प्रवर्तक थे, अतः उनके पुत्र द्वारा बसाई गई इस नगरी को सूर्यवंशियों की नगरी कहा गया। सूर्यवंश में अनेक प्रतापी राजा हुए जिनमें सत्यवादी हरिश्चंद्र, सगर, भगीरथ, दिलीप, रघु, अज आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। महाराज दशरथ सूर्यवंशी सम्राट रघु के पौत्र थे। सम्राट् रघु के नाम पर ही सूर्यवंश का नाम रघुवंश पड़ा था। महाराज दशरथ महाप्रतापी, ज्ञानी, धर्मावलंबी व दयावन थे।
उनकी तीन रानियां थीं-कौशल्या, कैकेई और सुमित्रा। तीनों ही सुंदर, सुशील पतिव्रता एवं पवित्राचरण करने वाली थीं।
अपने पूर्वजों की भांति महाराज दशरथ भी सूर्य के उपासक थे। वे नित्य प्रति सर्वप्रथम भगवान सूर्य की उपासना करके ही राज-काज किया करते थे। अयोध्या नगरी सभी ओर से सुखी एवं संपन्न थी, फिर भी महाराज दशरथ के मुख पर प्रसन्नता दिखाई नहीं देती थी। इसका कारण था कि तीन रानियों के होने पर भी वे संतान सुख से वंचित थे। वे सदा इसी चिंता में डूबे रहते थे कि उनके बाद उनके राज्य की बागडोर कौन संभालेगा ? कुल को एक पुत्र न देने की सूरत में वह किस प्रकार अपने पितृऋण से मुक्त होंगे ?
एक बार जब वे अपने कुल गुरु, वसिष्ठ के साथ सू्र्योपासना कर रहे थे, तो उनके हृदय की वेदना होंठों पर आ गई। वे बोले, ‘‘गुरुवर ! कृपा कर हमारी चिंता दूर कीजिए।’’
‘‘कैसी चिंता राजन ?’’
‘‘संतान का मुख देखने की आस में वर्षों बीत गए, मगर हमारी यह अभिलाषा आज भी अधूरी ही है, क्या हम निःसंतान ही इस संसार से विदा हो जाएंगे ? क्या सूर्यवंशियों का शासन अब अयोध्या से खत्म होना चाहता है ?’’ द्रवित स्वर में महाराज दशरथ ने कहा।
‘‘ऐसी निराशा भरी बातें न करो, राजन। ईश्वर इतना कठोर नहीं है। सूर्यदेव की कृपा से तुम्हें संतान सुख अवश्य मिलेगा।’’ गुरु वसिष्ठ ने उन्हें दिलासा दिया।
‘‘कब मिलेगा गुरुवर ? कब आएगा वह शुभ दिन ?’’ व्यथित होकर दशरथ बोले, ‘‘अब धीरे-धीरे हम वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहे हैं।’’
‘‘राजन् ! इसका एक उपाय है। तुम्हें पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करवाना होगा।’’ गुरु वशिष्ट ने कहा।
‘तो कीजिए न गुरुदेव। इसमें विलंब क्या है ?’’ अधीर होकर राजा दशरथ ने पूछा।
‘‘राजन ! उस यज्ञ को केवल श्रृंगी ऋषि ही करवा सकते हैं। आप स्वयं उनके आश्रम पर जाकर उनसे विनती करके उन्हें आदर सहित इस कार्य के लिए लेकर आएं।’’
‘‘जैसी आज्ञा।’’ नतमस्तक होकर महाराज दशरथ ने कहा, ‘‘हम इसी समय जाकर श्रृंगी ऋषि से निवेदन करेंगे।’’
फिर महाराज दशरथ उसी दिन नंगे पांव चलकर श्रृंगी ऋषि के आश्रम पर जा पहुंचे। श्रद्धा और भक्तिपूर्वक उन्होंने श्रृंगी ऋषि को प्रमाण कर उनकी चरण वंदना की, तत्पश्चात हाथ जोड़कर पुत्रेष्टि यज्ञ करवाने का निवेदन किया।
श्रृंगी ऋषि ने उनके निवेदन को स्वीकार कर लिया और उसी दिन राजा दशरथ के साथ अयोध्या आकर यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ के आयोजन की खबर पूरे अयोध्या में फैल गई। समस्त नर-नारी अपने राजा के संतानवान होने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगे।
दूसरी ओर जैसे ही यज्ञ संपन्न हुआ, हाथों में दिव्य खीर से भरा एक पात्र लेकर एक देवपुरुष प्रकट हुए। वे स्वयं अग्निदेव थे। वे बोले, ‘‘राजन। तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हुआ। तुम इस खीर के उचित भाग करके अपनी रानियों को खिला देना। परमपिता तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेंगे।’’
इधर, राजा दशरथ ने दिव्य खीर का पात्र ग्रहण किया, उधर अग्निदेव अंर्तधान हो गए। दिव्य खीर का पात्र एवं मनोकामना सिद्धि का वरदान पाकर राजा दशरथ की खुशी का ठिकाना न रहा। तत्पश्चात श्रृंगी ऋषि को उत्तम दक्षिणा एवं अन्य द्रव्य देकर आदर सहित विदाकर, कुलगुरु से आज्ञा प्राप्त कर राजा दशरथ महल में आए।
राजमहल में आकर राजा ने रानियों को बुलवाया। महाराज के आगमन की खबर पाकर महारानी कौशल्या और कैकेई दौड़ी चली आईं। सुमित्रा किसी कारणवश उस समय न आ सकी। हर्षातिरेक में महाराज को रानियों में खीर वितरित करने के अतिरिक्त दूसरी कोई बात ही नहीं सूझ रही थी। वे तो यही चाहते थे कि रानियां अतिशीघ्र उस खीर का सेवन कर लें ताकि देववाणी भी शीघ्र सत्य सिद्ध हो। अतः उन्होंने खीर दो भागों में बांटकर कौशल्या और कैकेई को दे दी और बोले, ‘‘तुम यथाशीघ्र यह खीर खा लो।’’
रानियों को मालूम था कि महाराज ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया है और उसी के प्रसाद रूप यह खीर हमें मिली है। तभी उन्हें सुमित्रा का ध्यान आया तो उन्होंने अपने-अपने भाग में आधा-आधा भाग सुमित्रा के लिए निकाल दिया। उसी समय सुमित्रा ने वहां आकर अपने हिस्से के दोनों भाग खा लिए।
उस दिव्य खीर के प्रताप से समयानुसार तीनों रानियां गर्भवती हो गईं। जब यह समाचार महाराज दशरथ को मिला तो उनकी खुशी का पारावार न रहा। अब वे संतान की ओर से चिंतामुक्त हो गए।
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