धर्म एवं दर्शन >> मुक्तिपथ मुक्तिपथस्वामी अवधेशानन्द गिरि
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मन, हृदय और आत्मा को समस्त बंधनों से मुक्त करने के सरल-सुगम साधन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
संसार नाम-रूपात्मक अर्थात सीमायुक्त है। नाशवान वस्तु दुख का कारण होती
है और जो असीम है, उसे नश्वर होना चाहिए। इसके विपरीत इसका ज्ञाता एवं
मूल्य कारण आत्मा न असीम है, न नश्वर है और न ही दुख का हेतु है। वह असीम
होने के कारण ही असीम संसार का ज्ञाता है। असीम ही शाश्वत हो सकता है।
इसलिए आत्मा को आदि, मध्य और अंतहीन कहा गया है। संसार की वस्तुएं परिणामी
कही गई हैं, क्योंकि उसमें परिवर्तन के अनेक लक्षण दृष्टिगत होते हैं।
आत्मा में इनसे किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता। वह सदा एकरस और
नित्य रहने वाला है।
वस्तुतः आत्मा काल की गति से परे है। काल की गति-उत्पत्ति विचार से होता है। विचार बुद्धि की उत्पत्ति है लेकिन आत्मा बुद्धि से भी परे है। इसलिए वह काल की सीमा में नहीं आ सकता। देश और काल से परे होने के कारण ही आत्मा अभिवाज्य है और एक शुद्ध चेतना में विभाजन संभव नहीं है। आत्मा की चेतना बोध-स्वरूप है। वह जीव की जाग्रत, स्वप्न तथा सुसुप्ति—सभी अवस्थाओं को प्रकाशित करती है। रूप और नाम तो संसार के लक्षण हैं। इसीलिए संसार सीमित, नश्वर और दुख का कारण है किंतु सत्-आत्मा अरूप है। अरूप वस्तु की कोई अवधारणा नहीं हो सकती। उसका कोई मानसिक चित्र नहीं बनता। ऐसे विचित्र तत्व को अविरोधी कह सकते हैं। उस अद्भुत तत्व के दो अन्य विशेष लक्षण हैं—चित्त और आनंद।
आत्मा एक है और उसके सामने कोई दूसरा तत्व नहीं है। इसलिए उसकी पहचान लक्षण बताकर ही की जा सकती है। लक्षण दो प्रकार के होते हैं—स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण। स्वरूप लक्षण वस्तु के किसी कार्य या स्थान विशेष का संकेत करते हैं। ये लक्षण वस्तु में सदैव विद्यमान नहीं रहते। आत्म तत्व भी अद्वितीय वस्तु है। उसकी पहचान स्वरूप और तटस्थ लक्षणों द्वारा कराई जाती है। सच्चिदानंद उसके आत्म स्वरूप का साक्ष्य है।
जिस रचना-काल में वह लक्षण रहता है, उसके समाप्त होने पर वह विलीन हो जाता है। अनित्य, अव्यक्त एवं अद्भभुत आदि बुद्धि लक्षण भी संसार-सापेक्ष हैं। अतः आत्म तत्व की खोज करने के लिए ध्यान में साधक को तटस्थ लक्षणों की सहायता से अनात्म तत्वों का अतिक्रमण करके अपने सत्-स्वरूप के निकट पहुंचकर उसमें आत्मगत चिंतन के द्वारा स्वरूप लक्षणों की खोज करनी चाहिए। पहले अपनी सत्ता का अनुभव करें, फिर उस सत्ता के स्वरूप में जो चेतना कार्य कर रही है, उसकी ओर ध्यान दें और तब उस चेतना-अनुभूति में होने वाले आनंद को समझें, उसका उपभोग करें। उस समय अनुभव होगा कि एकमात्र मैं ही, मेरी सत्ता ही चेतना स्वरूप है। चेतना और आनंद में कोई अंतर नहीं है—यह सब मानो एक-दूसरे के पर्याय हैं। इसके बाद इस चेतना की सीमा खोजने लगें तो वह असीम दिखाई देगी। अपने ही अंदर संपूर्ण विश्व का अनुभव होगा।
