उपन्यास >> यमुना के बागी बेटे यमुना के बागी बेटेविद्यासागर नौटियाल
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‘यमुना के बागी बेटे’ पहले शब्द से अखिरी शब्द तक एक बेचैनी से लड़ता हुआ उपन्यास है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह एक दमदार उपन्यास तो है ही, पर इससे भी बढ़कर एक अन्यायी सत्ता तथा
अंग्रेजों और अंग्रेजी सभ्यता के पिट्ठुओं के खिलाफ, निहत्थी हिंदुस्तानी
जनता की लड़ाई का एक ऐसा मार्मिक और जलता हुआ दस्तावेज भी है जिसे पढ़कर
रोंगटे खड़े होते हैं। ‘यमुना के बागी बेटे’ पहले
शब्द से
अखिरी शब्द तक एक बेचैनी से लड़ता हुआ उपन्यास है, पर यह लड़ाई पचहत्तर
बरस पहले, टिहरी–गढ़वाल रियासत के खिलाफ लड़ी गई जनता या
‘मुल्क’ की लड़ाई नहीं, एक ऐसी लड़ाई है जिसकी जड़ें
एक ओर
पौराणिक काल की शांतनु की कथा और ऋषि पत्नी रेणुका के मानसिक द्वंद्व तक
जाती है, तो दूसरी ओर आज-समूचे आज को अपनी जद में लेती जान पड़ती हैं,
जहाँ एक बड़ा ‘युद्ध’ हर घड़ी हमारी आँखों के आगे हो
रहा है।
सच कहूं तो विद्यासागर नौटियाल ने यह सब कह दिया है, जिसे कहने के लिए मुझे शब्द नहीं मिल रहे थे। उन्होंने मोर्चे पर खड़े एक शेरदिल लेखक की तरह आज की नई बनती ‘त्रिकूण सभ्यता’ जिसका अगुआ अमेरिका है—का सही, सच्चा और धारदार अक्स पेश कर दिया है और साथ ही साथ यह भी कि तमाम ‘किंतु-परंतु’ वाली फिसलन–पट्टी पर बैठे ‘हां-हां-छाप’ लेखकों के बीच की पहचान और कसौटी क्या है।
यह नौटियाल जी की कलम का कमाल ही है कि नरेंद्रशाह और पदमदत्त के पचहत्तर साल पुराने चेहरों में आज के अमेरिका परस्त नव-धनिकों की तमाम चालाकियां नजर आ जाती हैं और उनके तर्क भी कामोबेश वही हैं, जो आज के तमाम चिकने-चुपड़े ‘सभ्यों के मुखारविंद से टपकते हैं—शहद-घुले विषय की तरह। अगर यह उपन्यास न पढ़ पाता तो यकीन मानिए, एक बेशकीमती रचना को पढ़ने के सुख से वंचित रह जाता। विद्यासागर नौटियाल ने इस उपन्यास में ‘यमुना के बागी बेटे’ की तरह इस उथल-पुथल भरे भ्रम दौर में, एक लेखक के रूप में ‘स्वाभिमान से अपना सिर ऊंचा रखा है।’’
सच कहूं तो विद्यासागर नौटियाल ने यह सब कह दिया है, जिसे कहने के लिए मुझे शब्द नहीं मिल रहे थे। उन्होंने मोर्चे पर खड़े एक शेरदिल लेखक की तरह आज की नई बनती ‘त्रिकूण सभ्यता’ जिसका अगुआ अमेरिका है—का सही, सच्चा और धारदार अक्स पेश कर दिया है और साथ ही साथ यह भी कि तमाम ‘किंतु-परंतु’ वाली फिसलन–पट्टी पर बैठे ‘हां-हां-छाप’ लेखकों के बीच की पहचान और कसौटी क्या है।
