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कहानी संग्रह >> यह तो आगाज है

यह तो आगाज है

सरला अग्रवाल

प्रकाशक : अनु प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5724
आईएसबीएन :81-88099-41-4

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ये कहानियाँ वर्तमान की ज्वलन्त समस्याओं से जुड़ी हुई हैं और पाठक को अपने साथ बाँधे रखने की पूरी क्षमता रखती हैं।

Yah to aagaj hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रचनाकार जीवन के व्यापक आयामों से विषय का चयन करता है जो कागज़ पर शब्दों के एक विशेष गठन में ढ़ल जाने पर ही साहित्य में ‘रचना प्रक्रिया’ से संज्ञापित होते हैं। इस अनुशासित एवं संयमित अर्थ में डॉ. सरला अग्रवाल की रचना प्रक्रिया संश्लिष्ट हैं। उनके उपन्यासों, कहानियों, कविताओं तथा निबन्धों का चयन बड़ी सूझ-बूझ एवं वैभव के साथ किया गया है। डॉ. सरला ने अपनी कृतियों में विचार-विनिमय के द्वारा खोले हैं, प्रश्न पैदा किये हैं और समयानुकूल नया वैचारिक चिन्तन दिया है। उनका ‘जीवन संघर्ष’ बड़ी स्वाभाविकता से ‘साहित्य संघर्ष’ में रूपान्तरित हो गया है।

डा. सरला की कहानियों में दो ध्रुव है-सच्चाई के ध्रुव और यथार्थ के ध्रुव। अन्तः शक्ति के प्रकाश में तथा वैचारिक चिन्तन की अग्नि में तपकर जन्म लेने वाली उनकी कहानियों में जार्ज इलियट का सामाजिक विज्ञान है तो वर्जिनिया बुल्फ का चेतना प्रवाह है, जेन आस्टिन की तरह सामाजिक विकृतियों, विसंगतियों और कुरुपताओं को देखने की पैनी नजर है तो बंटी सिस्टर्स की तरह मनुष्य को समझने परखने की सचेतन दृष्टि भी है।

यही कारण है कि देश के कीर्ति पुरुषों विद्वान साहित्यकारों, मित्रों एवं जाने-माने समाज सेवियों ने डॉ. सरला को भरपूर आदर सम्मान दिया है। ये कहानियाँ वर्तमान की ज्वलन्त समस्याओं से जुड़ी हुई हैं और पाठक को अपने साथ बाँधे रखने की पूरी क्षमता रखती हैं।

डॉ. अमर सिंह वधान

जीवन की धूप छाव के ये चलचित्र


कथा साहित्य जगत में सरला अग्रवाल एक चर्चित और अर्चित नाम है, जिसकी अर्चित दूर-दूर तक पहुँच चुकी हैं। उनके अब तक दो उपन्यास और छः स्वतंत्र कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी ‘चर्चित’ कहानियों का एक अन्य संग्रह इनके अतिरिक्त पृथक से प्रकाशित है। प्रस्तुत कहानी संग्रह उनका सातवाँ स्वतंत्र कहानी संग्रह है। कहानी संग्रहों की 1993 से आरम्भ हुई प्रकाशन यात्रा से 2003 के पड़ाव तक, स्वतंत्र छः संग्रहों के रूप में उनकी 94 कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियों को इनमें जोड़ें तो इनके आँचल में एक शतक से अधिक कहानियों की उपलब्धि भर जाती है।
महिला होने के कारण उनका सम्पर्क क्षेत्र सीमित रहा हैं। इस कारण उनके कथानक और पात्र अधिकांशतः पारिवारिक जीवन और उसमें भी नारी जीवन से सम्बन्धित होते हैं। उनके नारी पात्र अधिकांशतः सेवाभावी, प्रेम, ममता और त्याग से परिपूर्ण होते हैं, उनके दुख-दर्द भी उनके छिपे हुए नहीं हैं। सरला दाम्पत्य या विश्वासघात की स्थिति में विरोध और संघर्ष की प्रतिपादक भी। वस्तुतः परिवार समाज की एक इकाई है अतः समाज और युग की परिस्थितियों, स्थितियों और वातावरण का प्रभाव परिवार के सोच, मूल्य और व्यवहार पर भी पड़ता हैं, इस कारण सरला जी ने अपनी कहानियों में समाज की सामाजिक स्थितियों मान्यताओं और मूल्यों के अतिरिक्त आर्थिक, शैक्षणिक, धार्मिक, सांस्कृतिक स्थितियों और समस्याओं को भी लिया है। इन सबके चित्रण में जहाँ उन्होंने यथार्थ का सहारा लिया है वहीं समाधान में आदर्श का, पर न वे पूर्णतः परम्परावादी हैं न पूर्णतः आधुनिकतावादी। परम्परा और आधुनिकता के ग्राह्य तत्त्वों को ही उन्होंने स्वीकार किया हैं। कहानी कला का निर्वाह करते हुए भी उन्होंने कला की तुलना में कथ्य और प्रतिपाद्य को वरीयता दी है। प्रस्तुत कहानी संग्रह का भी यही सत्य हैं।