श्रुति वाक्यों के अनुसार चेतना ही सब कुछ है। नाम-रूप से न सही, तत्व रूप से रज्जु में सर्परूप में ब्रह्म ही है। जिसके आत्मा का अनुभव हो जाता है, वह अपने में ही सब कुछ देखता है। आत्मज्ञान हो जाने पर यह अनुभव होने लगता है कि मैं ही ब्रह्म हूं, मैं ही संपूर्ण चेतना हूं, जो सभी में व्याप्त है। उपनिषदों में कहा गया है—अहं ब्रह्माऽस्मि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं।
वस्तुतः आत्मा काल की गति से परे है। काल की गति-उत्पत्ति विचार से होता है। विचार बुद्धि की उत्पत्ति है लेकिन आत्मा बुद्धि से भी परे है। इसलिए वह काल की सीमा में नहीं आ सकता। देश और काल से परे होने के कारण ही आत्मा अभिवाज्य है और एक शुद्ध चेतना में विभाजन संभव नहीं है। आत्मा की चेतना बोध-स्वरूप है। वह जीव की जाग्रत, स्वप्न तथा सुसुप्ति—सभी अवस्थाओं को प्रकाशित करती है। रूप और नाम तो संसार के लक्षण हैं। इसीलिए संसार सीमित, नश्वर और दुख का कारण है किंतु सत्-आत्मा अरूप है। अरूप वस्तु की कोई अवधारणा नहीं हो सकती। उसका कोई मानसिक चित्र नहीं बनता। ऐसे विचित्र तत्व को अविरोधी कह सकते हैं। उस अद्भुत तत्व के दो अन्य विशेष लक्षण हैं—चित्त और आनंद।
आत्मा एक है और उसके सामने कोई दूसरा तत्व नहीं है। इसलिए उसकी पहचान लक्षण बताकर ही की जा सकती है। लक्षण दो प्रकार के होते हैं—स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण। स्वरूप लक्षण वस्तु के किसी कार्य या स्थान विशेष का संकेत करते हैं। ये लक्षण वस्तु में सदैव विद्यमान नहीं रहते। आत्म तत्व भी अद्वितीय वस्तु है। उसकी पहचान स्वरूप और तटस्थ लक्षणों द्वारा कराई जाती है। सच्चिदानंद उसके आत्म स्वरूप का साक्ष्य है।
जिस रचना-काल में वह लक्षण रहता है, उसके समाप्त होने पर वह विलीन हो जाता है। अनित्य, अव्यक्त एवं अद्भभुत आदि बुद्धि लक्षण भी संसार-सापेक्ष हैं। अतः आत्म तत्व की खोज करने के लिए ध्यान में साधक को तटस्थ लक्षणों की सहायता से अनात्म तत्वों का अतिक्रमण करके अपने सत्-स्वरूप के निकट पहुंचकर उसमें आत्मगत चिंतन के द्वारा स्वरूप लक्षणों की खोज करनी चाहिए। पहले अपनी सत्ता का अनुभव करें, फिर उस सत्ता के स्वरूप में जो चेतना कार्य कर रही है, उसकी ओर ध्यान दें और तब उस चेतना-अनुभूति में होने वाले आनंद को समझें, उसका उपभोग करें। उस समय अनुभव होगा कि एकमात्र मैं ही, मेरी सत्ता ही चेतना स्वरूप है। चेतना और आनंद में कोई अंतर नहीं है—यह सब मानो एक-दूसरे के पर्याय हैं। इसके बाद इस चेतना की सीमा खोजने लगें तो वह असीम दिखाई देगी। अपने ही अंदर संपूर्ण विश्व का अनुभव होगा।