यह नौटियाल जी की कलम का कमाल ही है कि नरेंद्रशाह और पदमदत्त के पचहत्तर साल पुराने चेहरों में आज के अमेरिका परस्त नव-धनिकों की तमाम चालाकियां नजर आ जाती हैं और उनके तर्क भी कामोबेश वही हैं, जो आज के तमाम चिकने-चुपड़े ‘सभ्यों के मुखारविंद से टपकते हैं—शहद-घुले विषय की तरह। अगर यह उपन्यास न पढ़ पाता तो यकीन मानिए, एक बेशकीमती रचना को पढ़ने के सुख से वंचित रह जाता। विद्यासागर नौटियाल ने इस उपन्यास में ‘यमुना के बागी बेटे’ की तरह इस उथल-पुथल भरे भ्रम दौर में, एक लेखक के रूप में ‘स्वाभिमान से अपना सिर ऊंचा रखा है।’’
प्रकाशमनु
हिन्दी के प्रतिष्ठित उपन्यासकार विद्यासागर नौटियाल कलम से भी उसी गहराई
से जुड़े रहे हैं जिस तरह राजनीति से। वस्तुतः वे मात्र कलम के योद्धा
नहीं हैं राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़नेवाले योद्धा भी। स्वतंत्रता मिलने
के बाद गढ़वाल रियासत के सामंतविरोधी आंदोलन के कारण पहली बार वे तेरह बरस
की आयु में जेल गए। ऑल इंडिया स्टूडेंटस फेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष से
लेकर उ.प्र. विधानसभा के सदस्य रहे। टिहरी रियासत के समस्त शिविरों,
घाटियों, गांवों का कई-कई बार भ्रमण किया। नौटियाल के पास जीवन के विपुल
अनुभवों की कमी इसलिए भी नहीं है क्योंकि ले लगातार जन-संघर्षों में
भागीदारी करते रहे हैं।
अपने लेखन में अब तक उन्होंने कहानी में उपन्यास में या फिर अपने संस्मरणों में टिहरी-गढ़वाल को अनेक रूपों, अनेक छवियों, अनेक बिंबों में प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि दूर का पहाड़ बिल्कुल खिसककर पाठकों के सामने साक्षात् खड़ा हो जाता है। और जिस तरह टिहरी बांध के कारण आज पूरा शहर डूब गया। उसी तरह पहाड़ के दुःख से पाठक।
प्रस्तुत उपन्यास ‘यमुना के बागी बेटे’ का मूल स्रोत है 1930 के आसपास टिहरी-गढ़वाल रियासत में जन-विद्रोह की आग से उत्पन्न सामंत की छोटी-बड़ी क्रूरता, यातना और यंत्रणा की घटनाएं। उपन्यास छोटा है लेकिन इसका फलक बड़ा। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का यह दुःखद अध्याय-तिलाड़ी कांड-ओझल ही रह जाता है, यदि नौटियाल इस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं करते। पुराख्यान से उठते इस आख्यान का वृत्तांत यदि मार्मिक है तो इसलिए भी कि यह एक ऐसी सामंती क्रूरता की कहानी है जिसके नीचे दबे पहाड़ का जन-जीवन कराह रहा था। इतिहास की घटनाओं को कोई लेखक अपनी कल्पना-शक्ति से कितना रोमांचक और दिलचस्प बना सकता है इसका अप्रतिम उदाहरण है यह उपन्यास।
अपने लेखन में अब तक उन्होंने कहानी में उपन्यास में या फिर अपने संस्मरणों में टिहरी-गढ़वाल को अनेक रूपों, अनेक छवियों, अनेक बिंबों में प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि दूर का पहाड़ बिल्कुल खिसककर पाठकों के सामने साक्षात् खड़ा हो जाता है। और जिस तरह टिहरी बांध के कारण आज पूरा शहर डूब गया। उसी तरह पहाड़ के दुःख से पाठक।