इस संग्रह में पारिवारिक जीवन से सम्बन्धित पाँच कहानियाँ हैं ‘नानी का प्यार’ ‘प्रेम की परिभाषा’ ‘सुख नीड़ में दानव’ और रीती घटा’ ‘नानी का प्यार’ कहानी एक मनोवैज्ञानिक कहानी है जिसमें नानी माधवी का नातिन अंशुल के प्रति स्थायी और स्थिर प्रेम तथा नातिन की आयु बढने के साथ क्रमशः कम होता प्रेम चित्रित किया गया हैं उसका कारण है अंशुल का टी. वी. सीरियल देखने में रुचि हो जाना,  दूसरे वह यह चाहती हैं कि नानी उसे अन्य परिजनों से भी प्यार लेने दे। उसे ऐसा लगने लगा कि नानी यह चाहती है कि अंशुल नान, पापा, मौसी, दादा, चाचा, चाची किसी के प्यार को स्वीकार न करे। यह नानी के एकाधिकार पूर्ण प्रेम और नातिन के सर्वप्रदत्त प्रेम की चाह का द्वन्द्व का अन्त अंशुल के द्वारा नानी को यह आश्वस्त किये जाने से होता है कि ‘‘नानी माँ....अपनी अंशुल पर भरोसा रखो.... सबसे ज्यादा प्यार तो वो तुम्ही से करती हैं।’’

‘प्रेम की परिभाषा’ पुरुष के दाम्पत्येत्तर सम्बन्ध, परिणामस्वरूप पत्नी के आत्महत्या के प्रयत्न पर आधारित कहानी है। कहानी में उठाया गया मूल प्रश्न यह हैं कि पति का विवाहोतर सम्बन्ध रखना क्या उचित है ? यह इस कहानी में विवाह का विषय बन गया है। एक पक्ष पति का है जो कहता है ‘‘कोई पुरुष किसी एक नारी के साथ बँधकर नहीं रह सकता।’’ विवाहित पुरुष पर-नारी से प्रेम क्यों करने लगता है। इसके सम्बन्ध में पति सतीश का कहना है-‘प्यार किया नहीं जाता स्वयं हो जाता है। जब कोई किसी के मन को बेहद भा जाता है, अन्तर में समा जाता हैं, तो उसके सिवाय और कुछ भी दिखाई नहीं देता....उसके लिए धर्म कर्म संस्कार और विवाह की दीवारें ढ़ह जाती हैं।’’ दूसरा पक्ष मित्र समीर का है जिसके अनुसार ‘‘इसका अर्थ तो यह हुआ कि पति के लिए जीवन में कोई नियम बंधन और वर्जना है ही नहीं.....यह सारे विवाह-संस्कार के नियम, सामाजिक बंधन, बंधन और वर्जना है ही नहीं.....यह सारे विवाह-संस्कार के नियम, सामाजिक बंधन, मन और शरीर की पवित्रता केवल नारी के लिए ही अनिवार्य हैं।’’ समीर सतीश के इस प्रेम को ‘‘प्यार नहीं केवल दैहिक आकर्षण कहता है। दूसरी ओर शतीश का यह मत था कि ‘‘जिसने कभी अमतपान किया ही न हो तो वह इसके स्वाद को कैसे जान सकता है’’, इस पर समीर का कहना था जिसे तुम अमृत और स्वर्ग समझ रहे हो वही तुम्हें आने वाले समय में विष और नरक लगेगा।’’