श्रुति वाक्यों के अनुसार चेतना ही सब कुछ है। नाम-रूप से न सही, तत्व रूप से रज्जु में सर्परूप में ब्रह्म ही है। जिसके आत्मा का अनुभव हो जाता है, वह अपने में ही सब कुछ देखता है। आत्मज्ञान हो जाने पर यह अनुभव होने लगता है कि मैं ही ब्रह्म हूं, मैं ही संपूर्ण चेतना हूं, जो सभी में व्याप्त है। उपनिषदों में कहा गया है—अहं ब्रह्माऽस्मि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं।
गंगा प्रसाद शर्मा
1
संतो की संगति
बहुआयामी जीवन जब तक दृढ़ बुद्धि का सहारा नहीं लेगा तब तक यह नहीं जान
पाएगा कि संतों की निष्काम मित्रता का अर्थ क्या है ? संत अच्छे मित्र कहे
जाते हैं क्योंकि उनका सान्निध्य कई तरह के सांसारिक क्लेशों से बचाकर
सत्य से जुड़ने की अभिलाषा जगाता है। जीवन यात्रा अपने में अद्भुत है।
कदम-कदम पर कई प्रकार के लोग मिलते हैं। यदि इस यात्रा में सच्चे साधु-संत
मिल जाते हैं तो जीवन धन्य हो जाता है। हमें सही जीवन जीने की प्रेरणा मिल
जाती है। लेकिन जब तक मन झूठे संसार में रमण करता रहेगा जब तक संतों से
प्रेम नहीं उत्पन्न होगा।
यदि हमें अपने जीवन में संतों का संग मिल जाए तो हमारा जीवन धन्य हो जाए उनका पथ-प्रदर्शन हमारे लिए कल्याणकारी बन जाए। यदि किसी संत के रूप में हमें सद्गुरु मिल जाएं तो सोने में सुहागा वाली बात चरितार्थ हो जाएगी। हमारी अटूट श्रद्धा और विश्वास देखकर सद्गुरु हमारे जीवन को परमात्मा की ओर मोड़कर हमारा उद्धार करेंगे।
कबीरदास ने कहा है कि संतों की संगति से अच्छा जीवन बीतेगा। बिगड़ा कार्य बन जाएगा। जीवन सुंदर होगा और भाग्य जग जाएगा। भक्त ध्रुव और प्रह्लाद ने संतों का संग किया। उनकी कृपा से उनका जीवन निहाल हो गया और वे भी जनमानस द्वारा याद किए जाते हैं। लोग उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। संतो का प्रेम निर्मल होता है। वे मोह की निद्रा में सोए हुए इंसान को भी जगा देते हैं। सच्चा संत परमात्मा से मिलता है तथा आत्मदर्शन कराता है। इसलिए संत ही मनुष्य के सच्चे मित्र हैं।
यदि हमें अपने जीवन में संतों का संग मिल जाए तो हमारा जीवन धन्य हो जाए उनका पथ-प्रदर्शन हमारे लिए कल्याणकारी बन जाए। यदि किसी संत के रूप में हमें सद्गुरु मिल जाएं तो सोने में सुहागा वाली बात चरितार्थ हो जाएगी। हमारी अटूट श्रद्धा और विश्वास देखकर सद्गुरु हमारे जीवन को परमात्मा की ओर मोड़कर हमारा उद्धार करेंगे।
कबीरदास ने कहा है कि संतों की संगति से अच्छा जीवन बीतेगा। बिगड़ा कार्य बन जाएगा। जीवन सुंदर होगा और भाग्य जग जाएगा। भक्त ध्रुव और प्रह्लाद ने संतों का संग किया। उनकी कृपा से उनका जीवन निहाल हो गया और वे भी जनमानस द्वारा याद किए जाते हैं। लोग उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। संतो का प्रेम निर्मल होता है। वे मोह की निद्रा में सोए हुए इंसान को भी जगा देते हैं। सच्चा संत परमात्मा से मिलता है तथा आत्मदर्शन कराता है। इसलिए संत ही मनुष्य के सच्चे मित्र हैं।
2
अध्यात्मवाद का व्यावहारिक स्वरूप
वर्तमान की समस्त समस्याओं का एक ही सहज-सरल निदान है—अध्यात्मवाद।
