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मुक्ति

एस. सागर

प्रकाशक : सुनील साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5696
आईएसबीएन :81-88060-56-9

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1971 के भारत-पाक युद्ध अर्थात बांग्लादेश की आजादी की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास

Mukti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1971 के भारत-पाक युद्ध अर्थात् बांग्लादेश की आजादी की पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास में तत्कालीन पाक-फौजियों द्वारा महिलाओं और बच्चों पर किए गए अमानुषिक क्रूरता के जीवंत चित्रण हैं।
उपन्यास के रोचक कथानक में ग्रामीण परिवेश, परंपरा और कुसंस्कार-जनित अत्याचार और बर्बर व्यवहारों से त्रस्त बालिकाओं और निरीह मिहिलाओं पर ढाए जाते जुल्म की दर्दनाक दास्तान पेश की गई है। आजादी के इतने साल बाद भी ग्रामीण परिवेश को कुसंस्कारों से मुक्ति नहीं मिली है। नारी, अधिकांश जगह आज भी उपेक्षित, वंचित और प्रताड़ित है। उसकी आजादी संपूर्ण नारी क्रांति से ही संभव है।
लेखक ने इस दिशा में अनेक प्रश्न उठाए हैं तथा अपने ठंग से उसके समाधान के कुछ सुझाव भी पेश किए हैं।



मुक्ति

‘‘अजी, उठिए ! देखिए, कितनी सुहावनी धूप खिली है।’’ सरिता ने रवि को जगाते हुए कहा।
जल्दी-जल्दी उठकर रवि बाहर लान में आया। सुंदर, स्वच्छ नीलाकाश में सूर्य की सुनहली किरणें वारि-बिंदुओं पर कई रंगों में प्रतिफलित हो रही थीं। झाड़ियां, पेड़-पौधे, फुटपाथ, सड़कें, छतें सभी नहा-धोकर निखर गई थीं। तभी सरिता चाय लेकर आई और दोनों चाय पीते-पीते प्रकृति के निखरे रूप का अवलोकन करने में मग्न हो गए।
‘‘वाह ! क्या चमकीला दिन निकला है आज कई दिनों की लगातार वर्षा के बाद।’’
‘‘सच कहा आपने।’’ सरिता ने सहमति जताई।

‘‘वह देखो, आम कितने बड़े-बड़े हो चुके हैं।’’ पेड़ की ओर इशारा करते हुए रवि ने कहा।
‘ये आम देखकर मुझे तो बचपन के दिन याद आने लगे हैं—कुंए के पासवाला वह आम का वृक्ष जो इस मैसम में हरे-हरे आमों से लद जाता था ! सामने दरवाजे पर बेल का पेड़, पीछे की ओर इमली, अनार, सुपारी और केले तथा दूर तक फैले नारियल के दृश्य आज भी आंखों में छाये हुए हैं।’’
‘‘गुड़ मार्निंग, ग्रेना एन ग्रेनपा !’’ पोती रश्मि की आवाज ने उनका ध्यान भंग किया।
‘‘वेरी, वेरी गुड मार्निंग टु यू डार्लिंग।’’ कहते हुए दोनों ने उसे गले लगाया।
‘‘इतनी जल्दी उठ गई, बेटा ?’’

