उपन्यास >> आवां आवांचित्रा मुदगल
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बीसवीं सदी के अंतिम प्रहर में एक मजदूर की बेटी के मोहभंग, पलायन और वापसी के माध्यम उपभोक्तावादी वर्तमान समाज को कई स्तरों पर अनुसंधानित करता, निर्ममता से उधेड़ता, तहें खोलता, चित्रा मुदगल का सुविचारित उपन्यास आवां’ अपनी तरल, गहरी संवेदनात्मक पकड़ और भेदी पड़ताल के आत्मलोचन के कटघरे में ले, जिस विवेक की मांग करता है-वह चुनौती झेलता क्या आज की अनिवार्यता नहीं
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
संगठन अजय शक्ति है। संगठन हस्तक्षेप है। संगठन प्रतिवाद है। संगठन
परिवर्तन है। क्रांति है। किंतु यदि वही संगठन शक्ति सत्ताकांक्षियों की
लोलुपताओं के समीकरणों की कठपुतली बन जाएं तो दोष उस शक्ति की अंधनिष्ठा
का है या सवारी कर रहे उन दुरुपयोगी हाथों का जो संगठन शक्ति सपनों के
बाजार में बरगलाए-भरमाए अपने वोटों की रोटी सेंक रहे ? ये खतरनाक कीट
बालियों को नहीं कुतर रहे, फसल अंकुआने से पूर्व जमीन में चंपे बीजों को
ही खोखला किए दे रहे हैं। पसीने की बूदों में अपना खून उड़ेल रहे
भोले-भाले श्रमिकों को, हितैषी की आड़ में छिपे इस छदम कीटों से
चेतने-चेताने और सर्वप्रथम उन्हीं से संघर्ष करने की जरूरत नहीं ?
क्या हुआ उन अनवरत मुठभेड़ों में की लाल तारीखों में अभावग्रस्त, दलित, शोषित श्रमिकों की उपासी आतों की चीखती मरोड़ों की पीड़ा खदक रही थी ? हाशिए पर किए जा सकते हैं वे प्रश्न जिन्होंने कभी परचम लहराया था कि वह समाज की कुरूपतम विसंगति आर्थिक वैषम्य को खदेड़, समता के नए प्रतिमान कायम करेंगे ? प्रतिवाद में तनी आकाश भेदती मुट्ठियों से वर्गहीन समाज रचे-गढ़ेंगे, जहाँ मनुष्य मनुष्य होगा, पूंजीपति या निर्धन नहीं ! पकाएंगे अपने समय के आवां को अपने हाड़-मांस के अभीष्ट ईधन से ताकि आवां नष्ट न होने पाए !
विरासत भेड़िए की शक्ल क्यों पहन बैठी ? ट्रेड यूनियन जो कभी व्यवस्था से लड़ने के लिए बनी थी, आजादी के पचास वर्षोपरांत आज क्या वर्तमान विकृत, भ्रष्ट स्वरूप धारण करके स्वयं एक समांतर व्यवस्था नहीं बन गई ?
बीसवीं सदी के अंतिम प्रहर में एक मजदूर की बेटी के मोहभंग, पलायन और वापसी के माध्यम उपभोक्तावादी वर्तमान समाज को कई स्तरों पर अनुसंधानित करता, निर्ममता से उधेड़ता, तहें खोलता, चित्रा मुदगल का सुविचारित उपन्यास आवां’ अपनी तरल, गहरी संवेदनात्मक पकड़ और भेदी पड़ताल के आत्मलोचन के कटघरे में ले, जिस विवेक की मांग करता है-वह चुनौती झेलता क्या आज की अनिवार्यता नहीं
तुमने जब अपनी आँखें दान कीं
बहुत लड़ी मैं तुमसे।
तुमने जब किडनी दान करने का फार्म भरा,
फार्म छीन मैंने चिथड़े-चिथड़े कर दिया।
तुमने कहा
तुम जो कुछ लिखती हो, कहती हो,-सिर्फ औरों के लिए है ?
अपने छद्म से तुम कब मुक्त होगी, माँ ?
मैं चिढ़ गई थी !
अब तुम्हें यकीन दिला सकती हूं
तुमसे पिछड़ जरूर गई मैं, अर्पणा !
परास्त नहीं हुई......
लिखने और कहने के बीच
‘पहल’-सी उठ खड़ी हुई हूं।
क्या हुआ उन अनवरत मुठभेड़ों में की लाल तारीखों में अभावग्रस्त, दलित, शोषित श्रमिकों की उपासी आतों की चीखती मरोड़ों की पीड़ा खदक रही थी ? हाशिए पर किए जा सकते हैं वे प्रश्न जिन्होंने कभी परचम लहराया था कि वह समाज की कुरूपतम विसंगति आर्थिक वैषम्य को खदेड़, समता के नए प्रतिमान कायम करेंगे ? प्रतिवाद में तनी आकाश भेदती मुट्ठियों से वर्गहीन समाज रचे-गढ़ेंगे, जहाँ मनुष्य मनुष्य होगा, पूंजीपति या निर्धन नहीं ! पकाएंगे अपने समय के आवां को अपने हाड़-मांस के अभीष्ट ईधन से ताकि आवां नष्ट न होने पाए !
विरासत भेड़िए की शक्ल क्यों पहन बैठी ? ट्रेड यूनियन जो कभी व्यवस्था से लड़ने के लिए बनी थी, आजादी के पचास वर्षोपरांत आज क्या वर्तमान विकृत, भ्रष्ट स्वरूप धारण करके स्वयं एक समांतर व्यवस्था नहीं बन गई ?
बीसवीं सदी के अंतिम प्रहर में एक मजदूर की बेटी के मोहभंग, पलायन और वापसी के माध्यम उपभोक्तावादी वर्तमान समाज को कई स्तरों पर अनुसंधानित करता, निर्ममता से उधेड़ता, तहें खोलता, चित्रा मुदगल का सुविचारित उपन्यास आवां’ अपनी तरल, गहरी संवेदनात्मक पकड़ और भेदी पड़ताल के आत्मलोचन के कटघरे में ले, जिस विवेक की मांग करता है-वह चुनौती झेलता क्या आज की अनिवार्यता नहीं
तुमने जब अपनी आँखें दान कीं
बहुत लड़ी मैं तुमसे।
तुमने जब किडनी दान करने का फार्म भरा,
फार्म छीन मैंने चिथड़े-चिथड़े कर दिया।
तुमने कहा
तुम जो कुछ लिखती हो, कहती हो,-सिर्फ औरों के लिए है ?
