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मेरे देश की मिट्टी, अहा

मृदुला गर्ग

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :110
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5706
आईएसबीएन :81-214-0426-6

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त्रासदी को झेलकर, निर्वेद तक पहुंचने के लिए निस्संगता की ज़रूरत होती है, इसी निस्संगता को अर्जित-सर्जित करती कहानियां।

Mere desh ki mitti aha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

1992 के बाद, मृदुला गर्ग की कहानियों में व्यंग्य और फंतासी के पुट बढ़ गये हैं। या कहें कि पार्श्व से निकलकर वे मंच पर आ गये हैं और भूमिकाएं निभाने लगे हैं। हास्य-व्यंग्य व फंतासी का उद्गम त्रासदी में होता है। त्रासदी को झेलकर, निर्वेद तक पहुंचने के लिए, जिस निस्संगता की ज़रूरत होती है, वह इन्हीं के माध्यम से अर्जित की जाती है।
मृदुला गर्ग की कहानियां इसी निस्संगता को अर्जित-सर्जित करती हैं और इस प्रक्रिया में जीवन के समरूप नाटक में से होकर गुजरती हैं। हम सब जानते हैं कि जब जीवन जीना अत्यधिक कष्टकारक हो जाता है, तब जीने का नाटक करना पड़ता है। इस नाटक में त्रासद को भी कौतुक के साथ झेलना पड़ता है।

 

मेरे देश की मिट्टी, अहा

 

 

हवा ठंडी नहीं थी, न साफ़। धूल-मिट्टी से भरी हुई थी। फिर भी खाट पर लेटी लल्ली को वह भली लग रही थी। इसलिए कि उसमें धुआं नहीं था। उसने लंबा कश भरकर हवा भीतर खींची। बे-धुआं हवा में सांस लेना कितना बड़ा सुख है, उसने गांव खेड़ी में आकर जाना। धुआं छोड़ती अंगीठी से अलग होकर खुले आकाश के नीचे बैठने की औक़ात, यहां आने पर जो हुई।

गांव उसके लिए नया-न्यारा नहीं है। गांव में पैदा हुई और शुरू के छः-सात बरस वहीं रही। फ़रीदपुर नाम था उसके गांव का। दादी लकड़ी का चूल्हा करती थी। गाली होती तो धुआं ख़ूब उठता। कुछ देर सांस लेनी मुश्किल हो जाती, पर साथ में जो बास आती, बड़ी मनभावन होती। एक साथ दूर फेंकती और पास खींचती। बहुत लुभाऊ होती है ऐसी बास। दादी के हुक़्क़े में से भी बड़ी मोहिनी गंध आती थी और धुआं बस ज़रा-ज़रा चिलम सुलगाते वक़्त, बस। बीड़ा की तरह नहीं कि पिये कोई और कसैलापन भुगते कोई।

जैसे शहर में। हुक़्क़ा वहां कोई नहीं पीता। बीड़ी खूब़। पर लाख बीड़ियां मिलकर भी उतना धुआं पैदा नहीं करतीं, जितनी वहां के ट्रक, बस, स्कूटर, पल भर में छोड़ देते थे। छोड़ते चलते थे। धुंआ भी ऐसा कसांध भरा कि दीखे चाहे नहीं, छाती में हरदम अटा-फंसा रहे मानो बीसियों बीड़ियां पी चुके हों औरत-मर्द। यूं सच में कोई औरत बीड़ी पीती दिख जाए तो फ़ौरन उसे छिनाल बतला दें।

उसने अंगडाई लेकर हाथ-पैर खोलकर पसारे और एक कश खींचा। बदबू का इतना ज़बरदस्त भभका नाक में घुसा कि उबकाई आ गयी। वह उठ कर बैठ गयी। क्या हुआ, नींद से पहले सपना आ गया ? बीते बचपन का ? उसने च्यूंटी काटी। न, वह तो जगी थी। पर बदबू थी कि आये जा रही थी। जलते चमड़े की चमरौंध। जैसी बचपन में गांव के चमार टोले से आती थी। वहीं तो रहती थी वह। चमार टोले में नहीं, उससे सटी झोपड़ी में। जाति से वह बनिया थी।