‘‘मैंने सोचा, अधिक दिन चढ़ आया है, इसलिए उठ आई।’’
‘‘हां मॉम, आप ग्रेनपा को कुछ सुना रही थीं। प्लीज, मुझे भी सुनाइए न ?’’
‘‘अरे ! कुछ भी नहीं...वे तो पुरानी यादें थीं।’’
‘‘तो, मुझे भी सुनाइए न अपनी पुरानी यादें। रश्मि ने जोर दिया।
‘‘नहीं बेटा, अभी नहीं। मेरी सारी रसोई पड़ी है। रात को सोते वक्त सुनाऊंगी। अभी तुम ग्रेनपा से कहानी सुनो।’’ इतना कहकर सरिता किचन की ओर चली गई। रश्मि ग्रेनपा की ओर मुड़ी।
‘हां, ग्रेनपा, आप ही सुनाइए अपने बचपन की कहानी...रोमांस की कहानी और इतिहास की कहानियां। आप तो इतने सालों से पढ़ते-पढ़ाते और दुनिया देखते-सुनते आ रहे हैं और अब रियाटायर भी हो चुके हैं, सो आपके पास वक्त भी है।’’
‘‘ठीक है, बेटा मैं तुम्हें सारी कहानियां जरूर सुनाऊंगा, परन्तु आज नहीं। और हां, पहले तुम ग्रेन मॉम से उनके बचपन की दर्दभरी कहानी सुन लो। बड़ी ट्रेजडी है उनके जीवन में। बाद में मैं तुम्हें अपनी प्रेम-कहानियों से रू-ब-रू कराऊंगा। परंतु अभी तो जाकर स्कूल की तैयारी करो।’’

नैशाहर के बाद नित्य की भांति रश्मि सरिता के साथ बिस्तर पर बैठी थी।
‘मैं तब पांच साल की थी। घर में जी लगता नहीं था, खेल में मन लगा रहता था। सरिता उसे सुनाने लगी, ‘‘आस-पास के बच्चे इकट्ठे हो जाते और आंगन या खुली जगह पर हम शुरू हो जाते...भाग-दौड़, आंख-मिचौली, पत्ता-घर, रसोई आदि तरह-तरह के खेल। गांव का घर ! आज जैसे पक्के मकान, बिजली, पक्की सड़कें, अंग्रेजी विद्यालय आदि कुछ भी नहीं थे। स्थानीय भाषा की पाठशाला थी पर वह भी चार-पांच मील दूर। पैदल जाना पड़ता था। पिताजी गुजर चुके थे। घर पर मां थीं एक छोटा भाई। अधिक उम्र की दादी बड़ी अच्छी थीं, लाचार। मां थी, पर वह और बेबस थी और वह भी विधवा। परंपरा अनुसार, वह अशुभ अमंगली थी। उसे कुलनाशिनी कहा जाता था। शुभ अवसरों पर उसकी छाया तक पड़ने न दी जाती थी...अतः परिवार पर शासन कायम हुआ ताऊ और उनके बेटे का।’’

उसांस भरकर सरिता बताने लगी, ‘‘उसे भाई कहना तो ‘भाई’ का अपमान होगा। वह पूरा जल्लाद था और मेरा जानी दुश्मन। मैं बच्ची थी—एक ‘लड़की’ जो पिछले पांच हजार सालों से परंपरा की कैद में थी। मेरे लिए खेल, पढ़ाई, खान-पान, पहनावे आदि में छूट ? राम-राम ! पाप है ! दुश्मन भाई ने ‘फतवा’ जारी कर दिया—स्कूल जाना बंद। घर पर भी किताबें-कांपी छूने नहीं देता। मां अगर कुछ कहतीं तो कहता—‘लड़की है, पराई अमानत है। इसके अलंकार हैं झाड़ू, बर्तन, रसोई, गोबर-पानी, घास आदि। अरे ! इसे तो जल्दी ही दूसरों के घर खूंटे से बंधना है।’ उस कसाई का विरोध भला एक विधवा कैसे करती ? पिताजी होते तो बात कुछ और होती। कहते हैं, वे आधुनिक विचारधार के समर्थक थे। किंतु मेरी नियति में कुछ और ही था...

‘‘इस तरह मेरे बचपन की जिंदगी घर की चारदीवारी में सिमटने लगी। पिंजरे की पंख-कटे चिड़ियां भला कितनी दूर जा सकती थीं ? चोरी-छिपे कभी-कभार राशन, पानी, फूल, दवा, बाजार आदि के बहाने सहेलियों के साथ निकल जाती। तब चाय-बागान से संलग्न घंटी झील के किनारे झाड़ियों में लुका-छिपी खेलने, तितलियां, कागज की नाव तैराने या लाजवंती इकट्ठी करने में जो आनंद मिलता था उसे शब्दों में बताना संभव नहीं है। वारुणी या अन्य मेलों के अवसर पर फैनी नदी के बालूचरों पर खेलना, पानी में नहाना और कपड़ों के जाल से छोटी-छोटी मछलियों को पकड़ने की व्यर्थ चेष्टा करना आज भी याद है। हरी घास लेने जाकर चायबागान की ढलानों पर बिछी हरी चादर पर लेटकर कोयल की कूक की नकल करने में बड़ा मजा आता था। प्रकृति के वे रूप-रंग और हमारे जीवन के वे रंगीन पल उस नीरस जीवन के लिए संजीवनी सुधा थे।’’