अपने छद्म से तुम कब मुक्त होगी, माँ ?
मैं चिढ़ गई थी !
अब तुम्हें यकीन दिला सकती हूं
तुमसे पिछड़ जरूर गई मैं, अर्पणा !
परास्त नहीं हुई......
लिखने और कहने के बीच
‘पहल’-सी उठ खड़ी हुई हूं।
क्यों
ट्रेड यूनियन में मैं बहुत थोड़े समय के लिए जुड़ी रही। लेकिन श्रमिक
परिवारों से मेरा लंबा नाता रहा। हमारे घर के अहाते के बाहर चारों ओर
मजदूर बस्तियां फैली हुईं थीं। घर तो प्रतापनगर में था ही, हनुमान टेकरी
जोचिंम कंपाउंड, पठान कालोनी, मंगतराम पेट्रोल पंप.....भंडुप स्टेशन और
बाद में बने कंजूर मार्ग स्टेशन तक फैली बस्तियां ! जिनकी कच्ची मिट्टी की
भित्तियों में कुछ सांधें स्वयं गढ़ी थीं- अपने माथे पर खुदी इबारतों के
अर्थ बदलने के लिए। 1964 की चर्चा कर रही हूं मैं मुंबई पूर्व के इस, सघन
औद्योगिक इलाके की बस्तियों में कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि वहां तब
बिजली के लट्टू नहीं, लालटेनें और ढिबरियां जला करती थीं। पाखाने के लिए
ठेठ गाँव भांति मजदूर पुरुष, स्त्रियां और बच्चे लोटा लेकर तड़के
‘नेवल डाकयार्ड’ कालोनी के पिछले हिस्से में फैले सघन
जंगलों
में जाया करते। तीन-तीन चालियों के बीच में एक नल। टोटियों में भी जब पानी
आता, चालियों के बरामदों तक हंडे-बाल्टियों की लंबी कतारें लग जातीं। कभी
दिनों पानी न आता। सूखी टोटियों के सूखे गले सूं-सूं करते सूखी उम्मीद
बंधाते रहते। अम्मा बंगले के पिछवाड़े वाले गेट को खुलवा देतीं कि वे पीने
का पानी आकर वहां से ले जाएं-हंडे से ज्यादा नहीं वह भी जब ठाकुर साहब घर
में अनुपस्थित हों।
जिस शाम अहाते को लांघ, सुलगती सिगड़ियों के धुएं के बादल बंगले के दरवाजे-खिड़कियों पर दस्तक न देते, मन अनमना उठता-किस कंपनी में तालेबंदी हुई है !
मीरा ताई से मेरी सबसे पहली मुलाकात तभी हुई थी, जब वे एक शाम डॉ. दत्ता सामंत के साथ ठाकुर साहब से मिलने घर आईं। ‘इंडियन लिंक चेन’ में हुई तालेबंदी के संदर्भ में दत्ता अंकल ने ठाकुर साहब से कई मुद्दों पर बातचीत की थी। प्रतापनगर से लगी हुई एम.ई.एस. की सरकारी कालोनी के अधिकारी एम. ई. एस. कालोनी की सड़कों का मजदूरों द्वारा आवागमन के उपयोग के सख्त खिलाफ थे-प्रतिबंध स्वरूप उन्होंने पत्थर की दीवार बनाकर रास्ता बंद करने का निर्णय लिया है। मजदूर इस प्रतिबंध से घोर कष्ट में पड़ जाएंगे। अपनी फैक्टरियों में आने-जाने के लिए उन्हें मंगतराम पेट्रोल पंप के रास्ते घूमकर आना-जाना होगा जो लगभग मील से ऊपर का चक्कर होगा। दूसरे, पत्थर की लंबी दीवार आठ फुट ऊंची बन जाने से मजदूरों को जंगल पाखाने आदि के लिए जाने की समस्या हो जाएगी। ठाकुर साहब इस प्रतिबंध के विरुद्ध कोर्ट में जाएं। प्रतापनगर उनका है। उनके रहवासियों के कष्ट की ओर उन्हें ध्यान देने की जरूरत है। वे कोर्ट से स्टे ले लेंगे तो यह मामला तत्काल अटक जाएगा। दूसरी मदद उन्होंने यह माँगी कि उनके जितने भी मजदूर किरायेदार ‘इंडियन लिंक चेन’ के हैं, तालेबंदी के दौरान उनकी खोलियों का किराया माफ कर दिया जाए। जो श्रमिक एक जून अपने घर चूल्हा नहीं सुलगा पा रहे, वे खोलियों का किराया कहां से देंगे ? तीसरा मुद्दा-नगरपालिका जब हाउस टैक्स, प्रापर्टी टैक्स ले रही है आपसे तो इस मजदूर बस्ती की बुनियादी जरूरतों की ओर ध्यान दें। मुहिम वे चलाएंगे। बस, वह उनके साथ खड़े रहें। ठाकुर साहब उनसे सहमत हुए।
यह थी मीरा ताई और डॉ. दत्ता सामंत से मेरी पहली मुलाकात। होली से तीन रोज पहले-3 मार्च 1964 को।
यही समय था जब मैं मीरा ताई की संस्था ‘जागरण’ से जुड़ी, जो घरों में चौका-बासन वाली मजदूर पत्नियों की संस्था थी- उनके बुनियादी हक की लड़ाई लड़ने वाली। जब चाहे तब उन्हें निकाला नहीं जा सकता। उनकी हारी-बीमारी का खाड़ा नहीं खाटा जा सकता। उनके संग बदसलूकी नहीं की जा सकती, न दैहिक शोषण। महीने में तीन छुट्टी, साल में पूरे एक महीने की आदि.....आदि....