यदि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक—सभी क्षेत्रों में
अध्यात्मवाद का समावेश कर लिया जाए तो समस्त समस्याओं का समाधान साथ-साथ
होता चले तथा आत्मिक प्रगति के लिए अवसर एवं अवकाश भी बराबर मिलता रहे।
वस्तुतः विषयों में सर्वथा भौतिक दृष्टिकोण रखने से ही सारी समस्याओं का
सूत्रपात होता है। दृष्टिकोण में वांछित परिवर्तन लाते ही समस्त काम बनने
लगेंगे।
अध्यात्मवाद का व्यावहारिक स्वरूप है—संतुलन, व्यवस्था एवं औचित्य। शारीरिक समस्या तब पैदा होती है जब शरीर को भोग का साधन समझकर उसका उपयोग किया जाता है तथा आहार-विहार और रहन-सहन को विचारपरक बना लिया जाता है। इसी अनौचित्य एवं अनियमितता से रोग उत्पन्न होने लगते हैं और स्वास्थ्य समाप्त हो जाता है। विभिन्न प्रकार की शारीरिक समस्याओं का समाधान आसानी से निकल सकता है, यदि इस संदर्भ में दृष्टिकोण को आध्यात्मिक बना लिया जाए।
पवित्रता अध्यात्मवाद का पहला लक्षण है। यदि शरीर को पूरी तरह पवित्र और स्वच्छ रखा जाए तथा आत्म संयम एवं नियमितता द्वारा शरीर धर्म का पालन किया जाए तो शरीर पूरी तरह स्वस्थ बना रहेगा। ऐसे में शारीरिक संकट की संभावना ही नहीं रहेगी। वह सदा समर्थ और स्वस्थ बना रहेगा। शारीरिक स्वास्थ्य की अवनति या बीमारियों की चढ़ाई अपने आप नहीं होती वरन उसका कारण अपनी भूल है।
आहार में असावधानी, प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा और शक्ति का अपव्यय ही स्वास्थ्य में गिरावट के प्रधान कारण होते हैं। जो लोग अपने स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देते हैं और स्वास्थ्य के नियमों का ठीक-ठीक पालन करते हैं, वे सुदृढ़ एवं निरोग बने रहते हैं।
मनुष्य का मन शरीर से भी अधिक शक्तिशाली साधन है। इसके निर्द्वंद्व रहने पर मनुष्य आश्चर्यजनक रूप से उन्नति कर सकता है। किंतु यह खेद का विषय है कि आज लोगों की मनोभूमि बुरी तरह विकारग्रस्त बनी हुई है। चिंता, भय, निराशा, क्षोभ, लोभ एवं आवेगों का भूकंप उन्हें अस्त-व्यस्त बनाए रखता है। यदि इस प्रचंड मानसिक पवित्रता, उदार भावनाओं और मनःशांति का महत्व अच्छी तरह समझ लिया जाए तथा निःस्वार्थ, निर्लोभ एवं निर्विकारिता द्वारा उसको सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया जाए तो मानसिक विकास के क्षेत्र में बहुत दूर तक आगे बढ़ा जा सकता है।
इस प्रकार सुदृढ़ स्वास्थ्य, समर्थ मन, स्नेह-सहयोग, कार्य-कौशल, समुचित धन, सुदृढ़ दांपत्य, सुसंस्कृति संतान, प्रगतिशील विकास क्रम, श्रद्धा, सम्मान तथा सुव्यवस्थित एवं संतुष्ट जीवन का एक मात्र सुदृढ़ आधार अध्यात्म ही है। आत्म-परिष्कार से यह संसार भी परिष्कृत होता रहता है। अपने को ठीक कर लेने से आसपास के वातावरण को ठीक करने में देर नहीं लगती। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जो अपना सुधार नहीं कर सका और अपनी गतिविधियों को सुव्यवस्थित नहीं कर सका, उसका भविष्य अंधकारमय ही बना रहेगा। इसीलिए साधु, संतों और मनीषियों ने मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता उसकी अध्यात्मिक प्रवृत्ति को ही माना है