कहानी की दूसरी नारी पात्र रंजना का सतीश की पत्नी कल्पना को परापर्श था कि ‘‘खुद में शक्ति जगाओं, नारी शक्तिस्वरूप है। वह अटूट प्रेम के अनन्य बंधन में बँधकर यदि स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर सकती है तो ऐसे बेवफ़ा गैरतहीन बँधकर यदि स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर सकती है।’’ यही परामर्श कहानी लेखिका का और संदेश इस कहानी का माना जा सकता है। इसी के साथ रंजना कल्पना को कर्तव्य पथ पर आने बढ़ने की प्रेरणा भी देती है। उसकी मान्यता तो, उसके इस कथन में है कि ‘‘प्रेम क्या साथ रहने से ही किया जा सकता है’’ जिससे यह भी ध्वनित होता हैं कि तलाक देने के बाद भी पति से प्रेम बनाये ऱखा जा सकता है। रंजना सृष्टि के चलते रहने के लिए विवाह को भी आवश्यक मानती है, पति के पथ-भ्रष्ट हो जाने पर वह नारी के विरक्त हो जाने के पक्ष में नहीं है।

इस प्रकार यह कहानी जहाँ विवाह और दम्पति के परस्पर प्रेम को आवश्यक मानती है वहीं पति के द्वारा दाम्पत्येतर सम्बन्ध रखे जाने पर पति से सम्बन्ध विच्छेद का भी प्रतिपादन करती है, और इस प्रकार भारतीय आदर्शों के साथ-साथ आधुनिक समाधान को भी स्थापित करती है।
आधुनिकता बोध वाली ‘पुत्र श्रण’ कहानी आज की संतति के पिता के प्रति उपेक्षा और निजी स्वार्थ-पालन को उद्घाटित इस रूप में करती है कि डा. नगेन्द्र सिंह के अपने और पुत्र डा. वीरेन्द्र सिंह के रहने के लिए पिता द्वारा बनाये गये कोठीनुमा मकान को पुत्र बिना उसको बताये चुपचाप दूसरे व्यक्ति को बेच देता है, परिणामस्वरूप पिता को एक छोटे और सुविधाजनक मकान में जाना पड़ता हैं। पिता अपने ही संवेदन शून्य पुत्र से छला जाता है-यह चाहे अप्रिय हो, अवांछनीय हो, पर है आधुनिक काल का एक कटु सत्य !

परिवार सम्बन्धी ही चौथी कहानी है ‘सुख में दानव’ जो यह बताती है कि किस प्रकार एक पति अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार करता है और उसके सिखाने से उसके बच्चे भी अपनी माता के प्रति दुर्व्यवहार करते है यह एक मनोवैज्ञनिक सत्य है और आज की संस्कृति का भी। पति के दुर्व्यवहार से सम्मिलित था-पत्नी के किये प्रत्येक ग्रह कार्य की आलोचना करना, पत्नी की परवाह नहीं करना, उसकी कमाई में से मकान के लिए रुपये लेते रहना। उधर बच्चों का भी मनमानी करना, अप्रिय बात कह देना, यहाँ तक कि धक्का देकर घर से बाहर निकाल देना ! यह कहानी यह सन्देश देती है कि बच्चों में अच्छे संस्कार पुस्तकों में पढ़ने या उपदेश सुनने से नहीं वरन् घर के स्वच्छ वातावरण, माता-पिता के सद्व्यहार एवं उनकी जीवन शैली में रची बसी नैतिकता और सौहार्द से ही आ पाते हैं।’’ पुत्री और माँ के कथोपकथनों के पहियों पर तलती यह कहानी अपना सफर यथार्थ से आदर्श की ओर तय करती है।