मीरा ताई का आग्रह था-कालेज से आकर मैं खाली समय में क्या करती हूं ? उस समय मैं सोमैया कालेज, घाटकोपर (तब विद्या विहार स्टेशन बना-बना था) में सेकंड ईयर आर्ट्स की छात्रा थी। मेरी छोटी बहन केशा साइंस पढ़ती थी। दोपहर में घर लौट आती उसे पूरा दिन लग जाता। मीरा ताई के आग्रह पर मैंने मंगतराम पेट्रोल पंप की ‘शिवा’ चाली की एक खोली में बने उनके ‘जागरण’ के कार्यालय में बैठना शुरू किया, ठाकुर साहब के विरोध के बावजूद। ‘जागरण’ का आठ-बाई-आठ का, मात्र शतरंजी बिछा छोटा-सा दफ्तर श्रमिक महिलाओं से भरा रहता था। जयहिंद मिल’ सड़क के उस पार थी। डॉ. दत्ता सामंत भी कभी-कभार जागरण के उस छोटे से कार्यालय में आते। मुझे देखकर खूब प्रसन्न होते तब और प्रसन्न हुए जब उन्होंने पाया कि मैं ट्रेड यूनियन के कामों में ज्यादा रुचि दर्शाने लगी हूँ और अकसर मीरा ताई के साथ सेंट जेवियर्स स्कूल के सामने धरने पर बैठे ‘इंडियन लिंक चेन’ के हड़ताली मजदूरों के साथ बैठने लगी हूँ।
एक शाम मजदूरों ने देखा कि ‘इंडियन लिंक चेन’ के जनरल मैनेजर मि. तिवारी अपनी गाड़ी से कंपनी के गेट से निकल रहे हैं। गेट पर तैनात पुलिस कुछ असावधान है। क्रुद्ध श्रमिकों में से कुछ ने सड़क पारकर उनकी गाड़ी पर पथराव किया। कुछ ने लपकर गाडी़ का दरवाजा खोल तिवारी जी को कार से बाहर घसीट लिया।, यह हादसा ‘इंडियन लिंक चेन’ से लगी सीबा कंपनी (अब सिबाका इंडियन) के अहाते की दीवार के पास घटा। मीरा ताई के पीछे मैं भी मजदूरों को उद्दंडता से रोकने दौड़ी। मगर अपनी बदहाली से पगलाए मजदूरों ने तब मिस्टर तिवारी को जमीन पर पटक उन्हें लात-घूंसों से इस कदर रौंदा कि जब तक पुलिस आई वे अचेत हो गए-या उन्होंने अचेत होने का नाटक किया। बहरहाल, उन पर कातिलाना हमले के जुर्म में हम सभी को कुत्ते-बिल्ली की तरह खींच-धकियाकर वैन में भर, भांडुप पुलिस स्टेशन ले जाकर बंद कर दिया गया।
लॉकअप में बंद मजदूर तब भी बेखौफ प्रबंधन के खिलाफ समवेत स्वर में नारे लगा रहे थे। उनका नेतृत्व मीरा ताई कर रही थीं। बगल वाले लॉकअप से मीरा ताई के संग मैं भी मुट्ठियां उछाल अपने को नारे लगाते हुए पा रही थी।
भूखे मजदूरों के आक्रोश से मेरा पहला परिचय हुआ।
लेकिन जिस दुर्घटना ने मेरे छात्र जीवन की दिशा बदल ही दी, वह थी ट्रेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वंद्विता, अंतर्विरोध और उसमें अपराधी गिरोहों की ठेकेदारी।
....एक दोपहर भांडुप स्टेशन रोड से भरे बाजार के बीच चार गुंडों ने मिलकर मीरा ताई की देह से उनके कपड़े फाड़े, उन्हें बेइज्जत ही नहीं किया, पीठ पर छुरा भोंक उन्हें अपनी अवमानना से सदैव-सदैव के लिए मुक्त कर दिया-हफ्ते-भर मैं बिस्तर से नहीं उठ पाई। बस एक ही द्वंद्व रह-रहकर मेरी कनपटियों में सूजे की नोक-सा उतरने लगता। उन्हें मीरा ताई को मारना था मार देते। भरी सड़क पर उनके कपड़े तार-तारकर उनके स्त्रीत्व को अपमानित करने की क्या जरूरत थी !
दत्ता अंकल ने बहुत चाहा कि मैं ट्रेड यूनियन में अपनी रुचि को खारिज न करूं पर मुझे लगा, मुझे जो लड़ाई लड़नी है, वह ‘जागरण’ दफ्तर में बैठकर लड़नी है। और मैं वहीं बैठकर लड़ूंगी।
स्त्री की क्षमता को उसकी देह से ऊपर उठाकर स्वीकार न करने वाले रुग्ण समाज को बोध कराना आखिर किन कंधों का दायित्व होगा ?
शायद मीरा ताई की मार्मिक हत्या के साथ ही उन विसंगतियों को रेखांकित करने का कोई बीज अवचेतन में दबा रह गया होगा, वरना क्या मैं इस उपन्यास को लिख पाती !
‘आवां’ तीन वर्ष पूर्व अभिन्न कामरेड उषा गांगुली के घर 200 प्रिंस अनवर शाह रोड, कलकत्ता में रहकर लिखना आरंभ किया था। विश्वविद्यालय में अपनी कक्षाएं पढ़ाकर ही वे मेज पर बिखरे पन्नों को देखतीं, सरसरी दृष्टि लिखे पन्नों पर घुमातीं। अध्यापकीय सख्त लहजे में क्लास लेती हुई-सी पूछती-‘कुल कितने पन्ने लिखे ?’ विचित्र संयोग है, उनके घर की मुख्य सड़क के उस पार ‘उषा’ कंपनी का अहाता है, यहाँ आसमान की ऊंचाई को चिमनियों का धुआं ही चुनौती नहीं देता, बुनियादी अधिकारों के लिए सतत् संघर्षशील श्रमिकों का चुहचुहाता पसीना भी मुट्ठियां ताने प्रतिवाद में स्वर बुलंद करता मिलता-ठीक मुंबई की विक्रोली स्थिति ‘उषा’ कंपनी की ही भांति। संयोग यह भी कम विचित्र नहीं कि तीन वर्षों की आंधी- पानी मंझाते जब दिसंबर के अंतिम सप्ताह में मैं ‘आवां’ का अंतिम परिच्छेद लिख रही थी- ‘उषा’ कंपनी में लाल झंडा लहरा रहा था....चिमनियां ठंडी थीं....