प्रस्तुत उपन्यास ‘यमुना के बागी बेटे’ का मूल स्रोत है 1930 के आसपास टिहरी-गढ़वाल रियासत में जन-विद्रोह की आग से उत्पन्न सामंत की छोटी-बड़ी क्रूरता, यातना और यंत्रणा की घटनाएं। उपन्यास छोटा है लेकिन इसका फलक बड़ा। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का यह दुःखद अध्याय-तिलाड़ी कांड-ओझल ही रह जाता है, यदि नौटियाल इस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं करते। पुराख्यान से उठते इस आख्यान का वृत्तांत यदि मार्मिक है तो इसलिए भी कि यह एक ऐसी सामंती क्रूरता की कहानी है जिसके नीचे दबे पहाड़ का जन-जीवन कराह रहा था। इतिहास की घटनाओं को कोई लेखक अपनी कल्पना-शक्ति से कितना रोमांचक और दिलचस्प बना सकता है इसका अप्रतिम उदाहरण है यह उपन्यास।
साधना अग्रवाल
तिलाड़ी कांड के उन शहीदों को, जिनके चेहरों पर राजशाही ने यमुना तट पर
तारकोल पोतकर पहचान करना असंभव कर दिया था और उन रवांल्टों को, जिन्होंने
जीवन के अंतिम पल तक माफी मांगकर टिहरी की नरकीय जेल से रिहा होने के बजाय
मृत्यु का आलिंगन कर, भावी पीढ़ियों के लिए एक मिसाल कायम कर देना अधिक
श्रेयस्कर समझा था। उनके साहस और शौर्य की अनगढ़ जुबान में लिखी गई यह
वीरगाथा पूर्ण सम्मान के साथ उन सबको समर्पित
आभार
इस उपन्यास के तथ्यों का संग्रह व विश्लेषण करने में मुझे समय-समय पर श्री
सुंदरलाल बहुगुणा, जयपालसिंह-नगाणगांव, बुद्धिसिंह रावत—बड़कोट,
राजेन्द्र राना ‘नयन’ मुरारि—नौगांव,
महावीर रवांल्टा,
विक्रम कवि, वीरेन्द्र खंडूड़ी और गोविंद चातक से विशेष सहायता प्राप्त
हुई। इन सबके प्रति आभार
फर्ज और कर्ज की अदायगी
यह लघु-उपन्यास ‘यमुना के बागी बेटे’ आज से पचहत्तर वर्ष पूर्व सन् 1930 ई. के आसपास घटित कुछ ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है, जिनको इतिहास की पुस्तकों ने कभी दर्ज ही नहीं किया।
भारत के अंग्रेजी राज के दौरान मध्य हिमालय के काफी बड़े भू-भाग में फैली एक देशी रियासत-टिहरी-गढ़वाल। भागीरथी और यमुना दोनों नदियों का उद्गम-स्थल। पुराणों के अनुसार—देव-भूमि। वहां के शासक ने दरबारियों, चाटुकारों के माध्यम से अपने को ‘बोलांदा बद्री’ (बोलता हुआ बदरीनाथ) घोषित करवा दिया था। उस देव-भूमि के एक भाग यमुना घाटी (रवाईं) में रहने वाले साधारण मनुष्यों-रवांल्टों-को पशुवत्, नारकीय जीवन बिताना पड़ता था। जल, जंग और जमीन पर मालिकाना हक दरबार का होता था। प्रजा के लोग दरबारियों की इजाजत के बगैर उन जंगलों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। ऊंचे, हिममंडित शिखरों व घाटियों के जंगलों, चरागाहों में सदियों से पशुपालन कर किसी तरह अपना गुजारा करते आए थे। वे न्यूनतम आवश्यकताओं की आपूर्ति हो जाने पर संतुष्ट हो जाने वाले लोग थे। बहुत अच्छे जीवन की उनकी कल्पना की उड़ान कभी पहाड़ों-जंगलो-नदियों के घेरे से बाहर-घाटी से चोटियों तक की परिधि से बाहर—नहीं जा सकती थी। उनके सपने भी इसी तरह के होते थे कि वे अपने पशुधन को लेकर मुक्ती (ढेर सारी) पत्तियों से लदे किसी घने जंगल में या कहीं हरे-भरे, लंबे-चौड़े चरागाह में बेरोकटोक घूम रहे हैं। उससे ज्यादा-अपने जंगलों और चरागाहों में स्वच्छंद होकर घूमते रहने से ज्यादा रंवाल्टो और किसी चीज की कामना या याचना नहीं कर सकते थे।