वह और उसकी दादी, परिवार में ये ही दो जन थे। मां-बाप तो ख़ैर रहे ही होंगे, नहीं तो वह जनमती कैसे, पर कब थे, कब नहीं रहे, उसे होश नहीं था। दादी उनका क़िस्सा कम कहती थी। खेत-द्वार लुटने का ज़्यादा। ‘अपने गांव के अपनों ने ही लूटा हमें लल्ली, अकेली जान क्या-क्या प्रपंच न किये। क्या महाजन, क्या ठाकुर-पंडित सब एक जैसे सियार निकले। जो था रहन रखवाया, झूठ-सच मिला कर लूटा। बचे हम दो, तू और मैं। बस्ती के आख़ीर में यह कल्हड़ बचा था, जिस पर न बोया जाये न चरा, सो यहाँ झोंपड़ी डाल ली। एक तो ऊसर ऊपर से बग़ल में चमार टोला, इस कारण समझ कि बनियों की लार इस पर न टपकी और हम बचे रहे। नहीं तो लल्ली, पांव तले की धरती हड़पने को, बदन का चाम भी खींच ले जाते हमारा ? लल्ली के बदन के रोंगटे खड़े हो जाते। चाम खींचना क्या होता है, वह अच्छी तरह जानती थी। पर जब दूसरे जानवरों का खिंचे उनकी ख़ुशहाली में फ़र्क नहीं आता था। असल में चमार ख़ुशहाल तो दादी ख़ुश। उसके हुनर के वे ही तो गाहक थे। दूसरों के खेतों में बुवाई-कटाई के अलावा, दादी के पास पैसा कमाने के, दो हुनर थे। पुरानी रुई को धुन-धुनाकर ऐसी टिकाऊ बंडियां सीती कि एक छोड़ दो शीत गुज़ार लो।

और चिकनी मिट्टी के वह मनभावन खिलौने बनाती, वह लुभावना रंग उन पर फेरती कि शहर के हाट में, पहली खेप में बेच लो। चमार-टोले के लड़के शहर ले जाकर बेच आते थे तो उनकी और दादी, दोनों की कमाई हो जाती। गांव का ऊंचा तबका घना नाराज़ रहता था। बनिया होकर चमार टोले की कांख में रहने गयी। ऊपर से उनकी टहल करके कमाई की। मरे पीछे नरक में जगह मिल गयी तो बहुत समझना। वरना अधर में लटकी रहेगी बुढ़िया। लड़की बड़ी हो ले तो देख लेंगे। धरम के नाम पर बुढ़िया के चंगुल से बाहर निकलनी होगी-ही-होगी।

पर बुढ़िया ख़ासी चंट निकली। लड़की के बड़े होने से पहले भगवान को प्यारी हो गयी। यही नहीं, मरने से पहले कल्हड़ भी बेच गयी। गुड़गांव शहर के वासी, अपने दूर के रिश्तेदार को। एकदम पुख़्ता लिखा-पढ़ी के साथ। बुढ़िया मरी पीछे, वह पहले गांव आ पहुंचा, दो-दो कारिंदो को साथ लिये। ज़रूर किसी चमार ने ख़बर पहुंचायी होगी।