ट्रेड यूनियन का इतिहास-अंकन मेरे मनस् का दबाव नहीं। उसे लिखने की भी जरूरत नहीं, वह श्रमिकों के मलिन पर हरफ-दर-हरफ अंकित है....
जिस शाम अहाते को लांघ, सुलगती सिगड़ियों के धुएं के बादल बंगले के दरवाजे-खिड़कियों पर दस्तक न देते, मन अनमना उठता-किस कंपनी में तालेबंदी हुई है !
मीरा ताई से मेरी सबसे पहली मुलाकात तभी हुई थी, जब वे एक शाम डॉ. दत्ता सामंत के साथ ठाकुर साहब से मिलने घर आईं। ‘इंडियन लिंक चेन’ में हुई तालेबंदी के संदर्भ में दत्ता अंकल ने ठाकुर साहब से कई मुद्दों पर बातचीत की थी। प्रतापनगर से लगी हुई एम.ई.एस. की सरकारी कालोनी के अधिकारी एम. ई. एस. कालोनी की सड़कों का मजदूरों द्वारा आवागमन के उपयोग के सख्त खिलाफ थे-प्रतिबंध स्वरूप उन्होंने पत्थर की दीवार बनाकर रास्ता बंद करने का निर्णय लिया है। मजदूर इस प्रतिबंध से घोर कष्ट में पड़ जाएंगे। अपनी फैक्टरियों में आने-जाने के लिए उन्हें मंगतराम पेट्रोल पंप के रास्ते घूमकर आना-जाना होगा जो लगभग मील से ऊपर का चक्कर होगा। दूसरे, पत्थर की लंबी दीवार आठ फुट ऊंची बन जाने से मजदूरों को जंगल पाखाने आदि के लिए जाने की समस्या हो जाएगी। ठाकुर साहब इस प्रतिबंध के विरुद्ध कोर्ट में जाएं। प्रतापनगर उनका है। उनके रहवासियों के कष्ट की ओर उन्हें ध्यान देने की जरूरत है। वे कोर्ट से स्टे ले लेंगे तो यह मामला तत्काल अटक जाएगा। दूसरी मदद उन्होंने यह माँगी कि उनके जितने भी मजदूर किरायेदार ‘इंडियन लिंक चेन’ के हैं, तालेबंदी के दौरान उनकी खोलियों का किराया माफ कर दिया जाए। जो श्रमिक एक जून अपने घर चूल्हा नहीं सुलगा पा रहे, वे खोलियों का किराया कहां से देंगे ? तीसरा मुद्दा-नगरपालिका जब हाउस टैक्स, प्रापर्टी टैक्स ले रही है आपसे तो इस मजदूर बस्ती की बुनियादी जरूरतों की ओर ध्यान दें। मुहिम वे चलाएंगे। बस, वह उनके साथ खड़े रहें। ठाकुर साहब उनसे सहमत हुए।
यह थी मीरा ताई और डॉ. दत्ता सामंत से मेरी पहली मुलाकात। होली से तीन रोज पहले-3 मार्च 1964 को।
यही समय था जब मैं मीरा ताई की संस्था ‘जागरण’ से जुड़ी, जो घरों में चौका-बासन वाली मजदूर पत्नियों की संस्था थी- उनके बुनियादी हक की लड़ाई लड़ने वाली। जब चाहे तब उन्हें निकाला नहीं जा सकता। उनकी हारी-बीमारी का खाड़ा नहीं खाटा जा सकता। उनके संग बदसलूकी नहीं की जा सकती, न दैहिक शोषण। महीने में तीन छुट्टी, साल में पूरे एक महीने की आदि.....आदि....
मीरा ताई का आग्रह था-कालेज से आकर मैं खाली समय में क्या करती हूं ? उस समय मैं सोमैया कालेज, घाटकोपर (तब विद्या विहार स्टेशन बना-बना था) में सेकंड ईयर आर्ट्स की छात्रा थी। मेरी छोटी बहन केशा साइंस पढ़ती थी। दोपहर में घर लौट आती उसे पूरा दिन लग जाता। मीरा ताई के आग्रह पर मैंने मंगतराम पेट्रोल पंप की ‘शिवा’ चाली की एक खोली में बने उनके ‘जागरण’ के कार्यालय में बैठना शुरू किया, ठाकुर साहब के विरोध के बावजूद। ‘जागरण’ का आठ-बाई-आठ का, मात्र शतरंजी बिछा छोटा-सा दफ्तर श्रमिक महिलाओं से भरा रहता था। जयहिंद मिल’ सड़क के उस पार थी। डॉ. दत्ता सामंत भी कभी-कभार जागरण के उस छोटे से कार्यालय में आते। मुझे देखकर खूब प्रसन्न होते तब और प्रसन्न हुए जब उन्होंने पाया कि मैं ट्रेड यूनियन के कामों में ज्यादा रुचि दर्शाने लगी हूँ और अकसर मीरा ताई के साथ सेंट जेवियर्स स्कूल के सामने धरने पर बैठे ‘इंडियन लिंक चेन’ के हड़ताली मजदूरों के साथ बैठने लगी हूँ।