लेकिन अपने राजमहल के स्वर्ग में निवास करने वाला उनका राजा उनके जैसे मामूली सपने नहीं देखता था। उसकी वफादारी गुलाम प्रजा के प्रति नहीं, लंदन में बैठने वाले अंग्रेज महाप्रभु के प्रति रहती थी। उसका मन उन पहाड़ों की वीरानगी से निकलकर यूरोप के सजीले-रंगीले देशों की सैर करने लगता था। उसकी राजसी आकांक्षाओं की पूर्ति में कुछ अंग्रेज-भक्त दरबारियों को प्रजा के सपने बाधा देते मालूम होने लगे। सपनों की उस टकराहट के फलस्वरूप वे वन-उपजों का व्यापारिक दोहन करने के मकसद से चरवाहों, वनवासियों को उनके पारंपरिक वनों से बेदखल करने लगे। प्रजा में बेचैनी फैलने लगी। दरबारियों ने उनके विद्रोह को कुचलने के लिए पलटन का उपयोग करना चाहा। लेकिन रियासती पलटन का मुखिया अपनी फौज का उपयोग प्रजा को कुचलने के लिए किए जाने के खिलाफ था। दरबारियों को सत्ता सौंपकर राजा यूरोप भाग चला। उसके पलायन के बाद निहत्थे रवांल्टों को गोलियों से भून डाला गया। जो जिंदा रह गए उन्हें लंबी-लंबी कैद की सजाएं सुनाई गईं।
उस जमाने में सूदूर रवाईं के समाचार महीनों बाद देहरादून पहुंच पाते थे। समाचारों को प्रकाशित करने के ‘मुलजिम’ साप्ताहिक ‘गढ़वाली’ के सम्पादक विश्वंभरदत्त चंदोला ने अदालत में अपने संवाददाता का नाम बताने से इंकार कर दिया था। अंग्रेज भारत की अदालत ने उन्हें एक साल सश्रम कैद की सजा दी थी। युगों-युगों तक पत्रकार की नैतिकता और साहस को रोशनी प्रदान करते रहने वाले कलम के उस निर्भीक योद्धा को विनम्र श्रद्धांजलि।
‘गढ़वाली’ की पुरानी, तत्कालीन फाइलों को देखने की अनुमति व अवसर प्रदान करने के लिए लेखक ‘विश्वंभरदत्त चंदोला शोध संस्थान, देहरादून’ की अध्यक्ष श्रीमती ललिता वैष्णव के प्रति कृतज्ञ है।
मेरा जन्म एक जंगलाती परिवार में हुआ था। यमुना की घाटी का अन्न, जल व वायु मेरे बचपन की हिफाजत करते रहे। अपने जन्म से तीन साल पहले घटित तिलाड़ी कांड की दारुण कथाएं मेरे दिल को एक भारी पत्थर के मानिंद दबाती लगती थीं। उन स्वाभिमानी रवांल्टों की वीरगाथा लोक को सुनकर मैं उस ऋण से उऋण होने की योजनाएं बनाता रहता। इस छोटे-से उपन्यास की सामग्री मैं सन् 1964 से ही एकत्र करने लगा था। जब कुछ भुक्तभोगी रंवाल्टों सैनिक कार्यवाहियों में शामिल एक सिपाही और कुछ अन्य प्रत्यक्षदर्शियों से भेंटकर मैंने अपनी डायरी में उनके साक्षात्कार दर्ज किए थे।