गांव में कुलबुल भतेरी रही पर शहरी बाबू काग़ज़-पत्तर से चौकस निकले। चौथा होते ही लल्ली के लो, शहर रवाना हो गये, जिन्होंने साल पूरा होने से पहले, वहां जानवरों की हड्डियों की खाद बनाने का कारख़ाना खुलवा दिया। चमार टोले की मौज हो गयी। जानवरों की खाल उतारो अलग और कारख़ाने में काम पाओ अलग। कारख़ाना बदबू के भभकारे छोड़े-तो-छोड़े, चमार एतराज करने से रहे। दूर-दराज रहने वाले ठाकुर-बनिये गये ज़रूर, एम.अल.ए के पास, पर उन्होंने खटमल-सा अलग झटक दिया। उन दिनों गांव की प्रगति का नारा ज़ोरों पर था। प्रगति माने वोट, गुड़गांव में रिशते के ताऊ-ताई हंस कर कहा करते। चमारों में वोट डालने का नया-नया चलन हुआ है, सो प्रगति अब उनके खीसे में है।
लल्ली गुड़गांव क्या पहुंची, फिर कभी गांव देखने को न मिला। जो जाना, ताऊ-ताई के मुंह से सुनकर। वैसे उनके घर रहना उतना बुरा भी न था। अब दादी की नाई प्यार-मनुहार तो ताई करने से रही थी। न सजा-संवार कर उसे शहरी मेम बनाने वाली थी। पर इतना ज़रूर किया कि सात साल की धींगड़ी को स्कूल में दाखिला दिलवा दिया और डांट-डपट, मार-पीट कर, बारहवीं पास करवा दी। घर का काम-काज तो ख़ैर किस ग़रीब रिश्तेदारिन को नहीं करना पड़ता। पर भूखा-प्यासा कभी न रहना पड़ा उसे, न कभी बेभाव की मार खानी पड़ी। पर सब हुआ तो मुसलमान के साथ भागने पर लोग, उससे हमदर्दी कर सकते थे। अब तो कुलटा ही कहना था सबने, सो वही कहा।

हुआ यूं कि इधर बारहवीं पास लल्ली की उम्र बीस पर पहुंची, उस घर की ब्याहता बेटी स्वर्ग सिधार गयी। लल्ली से कोई सोलहेक बरस बड़ी रही होगी। बारह और चौदह बरस के दो मासूम बेटों को पीछे छोड़ गयी और पति बेचारे की उम्र, कुल पैंतालीस साल। दूसरी शादी तो तुरत-फुरत तो होनी ही थी, पर ताऊ-ताई को फिक्र यह लगी कि सौतेली मां, जो आयेगी, बेटों का ख्याल रखेगी भी कि नहीं ? सो पुरानी परंपरा का सहारा ले कर उन्होंने तेरहवीं होते ही लल्ली से जमाता का रोकना कर दिया। तय हुआ कि तीन महीने के भीतर जी कड़ा करके, बच्चों के खातिर, बुझे बेमन, बेरौनक शादी की रस्म पूरी कर दी जायगी। लल्ली को बुरा नहीं लगा। जीजा खासा हट्टा-कट्टा और खाता-पीता था, रोबीला, पुलिसिया हवलदार। अधेड़ था या जवान। उस बारे में सोचा ही नहीं। वह क्या जानती थी, जवानी क्या होती है। गांव में थी तो सात साल की लड़की को गांव वाले धींगड़ी कहते रहे हों, वह दादी की गोद की बच्ची ही बनी रही थी। उसकी बनायी बंडियों में से सबसे बढ़िया पहनती थी, उसके गढ़े खिलौनों से खेलती, उससे चिपट कर सोती, नन्ही लल्ली।

शहर आयी तो स्कूल और घर के काम के बीच इतना वक़्त ही नहीं मिला कि जवानी के बारे में सोचे। घर में रहने वाले ताऊ-ताई, दादी से कुछ ही कम बूढ़े थे। स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियाँ जवान जरूर हो रही थीं, पर उनसे ज़्यादा बोलने-बतियाने की फुरसत उसे नहीं थी। उस पर जवानी आयी तो इतनी बेदस्तक कि कपड़ों पर खून आने के अलावा, कोई निशान नहीं छोड़ा। जवानी के नाम पर जो देखा, इन्हीं जीजा-जीजी के बच्चों समेत, घर में आना जाना था। वह भी दूर-दूर से देखा। उनके आने पर रसोई का काम इतना बढ़ जाता था कि मुश्किल से उनकी सूरत साफ़ नजर आ पाती। वह भी कभी-कभार। फिर भी घर में उत्सव सा छाया रहता, जिसका उत्साह उसे भी छू जाता। अब, बिना जीजी का जीजा, उसी उत्सवी माहौल को अपने में समेटे, उसके दिलो-दिमाग़ में उतरा। शादी की बाबत उसकी राय किसी ने नहीं पूछी, पर रस्में होनी शुरू हुईं तो पता चल गया कि उसकी मंगनी हो रही है। बिना बतलाए यह भी जान लिया कि वह जवान हो गयी।