एक शाम मजदूरों ने देखा कि ‘इंडियन लिंक चेन’ के जनरल मैनेजर मि. तिवारी अपनी गाड़ी से कंपनी के गेट से निकल रहे हैं। गेट पर तैनात पुलिस कुछ असावधान है। क्रुद्ध श्रमिकों में से कुछ ने सड़क पारकर उनकी गाड़ी पर पथराव किया। कुछ ने लपकर गाडी़ का दरवाजा खोल तिवारी जी को कार से बाहर घसीट लिया।, यह हादसा ‘इंडियन लिंक चेन’ से लगी सीबा कंपनी (अब सिबाका इंडियन) के अहाते की दीवार के पास घटा। मीरा ताई के पीछे मैं भी मजदूरों को उद्दंडता से रोकने दौड़ी। मगर अपनी बदहाली से पगलाए मजदूरों ने तब मिस्टर तिवारी को जमीन पर पटक उन्हें लात-घूंसों से इस कदर रौंदा कि जब तक पुलिस आई वे अचेत हो गए-या उन्होंने अचेत होने का नाटक किया। बहरहाल, उन पर कातिलाना हमले के जुर्म में हम सभी को कुत्ते-बिल्ली की तरह खींच-धकियाकर वैन में भर, भांडुप पुलिस स्टेशन ले जाकर बंद कर दिया गया।
लॉकअप में बंद मजदूर तब भी बेखौफ प्रबंधन के खिलाफ समवेत स्वर में नारे लगा रहे थे। उनका नेतृत्व मीरा ताई कर रही थीं। बगल वाले लॉकअप से मीरा ताई के संग मैं भी मुट्ठियां उछाल अपने को नारे लगाते हुए पा रही थी।
भूखे मजदूरों के आक्रोश से मेरा पहला परिचय हुआ।
लेकिन जिस दुर्घटना ने मेरे छात्र जीवन की दिशा बदल ही दी, वह थी ट्रेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वंद्विता, अंतर्विरोध और उसमें अपराधी गिरोहों की ठेकेदारी।
....एक दोपहर भांडुप स्टेशन रोड से भरे बाजार के बीच चार गुंडों ने मिलकर मीरा ताई की देह से उनके कपड़े फाड़े, उन्हें बेइज्जत ही नहीं किया, पीठ पर छुरा भोंक उन्हें अपनी अवमानना से सदैव-सदैव के लिए मुक्त कर दिया-हफ्ते-भर मैं बिस्तर से नहीं उठ पाई। बस एक ही द्वंद्व रह-रहकर मेरी कनपटियों में सूजे की नोक-सा उतरने लगता। उन्हें मीरा ताई को मारना था मार देते। भरी सड़क पर उनके कपड़े तार-तारकर उनके स्त्रीत्व को अपमानित करने की क्या जरूरत थी !
दत्ता अंकल ने बहुत चाहा कि मैं ट्रेड यूनियन में अपनी रुचि को खारिज न करूं पर मुझे लगा, मुझे जो लड़ाई लड़नी है, वह ‘जागरण’ दफ्तर में बैठकर लड़नी है। और मैं वहीं बैठकर लड़ूंगी।
स्त्री की क्षमता को उसकी देह से ऊपर उठाकर स्वीकार न करने वाले रुग्ण समाज को बोध कराना आखिर किन कंधों का दायित्व होगा ?
शायद मीरा ताई की मार्मिक हत्या के साथ ही उन विसंगतियों को रेखांकित करने का कोई बीज अवचेतन में दबा रह गया होगा, वरना क्या मैं इस उपन्यास को लिख पाती !
‘आवां’ तीन वर्ष पूर्व अभिन्न कामरेड उषा गांगुली के घर 200 प्रिंस अनवर शाह रोड, कलकत्ता में रहकर लिखना आरंभ किया था। विश्वविद्यालय में अपनी कक्षाएं पढ़ाकर ही वे मेज पर बिखरे पन्नों को देखतीं, सरसरी दृष्टि लिखे पन्नों पर घुमातीं। अध्यापकीय सख्त लहजे में क्लास लेती हुई-सी पूछती-‘कुल कितने पन्ने लिखे ?’ विचित्र संयोग है, उनके घर की मुख्य सड़क के उस पार ‘उषा’ कंपनी का अहाता है, यहाँ आसमान की ऊंचाई को चिमनियों का धुआं ही चुनौती नहीं देता, बुनियादी अधिकारों के लिए सतत् संघर्षशील श्रमिकों का चुहचुहाता पसीना भी मुट्ठियां ताने प्रतिवाद में स्वर बुलंद करता मिलता-ठीक मुंबई की विक्रोली स्थिति ‘उषा’ कंपनी की ही भांति। संयोग यह भी कम विचित्र नहीं कि तीन वर्षों की आंधी- पानी मंझाते जब दिसंबर के अंतिम सप्ताह में मैं ‘आवां’ का अंतिम परिच्छेद लिख रही थी- ‘उषा’ कंपनी में लाल झंडा लहरा रहा था....चिमनियां ठंडी थीं....
ट्रेड यूनियन का इतिहास-अंकन मेरे मनस् का दबाव नहीं। उसे लिखने की भी जरूरत नहीं, वह श्रमिकों के मलिन पर हरफ-दर-हरफ अंकित है....