तिलाड़ी कांड की पचहत्तरवीं वर्षगांठ के ऐतिहासिक अवसर पर लिखित उस अनोखे प्रतिरोध की यह गाथा शायद उन चंद देशवासियों के किसी काम आ सके जो विपरीत व विकट परिस्थियों के बावजूद जल, जंगल और जमीन पर वनवासियों के अंधकारों की लड़ाई भी जारी रखे हैं।
फर्ज और कर्ज की अदायगी
यह लघु-उपन्यास ‘यमुना के बागी बेटे’ आज से पचहत्तर वर्ष पूर्व सन् 1930 ई. के आसपास घटित कुछ ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है, जिनको इतिहास की पुस्तकों ने कभी दर्ज ही नहीं किया।
भारत के अंग्रेजी राज के दौरान मध्य हिमालय के काफी बड़े भू-भाग में फैली एक देशी रियासत-टिहरी-गढ़वाल। भागीरथी और यमुना दोनों नदियों का उद्गम-स्थल। पुराणों के अनुसार—देव-भूमि। वहां के शासक ने दरबारियों, चाटुकारों के माध्यम से अपने को ‘बोलांदा बद्री’ (बोलता हुआ बदरीनाथ) घोषित करवा दिया था। उस देव-भूमि के एक भाग यमुना घाटी (रवाईं) में रहने वाले साधारण मनुष्यों-रवांल्टों-को पशुवत्, नारकीय जीवन बिताना पड़ता था। जल, जंग और जमीन पर मालिकाना हक दरबार का होता था। प्रजा के लोग दरबारियों की इजाजत के बगैर उन जंगलों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। ऊंचे, हिममंडित शिखरों व घाटियों के जंगलों, चरागाहों में सदियों से पशुपालन कर किसी तरह अपना गुजारा करते आए थे। वे न्यूनतम आवश्यकताओं की आपूर्ति हो जाने पर संतुष्ट हो जाने वाले लोग थे। बहुत अच्छे जीवन की उनकी कल्पना की उड़ान कभी पहाड़ों-जंगलो-नदियों के घेरे से बाहर-घाटी से चोटियों तक की परिधि से बाहर—नहीं जा सकती थी। उनके सपने भी इसी तरह के होते थे कि वे अपने पशुधन को लेकर मुक्ती (ढेर सारी) पत्तियों से लदे किसी घने जंगल में या कहीं हरे-भरे, लंबे-चौड़े चरागाह में बेरोकटोक घूम रहे हैं। उससे ज्यादा-अपने जंगलों और चरागाहों में स्वच्छंद होकर घूमते रहने से ज्यादा रंवाल्टो और किसी चीज की कामना या याचना नहीं कर सकते थे।
लेकिन अपने राजमहल के स्वर्ग में निवास करने वाला उनका राजा उनके जैसे मामूली सपने नहीं देखता था। उसकी वफादारी गुलाम प्रजा के प्रति नहीं, लंदन में बैठने वाले अंग्रेज महाप्रभु के प्रति रहती थी। उसका मन उन पहाड़ों की वीरानगी से निकलकर यूरोप के सजीले-रंगीले देशों की सैर करने लगता था। उसकी राजसी आकांक्षाओं की पूर्ति में कुछ अंग्रेज-भक्त दरबारियों को प्रजा के सपने बाधा देते मालूम होने लगे। सपनों की उस टकराहट के फलस्वरूप वे वन-उपजों का व्यापारिक दोहन करने के मकसद से चरवाहों, वनवासियों को उनके पारंपरिक वनों से बेदखल करने लगे। प्रजा में बेचैनी फैलने लगी। दरबारियों ने उनके विद्रोह को कुचलने के लिए पलटन का उपयोग करना चाहा। लेकिन रियासती पलटन का मुखिया अपनी फौज का उपयोग प्रजा को कुचलने के लिए किए जाने के खिलाफ था। दरबारियों को सत्ता सौंपकर राजा यूरोप भाग चला। उसके पलायन के बाद निहत्थे रवांल्टों को गोलियों से भून डाला गया। जो जिंदा रह गए उन्हें लंबी-लंबी कैद की सजाएं सुनाई गईं।