सब कुछ आराम-तसल्ली से निबट लेता अगर संयोग से जीजावर का तबादला गुड़गांव का न हो जाता। जाहिर था कि अपना क्वार्टर मिलने तक उसका पड़ाव भूतपूर्व भावी ससुराल में हुआ। होने वाली बीबी होने के नाते खाना पका-खिला लेने पर लल्ली को बैठक में बुलाया जाने लगा। जिस पुलिसिया को अब तक देखा भर था, अब देर तक सुना भी पड़ा। बोलता वह ख़ूब था, रोज़ अकेला और देर तक। बातों का मज़मून हमेशा वही रहता, कैसे मार-मार कर, पेशेवर मुज़रिमों से सच उगलवाया। ‘औरत हो या मर्द, मैं किसी को नहीं बख्शता,’ वह छाती फुलाकर कहता और ब्योरेवार पिटाई की बारीकियों का बखान करता। उन्हें दुहराने की ज़रूरत नहीं। आज कौन है जो टीवी नहीं देखता और उन बारीकियों से वाक़िफ़ नहीं है। पर लल्ली नहीं थी। टी.वी. देखने की उसे कभी फुर्सत नहीं मिली थी। आज जीजावर के रसिक बखान में उसका प्यारा जुमला बार-बार सुनकर उसका बदन थर-थर कांपने लगता, मतली उठ आती वह गश खा कर गिर पड़ती। ‘मार मार कर खाल उधेड़ दी’, चबर-चबर खाते हुए वह कहता और अट्ठहास करके, फिर चस-चस चबाने लगता। लल्ली को बचपन में देखा नज़ारा याद आ जाता। जिनावर से हटकर मनुष्य तक पहुँचने का उसका डर साकार होता और वह गश खा जाती।

कुंवारी लड़कियों के बेहोश होकर गिरने-गिराने पर कोई ध्यान नहीं देता, लल्ली के रिश्तेदारों ने भी नहीं। होश आने पर वह वापस काम पर लग जाती। हां, जीजावर ने ज़रूर खुशमिज़ाजी से हंस कर, रोमानियत का परिचय देते हुए कहा था, ‘अहा, लल्ली जवान हो गयी। उसके हिस्टीरिया का एक ही इलाज है, तत्कल शादी।’ बाकी लोग भी हंस दिये थे। कहा था, अब तो महीना ही बचा है। लल्ली बेहद डर गयी थी। बेभाव की मार उसने कभी खायी नहीं थी, पर जिंदगी में किसी ने कभी किसी किस्म की रियायत भी उसके साथ नहीं की थी। लिहाज़ा, खाल उधेड़ने में इतना रस लेने वाला आदमी  उसे साबुत छोड़ देगा, इसका भरोसा नहीं था। डर ने ऐसा आलम बनाया कि जैसे होता है, हर चीज से हटकर ध्यान पूरी तरह अपने पर अटक गया। तभी यह एहसास हुआ कि सामने वाली बरसाती में रहने वाला डेढ़ पसली का किरायेदार उसे घूरता रहता है। अब जो नजर उठा कर उसकी तरफ देख पाया तो कि वह मुस्कुरा ही नहीं रहा, गुनगुना भी उठा है और अगले पल सीटी भी बजा बैठा है। फिर एक दिन जीजावर की फ़र्माइश पर मौसम में नये आये करेले खरीदने वह बाजार जा रही थी कि वह उससे आ टकराया। फिर जो-जो होता है हुआ और लल्ली उसके साथ भाग गयी।