अध्यात्मवाद का व्यावहारिक स्वरूप है—संतुलन, व्यवस्था एवं औचित्य। शारीरिक समस्या तब पैदा होती है जब शरीर को भोग का साधन समझकर उसका उपयोग किया जाता है तथा आहार-विहार और रहन-सहन को विचारपरक बना लिया जाता है। इसी अनौचित्य एवं अनियमितता से रोग उत्पन्न होने लगते हैं और स्वास्थ्य समाप्त हो जाता है। विभिन्न प्रकार की शारीरिक समस्याओं का समाधान आसानी से निकल सकता है, यदि इस संदर्भ में दृष्टिकोण को आध्यात्मिक बना लिया जाए।
पवित्रता अध्यात्मवाद का पहला लक्षण है। यदि शरीर को पूरी तरह पवित्र और स्वच्छ रखा जाए तथा आत्म संयम एवं नियमितता द्वारा शरीर धर्म का पालन किया जाए तो शरीर पूरी तरह स्वस्थ बना रहेगा। ऐसे में शारीरिक संकट की संभावना ही नहीं रहेगी। वह सदा समर्थ और स्वस्थ बना रहेगा। शारीरिक स्वास्थ्य की अवनति या बीमारियों की चढ़ाई अपने आप नहीं होती वरन उसका कारण अपनी भूल है।
आहार में असावधानी, प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा और शक्ति का अपव्यय ही स्वास्थ्य में गिरावट के प्रधान कारण होते हैं। जो लोग अपने स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देते हैं और स्वास्थ्य के नियमों का ठीक-ठीक पालन करते हैं, वे सुदृढ़ एवं निरोग बने रहते हैं।
मनुष्य का मन शरीर से भी अधिक शक्तिशाली साधन है। इसके निर्द्वंद्व रहने पर मनुष्य आश्चर्यजनक रूप से उन्नति कर सकता है। किंतु यह खेद का विषय है कि आज लोगों की मनोभूमि बुरी तरह विकारग्रस्त बनी हुई है। चिंता, भय, निराशा, क्षोभ, लोभ एवं आवेगों का भूकंप उन्हें अस्त-व्यस्त बनाए रखता है। यदि इस प्रचंड मानसिक पवित्रता, उदार भावनाओं और मनःशांति का महत्व अच्छी तरह समझ लिया जाए तथा निःस्वार्थ, निर्लोभ एवं निर्विकारिता द्वारा उसको सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया जाए तो मानसिक विकास के क्षेत्र में बहुत दूर तक आगे बढ़ा जा सकता है।
इस प्रकार सुदृढ़ स्वास्थ्य, समर्थ मन, स्नेह-सहयोग, कार्य-कौशल, समुचित धन, सुदृढ़ दांपत्य, सुसंस्कृति संतान, प्रगतिशील विकास क्रम, श्रद्धा, सम्मान तथा सुव्यवस्थित एवं संतुष्ट जीवन का एक मात्र सुदृढ़ आधार अध्यात्म ही है। आत्म-परिष्कार से यह संसार भी परिष्कृत होता रहता है। अपने को ठीक कर लेने से आसपास के वातावरण को ठीक करने में देर नहीं लगती। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जो अपना सुधार नहीं कर सका और अपनी गतिविधियों को सुव्यवस्थित नहीं कर सका, उसका भविष्य अंधकारमय ही बना रहेगा। इसीलिए साधु, संतों और मनीषियों ने मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता उसकी अध्यात्मिक प्रवृत्ति को ही माना है
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लोगों की राय
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