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कविता संग्रह >> लिख सकूँ तो

लिख सकूँ तो

नईम

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :86
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5690
आईएसबीएन :81-263-0911-3

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प्रस्तुत हैं प्रकृति, सामयिक परिवेश और मानव सम्बन्धों की पृष्ठभूमि पर आधारित ये गीत...

Likh sakun to

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वरिष्ठ गीतकार नईम के गीतों में हमारे समाज की अभिलाषाएँ और विसंगतियाँ स्पष्ट साँस लेती हैं। उन्हें वे मृदुल भाव से मार्मिक अभिव्यक्ति देते हैं। नईम के गीत पाठक को गहराई से सोचने को बाध्य करते हैं। दिल की बातों को दिमाग तक पहुँचाने की कला में कुशल नईम के सहज से दिखने वाले गीत पढ़ने के बाद उतने सहज प्रतीत नहीं होते, वे बेचैन कर देते हैं। उनके गीतों का प्रभाव लम्बे समय तक बना रहता है।

नईम के गीतों में छन्द का कठोर, अनुशासन भले ही न मिलता हो, पर उनमें निहित लय की अनदेखी नहीं की जा सकती। लय से ही वे छन्द का वितान रचते हैं और उसे सम्प्रेषणीय बनाते हैं। सामाजिक पक्षधरता भी नईम के गीतों को प्रासंगिक बनाती है। उनके गीतों में प्रयुक्त कविता के उपादन ठेठ देसी होते हैं, जो कविता में नयी दीप्ति भरने के साथ पाठकों से रागात्मक सम्बन्ध बनाने में भी उपयोगी होते हैं। परम्परागत बिम्बों की निर्मिति को आधुनिक मनःस्थिति के साथ जोड़कर प्रस्तुत करने में उनका मौलिकस्वरूप देखा जा सकता है।

प्रकृति सामयिक परिवेश और मानव सम्बन्धों की पृष्ठभूमि पर रचित इन गीतों में एक अनोखा आस्वाद है और जीवन के प्रति ललक भी। इसमें सन्देह नहीं कि इन्हें पढ़ते हुए पाठक इनके साथ अपने को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे।
वरिष्ठ गीतकार नईम का नवीनतम गीत-संग्रह प्रकाशित करते हुए ज्ञानपीठ को प्रसन्नता है।


लिख सकूँ तो—



लिख सकूँ तो—
प्यार लिखना चाहता हूँ,
ठीक आदमजात सा
बेखौफ़ दिखना चाहता हूँ।

थे कभी जो सत्य, अब केवल कहानी
नर्मदा की धार सी निर्मल रवानी,
पारदर्शी नेह की क्या बात करिए-
किस क़दर बेलौस ये दादा भवानी।

प्यार के हाथों
घटी दर पर बज़ारों,
आज बिकना चाहता हूँ।

आपदा-से आये ये कैसे चरण हैं ?
बनकर पहेली मिले कैसे स्वजन हैं ?
मिलो तो उन ठाकुरों से मिलो खुलकर—
सतासी की उम्र में भी जो ‘सुमन’ हैं

कसौटी हैं वो कि जिसपर-
नेह के स्वर
ताल यति गति लय
परखना चाहता हूँ।


**********************

कुछ भी तो अब
तन्त नहीं है-
ऊपरवाले की लाठी में।

दीमक चाट गयी है शायद-
ये भी ऊपरवाला जाने,
भुस में तिनगी जिसने डाली-
वही जमालो खाला जाने।

हम तो खड़े हुए हैं
घर के
पानीपत हल्दीघाटी में।

दो ही दिन में बासी
लगने लगते हैं परिवर्तन
प्रगतिशील होकर आते
घर-घर में अब ऋण।

अपने को
रूँधा कुम्हार सा,
कस ही नहीं रहा माटी में।

श्रृद्धापक्ष ही नहीं, किन्तु अब
उनकी बारहमास छन रही,
पात्र-कुपात्र न देखे भन्ते !
कच्ची, क्वाँरी कोख जन रही।

तेल नहीं रह गया
हमारी
परम्परा औ’ परिपाटी में।


**********************

करतूतों जैसे ही सारे काम हा गये,
किष्किन्धा में

लगता अपने राम खो गये।

बालि और वीरप्पन से कुछ कहा न जाये,
न्याय माँगते शबरी, शम्बूकों के जाये।
करे धरे सब हवन-होम भी

हत्या और हराम हो गये।

स्वपनों, सूझों की जड़ में ही ज्ञानी मट्ठा डाल रहे हैं,
 अपने ही हाथों अपनों पर कीचड़ लोग उछाल रहे हैं।
जनपदीय क्षत्रप कितने ही

आज केन्द्र से वाम हो गये।

देनदारियों की मत पूछो, डेवढ़ी बैठेंगी आवक से,
शायद इसीलिए प्रभु पीछे पड़े हुए हैं मृगशावक के।
वर्तमान रिस रहा तले से,

गत, आगत बदनाम हो गये।


**********************

हो न सके खुलकर अपनों से,
वो भी कब किसके हो पाये ?

बीच धार में खड़े हुए हम
विकट ज़िन्दगी का ये मंजर,
पार उतरना, किन्तु डर रहे,
ढीले-ढाले अंजर-पंजर।
ख़ौफ़नाक हमले सपनों के,

नींद न हम अपनी सो पाये।

हो न सके हम पूत ठीक से,
पिता न हो पाये करीब से।
रिश्ते भी क्या रिश्ते होते,
महँगाई में इस ग़रीब के ?

मोल नहीं जाने वचनों के
अपने बोझ न हम ढो पाये।

इनसे भी क्या गिला करें हम,
उनकी भी अपनी मजबूरी।
मिली कहाँ अब तक इन उनकी,
मेहनत की वाज़िब मज़दूरी ?
सोच-समझकर सौ जतनों से
दाग़ न हम अपने धो पाये।

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