पाँचवी पारिवीरिक कहानी है ‘रीती घटा’ जो एक मनोवैज्ञानिक कहानी भी है, जिसमें काम्या के लिए अपने ही परिवार के कुछ सदस्यों के प्रति अलगाव का भाव है। और उसका कारण था उसका अड़तीस वर्ष तक अविवाहित रह जाना। विवाहित युग्म को देखकर उसमें ईर्ष्या करना, सोतेली बहिन राम्या के प्रति उसके पिता के बहुत लाड़-प्यार से भी ईर्ष्या और घृणा करना, भाभी की शिकायतें कर भाई भाभी को घर से निकलवा देना, माँ का मामा के यहाँ जाने का विरोध करना, उसकी असामान्य मानसिकता के उदाहरण हैं। उसकी इस असामान्यता का विश्लेषण और कारण उसकी माँ ने माधवी को जो प्रस्तुत किया उसमें सम्मिलित है अविवाहित रहने के कारण उसका अकेलापन, अतृप्त असन्तुष्ट भावनाएं दैहिक सुख की चाह, चिर प्रतीक्षित राजकुमार के लिए पाला गया स्वप्न ! अतः माँ ने ठीक कहा था -‘‘वह तो रीती घटा सी है, वह क्या बरसेगी ?’’

कहानी लेखिका ने साहित्य जगत की परिस्थितियों  और समस्याओं को जिन कहानियों में उठाया है, वे इनसे मिली’ और ‘अनाहूत’ ‘मैं इनसे मिली’ में यह बताया गया हैं कि कहानी लेखिका माधुरी की कहानी पुस्तक प्रकाशित होने पर घर उसे लेकर हिन्दी के प्रोफेसर डॉ. शर्मा के पास गयी तो प्रो. ने उसे सराहा, हिन्दी एकेडमी की पीठ में उस पर समीक्षा गोष्ठी कई दिन बीत जाने पर भी नहीं करवाई, अपना नाम लेकर 2 प्रतियाँ पुस्तकालय में दे आने के लिए कहा, पर उन्होंने पुस्तकालय के लिए लेने से इनकार कर दिया, प्रोफ़ेसर ने एक स्मारिका में क्षेत्र के अन्य बड़े-छोटे साहित्यकारों पर लेख लिख दिये थे, पर माधुरी पर नहीं, नहीं लिखने कारण माधुरी को बहुत ही अपमानजनक लगा उसने बाद में तो ‘मैं इनसे मिली’ पुस्तक लिखी, उसमें डॉ. शर्मा बहुत बिग़ड़े। इस प्रकार यह कहानी साहित्य जगत में व्याप्त स्वार्थ एवं प्रतिशोध की भावना तथा झूठे आश्वासन देने की प्रवृत्ति पर प्रकाश डालती है, साथ ही सृजनात्मक साहित्यकार की इससे उत्पन्न वेदना पर भी जो स्वाभाविक है।

साहित्य जगत की एक और पीड़ायदक स्थिति को उद्घाटित करती है ‘अनाहत’ कहानी, जिसमें एक महिला साहित्कार को एक भारतीय-संस्था द्वारा एक कथा-संग्रह का सम्पादन-दायित्व देने के पश्चात् उसे सह- सम्पादन बना देने, उसके परिश्रम से किये हुए कार्य की प्रशंसा न करने और प्रकाशन और प्रकाशन के पश्चात् उसके लोकार्पण के समय उसे मंच से बोलने का अवसर न दिये जाने की व्यथा- कथा व्यक्त की गयी है।

कश्मीर की आतंकवाद से सम्बन्धित दो कहानियाँ-‘ अनावरण’ और ‘आतंक’ इस संग्रह में सम्लित हैं, जो कहानीकार की समसामयिक समस्या के प्रति सचेतन की सूचक है। ‘अनावरण’ कहानी में इस विडम्बना को अंकित किया गया है कि कश्मीर में आतंककारियों से संघर्ष करते हुए सहीद हुए पात्र केप्टन पीयुष सिंह की प्रतिमा उसके गाँव में लगाने और उसका अनावरण मंत्री महोदय से करवाने के तो नेता, आमजन और परिजन सब इच्छुक है पर उसमें होने वाले भारी खर्चे का आंशिक भार भी कोई उठाने को तैयार नहीं, परिणामतः शहीद केप्टिन के बलिदान की एवज में उसकी विधवा यशोदा को मिले पन्द्रह लाख रुपये में से ही एक बड़ा भाग पूरे आयोजन में खर्च हो जाएगा।

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