बी-105. वर्धमान अपार्टमेंट्स,
मयूर विहार फेज-1, दिल्ली-91
मयूर विहार फेज-1, दिल्ली-91
-चित्रा मुदगल
उपन्यास के सभी पात्र काल्पनिक हैं।
किसी की निजी जिंदगी से उन्हें कोई
लेना-देना नहीं। न किसी धर्म, वर्ग,
समुदाय को ठेस पहुंचाने का इरादा।
किसी प्रकार के मेल का आभास महज संयोग होगा।
किसी की निजी जिंदगी से उन्हें कोई
लेना-देना नहीं। न किसी धर्म, वर्ग,
समुदाय को ठेस पहुंचाने का इरादा।
किसी प्रकार के मेल का आभास महज संयोग होगा।
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प्लेटफार्म नं.चार पर देखते-ही-देखते आ लगी चर्चगेट लोकल की उफनाई चली आ
रही भीड़ से टकराती, सकुचाती, दूसरी ओर पांच नंबर पर छूटने को तैयार खड़ी
विराग लोकल के ठीक मध्य में स्थिति महिलाओं के दूसरे दर्जे के डिब्बे की
ओर वह बहुत प्राणोप्रण लपकी।
गाड़ी छूट जाने की आशंका से बदहवास टांगे मानो बाधा दौड़-दौड़ती दौड़ नहीं रहीं, पींगे भर रहीं। और डिब्बा है कि उसकी पहुंच से परे, अगले से अगले की संभावना में परिर्तन हो आंखमिचौली खेल रहा।
गाड़ी का गणित उनके पल्ले नहीं पड़ता। उतावली न हो तो चिबिल्ले बच्चे सा खींसे निपोरता अपेक्षित डिब्बा ऐन सामने खड़ा मिलेगा। अपनी जगह से हिलिए और डिब्बे में दाखिल हो जाइए। समय की किल्लत हुई नहीं कि उनकी खिलंदड़ी शुरू।
मति मारी गई थी उसकी जो वह शुरूआती में ही मालढुलाई वाले डिब्बे से लगे महिलाओं के डिब्बे में नहीं चढ़ी।
दरअसल बीच वाले डिब्बे में चढने का ही एक ही मकसद होता। स्टेशन पर उतरते ही वह ठीक पुल के निकट होगी और जब तलक सवारियों का रेला बिलबिलाती सीढ़ियों पर कदम रख रहा होगा, वह ठाठ से अपनी ओर से पुल की सीढ़ियां उतर रही होगी।
भीड़ उसे ढेला-खाए सैकड़ों-हजारों मधुमक्खियों के छत्तों-सी लगती जो मौके की ताड़ में स्वयं ढेले लिए बैठी स्त्रियाँ देखते ही अपने ऊपर फेंक लेतीं।
भीड़ से उसकी मुलाकात जब भी होती, उसके धड़ से उसे सिर गायब मिलता और उसके संभलते, न संभलते वह धड़ अचानक कोंचती कुहनियों, सरसराती उंगलियों, लोलुप कनखियों, सिसकारी भरती छुअन में तब्दील हो अपने करीब दबोचते-चांपते संभोग को उद्दीप्त होने लगता। मुक्ति की छटपटाहट उसकी थर्राती रंध्रों से रिसती परनालों-सी उफनने लगती और वह पाती कि उसके देह पर चढ़े कपड़े अचानक देह की चमड़ी हो गए हैं.....
लोकल में यात्रा करना और प्लेटफार्म की वैतरणी पार करना उसके लिए सीता मैया की कलयुगी अग्नि-परीक्षा हो उठती। मगर किराये में लगभग ढाई गुने का अंतर घर के एकदम निकट से शुरू होने वाली डबल डेकर बसों के पायदान पर उसे पांव ही न रखने देता।
हर्षा अकसर उसके छुईमुईपन पर कटाक्ष करती।
‘‘मान ले तुझे नौकरी मिल गई तब ?’’
वह अविश्वास से सिर झटकती।
‘‘शेखचिल्ली नहीं हूँ मैं....’’
‘‘जमीन आसमान तू मंझाए रखे दे रही, नौकरी आगे-पीछे मिलेगी नहीं ?’’
‘‘मिलेगी जब मिलेगी अभी मैं खोपड़ी क्यों दलहन करूं ?’’
‘‘अभी से दलहन नहीं करेगी तो तू क्या हेलीकॉप्टर में चढ़कर नौकरी करने जाया करेगी ?’’
‘‘अपनी डबल डेकर बसें किसी हेलीकॉप्टर से कम हैं ? कमाऊंगी तो कुछ रेजगारी अपने ऊपर भी खर्च कर लूंगी।’’ हर्षा को जवाब देने के उपरांत अपनी आवाज का खोखलापन स्वयं महसूस करती कि अपने ऊपर खर्च कर लेने की दंभपूर्ण घोषणा क्या गैस के उस रंगीन गुब्बारे जैसी ही नहीं जो कुछ समय आसमान में कुलांचे भर लेने के पश्चात् स्वयं ही फुस्स होने लगता है ?
हताश स्वर में वह बातचीत का रूख मोड़ती।
‘‘कामकाजी महिलाओं के लिए दो सहूलियतें बंबई में होनी बेहद जरूरी हैं।’’
‘‘मसलन ?’’
‘‘यही कि महिलाओं के लिए विशेष गाड़ियां चलाई जानी चाहिए- पूरी की पूरी।’’
‘‘दूसरी ?’’
‘‘प्लेटफार्म नितांत अलग होने चाहिए। उनके आने-जाने की सीढ़ियां और पुल भी।’’
‘‘अखबार के दर्शन कब से नहीं हुए मुझे ?’’
‘‘अरसे से। बाबूजी के बिस्तर लगते ही कटौतियों की मार अखबार पर सबसे पहले पड़ी। ट्रांजिस्टर पर कब से नहीं सुना ?’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘लगता है, तू इस दुनिया में नहीं रहती।’’ कुएं के मेंढक की तरह उसका अपने घर तक सीमित हो जाना हर्षा को विचित्र लगा।
‘‘रहती तो इसी दुनिया में हूं।’’
‘‘इसी दुनिया में रह रही होती तो मुझे पता होता कि रेलवे वाले कम अंतर्यामी नहीं। तेरी मरजी का अनुमान हो गया था उन्हें, सो उन्होंने कार्यालय के समय पर चर्चगेट और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दोनों ही स्थानों में महिलाओं के लिए पूरी की पूरी लोकलें शुरू कर दी हैं। काफी अरसा हो गया।’’
‘‘यह तो बड़ी अच्छी खबर है।’’
‘‘हाँ, मगर पिछले हफ्ते हुई भयानक रेल दुर्घटना ने रेल अधिकारियों को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर दिया।’
‘‘मतलब ?’’ उसे अपनी अल्पज्ञता पर वाकई खिसियाहट हुई।
‘‘एक डिब्बे में बिजली की मामूली-सी चिनगारी तड़तड़ाई नहीं कि विस्फोट के भय से लगभग चालीस महिलाएँ जान बचाने की खातिर भड़भड़ाकर डिब्बे से कूद पड़ीं और दूसरी ओर चली आ रही लोकल के नीचे आकर कूद मरीं।’’
उसने अविश्वास से सिहरकर आंखें मींच लीं।
‘‘रेलवे विशेषज्ञों ने दुर्घटना की समीक्षा की।’’
दहली चितवन से उसने हर्षा की ओर देखा।
‘‘विशेषज्ञों का निष्कर्ष था कि उस डिब्बे में अगर पुरुष सहयात्री भी होते तो निश्चित ही यह दर्दनाक दुर्घटना टल जाती। उनका कहना है कि स्त्रियों की तुलना में मर्द आपदा-विपदा में अधिक विवेकशील और साहसी होते हैं।’’
‘‘हुंह ! मर्द विशेषज्ञों ने की होगी दुर्घटना की समीक्षा। कितना भी दर्दनाक हादसा हो, तमगा पहनने के लिए फौरन छाती फुलाकर खड़े हो जाएंगे।’’
‘‘खड़े क्यों न हों ! छुईमुई बनकर तुम अपने लिए अलग ट्रेनें, प्लेटफार्म पुल, सीढ़ियां, सड़कें-पूरा प्रतिसंसार मांगोगी तो भूल क्यों रहीं, स्वयं अपने हाथों उन्हें तमगे नहीं पहना रहीं !’’