उस जमाने में सूदूर रवाईं के समाचार महीनों बाद देहरादून पहुंच पाते थे। समाचारों को प्रकाशित करने के ‘मुलजिम’ साप्ताहिक ‘गढ़वाली’ के सम्पादक विश्वंभरदत्त चंदोला ने अदालत में अपने संवाददाता का नाम बताने से इंकार कर दिया था। अंग्रेज भारत की अदालत ने उन्हें एक साल सश्रम कैद की सजा दी थी। युगों-युगों तक पत्रकार की नैतिकता और साहस को रोशनी प्रदान करते रहने वाले कलम के उस निर्भीक योद्धा को विनम्र श्रद्धांजलि।
‘गढ़वाली’ की पुरानी, तत्कालीन फाइलों को देखने की अनुमति व अवसर प्रदान करने के लिए लेखक ‘विश्वंभरदत्त चंदोला शोध संस्थान, देहरादून’ की अध्यक्ष श्रीमती ललिता वैष्णव के प्रति कृतज्ञ है।
मेरा जन्म एक जंगलाती परिवार में हुआ था। यमुना की घाटी का अन्न, जल व वायु मेरे बचपन की हिफाजत करते रहे। अपने जन्म से तीन साल पहले घटित तिलाड़ी कांड की दारुण कथाएं मेरे दिल को एक भारी पत्थर के मानिंद दबाती लगती थीं। उन स्वाभिमानी रवांल्टों की वीरगाथा लोक को सुनकर मैं उस ऋण से उऋण होने की योजनाएं बनाता रहता। इस छोटे-से उपन्यास की सामग्री मैं सन् 1964 से ही एकत्र करने लगा था। जब कुछ भुक्तभोगी रंवाल्टों सैनिक कार्यवाहियों में शामिल एक सिपाही और कुछ अन्य प्रत्यक्षदर्शियों से भेंटकर मैंने अपनी डायरी में उनके साक्षात्कार दर्ज किए थे।
तिलाड़ी कांड की पचहत्तरवीं वर्षगांठ के ऐतिहासिक अवसर पर लिखित उस अनोखे प्रतिरोध की यह गाथा शायद उन चंद देशवासियों के किसी काम आ सके जो विपरीत व विकट परिस्थियों के बावजूद जल, जंगल और जमीन पर वनवासियों के अंधकारों की लड़ाई भी जारी रखे हैं।
-विद्यासागर नौटियाल
यमुना के बागी बेटे
योजनगंधा
मत्स्यगंधा।
गंधकली।
सत्यवती।
-राजकन्या के अनेक नाम थे, सरदार साहब ! उसकी माँ कोई मानवी नहीं, एक मछली थी ! वह महाराजा वसु के वीर्य से जन्मी थी। यह भेद उसे खुद ही वहां पर नामौजूद अपनी सौतन के जाए बेटे के सामने प्रकट करना पड़ा था। इस भेद और इससे जुड़े कुछ दूसरे भेद। अनेक घटनाओं से भरे हुए उसके जीवन में एक ऐसा भी विकट मौका आया जबकि अपने देश को संरक्षण प्रदान करने और उस पर अपने कुल का शासन जारी रख सकने के हित में उसे समस्त मर्यादाओं तथा शालीनता की सीमाओं का खुद उल्लंघन करना पड़ा था। उसके सामने लाज-हया छोड़कर कुंआरी अवस्था से जुड़े निजी जिंदगी के अनेक रहस्य और कुछ कड़वे भेद, जिनके बारे में और किसी को पता नहीं था, उस बेटे को खोलकर बताने की मजबूरी उपस्थित हो गई। उसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा था। जो भेद कभी अपने पति तक के सामने जाहिर नहीं होने दिए, दिल के भीतर से जुबान पर आ गई बातों को ओंठों से बाहर निकलते-निकलते अपने को किसी तरह जबरन रोक लिया, उनका खुलासा पराई कोख से जाए पुत्र के सामने करना पड़ रहा था।