डेढ़ पसली का नौजवान मुसलमान था, यह उसे तब पता चला जब दिल्ली शहर पहुंचकर निकाह पढ़वाने वह उसे मौलवी के पास ले गया। और उन्होंने कलमा पढ़वा कर उसे लैला बनने को कहा। तब जिंदगी में पहली बार उसकी राय पूछी गयी। मौलवी साहेब ने पूछा, निकाह से तुम्हें इकरार है कि नहीं तो नयी-नयी लैला बनी लल्ली, डबल खुशी के मारे लहोलुहाट हो गयी। पहली खुशी यह कि डेढ़ पसली, मिर्च-मसाला कूटने की दुकान में क्लर्क था। गुड़गांव से दिल्ली आना उसका पहले से तय था, तभी लल्ली को भगाने की हिम्मत की थी। किसी की खाल उधेड़ने लायक न उसकी सेहत थी, न औकात। दूसरी यह कि लैला बनते ही उसकी रजामंदी की दरकार पड़ने लगी थी।

लैला बनी लल्ली दिल्ली शहर के खारी बावली इलाक़े की एक तंग गली में जा लगी। जिस मियानी में शौहर के साथ घर बसाया उसके ठीक नीचे गली में मिर्च-मसाला सुखाते, कुटते, पिसते, छनते थे। धुंआ उड़ाते फटफटियों में लद कर साबुत माल जाता था। मिर्च-मसाले की धांस, पत्थर के कोयले की अंगीठियों का कसैला धुआँ और कचरे के ढेरों से उठती सड़ांध मिल कर वह समां बांधती कि चमार टोले की चमरौंध पानी भरे। शादी का मतलब बंद कमरे में धुआं, धांस और सड़न सहना मानकर लैला संतोष से जी रही थी कि सैंया को गांव में रहने वाले मां-बाप याद आ गये। सालाना छुट्टी के सात दिनों में उसे वहां लिवा ले गये। वहां यानी यहां, खेड़ी गांव।

गांव पहुंच कर पता चला कि पहली बीबी मौजूद थी जिसे तपेदिक की बमारी थी और जिसका बरस भर का छोरा भी था। एक से ज़्यादा बीवी का होना खुदापाक की मंजूरी से था और बच्चे का होना, कुदरत की दुआ से। सो अपनी हिरास को पेट में दबा लैला जैसे रहती आयी थी, रहती गयी। तभी एक राज और खुला। यह कि पसली मर्द की डेढ़ हो चाहे ढाई, वह पुलिसिया हो या चाकर, बीवी की खाल उधेड़ने की जश्न, हर कोई मना सकता है। दो-चार दिन के त्योहार के बाद समझ में आया कि हो-न-हो उससे शादी इसीलिए की होगी क्योंकी पसली चली पहली बीवी की खाल पर जश्न मनाने में क़ातिल होने का डर था।
अजीब बात यह हुई कि जब हफ़्ते बाद लैला दिल्ली लौटी तो रह-रह कर उसे खेड़ी गांव याद आता रहा। जब-जब सांस धसके में बदल कर छाती में अटकती, उसे गांव खेड़ी में खुल-खुल कर सांस लेनी याद आ जाती। मन में चाह उठती कि काश ! वहां रह पाती।

दूसरी बात जो कई बार मन में उठती, वह यह थी कि कौन जाने सैंया से पुलिसिया जीजावर ही बेहतर रहता। औरों को कूट-पीटकर इतना अघा जाता कि लैला को पीटने का मन ही न बनता। इस बेचारे डेढ़ पसली के लिए तो मुल्ला की दौड़ लैला तक थी। वैसे वह बुरा आदमी नहीं था। जैसे सब होते हैं वैसा ही था। एकाध बार छुट्टी के रोज उसे लाल क़िला वग़ैरह घुमाने भी ले गया था।

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