हर्षा गलत नहीं कह रही।, वह करे तो क्या करे ? भीड़ से भिड़ने-बचने का है कोई अमोघ अस्त्र उसके पास ? बरसों से खोई सामर्थ चुटकी बजाते हासिल होने से रही। बातें चाहे जितनी, छौंक बघार लो।
‘‘हिम्मत करो तो सुझाऊं फार्मूला फोर्टी फोर ?’’ हर्षा का स्वर अचानक खुसफुसाहट में बदल गया, ‘‘छोटा-सा सूजा रखा कर अपने पर्स में और गाड़ी में चढ़ते-उतरते निकालकर चांप लिया कर मुट्ठी में।’’ कौतुहल से भरकर उसने हर्षा की ओर देखा।
‘‘दिमाग तो नहीं चल गया तेरा ?’’
‘‘दिमाग न चल रहा होता तो तुझे सूजा मुट्ठी में चांपने के लिए कहती ? अचूक इलाज है, यार ! भीड़ जैसी ही चुटकी काटने के लिए कसमसाए, धीरे से तू सूजे वाला हाथ आगे बढ़ा दे। फिर देख ततैया का नाच-छूम-छननन, छूम-छननन....’’ अचानक उसने पाया कि वह महिलाओं के डिब्बे के सामने पहुंच गई है और गाड़ी छूटते ही गति पकड़ रही है।
खयालों से कटकर वह बिजली की-सी फुर्ती से दरवाजे की ओर लपकी और हैडिंल मुट्ठी में आते ही वेग पकड़ती लोकल के संग लगभग आठ-दस कदम घिसटती हुई, सर्कस की-सी कुशलता से देह साध, छलांग भर, डिब्बे के भीतर हो ली। धड़धड़ाती गति एक पल के लिए तो अपने ही दुस्साहस पर स्तब्ध हो कुछेक पलों के लिए फेफड़ों में पलटना ही बिसर गई। कहां भटक गई ?
गाड़ी छूट जाने की आशंका से बदहवास टांगे मानो बाधा दौड़-दौड़ती दौड़ नहीं रहीं, पींगे भर रहीं। और डिब्बा है कि उसकी पहुंच से परे, अगले से अगले की संभावना में परिर्तन हो आंखमिचौली खेल रहा।
गाड़ी का गणित उनके पल्ले नहीं पड़ता। उतावली न हो तो चिबिल्ले बच्चे सा खींसे निपोरता अपेक्षित डिब्बा ऐन सामने खड़ा मिलेगा। अपनी जगह से हिलिए और डिब्बे में दाखिल हो जाइए। समय की किल्लत हुई नहीं कि उनकी खिलंदड़ी शुरू।
मति मारी गई थी उसकी जो वह शुरूआती में ही मालढुलाई वाले डिब्बे से लगे महिलाओं के डिब्बे में नहीं चढ़ी।
दरअसल बीच वाले डिब्बे में चढने का ही एक ही मकसद होता। स्टेशन पर उतरते ही वह ठीक पुल के निकट होगी और जब तलक सवारियों का रेला बिलबिलाती सीढ़ियों पर कदम रख रहा होगा, वह ठाठ से अपनी ओर से पुल की सीढ़ियां उतर रही होगी।
भीड़ उसे ढेला-खाए सैकड़ों-हजारों मधुमक्खियों के छत्तों-सी लगती जो मौके की ताड़ में स्वयं ढेले लिए बैठी स्त्रियाँ देखते ही अपने ऊपर फेंक लेतीं।
भीड़ से उसकी मुलाकात जब भी होती, उसके धड़ से उसे सिर गायब मिलता और उसके संभलते, न संभलते वह धड़ अचानक कोंचती कुहनियों, सरसराती उंगलियों, लोलुप कनखियों, सिसकारी भरती छुअन में तब्दील हो अपने करीब दबोचते-चांपते संभोग को उद्दीप्त होने लगता। मुक्ति की छटपटाहट उसकी थर्राती रंध्रों से रिसती परनालों-सी उफनने लगती और वह पाती कि उसके देह पर चढ़े कपड़े अचानक देह की चमड़ी हो गए हैं.....
लोकल में यात्रा करना और प्लेटफार्म की वैतरणी पार करना उसके लिए सीता मैया की कलयुगी अग्नि-परीक्षा हो उठती। मगर किराये में लगभग ढाई गुने का अंतर घर के एकदम निकट से शुरू होने वाली डबल डेकर बसों के पायदान पर उसे पांव ही न रखने देता।
हर्षा अकसर उसके छुईमुईपन पर कटाक्ष करती।
‘‘मान ले तुझे नौकरी मिल गई तब ?’’
वह अविश्वास से सिर झटकती।
‘‘शेखचिल्ली नहीं हूँ मैं....’’
‘‘जमीन आसमान तू मंझाए रखे दे रही, नौकरी आगे-पीछे मिलेगी नहीं ?’’
‘‘मिलेगी जब मिलेगी अभी मैं खोपड़ी क्यों दलहन करूं ?’’