-अपनी कोख के जाए दोनों बेटे लाऔलाद मर गए। उनके असमय विदा हो जाने के बाद राजगद्दी का कोई वारिस बाकी नहीं बचा, सिवा एकांत में विमाता के मुख से कही जा रही कहानी को सुन रहे उस जेठे बेटे को जो हमउम्र लगता था, लेकिन उससे बड़ा था। इतना बड़ा कि उसके हाथ बूढ़े राजा को सौंपने का वायदा करने से पहले सत्यवती के पिता के मन में उसी को अपना दामाद बना लेने की इच्छा बलवती हो उठी थी। समाज के मान्यता-प्राप्त नियमों को धता बताते हुए एक अविवाहित राजकुमार अपने बूढ़े, मरणासन्न पिता से सत्यवती का विवाह करने की बात करने आया था। उसका पिता सत्यवती के वियोग के फलस्वरूप रोगग्रस्त होकर शैय्या पर पड़ा था और किसी नवयुवक प्रेमी की भांति तड़पने लगा था।
मत्स्यगंधा।
गंधकली।
सत्यवती।
-राजकन्या के अनेक नाम थे, सरदार साहब ! उसकी माँ कोई मानवी नहीं, एक मछली थी ! वह महाराजा वसु के वीर्य से जन्मी थी। यह भेद उसे खुद ही वहां पर नामौजूद अपनी सौतन के जाए बेटे के सामने प्रकट करना पड़ा था। इस भेद और इससे जुड़े कुछ दूसरे भेद। अनेक घटनाओं से भरे हुए उसके जीवन में एक ऐसा भी विकट मौका आया जबकि अपने देश को संरक्षण प्रदान करने और उस पर अपने कुल का शासन जारी रख सकने के हित में उसे समस्त मर्यादाओं तथा शालीनता की सीमाओं का खुद उल्लंघन करना पड़ा था। उसके सामने लाज-हया छोड़कर कुंआरी अवस्था से जुड़े निजी जिंदगी के अनेक रहस्य और कुछ कड़वे भेद, जिनके बारे में और किसी को पता नहीं था, उस बेटे को खोलकर बताने की मजबूरी उपस्थित हो गई। उसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा था। जो भेद कभी अपने पति तक के सामने जाहिर नहीं होने दिए, दिल के भीतर से जुबान पर आ गई बातों को ओंठों से बाहर निकलते-निकलते अपने को किसी तरह जबरन रोक लिया, उनका खुलासा पराई कोख से जाए पुत्र के सामने करना पड़ रहा था।
-अपनी कोख के जाए दोनों बेटे लाऔलाद मर गए। उनके असमय विदा हो जाने के बाद राजगद्दी का कोई वारिस बाकी नहीं बचा, सिवा एकांत में विमाता के मुख से कही जा रही कहानी को सुन रहे उस जेठे बेटे को जो हमउम्र लगता था, लेकिन उससे बड़ा था। इतना बड़ा कि उसके हाथ बूढ़े राजा को सौंपने का वायदा करने से पहले सत्यवती के पिता के मन में उसी को अपना दामाद बना लेने की इच्छा बलवती हो उठी थी। समाज के मान्यता-प्राप्त नियमों को धता बताते हुए एक अविवाहित राजकुमार अपने बूढ़े, मरणासन्न पिता से सत्यवती का विवाह करने की बात करने आया था। उसका पिता सत्यवती के वियोग के फलस्वरूप रोगग्रस्त होकर शैय्या पर पड़ा था और किसी नवयुवक प्रेमी की भांति तड़पने लगा था।
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