‘‘ओ, ग्रेनमा ! यह सब सुनकर कितना अच्छा लगता है ! हमें तो ये नजारे शायद ही देखने को मिलेंगे। हमें तो सुबह से शाम तक...कभी-कभी देर रात तक किताबों और कापियों पर मशक्कत करनी पड़ती है। हां, पिकनिक एवं ‘टूर’ पर कुछ प्राकृतिक दृश्यों से हमें रू-ब-रू होने का मौका अवश्य मिलता है, लेकिन किताबों और परीक्षा का बोझ हमेशा सिर पर सवार रहता है। ऊपर से टीचरों का क्लास वर्क, होम वर्क, प्रोजेक्ट वर्क, ड्रिल वर्क, डे वर्क, नाइट वर्क और न जाने क्या-क्या वर्क हमारी गोल खोपड़ी में घुसते रहते हैं। अगर उनके वश में होता तो वे हमें प्रथम कक्षा में ही विश्वविद्यालय के स्तर की पढ़ाई करवाकर बड़ी-बड़ी कागजी डिग्रियां थमा देते। तीन सौ पैंसठ दिनों को वे चौबीस घंटो में ही समाप्त कर देते। हमारे अध्यापक, अध्यापिकाएं और अभिभावक भी अधिकाधिक अंकों वाले प्रमाण-पत्र पर विश्वास रखते हैं। हमें सोचने-समझने, देखने-जानने का, खेलने व खुश होने का वक्त ही कहां है नंबरी प्रतिस्पर्द्धा के इस युग में कितनी बोरिंग हैं हमारी आज की जबर्दस्ती ठूसी जाने वाली स्कूली शिक्षा की भरी हुई हाइब्रीड थालियां ! हां मॉम, याद आया, कल हमारा क्लास-टेस्ट है। अगर अच्छे अंक नहीं मिले तो हमारी टीचर पूरे खानदान को शूली पर चढ़ा देगी। गुडनाइट मॉम ! शेष कहानी कल...’’


2



‘‘धीरे-धीरे उम्र बढ़ने लगी। मैं सात-आठ साल की थी शायद...’’
‘‘शायद क्यों, मॉम ?’’
अरे भाई तब उस देहाती परिवेश में आज जैसे पश्चिमी फैशन में जन्मदिन पर कैंडल, केक और ‘हैप्पी बड्डे टू यू’ का प्रचलन नहीं था। उन दिनों उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि भारतीय परंपरा में हर दिन, हर महीने कोई न कोई पर्व या त्यौहार आता ही है, जैसे—दूज, तीज, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी...पूर्णिमा आदि। हर तिथि किसी न किसी त्योहार से जुड़ी है। इसलिए सामर्थ्य वालों को भी व्यक्तिगत जन्मदिन मनाने में पश्चिमी नकल की आदत नहीं थी। जहां तक मेरे जन्मदिन का सवाल है, उस समाज में किसी भी लड़की का जन्म कैसे शुभ हो सकता था ? इसलिए उस अशुभ महूर्त को याद रखकर उसे सहर्ष मनाने का सवाल ही नहीं उठता। मुझे तो आज तक अपने जन्मदिन का सही समय और दिन तक का पता नहीं है। बड़ी होने पर साल का अनुमान लगाया गया, बस।’’
‘‘हां, तो मॉम ! फिर आगे कहिए।’’