‘‘अभी से दलहन नहीं करेगी तो तू क्या हेलीकॉप्टर में चढ़कर नौकरी करने जाया करेगी ?’’
‘‘अपनी डबल डेकर बसें किसी हेलीकॉप्टर से कम हैं ? कमाऊंगी तो कुछ रेजगारी अपने ऊपर भी खर्च कर लूंगी।’’ हर्षा को जवाब देने के उपरांत अपनी आवाज का खोखलापन स्वयं महसूस करती कि अपने ऊपर खर्च कर लेने की दंभपूर्ण घोषणा क्या गैस के उस रंगीन गुब्बारे जैसी ही नहीं जो कुछ समय आसमान में कुलांचे भर लेने के पश्चात् स्वयं ही फुस्स होने लगता है ?
हताश स्वर में वह बातचीत का रूख मोड़ती।
‘‘कामकाजी महिलाओं के लिए दो सहूलियतें बंबई में होनी बेहद जरूरी हैं।’’
‘‘मसलन ?’’
‘‘यही कि महिलाओं के लिए विशेष गाड़ियां चलाई जानी चाहिए- पूरी की पूरी।’’
‘‘दूसरी ?’’
‘‘प्लेटफार्म नितांत अलग होने चाहिए। उनके आने-जाने की सीढ़ियां और पुल भी।’’
‘‘अखबार के दर्शन कब से नहीं हुए मुझे ?’’
‘‘अरसे से। बाबूजी के बिस्तर लगते ही कटौतियों की मार अखबार पर सबसे पहले पड़ी। ट्रांजिस्टर पर कब से नहीं सुना ?’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘लगता है, तू इस दुनिया में नहीं रहती।’’ कुएं के मेंढक की तरह उसका अपने घर तक सीमित हो जाना हर्षा को विचित्र लगा।
‘‘रहती तो इसी दुनिया में हूं।’’
‘‘इसी दुनिया में रह रही होती तो मुझे पता होता कि रेलवे वाले कम अंतर्यामी नहीं। तेरी मरजी का अनुमान हो गया था उन्हें, सो उन्होंने कार्यालय के समय पर चर्चगेट और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दोनों ही स्थानों में महिलाओं के लिए पूरी की पूरी लोकलें शुरू कर दी हैं। काफी अरसा हो गया।’’
‘‘यह तो बड़ी अच्छी खबर है।’’
‘‘हाँ, मगर पिछले हफ्ते हुई भयानक रेल दुर्घटना ने रेल अधिकारियों को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर दिया।’
‘‘मतलब ?’’ उसे अपनी अल्पज्ञता पर वाकई खिसियाहट हुई।
‘‘एक डिब्बे में बिजली की मामूली-सी चिनगारी तड़तड़ाई नहीं कि विस्फोट के भय से लगभग चालीस महिलाएँ जान बचाने की खातिर भड़भड़ाकर डिब्बे से कूद पड़ीं और दूसरी ओर चली आ रही लोकल के नीचे आकर कूद मरीं।’’
उसने अविश्वास से सिहरकर आंखें मींच लीं।
‘‘रेलवे विशेषज्ञों ने दुर्घटना की समीक्षा की।’’
दहली चितवन से उसने हर्षा की ओर देखा।
‘‘विशेषज्ञों का निष्कर्ष था कि उस डिब्बे में अगर पुरुष सहयात्री भी होते तो निश्चित ही यह दर्दनाक दुर्घटना टल जाती। उनका कहना है कि स्त्रियों की तुलना में मर्द आपदा-विपदा में अधिक विवेकशील और साहसी होते हैं।’’
‘‘हुंह ! मर्द विशेषज्ञों ने की होगी दुर्घटना की समीक्षा। कितना भी दर्दनाक हादसा हो, तमगा पहनने के लिए फौरन छाती फुलाकर खड़े हो जाएंगे।’’
‘‘खड़े क्यों न हों ! छुईमुई बनकर तुम अपने लिए अलग ट्रेनें, प्लेटफार्म पुल, सीढ़ियां, सड़कें-पूरा प्रतिसंसार मांगोगी तो भूल क्यों रहीं, स्वयं अपने हाथों उन्हें तमगे नहीं पहना रहीं !’’
हर्षा गलत नहीं कह रही।, वह करे तो क्या करे ? भीड़ से भिड़ने-बचने का है कोई अमोघ अस्त्र उसके पास ? बरसों से खोई सामर्थ चुटकी बजाते हासिल होने से रही। बातें चाहे जितनी, छौंक बघार लो।
‘‘हिम्मत करो तो सुझाऊं फार्मूला फोर्टी फोर ?’’ हर्षा का स्वर अचानक खुसफुसाहट में बदल गया, ‘‘छोटा-सा सूजा रखा कर अपने पर्स में और गाड़ी में चढ़ते-उतरते निकालकर चांप लिया कर मुट्ठी में।’’ कौतुहल से भरकर उसने हर्षा की ओर देखा।
‘‘दिमाग तो नहीं चल गया तेरा ?’’
‘‘दिमाग न चल रहा होता तो तुझे सूजा मुट्ठी में चांपने के लिए कहती ? अचूक इलाज है, यार ! भीड़ जैसी ही चुटकी काटने के लिए कसमसाए, धीरे से तू सूजे वाला हाथ आगे बढ़ा दे। फिर देख ततैया का नाच-छूम-छननन, छूम-छननन....’’ अचानक उसने पाया कि वह महिलाओं के डिब्बे के सामने पहुंच गई है और गाड़ी छूटते ही गति पकड़ रही है।
खयालों से कटकर वह बिजली की-सी फुर्ती से दरवाजे की ओर लपकी और हैडिंल मुट्ठी में आते ही वेग पकड़ती लोकल के संग लगभग आठ-दस कदम घिसटती हुई, सर्कस की-सी कुशलता से देह साध, छलांग भर, डिब्बे के भीतर हो ली। धड़धड़ाती गति एक पल के लिए तो अपने ही दुस्साहस पर स्तब्ध हो कुछेक पलों के लिए फेफड़ों में पलटना ही बिसर गई। कहां भटक गई ?
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