‘हां, तो मैं अपने जन्मस्थान हल्दी माटी चायबागान की कहानी सुनाने जा रही हूं। सन् 1880 में दादा हिम्मत राय एक मजदूर ठेकेदार के रूप में बनारस से सिलहट आए थे। काम-काज अच्छा चलने लगा। आपसी कलह से लक्ष्मीजी भी नाराज हो गईं। दो बेटे और कई बेटियां थीं। जैसे-तैसे सभी के घर बसाने के बाद दादाजी चल बसे। पीछे रह गईं दादीजी और दोनों बेटे। मेरे पिता की अकाल मृत्यु के बाद ताऊ और उनके बेटे का शासन चलने लगा। पुरुषप्रधान कुसंस्कारी समाज में ‘विधवा’ या अन्य किसी भी नारी का अस्तित्व ही क्या है ?

उन दिनों हमारे उस ग्रामीण इलाके में आज जैसी पक्की सड़कें, बिजली, रेल व बसें, टेलीफोन आदि की सुविधाएं न के बराबर थीं। मैं 1950 के समय की बात कर रही हूं। धूल व मिट्टी से भरी गांव की कच्ची सड़कें भी कम थीं। बैलगाड़ी या पैदल का जमाना था। स्कूल, कालेज, सिनेमा, टेलीफोन आदि शहरी चीजें थी। ग्रामोफोन, रेडियो आदि संभ्रांत परिवारों की पहचान थे। मनोरंजन के साधन थे—रामलीला, नाटक, यात्रा, तमाशा, बायस्कोप आदि।’’
‘‘अरे मॉम, ये अनोखी चीजें तो अब शायद हमें केवल संग्रहालयों में ही उपलब्ध हो सकेंगी।’’
‘‘सच कहा तुमने...मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट, टेलीविजन आदि तब अद्भुत कल्पना मात्र की चीजें थीं।’’

‘‘ध्यान देने योग्य बात यह है कि सिर्फ पिछले पचास सालों के अंतराल में ही दुनिया पांस सौ साल आगे निकल गई—वैज्ञानिक अनुसंधान और उपलब्धियों से। हम पश्चिमी सभ्यता के रंग-रूप अपनाने में भी काफी आगे बढ़े हैं। हमारे समाज का एक हिस्सी पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान, टेक्नोलॉजी, आजादी, अधिकार, समता, मानवता आदि से काफी प्रभावित है। परंतु सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है—कुछ अनुपयोगी और आवांछित आचार-विचार हमारे ग्रहणीय मूल्यों का उच्छेदन कर रहे हैं। हमें निश्चित रूप से समता, मानवता, नारी-उत्थान, भूमंडलीकरण, उदारीकरण, उपभोक्तावाद आदि के क्षेत्र में दुनिया के साथ अवश्य रहना है, मुकाबला करना है, किंतु आवश्यकता अनुसार कुपथ्यों का वर्जन भी करना है।

‘जिस तरह अत्यधिक भोजन से बदहजमी मुटापा और अत्यधिक पढ़ाई-लिखाई से मानसिक संतुलन का खतरा हो सकता है, उसी तरह सीमाहीन या चरम स्वतंत्रता उच्छृंखलता का परिचायक है, जिसका परिणाम अशुभ या अमंगलकारी होता है। चरम आजादी अक्सर वास्तविक आजादी की परिपंथी होती है। भ्रष्टाचार का जहर आज राष्ट्रवृक्ष के पत्तों, फूलों, फलों, शाखा-प्रशाखाओं में ही नहीं, बल्कि भूमिगत जड़ों तक फैल चुका है। नेता-अभिनेता, खिलाड़ी, अध्यापक, अभियंता, व्यापारी, सिपाही—सभी इसके सेवक, हमराही, मित्र और भागीदार बन गए हैं। इस अर्थवान युग में, विलासिता की होड़ में अच्छे संस्कार और नैतिक मूल्यों का कोई मूल्य नहीं रह गया है। आज किसी को देश, राष्ट्र या जाति की फिक्र नहीं है। स्वार्थी बुद्धिजीवियों एवं संकीर्णमना मेताओं की रुचि एकता में नहीं, अनेकता में है।

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